Wednesday, July 11, 2018

दोस्ती और बिरादरी

उसकी माँ कहती थी ये वह तुम्हारा पिछले जन्म का भाई है। दूसरे की माँ उसको कहानियां सुनाती कि वह तुम्हारा जुड़वाँ भाई है जिसे चाची उधार मांग ले गयी है। दोनों की दोस्ती की लोग मिसालें देते नहीं थकते। पहला अपने घर से स्कूल के लिए निकलता तो स्कूल से पहले दूसरे के घर जाता, आखिर दोस्त न हो तो स्कूल में समय कैसे कटेगा! दूसरे के घर जाने का मतलब था दुबारा से खाना खाना। आखिर चाची अपने बेटे को खिला रही हो तो उसके दोस्त को कैसे जाने देती। उसी थाली में बैठ जाता साथ में खाने को। गर्म मांड भात और चोखे की थाली से उठती उष्म भाप और साथ में होड़ लगा कर खाने वाली नोक झोंक की गर्माहट उनकी दोस्ती का ऐसे लालन पालन करती जैसे चिड़िया अपने गर्म परों से अपने अंडो को सेती है। दूसरा भी शाम को खेलने निकलता तो जा पहुँचता पहले के घर। आखिर रुई के गोले जैसे छोटे छोटे खरगोश के बच्चों से खेलने का अद्वितीय आनंद पहले के आँगन के सिवा और कहाँ मिलता। रोज़ अपने चौबारे से नर्म नर्म दूब तोड़ कर उन प्यारे जीवों के लिये ले जाता।
इसी तरह बचपन का उषाकाल धीरे धीरे तरुणाई की दुपहरी की तरफ बढ़ चला। पहले और दूसरे की दोस्ती भी दुपहरी की धूप की तरह खिल उठी थी। हाँ अब खरगोशों को खिलाने के खेल वैसा ही चल रहा था बस घर वालों के लिए दाने जुटाने की खेल भी अब खेलना पड़ता था। बाकी सब कुछ वैसा ही था| पहले और दूसरे दोनों को दो माँओं का प्यार वैसे ही मिलता। पहला अब भी दूसरे के यहाँ से बिना मुंह जूठा किये नहीं लौटता और ऐसी कोई शाम नहीं गुज़रती जब दूसरा पहले के चौबारे पर वक़्त ना बिताता। हाँ पिछले दिनों से उनके छोटे से गांव में धूल उड़ाती गाड़ियों का आना जाना बढ़ गया था। उन्ही गाड़ियों के काफिले के साथ आता था भोंपू पर बजते गीत और नारे। पूरे गांव में तरह तरह की पोस्टर चिपके थे। आखिर क्यों न हो चुनाव आ गए थे। दोनों के लिए यह पहली बार का चुनाव था, या यूँ कहें समझदारी आने के बाद वह पहली बार चुनावों को देख रहे थे।
पहला शाम के वक़्त अपने दरवाजे पर अकेला बैठा था। कुछ देर पहले ही दूसरे के घर से लौटा था, आखिर दूसरे की माँ आजकल बीमार थी। पता नहीं क्यों रोज शाम को तेज बुखार चढ़ जाता और बेचारी बेहोशी में बड़बड़ाती रहती। फिर भी दूसरा आकर खरगोशों को दूब खिला कर ही जाता। इतने में एक जीप आकर रुकी। झक सफ़ेद कुरता और सर पर झक सफ़ेद गांधी टोपी पहने नेताजी उतरे। इतने साफ़ कपडे, रोज़ नये कपडे ही पहनते हैं क्या! नेताजी ने पूछा कैसे हो भैया। फिर दहलीज़ पर माँ की ओर बढ़ गये। पूरे झुक कर दंडवत किया, फिर पूछा माँ आज खाने में क्या बनाया है? बेचारी बुढ़िया शरमाते हुए बोली की आवाज तो बस रागी की रोटी है नमक के साथ। नेताजी ने कहा की वह भी एक कौर खाना चाहेंगे। पहला कुछ बोल पाता, समझ पाता सब कुछ इतनी तेजी से हुआ कि समझ भी नहीं पाया। फिर माँ की आवाज कानों में पड़ी खड़े खड़े मुंह ही देखेगा या उन्हें बैठने भी बोलेगा। माँ की आवाज़ सुन मानो उसकी तंद्रा टूटी। चारपाई पर बिछाने घर से एक सतरंगी ले आया। नेताजी खाट पर बिछी सतरंजी बिछने के बाद विराजे। एल्युमीनियम की नयी थाली बक्से से निकाली गयी। उसमें रागी बाजरे की रोटी, नमक तेल और मिर्च के साथ परोसी गयी। आज पहली बार अपनी गरीबी का अहसास हुआ, छोटे होने का अहसास हुआ। वाह माँ, एक ही कौर में मन खुश हो गया नेताजी रोटी का छोटा सा टुकड़ा मुंह में डालते हुए बोले।
