Tuesday, July 31, 2018

यह मछली की गंध नही है।

यह मछली की गंध नही है।

यह गंध है उस मौत की जो आपने अपने जाल में फंसा कर उसको बक्शी है। नदी में स्वच्छंद विचरती मछली से बास नहीं आती, बास आती है जब वही स्वच्छन्दता आपकी भूख मिटाने के लिये बिछाये जाल में फंस कर आपके जंग लगे बटखरों के साथ किलो के भाव से बिकने को बाज़ार पहुंच जाती है। यह गंध आपने उसको दी है उसका पानी छीन कर। यह गंध आई है मछली में आपके निष्ठुर हाथों से जब आपके हाथों ने उसके अधमरे गलफड़ों को खोल कर देखा कि मछली की लाश ताज़ी है या बासी हो चली है। नाक पर रुमाल रख कर मछली बाज़ार में घूमने का यह नाटक क्यों जब यह मौत का बाजार आपने ही सजाया है। अगर मछली न मरे तो तुम भूखे मरोगे और यकीन मानो तुम्हारी लाश को कोई दो कौड़ी फी किलो के भाव से भी न खरीदेगा। तुम्हारी कहावतें सुनी थी मैने तुम्हारे जाल में फसने के समय। वो क्या कहते हो तुम कि बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है!! अगर यह मत्स्य न्याय है तो पूरे तालाब को गंदा करने, सारी मछलियों को पकड़ कर खाने और उसी तालाब को मिट्टी भर कर अपने भवन बनाने को क्या आदम न्याय कहना चाहिये।

तुम्हारी गंध जीते जी मरी मछली की गंध से कहीं ज्यादा घृणास्पद है लेकिन वो तुम्हें पता नही चलेगा क्योंकि तुम उसके आदी हो चुके हो। हाँ जब वही गंध तुम्हारे संसर्ग में आने के बाद मछली में आ गयी है तो तुम नाक भौं सिकोड़ रहे हो। अगर मत्स्यगंधा एक गाली है तो मनुष्यगन्धा क्या होगी खुद सोच लो। जब अगली बार मछली बाज़ार की सडांध तुम्हें परेशान करे तो याद रखना कि यह तुम्हारी अपनी गंध है जो तुम्हारी दुनिया में आने पर मुझे मिली है।

यह मछली की गंध नही है।


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