आपने कभी बच्चों को जादूगर का कार्यक्रम देखते देखा है? जादूगर का हाथ से सिक्का गायब कर देना, टोपी से कबूतर निकाल कर दिखाना, अपनी छड़ी से फूल को हरा से लाल कर देना, यह सारे बचकाने से करतब भी बच्चों को कौतूहल, विस्मय और आह्लाद के भाव से भर देते हैं। अब आप इन बच्चों के साथ बैठे वयस्कों के चेहरों को देखें। या तो उनके चेहरे पर बोरियत का एक भाव होगा कि कब यह बकवास ख़त्म हो कि वह अपने बच्चों को लेकर घर जा सकें । या अपने बच्चों के साथ घुलने के लिये वह अपने चेहरे पर खुशी का एक नकली नकाब पहन जादूगर के करतबों का आनंद लेने की असफल कोशिश करते दिखते हैं।
किसी ऑपरेशन थिएटर में जाकर देखें, एक मरीज के दिल का इलाज़ चल रहा है। डॉक्टर के एक टीम ने मरीज़ के छाती पर एक बड़ा सा चीरा लगा रखा है। अंदर दीख रहा है लाल खून से सना और उछलता सा दिल और रक्त धमनियां मानो अभी बस फट पड़ेंगी। आप ज्यादा देर देख नहीं पाएंगे। अब आप उस मरीज़ की तरफ देखिये जिसके आधे चीरे शरीर को आप देख तक नहीं पा रहे। मरीज़ शांत बेहोशी की हालत में रहेगा। चेहरे पर दर्द और शिकन का कोई भाव नहीं। शायद आप उसके चेहरे पर मुस्कान की वह लकीर भी देख पाएंगे जो बेहोश होने से पहले उसके चेहरे पर आयी थी जब डॉक्टर ने यह कहा था कि चिंता मत करो, तुम बिलकुल ठीक हो जाओगे।
मानव सभ्यता के प्रारब्ध से अब तक हुए सतत विकास के पीछे मानव की जिज्ञासा का बहुत बड़ा हाथ है। इसी जिज्ञासा ने विज्ञान का विकास किया है, इसी जिज्ञासा ने बुद्ध को जन्म दिया , यही जिज्ञासा अध्यात्म की भी जननी है। परंतु जैसा कि प्रकृति का नियम है हर चीज़ का संतुलन आवश्यक है। जिज्ञासा और ज्ञान का संतुलन भी आवश्यक है। आप सोचेंगे ज्ञान का संतुलन क्या अज्ञानता है? और अगर हाँ तो अज्ञानता अच्छी कैसे ही सकती है। आपको हर चीज़ का ज्ञान हो जाए यह तो किसी की तरह से कोई बुरी बात नहीं ही सकती। अब जरा आप पहले दोनों उदाहरण पर गौर करें? ऐसा क्या अंतर है वयस्कों और बालकों में कि जादूगर का वह मैजिक शो उनमें हर्ष और आनंद का संचार करता है और आपको बोरियत और खीझ के भाव से भर देता है? ऐसा क्या है कि जिस चीरे को आप देख भी नहीं पाते, मरीज़ जिसके शरीर पर वह चीरा पड़ा है वह आराम से पड़ा मुस्कुरा रहा है।
आप जादूगर के करतबों से इसलिए बोर होते हैं क्योंकि आप जानते हैं कि जादूगर ने पहले से ही टोपी में कबूतर छुपा रखा है। आप जानते हैं सिक्का कहीं गायब नहीं हुआ बल्कि जादूगर ने बस उसे अपने लंबी आस्तीनों में छुपा लिया है। आपका यह ज्ञान आपको खीझ दे रहा है और बच्चों की वही अज्ञानता उनको परम आनंद। अगर ज्ञान सदैव अच्छी चीज़ है तो जरा कल्पना करें कि डॉक्टर कि टेबल पर पड़ा वह मरीज़ अपने दर्द को जाने और महसूस कर सके। अगर मरीज़ को अपने छाती पर चलते नश्तर महसूस हों और उनको वह देख सके तो क्या उसका ऑपरेशन संभव होगा? यह मरीज़ का अपने दर्द की अनभिज्ञता ही है जो उसके लिए जीवनदायी सिद्ध हो रहा है।
ईश्वर को सर्वज्ञ कहते हैं। मानव होने का आनंद इसी चीज़ में छुपा है कि हम सर्वज्ञ नहीं है। हमारी अनभिज्ञता कई बार हमें आनंद देती है कई बार दर्द कम करती है। अब अगर कोई ज्ञान मुझे माँ के प्यार का कारण हार्मोन और रासायनिक परिवर्तन बताता है तो मैं ऐसे ज्ञान को त्याग अज्ञानी रहना पसंद करूँगा। सब कुछ जानना बिलकुल जरूरी नहीं है। अंधकार भी आवश्यक है , हमेशा प्रकाश हो तो काम नहीं चलता। आपको आराम की नींद अँधेरे में आती है न कि तेज़ प्रकाश में। अगर बादल देख मोर नाचते हैं और हम छाता खोलते हैं तो शायद इसका एक कारण यह भी है क्योंकि वे वाष्पीकरण और संघनन की प्रक्रिया शायद नहीं समझते। हमारे अंदर का बालक, हमारे मन का वह मोर और दर्द से अनभिज्ञता अगर अज्ञानता से संभव है तो जरूरी है कि हम इसकी भी जरूरत समझें। असतो मा सद्गमय तब तक ही अच्छा है जब तक हम मानव बनें रहे। ईश्वर और सर्वज्ञ बन शायद इतना आनंद न मिले।
