लंकाधीश रावण द्वारा अपनी पत्नी सीता के अपहरण के पश्चात् पत्नी वियोग में रामचंद्र सीते सीते की आवाज़ लगाते वन वन विचरने लगे। वन में भटकते भटकते रामचंद्र किष्किंधा जा पहुंचे। किष्किंधा में रामचंद्र और लक्ष्मण पहले हनुमान और फिर वानर नरेश सुग्रीव से मिले। सुग्रीव ने रामचंद्र को सीता के आभूषण और वस्त्र दिखाये जो सीता ने पुष्पक विमान से नीचे गिराए थे। रामचंद्र को आभूषण देख यह विश्वास हुआ कि सीता की उनकी खोज सही दिशा में जा रही है। इन सारी बातों के बीच रामचंद्र यह जान गए कि किसी चीज़ को लेकर सुग्रीव बहुत चिंतित हैं। कारण पूछने पर सुग्रीव ने बताया कि उसके बड़े भाई बालि ने न सिर्फ उसका समस्त राजपाट छीन लिया है बल्कि उनकी पत्नी को भी अपने राजमहल में रख लिया है। इतना सुनते ही रामचंद्र ने कहा कि सीता को ढूंढने से पहले हमें बालि के अन्याय का अंत करना होगा। फिर रामचंद्र ने बालि-सुग्रीव संग्राम के बीच पेड़ के पीछे से बाण चला कर बालि का वध किया और सुग्रीव को किष्किंधा का राजा बनाया।
जीवन में हमारे सामने बहुधा ऐसे अवसर आते हैं जब हमें यह निर्णय लेना होता है कि उस विषय में हम हस्तक्षेप करें या तटस्थ रहें। तटस्थ रहने का विकल्प हमारे पास इसीलिए होता है क्योंकि उपरोक्त मामले से हमारा सम्बन्ध नहीं होता। उस मामले में कुछ भी हो, हमारे जीवन, दिनचर्या पर कोई असर होता प्रतीत नहीं होता। तटस्थ होने के पीछे दूसरा कारण होता है किसी की निजता में दखल न देने की बात। हम बहुत चीज़ों से यह कह कर अपने आप को अलग कर लेते हैं कि यह तो उनका निजी मामला है, हम बीच में क्यूँ पड़ें। तटस्थ होने के पीछे नियमों का हवाला दिया जाता है कि उस मामले में हमारा हस्तक्षेप इन सामजिक और दंडसंहिता का नियमों का उल्लंघन माना जायेगा। कई बार ऐसा होता है कि अंतःमन में यह सोचने के बावजूद कि हमारा हस्तक्षेप अपेक्षित था, हम उपरोक्त कारणों की वजह से अपने आप को तटस्थ रखने का निर्णय लेते हैं।
1971 में भारत के सामने कुछ ऐसी ही स्थिति थी। बांग्लादेश में पाकिस्तान की सेनाएं निहत्थी जनता पर हर तरह के अमानवीय अत्याचार की अति कर रही थी। महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार, बच्चों की निर्मम हत्याएं और रिहायशी इलाकों में सैन्य कार्रवाई की खबरें अंतराष्ट्रीय पटल पर आ रही थी। सारे देश इसे पाकिस्तान का अंदरूनी मामला बता, अंतराष्ट्रीय नियमों का हवाला दे कर तटस्थ रहे और हस्तक्षेप से इंकार किया। भारत सरकार और तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने दूसरे देशों से अलग इस जनसंहार को रोकनेे के लिये सैन्य हस्तक्षेप करने का निर्णय लिया। सैम मानेकशॉ की सेनायें बांग्लादेश घुसी और आगे जो हुआ वह भारत के गौरवशाली इतिहास का एक स्वर्णिम पन्ना है।
अब सोचिये कि क्या होता अगर रामचंद्र बालि सुग्रीव प्रसंग में इसे दो भाइयों का आपसी मामला बता कर तटस्थ रहते और यह सोचते कि अपनी पत्नी को ढूंढना उनका पहला कर्तव्य है, उसे छोड़ बालि सुग्रीव के प्रसंग में क्या पड़ना। क्या होता अगर भारत ने बांग्लादेश में हस्तक्षेप करने का निर्णय नहीं लिया होता तो क्या आम जनता पर हो रहे सैन्य अत्याचार रुकते? सीधा सा उत्तर है कि यह गलत होता। रामचंद्र ने भले ही बालि को छिप कर बाण से मारा जो युद्ध के नियमों का उल्लंघन है, लेकिन बालि वध उचित निर्णय था न कि तटस्थ रहने का फैसला। उसी प्रकार से एक तरीके से देखें तो बांग्लादेश के युद्ध में भारत का हस्तक्षेप पाकिस्तान की संप्रभुता का हनन और अंतराष्ट्रीय नियमों का उल्लंघन था, लेकिन भारतीय सेना का बांग्लादेश प्रवेश न केवल उचित था बल्कि सराहनीय और गौरवशाली भी था।
कुछ दिन पहले घरेलू हिंसा को रोकने के लिए एक जागरूकता अभियान चलाया गया था, बेल बजाओ या रिंग द बेल अभियान। इसमें दिखाते थे कि किसी घर से आती घरेलू हिंसा की आवाजों को अनसुना कर तटस्थ न रहें बल्कि जाकर उस घर की कॉल बेल बजा कर दखल दें। यह छोटा सा कदम किसी का जीवन तक बचा सकता है। चाहे आप किसी बाल मजदूरी के शिकार बच्चे को देखें , रिश्वतखोरी का शिकार बनते किसी लाचार को, निर्णय आपको करना है कि द्रौपदी के चीरहरण के दौरान आप धृतराष्ट्र बन तटस्थ रहेंगे या कृष्ण की तरह हस्तक्षेप कर द्रौपदी की लाज बचाएंगे।
रोड एक्सीडेंट और रोड रेज के मामलों में मरने वाले लोगों की संख्या दस गुना कम हो जाए अगर लोग तटस्थ न रह दखल दें। लड़कियों पर एसिड फेंकने वालों को सबसे बड़ी ताकत इसी बात से मिलती है कि वह जानते हैं कि भरे बाज़ार में भी वह ऐसा कर निकल जाएंगे क्योंकि लोग चुप चाप तटस्थ रह सारा कुछ देखेंगे, करेंगे कुछ नहीं।
तटस्थ रहने का एक और तरीका है कि जिस समय कड़े शब्दों और कार्रवाई की जरूरत हो,आप गोल मोल नीति और सौहार्द की बातें करने लगे। आप भले ही उस समय अपने आप को तटस्थ नीति परायण और नीति कुशल मानें पर आप वस्तुतः अन्यायी का साथ दे रहे हैं। जिस समय दंड और भेद की आवश्यकता है उस समय साम की बातें करना तटस्थता नहीं कायरता है। हो सकता है कि आपको दखल देने के लिये कुछ नियम तोड़ने पड़ें, लेकिन अगर घर में आग लगी हो तो सामने पड़े पानी के टैंकर का नल खोलने के लिए आप नगरनिगम की आज्ञा की प्रतीक्षा नहीं कर सकते। अपना दखल दें, अपने विचार रखें, निर्भीक होकर रखें, को नृप होई हमें का हानि वाली मानसिकता से बचें। आप अगर संकट और अन्याय के समय शुतुरमुर्ग वाला व्यवहार जारी रखते है, तो फिर मानवाधिकारों की आशा भी न रखें।
जितनी बातें कहने में मुझे इतने शब्द लगे, दिनकर जी ने दो पंक्तियों में समेट कर कहा है।
समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याघ्र,
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध।
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