Wednesday, April 23, 2025

मुखौटा पहनने वाले हिंसक वानर


मानव जाति को अक्सर ‘सभ्य प्राणी’ कहा जाता है, पर यदि इतिहास की गहराइयों में उतरें तो यह परिभाषा एक दिखावा प्रतीत होती है—एक ऐसा आवरण जो हमने अपने पशुत्व को ढकने के लिए ओढ़ रखा है। जैविक दृष्टि से मनुष्य होमो सेपियन्स प्रजाति का हिस्सा है, जो लाखों वर्षों के विकास और एक संयोगवश हुए gene mutation का परिणाम है। यह अनोखा मस्तिष्क, जो हमें कल्पना, स्मृति और भाषा की शक्ति देता है, साथ ही हमें धोखा, लालच, हिंसा और छल की क्षमता भी देता है।

हमारी सभ्यता एक लंबे रक्तरंजित इतिहास की उपज है। यदि यह कहा जाए कि मानव सभ्यता एक स्थायी युद्धविराम मात्र है, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।

मानव इतिहास क्या है? युद्धों की गाथा।

इतिहास की किताबें अक्सर राजाओं की विजय, साम्राज्यों के विस्तार और सैनिक अभियानों की महिमा गान से भरी होती हैं। यद्यपि हम विद्यालयों में इतिहास को "अतीत से शिक्षा" का साधन मानते हैं, वास्तव में इतिहास का अधिकांश भाग हिंसा, सत्ता की लालसा और मानवीय दुर्बलताओं की गाथा है।

रामायण और महाभारत जैसे ग्रंथ केवल धार्मिक आख्यान नहीं, बल्कि युद्धों के औचित्य, नीतिक उलझनों और प्रतिशोध की कहानियाँ हैं। महाभारत का युद्ध इस बात का प्रतीक है कि कैसे परिजन, गुरु और शिष्य भी जब स्वार्थ, सत्ता और ‘धर्म की रक्षा’ के नाम पर आमने-सामने होते हैं, तो परिणाम विनाश होता है।

मौर्य सम्राट अशोक के जीवन में कलिंग युद्ध एक निर्णायक मोड़ था। वह युद्ध जिसकी परिणति लाखों लोगों की मृत्यु और व्यापक विनाश में हुई—ने एक सम्राट को आत्मबोध की ओर मोड़ा। परंतु यह करुणा, यह करुणा तब आई जब वह अपने हाथों हुए नरसंहार को देख चुका था। इसी तरह अकबर, जिसने अपने आरंभिक जीवन में हिंसा के माध्यम से शासन विस्तार किया, वही आगे चलकर धार्मिक सहिष्णुता की नीति अपनाता है—पर यह परिवर्तन भी अनुभव और सत्ता स्थिर होने के बाद ही आता है।


तकनीकी प्रगति का मूल क्या है? युद्ध।
प्रगति का हर यंत्र—चाहे वह पहिया हो या परमाणु बम—कहीं न कहीं भय, प्रतिस्पर्धा या प्रतिरोध से उत्पन्न हुआ है। युद्धों ने विज्ञान को आवश्यकताओं से परिचित कराया और विज्ञान ने युद्धों को नई गति दी।

प्रथम और द्वितीय विश्व युद्धों के दौरान चिकित्सा, रसायन, एयरोनॉटिक्स और सूचना तकनीक में जो क्रांतियाँ आईं, वे सामान्य समय में दशकों में संभव न होतीं। रडार, रॉकेट, जेट इंजन, परमाणु शक्ति, कंप्यूटर—all these are wartime products. GPS, इंटरनेट, ड्रोन—ये सभी तकनीकें पहले युद्ध के लिए बनीं और बाद में नागरिक जीवन में आईं।

भारत में भी 1974 और 1998 के पोखरण परीक्षणों ने विज्ञान और शक्ति-प्रदर्शन को एक साथ जोड़ा। विज्ञान यहाँ भी एक आत्मरक्षा और शक्ति संतुलन का माध्यम बना, न कि केवल ज्ञान के प्रसार का।

तकनीक अब युद्ध का सबसे परिष्कृत रूप बन चुकी है—जहाँ युद्धक्षेत्र केवल सीमाओं तक सीमित नहीं, बल्कि साइबर स्पेस, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, और सूचना युद्ध तक फैल चुका है।

कश्मीर: हिंसा और 'सभ्यता' के बीच संघर्ष।
कश्मीर घाटी, जो कभी अपनी नैसर्गिक सुंदरता और सूफी परंपराओं के लिए प्रसिद्ध थी, आज भय, अविश्वास और अस्थिरता की पहचान बन चुकी है।
1947 के विभाजन से लेकर आज तक कश्मीर भारत के लिए न केवल भौगोलिक चुनौती रहा है, बल्कि भावनात्मक और वैचारिक द्वंद्व का भी केंद्र बन चुका है।

