वे बस… जीते रहते हैं—
एक लंबा, अनथक जीवन,
जिसमें मृत्यु
भी एक विलास है।
भीष्म की तरह
वे उठाए रहते हैं
भाइयों का भार।
अंबा का शाप
उनके भीतर धड़कता है।
अर्जुन के बाण
रक्त से नहीं,
समय से घायल करते हैं।
वे सहते हैं —
वृहन्नला का अपमान,
लक्षगृह की आग,
अभिमन्यु का न लौटना।
धर्म —
उनके हाथ में एक कसक है,
जिससे वे द्रोण को छलते हैं,
और सिर झुकाकर
गांधारी की आँखों में
अपने लिए राख देखते हैं।
नायक राजा नहीं होते।
वे यात्राएँ होते हैं —
लंबी, कठिन,
जिसमें किसी भी मोड़ पर
गंतव्य नहीं।
इच्छा-मृत्यु?
हाँ।
पर इच्छा अधूरी—
और मृत्यु
बस टलती हुई।
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