27 फरवरी 1931, स्थान अल्फ्रेड पार्क, इलाहाबाद। हिंदुस्तान रिपब्लिकन असोसिएसन के सदस्य पंडित जी उर्फ चंद्रशेखर आज़ाद और साथी सुखदेवराज पार्क में बैठे अपने दूसरे साथियों का इंतज़ार कर रहे थे। काकोरी कांड और पंजाब के सुपरिंटेंडेंट जॉन सॉन्डर्स की हत्या के बाद आज़ाद और उनके साथी ब्रिटिश सरकार की आंखों का कांटा बने हुए थे। आज़ाद के एक पूर्व साथी की गुप्त सूचना मिलते ही कि आज़ाद अल्फ्रेड पार्क में मौजूद हैं, पुलिस से चारों ओर से पार्क को घेर लिया। फिर क्या? ब्रिटिश पुलिस के आज़ाद को आत्मसमर्पण करवाने का कोई प्रयास नही किया क्योंकि वे भी जानते थे कि आज़ाद और आत्मसमर्पण एक वाक्य में जंचते नहीं। दोनों ओर से गोलियां चलने लगी। आज़ाद के कोल्ट रिवाल्वर से निकली गोलियों ने तीन सिपाहियों को वहीं ढेर कर दिया। ब्रिटिश पुलिस की तरह से चली एक गोली आज़ाद की जांघ में जा लगी, जिससे उनका वहाँ से निकल भाग पाना असंभव हो गया। आज़ाद ने इतना जरूर पक्का किया कि साथी सुखदेव वहां से सुरक्षित निकल सकें। 23 साल का एक युवा जिसने देश को आज़ाद करने का बीड़ा उठा लिया था, अपने पूरे जोश और हिम्मत से एक शेर की तरह लड़ता रहा। चंद्रशेखर के पास जोश और देशप्रेम का भले अक्षय भंडार हो, उनके पास गोलियों का भंडार सीमित ही था। वो वक़्त भी आया जब आज़ाद के पास सिर्फ एक गोली बची। जिसने अपने प्राण माँ भारती को पहले ही समर्पित कर दिये थे, और आज़ाद जिसका सिर्फ नाम नहीं बल्कि जीवन प्रण था, उस बावले ने अपनी आखिरी गोली अपने आप को मार ली। कहते हैं कि आज़ाद के मृत शरीर के पास आने की भी हिम्मत पुलिस में नहीं हुई, और उनके मृत शरीर के पास जाने से पहले उन्हें दुबारा गोली मारी गई यह सुनिश्चित करने के लिए कि वो सचमुच मर गये हैं।
भगत सिंह जब जेल में थे तब उनके साथियों ने उनको संदेश भेजा कि उनको छुड़ाने के पूरे पुख्ता इंतज़ाम हो चुके हैं। भगत सिंह ने कहा कि उनको छुड़ाने का प्रयास न किया जाये क्योंकि एक भगत सिंह की शहादत हज़ारों भगत सिंह को प्रेरित करेगी।
महाभारत के युद्ध से पहले पुत्र मोह के वशीभूत देवराज इंद्र अपने अंश अर्जुन की प्राणरक्षा हेतु याचक ब्राह्मण बन कर्ण के पास जा पहुंचे। उन्होंने कर्ण से उनका कवच कुंडल मांग लिया। यह जानते हुए भी कि कवच कुंडल का दान अपने प्राणों की आहुति देने के समान है, कर्ण ने बिना एक भी पल विलंब किये, अपने कवच कुंडल याचक बने इंद्र को दान में दे दिया।
यह सच है कि जीवन प्रकृति का सबसे अनुपम उपहार है। जीवन है तो समस्त संभावनाएं हैं। लेकिन उपरोक्त के सारे उद्धरणों में नायक अपने जीवन का बलिदान कर निश्चित मृत्यु का संवरण करता है। साधारण शब्दार्थ देखें तो जीवन का स्वयं अंत करना आत्महत्या है, और आत्महत्या बहुधा कायरता का पर्याय मानी जाती है। प्रश्न यह है कि क्या आज़ाद, भगत और कर्ण का जीवन बलिदान आत्महत्या और कायरता मानी जायेगी?