घाटी में होने वाले आतंकवादी हमले इस बात का प्रमाण हैं कि मानवीय सभ्यता की सबसे बड़ी विफलता शांति स्थापित करने में है। निर्दोष नागरिकों की हत्याएँ, सैनिकों पर घात लगाकर हमले, और धार्मिक पहचान के आधार पर हिंसा—ये सब केवल राजनीतिक संघर्ष नहीं, बल्कि हमारे भीतर छिपे आदिम पशुत्व का पुनः प्रकटीकरण हैं।
हाल के वर्षों में पहलगाम राजौरी, पुलवामा, और अनंतनाग जैसे क्षेत्रों में हुए हमले यह दिखाते हैं कि आतंकवाद न केवल हथियारों का खेल है, बल्कि वह वैचारिक ज़हर भी है, जो लोगों को यह विश्वास दिला देता है कि हिंसा ही समाधान है।

कश्मीर इस बात का जीवंत उदाहरण है कि कैसे ‘सभ्यता’ का मुखौटा फटता है, और नीचे वही आदिम वानर बाहर आता है—जिसे केवल अपनी अस्मिता और वर्चस्व दिखाना है, भले ही उसके लिए वह किसी भी हद तक जाए।

हिंदी साहित्य में भी यह द्वंद्व स्पष्ट है।
हिंदी साहित्य ने हमेशा मानवीय मनोविज्ञान के इस अंतर्विरोध को गहराई से समझा है। प्रेमचंद की कहानियाँ भले ग्रामीण जीवन के चित्र प्रस्तुत करती हों, पर उनमें भी संघर्ष, लालच, अन्याय और कभी-कभी उत्पीड़न के विरुद्ध हिंसा की छाया दिखती है। उनकी कहानी "पंच परमेश्वर" में न्याय और मित्रता का टकराव इसी नैतिक उलझन को सामने लाता है।

धर्मवीर भारती की “अंधायुग” महाभारत की पृष्ठभूमि में लिखा गया ऐसा नाटक है जो युद्ध के बाद की नैतिक और मानसिक त्रासदी का अद्भुत चित्रण करता है। वहाँ कृष्ण भी मौन हैं, युधिष्ठिर भी संशय में हैं, और अंधों का साम्राज्य हर दृष्टि को धुंधला कर देता है।

दुष्यंत कुमार जैसे कवि जब यह लिखते हैं—
"इस शहर में वो कोई बारूद रख देता कहीं,
और फिर बेनाम हर दीवार उड़ जाती कहीं।"
—तो यह केवल राजनीतिक आलोचना नहीं, बल्कि उस विस्फोटक मानव प्रवृत्ति का संकेत है जो हर शांत चेहरे के पीछे छिपी बैठी है।

सभ्यता: एक पतली परत, नीचे छिपा पशु।
मनोविश्लेषण के जनक सिगमंड फ्रायड ने सभ्यता को हमारे भीतर की इच्छाओं और हिंसक प्रवृत्तियों पर थोपी गई एक सामाजिक व्यवस्था बताया था। हम जिन नियमों का पालन करते हैं, वे वास्तव में हमारे भीतर की बर्बरता को नियंत्रित करने के उपाय हैं। पर जैसे ही कोई संकट, डर, या लालच सामने आता है, यह आवरण चटकने लगता है।

आज हम जितनी भी 'संवेदनशील' बातें करते हैं—शांति सम्मेलन, मानवाधिकार, सह-अस्तित्व—वह सब तब तक हैं जब तक हमारे स्वार्थ सुरक्षित हैं। जैसे ही हमारी सत्ता, धर्म, जाति या पहचान को चुनौती मिलती है, हम उसी आदिम हिंसा की ओर लौट जाते  हैं।

मानव सभ्यता एक बहुपरती भ्रम है—एक ऐसा परदा जो हमें यह विश्वास दिलाता है कि हम अपने पशु अतीत से आगे बढ़ चुके हैं। परंतु कश्मीर की घाटियों में गूंजती गोलियों की आवाज़, इतिहास के हर युद्ध की कथा, और तकनीकी विकास के पीछे छिपी सामरिक होड़ यह सिद्ध करती है कि हम आज भी हिंसक वानरों के वंशज हैं—जिन्हें केवल मुखौटा पहनना आ गया है।

हमारे भीतर की हिंसा को पहचानना और उसे नियंत्रित करना ही शायद सच्चा मनुष्यता का मार्ग है। वरना हम इतिहास को दोहराते रहेंगे—हर बार एक नए नाम, एक नए युद्ध और एक नई तकनीक के साथ एक नई जगह पर।

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