दो बैलों की कथा मुंशी प्रेमचंद की एक लोकप्रिय कहानी है। झूरी नाम के एक किसान और उसके दो बैलों हीरा और मोती की यह मार्मिक और हृदयस्पर्शी कथा शायद सबने पढ़ रखी हो। कहानी काल्पनिक जरूर है लेकिन उसकी पृष्ठभूमि काल्पनिक नही है। उस कहानी में दो बैल मनुष्यो जैसा व्यवहार करते दर्शाए गए हैं। उस कहानी को पढ़ते समय आपको कुछ भी अवास्तविक नही लगेगा । प्रेमचंद की रचनाएं अलिफ लैला और अरेबियन नाइट्स की तरह फतांसी नहीं है, वो भारतीय जीवनशैली का एक जीवंत प्रतिरूप हैं। कहानी में दिखाया गया है कि झूरी के प्रेम और गया की दुत्कार को बैल कितने अच्छे से समझते हैं और उसके अनुकूल ही व्यवहार करते हैं । प्रेमचंद की कालजयी रचना गोदान भी गाय के साथ भारतीय जनमानस के जुड़ाव की एक कथा है। यही दोनो रचनायें ही नहींं प्रेमचंद के पूरे साहित्य में गाय और भारतीय समाज विशेषतः किसानों के साथ गायों के संबंध को खूबसूरती से दर्शाया गया है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि प्रेमचंद की लेखनी से निकली रचनाओं से ज्यादा ज़मीन से जुड़ी रचनाएं शायद ही हैं।
गोमांस और गौहत्या पर चल रही समसामयिक बहस जहाँ गोहत्या को मूल अधिकार और गोमांस खाने को आज़ादी से जोड़ दिया गया है, कम से कम प्रेमचंद के साहित्य से मेल खाता नही दिखता। जिस प्रकार पूजा घर में जूते पहनकर जाने की मनाही आपके जूते पहनने के अधिकार का हनन नही है। और ना ही मंदिर में शांत रहने की अपील आपके बोलने की आज़ादी का हनन है। उसी प्रकार गोमांस और गोहत्या की मनाही आपकेे खाने पीने की स्वतंत्रता का हनन नही है न ही फासिस्ट ताकतों के आने की आहट। सिनेमाघर में मोबाइल पर बात करना मना इसीलिए नही रहता क्योंकि कोई आपकी बात करने की आज़ादी को छीनने का प्रयास कर रहा है, बल्कि यह नियम यह सुनिश्चित करता है कि आपसे किसी और को व्यवधान न हो। सामाजिक नियम कभी आपकी सुरक्षा के लिए बनाये जाते हैं, तो कभी इसलिए कि आपके हितों का टकराव आम जनकल्याण से न हो। भारतीय समाज के परिपेक्ष्य में गोहत्या और गोमांस से जुड़े कानून उसी तरह के कानून हैं जो भारतीय जनमानस , भारतीय कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था और बहुसंख्यक हिन्दू की आस्था और जनभावना को ध्यान में रख बनाये गए हैं। इन नियमों को तोड़ने के कृत्यों को आज़ादी, स्वतंत्रता और मूल अधिकार जैसी संज्ञा देकर उचित ठहराना एक बचकाना तर्क है।
कुछ लोग गोमांस सेवन को गंगा जमुना तहज़ीब से जुड़ा बता रहे हैं। प्रेमचंद गंगा जमुनी तहजीब के सबसे बड़े पुरोधा थे। उनकी शिक्षा हिंदी, उर्दू और फारसी में हुई। खुद उनकी पहली रचना सोज-ए-वतन उर्दू में प्रकाशित हुई। उनकी रचना में गाय का जैसा वर्णन और चित्रांकन मिलता है वो भारतीय संस्कृति और समाज का ही एक प्रतिबिम्ब है। अगर गोमांस एक भारतीय रहन सहन का अंग होता तो कम से कम एक बार उनके साहित्य में इसका वर्णन जरूर आता।
अपनी बात को सिध्द करने को हिंसा और असंवेदनशील व्यवहार का सहारा लेना आपकी वैचारिक दुर्बलता का ही परिचायक है। सरेआम एक गाय को काट कर एक ऐसा ही प्रयास किया गया है। यह खबर केरल से आई है जिसके बारे में हमने बचपन से पढ़ रखा था कि सबसे ज्यादा शिक्षित लोग वहां हैं। लगता है हमारी शिक्षा में हमारे इतिहास और हमारी संस्कृति सिखाने वाला अध्याय जोड़ना छूट गया है।