‌बुढ़िया के चेहरे पर एक सफ़ेद मुस्कराहट तैर गयी। आखिर इतने बड़े लोग हैं, हमारे घर आकर बैठे, हमारे धन्य भाग्य। माँ बेटे दोनी ने सोचा। फिर नेताजी बोले, और क्या सोचा है, चुनाव के बारे में। आखिर हमारी पार्टी को आप जैसे नौजवान कार्यकर्ता की जरूरत है। हमारी पार्टी का मकसद है अपनी बिरादरी को उसका हक़ दिलाना। अब तक तो हमारी बिरादरी ने ऊंची बिरादरी वालों की गालियां सूनी है और उनकी सेवा टहल ही की है। अब वक़्त है कि हम अपने हक़ के लिए लड़ें। अब फैसला करना है आपको की आप अपनी ही छोटी दुनिया को संभालेंगे या बिरादरी के लिए इस धर्मयुद्ध में अपनों का साथ देंगे या नहीं। मैं इसे चुनाव नहीं मानता, यह तो एक धर्मयुद्ध है। नेताजी धारा प्रवाह बोले जा रहे थे। बाजरे की रोटी थाली में पड़ी ठंडी पड़ गयी थी, हां वातावरण जरूर गर्म हो गया था। और मैंने सुना है कि आप की दोस्ती दूसरी बिरादरी वालों से ज्यादा है। हाँ हाँ नेताजी, दोस्ती का नाटक कर इसको फुसला रखा है, दूसरे छुटभैये नेता ने हाँ में हाँ मिलायी। याद रखिए, बुरे वक़्त में बिरादरी वाले और हमारी पार्टी वाले ही काम आएंगे, दूसरी बिरादरी वाले नहीं। आप कल से हमारे चुनाव दफ्तर में आइये और इस धर्मयुद्ध में हमारा साथ दीजिये। बोलिये हाँ, नेताजी हाथ पकड़ कर बोले, तो पहला ना नही कर पाया। छुटभैये नेताजी घर पर पोस्टर्स का एक बण्डल और दो टोपियां छोड़ गये। ‌ ‌अगली सुबह टोपी लगा कई छुटभैये नेता आ पहुंचे। पहला टोपी पहने तैयार बैठा था। उनके साथ शामिल होने पर दिन भर गांव में ही नुक्कड सभाएं और घर घर जाकर प्रचार कार्यक्रम का पता चला। नेताओं का काफिला जब दूसरे के घर के वास से गुजरा तो एक बार कदम स्वतः दूसरे के घर की और मुड़े। सोचा एक बार चाची का हाल समाचार और पहले से मिलता चलूँ। पार्टी वालों ने देखा कि दूसरा पहले के घर की तरफ मुड़ रहा है तो नेताजी को इशारा किया। नेताजी ने क्रोधपूर्ण आँखों से देखा तो हर सुबह दूसरे के घर जाने का वह अखंड सिलसिला टूट गया। पहली बार उसके हिस्से का बना खाना पहले के घर पड़ा उसका इंतज़ार करता बासी पड़ गया। दूसरे की माँ पहले से पूछती आज पहला नहीं आया। बार बार दूसरे को कहती कि देख कहीं पहला बाहर तो नहीं खड़ा। दूसरा बीमार माँ को छोड़ आखिर कहाँ जाता। पहला नेताजी के काफिले के साथ दूर निकल चुका था। ‌ ‌शाम को पहला दूसरा पहले के घर पहुंचा तो पता चला कि पहला चुनाव प्रचार से अब तक वापस नहीं लौटा। खरगोशों को दूब खिला जल्दी से दूसरा माँ के पास लौट गया। लौटते वक़्त पहले की माँ को कहता आया कि एक बार आकर मुलाकात कर ले। कई दिन हो गये, पहले से भेंट नहीं हुई। इधर