Wednesday, July 11, 2018

‌मैं शहर हूँ

मैं शहर हूँ। कोई मुझे विलासी कहता है, कहते हैं कि मैं अपनी जड़ों को भूल बैठा हूँ, खो गया हूँ अपनी रंगीनियों में, पसंद आने लगी हैं मुझे चमक दमक और दिखावा। जरूरत से ज्यादा खर्चता हूँ, जरूरत से कम बचाता हूँ। जी चाहता है कि कभी फुर्सत में इन बातों के जवाब दूं, लेकिन शायद जवाब देना मेरी फितरत में नहीं है। वक्त भी नहीं मिलता कि इन बातों का जवाब दे सकूँ। मोहनजोदारो से लेकर गुडगाँव तक, दमिश्क से लेकर काशी तक आज तक के सफर में सांस लेने की फुर्सत तक नहीं मिली। सोचा अगर वक़्त इन सवालों के जवाब देने के लिए रुका, तो उन हज़ारों सपनों के गट्ठर को उतार वास्तविकता के कठोर धरातल पर रखना होगा, जिन्हें मिलाकर ही मैं शहर बना हूँ। बच्चों के सुनहरे भविष्य का सपना, एक घर का सपना, दुनिया का बादशाह बनने का सपना, ऐसे हज़ारों सपनो को अपने साथ सहेज कर चलता हूँ। उन सपनो को ठेस न लगे, सारा वक्त उनको पूरा करने में ही लगे इसीलिए तो अनवरत चला जाता हूँ। हर रोज़ कुछ सपने पूरे होते हैं तो इससे पहले कि मुस्कुरा सकूँ, देखता हूँ हज़ारों नए सपने अपने सर पर उम्मीद की पोटली लिए मेरे दरवाज़े पर खड़े हैं। फिर उन सपनो भरी आँखों में उम्मीद की एक किरण जलाने के लिए खुद को जलाता हूँ पर शायद ही किसी को वापस भेजता हूँ।



‌गांव की धरती अपनी छाती फाड़कर अन्न उपजाती है तो उसका गुणगान करने वाले बहुतेरे हैं। पर अपने सीने पर सपनो से भी ऊंची ऊंची अट्टालिकाओं को उठाये मैं भी चल रहा हूँ पर मैंने कभी उफ़ तक नहीं की, न ही किसी से धन्यवाद की अपेक्षा की। चाहता तो गांव की तरह ताज़ी हवा में घूम सकता था, पर सपनो की ऊंची उड़ान के लिए जरूरी इन ऊंची चिमनियों के साये में जीने का फैसला किया। परिवार के बच्चे अगर आँगन में खेल पा रहे हैं तो यह भी तय है कि कोई रसोई की गरमी और धुएँ में बैठा कोई खाना पका रहा है। मेरा भी जी करता है कि गांव के बड़े से चौबारे और आसमान से बड़े आँगन में खेलूं लेकिन फिर भी वन बी एच के के बंद दायरे में आपने आप को समेट रखा है ताकि गांव के चौबारे के बच्चों के लिए कुछ खिलौने भेज सकूँ। किसका जी नहीं चाहता कि रसोई में बैठ तवे से उतरी गरमागरम फुल्के साग के साथ खाऊं, फिर भी अख़बार में लपेटी बासी पूरी और सब्जी खाकर खुश हूं ताकि घर का चूल्हा ठंढा न पड़े।

‌मैं शहर हूँ । सब कहते हैं कि तेरे पास दिल नहीं है, पत्थर दिल हो गया हूँ मैं , कैसे कहूँ कि मैं उस सैनिक सा हूँ जो सीने पर गोलियां खा कर आह नहीं करता पर गांव से आयी एक प्यार की पाती पढ़ कर रो पड़ता है। एक सैनिक की तरह मैं जागता हूँ चौबीसों घंटे। हर रात की ये तेज़ रोशनियां कोई दीवाली नहीं बल्कि हवन कुंड की वह लौ है जिसको अखंड और अक्षुण्ण रखने के लिए मैंने खुद को झोंक रखा है। मेरे सीने पर रेंगती दौड़ती यह हज़ारों गाड़ियां जिन्हें हमेशा कहीं पहुँचने की जल्दी होती है, देर होने पर झुंझलाती है, चिल्लाती हैं, मुझे कोसती हैं पर फिर भी इनके नखरों का बोझ उठाता हूँ। आखिर जीवन की राह पर तेज दौड़ने का सपना भी तो मैंने ही दिखाया था। यह सारी गाड़ियां भी मैंने ही दिलायी थी उन्हें कुछ छोटे सपने पूरे होने पर ताकि वो अपने बड़े सपनों की तरफ और तेज़ी से दौड़ सकें।

‌मेरी कहानी तब शुरू होती है जब मानव ने जन्म भोजन मैथुन और मृत्यु के चक्र को तोड़ कुछ अलग करने की कोशिश शुरू की। दुनिया की कहानी वास्तव में मेरी ही कहानी तो है। जब जब मानव ने कुछ अलग करने की कोशिश की, मैं किसी न किसी रूप में मानव का साथ दिया। मानव क्या भगवन कृष्ण भी जब मथुरा को छोड़ चले तो मैंने ही द्वारका बन उनका स्वागत किया। द्यूतक्रीड़ा में पराजित पांडव जब हस्तिनापुर से निकाले गए तो इंद्रप्रस्थ बन मैं ही उनकी राजधानी बना। अगर मैंने पाटलिपुत्र के रूप में मगध साम्राज्य का चरम ऐश्वर्य देखा है तो मैंने ही हिरोशिमा और नागासाकी के रूप में दुनिया की सबसे बड़ी तबाही का मंज़र भी देखा है । लखनऊ के रूप में अगर मैंने नवाब वाजिद अली शाह की विलासिता और सुख देखे हैं, तो लखनऊ छोड़ जाते उसका 'बाबुल मोरा नैहर छूटो जाए' वाला क्रंदन सुन उसके साथ रोया भी हूँ। कराची के रूप में जब मुझे छोड़ लोग अंदरूनी मुल्क ईद मनाने को जा रहे थे, तब मेरे चेहरे पर अगर एक मुस्कान आयी तो बंटवारे की विभीषिका में लाहौर की तरह जला भी हूँ।

सारी मुसीबतों को सह कर सारी विपरीत परिस्थितियों पर इंसान के शह की दास्ताँ हूँ मैं, इसलिए शहर हूँ मैं।

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