अगर गाय आपके लिए सिर्फ मांस का एक स्रोत है, तो आपका गाय से परिचय कक्षा पांच में पढ़े गये निबंध तक ही सीमित है। गोबर से लीपे चूल्हे पर गोबर के उपले की आंच पर उबलते गाय के दूध का स्वाद आपने नही चखा। आपने गाय के नवजात बछड़े के उच्श्रृंखलता का वो दृश्य नही देखा जिसकी चपलता आपके मन को मोहने के लिये काफी है। गाय को माँ का दर्जा दिया जाना और गाय का गर्भधारण काल इंसान की तरह भी नौ महीने होना एक महज संयोग नहीं है। गाय की ममता का असली रूप तब पता चलता है जब किसी नवप्रसूता गाय की बछड़े को कोई खतरा महसूस हो। गाय का महत्व एक परिवार में कुछ ऐसा है कि पहली रोटी हमेशा गाय को खिलाई जाती है। अगर घर में कुछ दुखद घटित हो तो घर की गाय की आंखों में आंसू आ जाते हैं। जिस गाय का दूध आपको जीवनभर पौष्टिकता प्रदान करता है, मृत्युपरांत भी वैतरणी आपको एक गाय ही पार करवा सकती है।
गौरक्षा से जुड़ा एक प्रसंग महाभारत से याद आ रहा है। द्रौपदी पांचों पांडवों की पत्नी थी। जब भी पांचाली किसी एक भाई के संसर्ग में रहती, दूसरे पांडवों का उस कक्ष में जाना मना था। इस नियम का उल्लंघन करने पर दोषी को वनवास पर जा प्रायश्चित करने का प्रावधान रखा गया था। एक बार जब अग्रज युद्धिष्ठर द्रौपदी के साथ कक्ष में अंतरंग थे, एक ब्राह्मण ने अर्जुन से उसकी सहायता करने की प्रार्थना की। ब्राह्मण की गायों को कोई राक्षस छीन कर ले जा रहा था। अर्जुन का गांडीव और बाण उसी कक्ष में रखे थे जहां युद्धिष्ठर और द्रौपदी थे। अर्जुन ने एक साल के बनवास की परवाह न करते हुए भी गौरक्षा के धर्म को निभाने के लिये उस कक्ष में प्रवेश किया और अपने अस्त्र लेकर गायों की रक्षा की।
गोमांस और गौहत्या के बारे में किसी के विचारों को सुनने से पहले में जानना चाहूंगा कि बोलने वाला क्या प्रेमचंद से ज्यादा भारतीय समाज की संवेदनशीलता और इसके व्यावहारिकताओं की समझ रखता है। क्या गोरक्षा के बारे में उसकी समझ अर्जुन से ज्यादा है जिसे स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने ज्ञान दिया था। अगर कोई भी विज्ञान की किताब या अनुसंधान यह कह दे कि गोमांस दूध से ज्यादा स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद है तो मैं मान लूँ । कोई भी पर्यावरणविद आपको आसानी से बात सकता है कि शाकाहार को त्याग गोमांस का सेवन हमारे पर्यावरण के लिए कितना घातक है। लेकिन यह तर्क हमारे शिक्षित धर्मनिरपेक्ष बुद्दिजीवी आखिर क्यों सुनेें? बीफ खा कर गंगा जमुनी तहजीब का ज्ञान बांटने वाले ज्ञानियों के पैमाने पर प्रेमचंद उर्फ गुलाब राय और अर्जुन कट्टर और देहाती सिद्ध होंगे। गाय और गोरक्षा की बात करने वाले गंवार जो ठहरे।
गाय जैसे संवेदनशील मुद्दे पर सरेआम गौहत्या कर गोमांस उत्सव मनाने वाले शायद 1857 का इतिहास भूल गए हैं। एनफील्ड राइफल की कारतूसों पर लगी गाय की चर्बी ने ही ईस्ट इंडिया कंपनी की ताबूत में पहली कील ठोकी थी। हम सब के शांतिपूर्ण साहचर्य के लिये यह आवश्यक है कि हम गाय को सम्मान दें जिसकी वो हकदार आदिकाल से है।
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