Wednesday, July 11, 2018

कोलकाता स्तोत्र

भारत के प्रगतिशील और भविष्योन्मुखी शहरों में कोलकाता को आजकल शायद ही शुमार किया जाता है । कोलकाता की छवि न ही बैंगलोर की तरह सिलिकॉन वैली की तरह है, न ही मुम्बई की तरह आर्थिक राजधानी की तरह। ना ही कोलकाता में गुडगाँव की तरह जल्दी से आगे बढ़ने की होड़ दिखती है न ही दिल्ली वाला 'जानता है मेरा बाप कौन है' वाला टशन। कभी कभी तो ऐसा लगता है कि कोलकाता की हालत बच्चों के लिए बनी फिल्मों के उस पात्र की तरह है जो टाइम मशीन का इस्तेमाल कर भविष्य में पहुँच गया है, अपनी पुरानी ढंग और रीतिरिवाज लेकर। जहाँ मुम्बई और अहमदाबाद बुलेट ट्रेन का इंतज़ार कर रहे हैं, कोलकाता अपने 10 किलोमीटर प्रति घंटा वाले ट्राम के साथ खुश है। मुम्बई में जीवन अगर पहाड़ों में बहती तेज नदी के जैसी है तो कोलकाता किसी शांत सरोवर सा प्रतीत होता है। आपको राफ्टिंग का शौक हो तो तो आपको मुम्बई मुबारक, लेकिन कमल के खिले फूल और उसके पास तैरते हंस देखने की इच्छा रखने वालों के लिए कोलकाता ही है। दिल्ली मुम्बई वालों को अक्सर कहते सुना है, यू नो डूड, दिस सिटी इज ए बीस्ट। हाँ कोलकाता भी एक बीस्ट है लेकिन बाघ की तरह खूंखार और लोमड़ी की तरह चालाक नहीं । कोलकाता उस शांत हाथी सा बीस्ट मालूम होता है जिसपर बैठ कर बच्चे पिकनिक मानते और फोटो खिंचवाते हैं। यह अलग बात है कि हाथी की किस्मत बहुत अच्छी नहीं है , उसके महावत ने उसके दांत तक काट कर बेच लिये हैं और । महावत हाथी को खाना भी ठीक से नहीं देता शायद यह सोच कर कि मर भी गया तो नौ लाख में बेच लूंगा।

शायद कोलकाता एक शहर ही नहीं है। यह एक बड़ा सा गांव है जिसके कुछ लोगों ने शहर से ख़रीदे कपडे पहन लिए हैं। शहरी लोगों वाला उतावलापन इधर नहीं है, हाँ पर इसको आलस्य मानने की गलती मत करियेगा। चीता हाथी से तेज चले इसका मतलब यह नहीं कि हाथी आलसी है और चीता बिल्कुल आलसी नहीं। यह दोनों का स्वभाव है। कोलकाता में कोई एक मैच हो जाए तो हजारों की भीड़ उमड़ पड़ती है। मैं ईडन गार्डन की तो बात भी नहीं कर रहा , हज़ारों की भीड़ के लिए मोहन बागान और ईस्ट बंगाल का एक मैच काफी है। जिस तरह गांव में हो रहा एक छोटा सा दंगल पूरे गांव को आकर्षित कर लेता है और 5 स्टार होटल में गाना गाते सोनू निगम के सामने लोग अपने खाने का आर्डर और सिप करते हुए शैम्पेन की बातें करते रहते हैं। खाली दर्शक दीर्घा के सामने खेलते खिलाड़ियों का दृश्य, जो अन्य शहरों में अति सामान्य है, कोलकाता में शायद ही दिखे। यहाँ के लोग खेल को इतना प्यार करते हैं कि खिलाडी अपना न भी हो तो भी गोद ले लेते हैं। कोलकाता वासियों का प्यार सिर्फ सौरव के लिए नहीं है, इन्होंने अज़हर, लक्ष्मण और अब रोहित को भी उतना ही प्यार दिया है। अपने देश के खिलाड़ियों को छोड़िये, ब्राज़ील की पूरी फुटबॉल टीम को जितना प्यार कोलकाता वासी करते है, वह शायद साओ पाओलो की सड़कों पर भी न दिखे। लोगों का अपनापन तो देखिये, दिल्ली मुम्बई में भैया शब्द गाली है, और कोलकाता में दादा प्यार का संबोधन।