शायद नहीं। चाहे आज़ाद हों, या कर्ण या चाहे भगत सिंह हों, उन्होंने अपने मृत्यु को अंगीकार इसलिए किया क्योंकि वो जानते थे कि अगर वो इस मृत्यु को स्वीकार न करते तो उनका जीवन लक्ष्य शायद अधूरा रह जाता। अंग्रेजों के बंदी बन चंद्रशेखर जीवित तो रहते पर आज़ाद ना कहलाते। कवच कुंडल का दान न देकर कर्ण अवश्य जीवित रहते पर दानवीर का उपाधि उन्हें न मिलती।
समसामयिक काल में रानी पद्मिनी या पद्मावती के जौहर को आत्महत्या, कायरता और पुरुषवादी सोच से जोड़ कर दिखाया जा रहा है। ऐसे तर्क दिए जा रहे हैं कि स्त्री का सम्मान जीवन से ज्यादा बहुमूल्य नहीं है। कुछ तथाकथित उदारवादी लोग पद्मावती को नायिका मानने को सती प्रथा को उचित ठहराने के जैसा मान रहे हैं।
सारे तर्क इस बात पर निर्भर हैं कि जीवन सर्वोपरि है और कोई भी चीज़ जीवन से बहुमूल्य नहीं हो सकती। यह सच है कि जीवन सर्वोपरि है किन्तु जीवन क्या मात्र सांसो का चलना और अपनी जैविक लीला को जारी रखने का नाम है। अगर किसी जीवन का उद्देश्य सिर्फ जीवित रहना है तो वो जीवन, मनुष्य जीवन कहलाने के लायक नही है। जीवन बिना सम्मान ,उद्देश्य या सिद्धांतों के मृत्यु से भी निकृष्ट है।
एक माउथ ऑर्गन बजाने वाले बहुत बड़े कलाकार को गले का कैंसर हो गया। डॉक्टरों ने सलाह दी कि आप अपने गले का ऑपरेशन करवा लें तो शायद बच जाएं, लेकिन आपरेशन के बाद आप माउथ ऑर्गन कभी नही बजा पाएंगे। उस कलाकार ने कहा कि संगीत और माउथ ऑर्गन उनके लिये उनका जीवन है। उसके बिना वो अपने जीवन की कल्पना नही कर सकते, इसलिए वो सब तक जिएंगे अपने वाद्य और संगीत के साथ जिएंगे। क्या आप उस कलाकार को कायर कहेंगे और उसको सम्मान नही देंगे?
यही बात रानी पद्मावती के बारे में भी लागू होती है। खिलजी के हरम में एक बांदी और एक जिस्म बन कर रह जाने को आप जीवन मान सकते हैं, रानी पद्मिनी ने नही माना। इसीलिये आज रानी पद्मिनी नारी सम्मान की प्रतिमूर्ति हैं। झांसी की रानी के सलाहकार आज के उदारवादी लोग होते तो लक्ष्मी बाई अंग्रजों के सामने समर्पण कर जीवित रहती और कभी वीरांगना न कहलाती।
जीवन सिर्फ भौतिक नहीं है और मृत्यु के मायने भी सिर्फ भौतिक नहीं है। जीवन तब तक है जब तक आपके सिद्धान्त जीवित हैं। अगर आपके सिद्धांत जीवित हैं तो दैहिक शरीर का अंत भी आपकी मृत्यु नही हो सकती। जीवन रक्षा अगर सिद्धांतों की रक्षा से ऊपर का सिद्धांत होता तो जटायु एक पक्षी होकर दशानन से युद्ध न कर बैठता। भक्तराज जटायु आज अमर इसलिये हैं क्योंकि उन्होंने अपने सिद्धान्त को अपने जीवन से मूल्यवान समझा। अगर हर हाल में जीवित रहना ही सबसे बड़ा गुण होता तो तिलचट्टे पृथ्वी के सबसे सम्मानित जीव होने चाहिए। तिलचट्टे डायनासोर से भी पुराने समय से धरती पर हैं और परमाणु युद्ध के बाद भी जीवित रहेंगे। हमारे उदारवादी एक तिलचट्टे को पद्मावती से ज्यादा सम्मान देने को तैयार हो सकते हैं पर मेरा मन नही मानता।
भगत सिंह जब जेल में थे तब उनके साथियों ने उनको संदेश भेजा कि उनको छुड़ाने के पूरे पुख्ता इंतज़ाम हो चुके हैं। भगत सिंह ने कहा कि उनको छुड़ाने का प्रयास न किया जाये क्योंकि एक भगत सिंह की शहादत हज़ारों भगत सिंह को प्रेरित करेगी।
महाभारत के युद्ध से पहले पुत्र मोह के वशीभूत देवराज इंद्र अपने अंश अर्जुन की प्राणरक्षा हेतु याचक ब्राह्मण बन कर्ण के पास जा पहुंचे। उन्होंने कर्ण से उनका कवच कुंडल मांग लिया। यह जानते हुए भी कि कवच कुंडल का दान अपने प्राणों की आहुति देने के समान है, कर्ण ने बिना एक भी पल विलंब किये, अपने कवच कुंडल याचक बने इंद्र को दान में दे दिया।
यह सच है कि जीवन प्रकृति का सबसे अनुपम उपहार है। जीवन है तो समस्त संभावनाएं हैं। लेकिन उपरोक्त के सारे उद्धरणों में नायक अपने जीवन का बलिदान कर निश्चित मृत्यु का संवरण करता है। साधारण शब्दार्थ देखें तो जीवन का स्वयं अंत करना आत्महत्या है, और आत्महत्या बहुधा कायरता का पर्याय मानी जाती है। प्रश्न यह है कि क्या आज़ाद, भगत और कर्ण का जीवन बलिदान आत्महत्या और कायरता मानी जायेगी?
