अमृत मंथन के समय देव और असुरों के बीच इस बात के लिए सहमति नहीं बन पा रही थी कि मंदार पर्वत पर लिपटे वासुकि नाग के फन के तरफ कौन खड़ा होगा और पूँछ की तरफ कौन। फन की तरफ खड़ा होने का मतलब था वासुकि के मुख से निकलते विष की फुफकार से निश्चित मृत्यु। असुरों को फन की तरफ खड़े होने को राजी करने के लिए देवताओं ने एक चाल चली। इंद्र के दरबार से सुन्दर सुन्दर अप्सराओं का चयन किया गया जिन्हें मदिरा के बड़े बड़े घट दे असुरों के शिविर में भेज दिया गया। मदिरा पीकर असुर अपनी सुध बुध खो बैठे और वासुकि को फन की तरफ से पकड़ समुद्र मंथन करने लगे। वही हुआ जिसका डर था, वासुकि के फन से विष की ज्वाला निकलने लगी जिसमें कई असुरगण भस्म हो काल कलवित हुए। किन्तु उनमें से मदिरा के वशीभूत असुरों में किसी ने भी इसपर ध्यान नहीं दिया और मंथन में लगे रहे।
अठारहवीं सदी में चीन की चांदी के भंडार पर ब्रिटिश व्यापारियों की नज़र थी। चीन से चांदी का आयात करने के लिए अंग्रेजों ने इंग्लैंड में प्रतिबंधित अफीम का निर्यात चीन में करना शुरू किया और भारी मुनाफा कमाने लगे। जब जब चीनी राजा की आंख खुली, चीनी युवा अफीम के नशे में धुत हो चुका था। फिर अफीम युद्ध हुए और साम्राज्यवादी शक्तियों ने चीन को दोनों हाथों से लूटा। इसे ही इतिहासकारों ने चीनी ख़रबूज़े को बांटने का नाम दिया है।
शराब और नशा का जो रूप साहित्य, संगीत और फिल्मों में आम तौर पर वर्णित किया जाता है, उसे पढ़कर शायद ही कोई उसके वास्तविक रूप का अंदाज़ लगा सकता है। शराब को विज्ञापनों में दोस्ती, बहादुरी , शान और आनंद के चखने के साथ परोसा जाता है। चखना ज्यादा दिखाया जाता है, पर बेची शराब जाती है। ऐसा दिखाया जाता है मानो शराब न हुई तो आपकी सफलता और व्यक्तित्व अधूरा है। हमारे सेलिब्रिटी जैसे क्रिकेटर और फ़िल्मी सितारे भी इन विज्ञापनों में सफलता और व्यक्तित्व का पुट डालने के लिए जोर शोर से दिखाये जाते हैं।
शराब के उपभोक्ता समूह का यह चित्रण जिसमें सफल, अमीर और प्रसन्न लोग दिखाये जाते है, वास्तविकता से बिलकुल परे है। शराब का असली उपभोक्ता है निम्न मध्य वर्ग, 30 साल से कम उम्र का युवा , दिहाड़ी मजदूर, ट्रक ड्राइवर, रिक्शा चालक वाला समूह। आप शराब की बिक्री ही देख लें। कौन सी शराब सबसे ज्यादा बिकती है? शैम्पेन?ग्लेंमोरेंजी? जॉनी वॉकर? ना... सबसे ज्यादा बिकती है बैगपाइपर , मक्डोवील नंबर 1। वह शराब जो 300 रूपये में पूरी बोतल आ जाये। जाहिर है सफल, अमीर और बड़े लोग तो यह वाली शराब पीते नहीं, तो यह शराब पी कोई और पी रहा है। और जो यह 300 रूपये की शराब पी रहा है, वह इस बोतल के लिए अपनी कमाई का आधे से ज्यादा हिस्सा तक खर्च डालता है।
और यह सस्ती शराब पीकर शराबी फिल्मों की तरह गाने नहीं गाते, गालियां बकते हैं, सफलता की सीढ़ियां नहीं चढ़ते, गंदी नाली में गिरे रहते हैं। आपको लग रहा होगा की मैं अपनी बात मनवाने के लिए चीज़ों को बढ़ा चढ़ा कर बोल रहा हूँ, नाटकीय ढंग से प्रस्तुत कर रहा हूँ। ऐसा लगना स्वाभाविक है क्योंकि शायद आप भी शराब की प्रसारित और विज्ञापित छवि मन में रखे हैं, जहाँ शराब के जाम पर बड़े बड़े बिजनेस डील साइन किये जाते हैं। हाँ डील साइन होते हैं शराब की वजह से, लेकिन वह डील अक्सर किसान की ज़मीन, बीवी के गहने, और बच्चों का भविष्य बेचने वाले डील हुआ करते हैं। शराब ने जितनी दोस्ती बढ़ायी है उसने कहीं ज्यादा परिवार तोड़े हैं।
इससे पहले कि आप इन बातों तो आदर्शवादी, गांधीवादी और यथार्थ से परे कह दें और कहें कि कुछ शराबियों की वजह से पूरे समाज को कटघरे में खड़ा नहीं किया जा सकता और हर व्यस्क को अपने खाने पीने की स्वतंत्रता होनी चाहिये। इसपर कोई भी सरकारी बंदिश को आप मानव अधिकारों का हनन भी बता सकते हैं। शराब की यही खासियत तो है, आपको इसकी बुराइयों का पता नहीं चलता और कोई आपको इसकी बुराई बताये तो वह गंवार, अनपढ़ और जाहिल लगता है। शराबी और उस असुर में ज्यादा फर्क नहीं जो वासुकि के फन को पकडे हुए है। जिस देश के लोग 10 साल बाद रेलवे का किराया बढ़ने पर सरकार को बुरा भला करते हैं, हर साल शराब के दाम बढ़ने पर चूं तक नहीं करते। तो सरकार भी यह जानती है कि भले ही इनकम टैक्स न बढ़ने दो, शराब पर टैक्स बढ़ा भरपाई की जा सकती है। बस जरूरत है कि शराब का दायरा बढ़ाया जाए, भले आयकर दाता का दायरा 3 % ही रहे।
शराब को अगर पूरी तरह प्रतिबंधित न किया जाए तो कम से कम इसके प्रसार पर अंकुश लगाने की जरूरत तो है ही। खासकर इसके द्वारा मुनाफा कमाने वालों पर सख्ती आवश्यक है। अगर अपने पैसे के बदले एक पाउंड मांस मांगने पर शायलोक घृणित खलनायक कहला सकता है तो हजारों परिवार के बर्बाद करने वाले नायक कैसे हो सकते हैं। प्रेमचंद की कालजयी रचना कफ़न में शराबियों का जो चरित्र दिखाया गया है वही वास्तविकता है न कि दोस्ती और यारी का गाना गाते विज्ञापन। वास्तविक जीवन में शराबी पीकर दे दे प्यार दे वाले गाने नहीं गाता बल्कि घीसू और माधव की तरह बुधिया का जीवन और कफ़न दोनों छीन लेता है। आप किसी भी जानकार से पूछें कि माल्या का अपराध क्या है? संभव है कि वह आपको उसके बकाया क़र्ज़ की पाई पाई का हिसाब दे दे, लेकिन उन हज़ारों बुधिया के कफ़न का हिसाब न देंगे। आपको दिखे ना दिखे पर रईस एक नायक नहीं है और जो वह करता है वह वही कारोबार है जो ब्रिटिश ने चीन में किया अफीम युद्ध से पहले।
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