माँ की तबीयत भी सुधर नहीं रही थी। दिन रात बस अपनी माँ की तीमारदारी करता और एक बार जाकर खरगोशों को घास दे आता। मन में एक आस होती कि शायद पहले से एक बार मिल ले तो अपना दुखड़ा सुनाये, पर पहले को फुर्सत कहाँ। ‌ ‌पहला अपनी बिरादरी की पार्टी और नेताजी को चुनाव जिताये बगैर कैसे रुकता। आखिर बिरादरी की इज़्ज़त और बरसों के अपमान का बदला जो लेना था। दूसरे की बिरादरी वाली पार्टी भी गांव में आ गयी थी। पहले को अब दूसरे के नाम से ज्यादा बिरादरी याद रहती। दूसरे के साथ बिताये खुद के बचपन की मधुर यादों पर नारे और भाषणों में सुने दूसरे की बिरादरी के अत्याचारों की दास्ताँ भारी पड़ने लगी। आज तो यह गया कि दूसरे को घर की तरफ आते देख घर में छुप गया कि कहीं नज़र न मिल जाए। दूसरा खरगोशों को घास डाल लौट गया। बहुत हुआ यह नाटक, हमारी जाति पर अत्याचार करने का पाप मुझे माड़ भात खिलाने और खरगोशों को घास डालने से कम होगा। यह चुनाव नहीं धर्मयुद्ध है। नेताजी की हर बात उसे अक्षरशः सत्य मालूम होने लगी थी। दूसरे और दूसरे की बिरादरी से कोई भी सम्बन्ध रखना पहले को अपनी बिरादरी का उसके इतिहास का अपमान नज़र आने लगा। आँखों पर लाल चश्मा लगा लेने पर पानी भी खूनी दिखने लगता है। ‌ ‌आखिर चुनाव हुए परिणाम भी आये। पहले की मेहनत रंग लाई। नेताजी अपनी सीट भारी बहुमत से जीते।पहले को खुश हो नेताजी युवा तुर्क बुलाते और प्रखंड संगठन मंत्री का पदभार भी दे दिया। पहले बे गांव में नेताजी का विजय जुलूस निकाला। यह फैसला किया गया कि विजय जुलूस पहले की बिरदारी वाले टोले से गुज़रेगा ताकि उनको दिखाया जा सके कि जीत किसकी हुई है। खुली जीप पर नेताजी के साथ पहला भी खड़ा चल रहा था। जय हो और ज़िंदा बाद के नारे गूँज उठे। पहले को विजय का स्वाद पहली बार चखने को मिला। जुलूस जब पहले के घर के पास से गुज़रा तो एक अजीब सा सन्नाटा पसरा था। किसी ने बताया कि कल रात दूसरे की माँ चल बसी। अपने ओसारे पर दूसरा अपनी माँ की अर्थी सजा रहा था। पहले का दिल हुआ की दौड़ कर जाए और आख़िरी बार उनकी देख ले जिसकी रसोई में उसका बचपन गुज़रा था। लेकिन जाता कैसे? नेताजी ने विजयी मुद्रा में पहले का हाथ अपने से पकड़ हवा में लहरा रहे थे। पहला चीख कर दूसरे को का नाम चिल्लाने लगा तो किसी ने जीत की मिठाई उसके मुंह में डाल दी। जुलूस अपने रास्ते बढ़ चला और दूसरा अपनी माँ को अंतिम सफर के रास्ते पर ले चला। ‌ ‌चार पांच दिनों बाद पहला अपने दरवाज़े पर बैठा था। उसने देखा कि खरगोश नहीं दिख रहे। उसकी माँ ने बताया कि दो तीन दिन से दूसरा नर्म दूब लेकर नहीं आया इसलिए खरगोश अहाते से बाहर खाने की खोज में निकल गये और आवारा कुत्तों की भेंट चढ़ गये। उधर रेडियो पर समाचार आ रहा था कि नेताजी की पार्टी ने पूर्ण बहुमत न मिलने की वजह से पहले की बिरादरी वाली पार्टी से गठबंधन कर लिया है और नेताजी मंत्री बन गए हैं। उसकी दोस्ती उसकी बिरादरी और उसकी बिरादरी राजनीति की बलि चढ़ चुके थे।


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