शायद नहीं। चाहे आज़ाद हों, या कर्ण या चाहे भगत सिंह हों, उन्होंने अपने मृत्यु को अंगीकार इसलिए किया क्योंकि वो जानते थे कि अगर वो इस मृत्यु को स्वीकार न करते तो उनका जीवन लक्ष्य शायद अधूरा रह जाता। अंग्रेजों के बंदी बन चंद्रशेखर जीवित तो रहते पर आज़ाद ना कहलाते। कवच कुंडल का दान न देकर कर्ण अवश्य जीवित रहते पर दानवीर का उपाधि उन्हें न मिलती।
समसामयिक काल में रानी पद्मिनी या पद्मावती के जौहर को आत्महत्या, कायरता और पुरुषवादी सोच से जोड़ कर दिखाया जा रहा है। ऐसे तर्क दिए जा रहे हैं कि स्त्री का सम्मान जीवन से ज्यादा बहुमूल्य नहीं है। कुछ तथाकथित उदारवादी लोग पद्मावती को नायिका मानने को सती प्रथा को उचित ठहराने के जैसा मान रहे हैं।
सारे तर्क इस बात पर निर्भर हैं कि जीवन सर्वोपरि है और कोई भी चीज़ जीवन से बहुमूल्य नहीं हो सकती। यह सच है कि जीवन सर्वोपरि है किन्तु जीवन क्या मात्र सांसो का चलना और अपनी जैविक लीला को जारी रखने का नाम है। अगर किसी जीवन का उद्देश्य सिर्फ जीवित रहना है तो वो जीवन, मनुष्य जीवन कहलाने के लायक नही है। जीवन बिना सम्मान ,उद्देश्य या सिद्धांतों के मृत्यु से भी निकृष्ट है।
एक माउथ ऑर्गन बजाने वाले बहुत बड़े कलाकार को गले का कैंसर हो गया। डॉक्टरों ने सलाह दी कि आप अपने गले का ऑपरेशन करवा लें तो शायद बच जाएं, लेकिन आपरेशन के बाद आप माउथ ऑर्गन कभी नही बजा पाएंगे। उस कलाकार ने कहा कि संगीत और माउथ ऑर्गन उनके लिये उनका जीवन है। उसके बिना वो अपने जीवन की कल्पना नही कर सकते, इसलिए वो सब तक जिएंगे अपने वाद्य और संगीत के साथ जिएंगे। क्या आप उस कलाकार को कायर कहेंगे और उसको सम्मान नही देंगे?
यही बात रानी पद्मावती के बारे में भी लागू होती है। खिलजी के हरम में एक बांदी और एक जिस्म बन कर रह जाने को आप जीवन मान सकते हैं, रानी पद्मिनी ने नही माना। इसीलिये आज रानी पद्मिनी नारी सम्मान की प्रतिमूर्ति हैं। झांसी की रानी के सलाहकार आज के उदारवादी लोग होते तो लक्ष्मी बाई अंग्रजों के सामने समर्पण कर जीवित रहती और कभी वीरांगना न कहलाती।
जीवन सिर्फ भौतिक नहीं है और मृत्यु के मायने भी सिर्फ भौतिक नहीं है। जीवन तब तक है जब तक आपके सिद्धान्त जीवित हैं। अगर आपके सिद्धांत जीवित हैं तो दैहिक शरीर का अंत भी आपकी मृत्यु नही हो सकती। जीवन रक्षा अगर सिद्धांतों की रक्षा से ऊपर का सिद्धांत होता तो जटायु एक पक्षी होकर दशानन से युद्ध न कर बैठता। भक्तराज जटायु आज अमर इसलिये हैं क्योंकि उन्होंने अपने सिद्धान्त को अपने जीवन से मूल्यवान समझा। अगर हर हाल में जीवित रहना ही सबसे बड़ा गुण होता तो तिलचट्टे पृथ्वी के सबसे सम्मानित जीव होने चाहिए। तिलचट्टे डायनासोर से भी पुराने समय से धरती पर हैं और परमाणु युद्ध के बाद भी जीवित रहेंगे। हमारे उदारवादी एक तिलचट्टे को पद्मावती से ज्यादा सम्मान देने को तैयार हो सकते हैं पर मेरा मन नही मानता।
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