कोलकाता का जिक्र हो और दुर्गापूजा की बात न की जाए यह कुछ ऐसा है मानो ऋतुओं वाले किताब से वसंत वाला अध्याय निकाल दिया जाए। कोलकाता में शायद दूसरे शहरों जैसा पैसा न हो, लेकिन ये चीज़ शायद कभी इस उत्सव में बाधक बनी हो। कोलकाता वासी दुर्गापूजा का उत्सव कुछ ऐसे मनाते हैं जैसे कोई बाप अपनी एकलौती प्यारी बेटी का विवाह कर रहा हो। वही उमंग, वही क्षमता से कहीं बढ़चढ़कर सब कुछ लुटा देने वाला भाव। और हाँ कोलकाता भी उस समय किसी नवयौवना दुल्हन सी ही तो दिखती है।

आजकल किसी चीज़ को नीचा दिखाने के लिए एक विशेषण का प्रयोग किया जाता है। गरीबों का अलां , गरीबों का फलां। कोई लड़की ज्यादा सुन्दर हो लेकिन छोटे मध्यम वर्ग से हो तो बोल दो गरीबों की ऐश्वर्या राय। कोई ट्रैन पूरी वातानुकूलित हो लेकिन किराया फिर भी कम हो तो बोल दो गरीब रथ। कोई कार मिडिल क्लास के लिए बनाई गयी तो बोल दो गरीबों की कार। लेकिन आप अगर कोलकाता को गरीबों का शहर कहें तो मैं इसे और गाली नहीं एक तमगा मानता हूँ। बाकी शहरों में रहने वाले गरीब वास्तव में शहर में नहीं रहते। दूरदराज़ के इलाकों से आते हैं दिनभर मजदूरी कर वापस आस पास के छोटे सैटेलाइट शहरों को लौट जाते हैं। मुम्बई के कुलावा के 15 किलोमीटर के दायरे में कितने गरीब होंगे? कोलकाता में गरीब शहर के निवासी है, किसी उद्योगपति की भांति। अन्य शहर जैसे किसी पॉश इलाके के बंगला हैं जहाँ नौकरों के लिए अलग सर्वेन्ट रूम बने होते हैं, कोलकाता मानो माँ का वह आँचल है जिसमें उसके हर बच्चे को छाँव मिलती है।
हाँ कोलकाता तरक्की कर रहा है, रफ़्तार थोड़ी धीमी जरूर है। कोई प्रौढ़ जब नए स्मार्ट फ़ोन और गैज़ेट को इस्तेमाल करने में झिझके तो उसका मजाक उड़ाने वाले युवा को भी यह पता होता है कि यह सब चलाना कोई बड़ा तीर मारना नहीं है। बस कुछ समय की बात है। वरना प्रतिभा बाकी शहरों की हवा में ऐसा कोई तत्त्व नहीं की वहां के लोग ज्यादा प्रतिभाशाली और उद्यमशील हों और कोलकाता वासी ना हों।

कोलकाता के साथ एक मानव अनुभूति अभिन्न रूप से जुडी है। वो मानव अनुभूति है मिठास। चाहे यहाँ की भाषा बांग्ला हो या यहाँ के सोंदेश और रसगुल्ले। रसगुल्ले शायद ओडिशा की धरती पर बने हों पर उसे पूरी तरह आत्मसात बंगाल ने ही किया है। बांग्ला भाषा हो या रवीन्द्र संगीत, मिठास का स्वाद सब जगह है। कदाचित् इस मिठास का ही एक प्रमाण है कि कोलकाता के निकटवर्ती जंगल को भी सुंदरबन का नाम मिल गया है|अपने कोलकाता की संस्कृति में इतनी मिठास है कि यहाँ पर ईश्वर का रूप भी रूद्र न होकर मृदुल है। एक विदेशी नर्स को भी माँ का दर्ज़ा देने वाला शहर कोलकाता ही हो सकता है| अपने इष्ट को माँ के रूप पूजने से ज्यादा मिठास वाली बात क्या हो सकती है।

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