किसी ऑपरेशन थिएटर में जाकर देखें, एक मरीज के दिल का इलाज़ चल रहा है। डॉक्टर के एक टीम ने मरीज़ के छाती पर एक बड़ा सा चीरा लगा रखा है। अंदर दीख रहा है लाल खून से सना और उछलता सा दिल और रक्त धमनियां मानो अभी बस फट पड़ेंगी। आप ज्यादा देर देख नहीं पाएंगे। अब आप उस मरीज़ की तरफ देखिये जिसके आधे चीरे शरीर को आप देख तक नहीं पा रहे। मरीज़ शांत बेहोशी की हालत में रहेगा। चेहरे पर दर्द और शिकन का कोई भाव नहीं। शायद आप उसके चेहरे पर मुस्कान की वह लकीर भी देख पाएंगे जो बेहोश होने से पहले उसके चेहरे पर आयी थी जब डॉक्टर ने यह कहा था कि चिंता मत करो, तुम बिलकुल ठीक हो जाओगे।
मानव सभ्यता के प्रारब्ध से अब तक हुए सतत विकास के पीछे मानव की जिज्ञासा का बहुत बड़ा हाथ है। इसी जिज्ञासा ने विज्ञान का विकास किया है, इसी जिज्ञासा ने बुद्ध को जन्म दिया , यही जिज्ञासा अध्यात्म की भी जननी है। परंतु जैसा कि प्रकृति का नियम है हर चीज़ का संतुलन आवश्यक है। जिज्ञासा और ज्ञान का संतुलन भी आवश्यक है। आप सोचेंगे ज्ञान का संतुलन क्या अज्ञानता है? और अगर हाँ तो अज्ञानता अच्छी कैसे ही सकती है। आपको हर चीज़ का ज्ञान हो जाए यह तो किसी की तरह से कोई बुरी बात नहीं ही सकती। अब जरा आप पहले दोनों उदाहरण पर गौर करें? ऐसा क्या अंतर है वयस्कों और बालकों में कि जादूगर का वह मैजिक शो उनमें हर्ष और आनंद का संचार करता है और आपको बोरियत और खीझ के भाव से भर देता है? ऐसा क्या है कि जिस चीरे को आप देख भी नहीं पाते, मरीज़ जिसके शरीर पर वह चीरा पड़ा है वह आराम से पड़ा मुस्कुरा रहा है।
आप जादूगर के करतबों से इसलिए बोर होते हैं क्योंकि आप जानते हैं कि जादूगर ने पहले से ही टोपी में कबूतर छुपा रखा है। आप जानते हैं सिक्का कहीं गायब नहीं हुआ बल्कि जादूगर ने बस उसे अपने लंबी आस्तीनों में छुपा लिया है। आपका यह ज्ञान आपको खीझ दे रहा है और बच्चों की वही अज्ञानता उनको परम आनंद। अगर ज्ञान सदैव अच्छी चीज़ है तो जरा कल्पना करें कि डॉक्टर कि टेबल पर पड़ा वह मरीज़ अपने दर्द को जाने और महसूस कर सके। अगर मरीज़ को अपने छाती पर चलते नश्तर महसूस हों और उनको वह देख सके तो क्या उसका ऑपरेशन संभव होगा? यह मरीज़ का अपने दर्द की अनभिज्ञता ही है जो उसके लिए जीवनदायी सिद्ध हो रहा है।
ईश्वर को सर्वज्ञ कहते हैं। मानव होने का आनंद इसी चीज़ में छुपा है कि हम सर्वज्ञ नहीं है। हमारी अनभिज्ञता कई बार हमें आनंद देती है कई बार दर्द कम करती है। अब अगर कोई ज्ञान मुझे माँ के प्यार का कारण हार्मोन और रासायनिक परिवर्तन बताता है तो मैं ऐसे ज्ञान को त्याग अज्ञानी रहना पसंद करूँगा। सब कुछ जानना बिलकुल जरूरी नहीं है। अंधकार भी आवश्यक है , हमेशा प्रकाश हो तो काम नहीं चलता। आपको आराम की नींद अँधेरे में आती है न कि तेज़ प्रकाश में। अगर बादल देख मोर नाचते हैं और हम छाता खोलते हैं तो शायद इसका एक कारण यह भी है क्योंकि वे वाष्पीकरण और संघनन की प्रक्रिया शायद नहीं समझते। हमारे अंदर का बालक, हमारे मन का वह मोर और दर्द से अनभिज्ञता अगर अज्ञानता से संभव है तो जरूरी है कि हम इसकी भी जरूरत समझें। असतो मा सद्गमय तब तक ही अच्छा है जब तक हम मानव बनें रहे। ईश्वर और सर्वज्ञ बन शायद इतना आनंद न मिले।
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