Wednesday, July 11, 2018

मीडिया के अर्धसत्य

मानव इतिहास में सन्देश और सन्देश वाहकों का एक अलग स्थान रहा है। रोमन इतिहास में फिलिपेडस का नाम सर्वदा सम्मान से लिया जाता है जिसने मैराथन के युद्ध में रोमन विजय की सूचना एथेंस तक पहुंचायी थी। विजय का यह शुभ सन्देश पहुँचाने के क्रम में फिलिपेडस वीरगति को प्राप्त हुआ और उसकी इस साहसिक कार्य को हमेशा मैराथन दौड़ के रूप में याद किया जाता है। महाकवि कालिदास के मेघदूत में नायक यक्ष अपनी पत्नी अलका को सन्देश भेजने के लिये बादलों को संदेशवाहक बनाता है। भगवान श्रीकृष्ण भी कुरुक्षेत्र के युद्ध से पहले पाण्डव का मैत्री सन्देश लेकर हस्तिनापुर आते हैं।
मैत्री की राह बताने को सबको सुमार्ग पर लाने को दुर्योधन को समझाने को भीषण विध्वंस बचाने को भगवान हस्तिनापुर आये पाण्डव का संदेशा लाये।
महान अशोक के शांति और प्रेम का सन्देश लेकर उनके पुत्र महेंद्र और तनुजा संघमित्रा श्रीलंका के राजा के पास जाने का वर्णन भारतीय इतिहास का एक गौरवशाली अध्याय है। श्रीलंका में भगवान बुद्ध के विचारों को पहुँचाने में संदेशवाहक महेंद्र का योगदान अतुल्य है। संदेश और संदेशवाहक इतने सार्वभौमिक है कि कुछ प्राणी जैसे कबूतर तो संदेशवाहक का पर्याय तक बन गए हैं। कबूतरों ने न जाने कितने प्रेमी युगलों की प्रेम की पाती को उनके प्रिय को पहुँचाया है।
उपर के कुछ उदाहरण यह प्रमाण हैं कि संदेशवाहक न केवल अनादिकाल से महत्वपूर्ण हैं अपितु अपरिहार्य हैं। इस हिसाब से देखा जाए तो संदेशवाहकों का सम्मान किसी से कमतर कर आंकना एक भूल होगी। फिर बार बार यह क्यों सुनने को मिलता है कि संदेशवाहक को मत मारो, दूत को मत मारो, डोंट शूट द मेसेंजर। ख़ासकर वर्तमान समय में इसका प्रयोग काफी होने लगा है। यह दिलचस्प है कि इसका वाक्य का प्रयोग आजकल के संदेशवाहक अर्थात मीडिया वाले सबसे ज्यादा करते हैं।
तो ऐसा क्या हो गया कि महेंद्र, मेघदूत, फिलिपेडस , श्रीकृष्ण के उत्तराधिकारी संदेशवाहकों को ऐसा डर सताने लगा कि कोई उन्हें मार डालेगा। संदेशवाहक मीडिया आजकल अपनी सुरक्षा को लेकर इतना चिंतित क्यों है? आखिर सन्देश पाने वाले भी सन्देश वाहकों से आशंकित क्यों हैं? जिस भूमिका को भगवन श्रीकृष्ण स्वयं खुद निभा चुके हैं उसी भूमिका में लोग अब क्यों कहते हैं कि उनको निशाना न बनाया जाए? फिलिपेडस जैसे शहीद संदेशवाहक के उत्तराधिकारी आज बलि के बकरे की तरह मिमियाते क्यों नज़र आते हैं?
संदेशवाहक का कार्य है सन्देश पहुँचाना। इस वाक्य को फिर से पढ़ें। सन्देश वाहकों का कार्य है सन्देश पहुँचाना। बस इतना सा साधारण काम!! यह आपकी प्रतिक्रिया हो सकती है। लेकिन यह कार्य इतना साधारण नहीं है, क्योंकि संदेशवाहक भी मनुष्य होते हैं, अतएव मानव सुलभ कमजोरियों से परे बिलकुल नहीं हैं। एक बूढी विधवा को पत्र पढ़कर सुनाता डाकिया क्या अपनी भावनाओं पर काबू रख सकता है अगर उसमें उसके पुत्र के सीमा पर मारे जाने की बात लिखी हो? यह स्वाभाविक है कि डाकिया भावुक हो, लेकिन उसका यह कर्तव्य है कि वह अप्रिय ही सही किन्तु वह सन्देश पहुंचाए। बिना अपमान के भय के। पुत्र के नौकरी लगने की खबर भी अगर पत्र में लिखी है तो डाकिये को बिना किसी उपहार की अपेक्षा में वह खबर सुनानी चाहिए।
लेकिन कभी कभी ऐसा हो नहीं पाता है। निजी स्वार्थ, भय, अपमान, द्वेष और घृणा संदेशवाहक के सन्देश पहुँचाने के कार्य में बाधक होते हैं। संदेशवाहक सन्देश को पूरी तरह सत्य रूप में न पहुंचा अर्धसत्य के रूप में पहुंचाता है। और इसके विनाशकारी परिणाम होते हैं। धर्मराज युद्धिष्ठिर का गुरु द्रोण को ' अश्वस्थामा हतो' वाला सन्देश ऐसा ही एक अर्धसत्य था जिसकी परिणीति एक शिष्य द्वारा अपने गुरु की छल पूर्वक हत्या से हुई। आप चाहे ऋषि ही क्यों न हो अगर आप सन्देश पहुँचाने में पूर्ण रूप से ईमानदार नहीं है तो आपकी विश्वसनीयता नारद की तरह ही होगी। फिर चाहे आप हरेक क्षण प्रभु नारायण का जाप ही क्यों न करें।
आज का मीडिया ऐसे ही दुविधा से गुज़र रहा है। सन्देश पहुँचाने का कार्य निज स्वार्थ, प्रलोभन , घृणा और द्वेष से प्रभावित हो रहा है। सत्य नग्न ही सुन्दर रहता है, स्वार्थ का जामा पहना सत्य सत्य न रह अर्ध सत्य बन जाता है। स्वार्थ का जामा कितना भी धोया जाये, षड़यंत्र की गंध उससे जाती नहीं। एक अर्धसत्य बोलने पर अगर धर्मराज का स्वर्ग छिन सकता है तो दिन रात असत्य का प्रचार कर आप सम्मान की आशा नहीं रख सकते।
आवश्यक है कि सन्देश वाहक मीडिया अपने इतिहास का फिर से पुनरीक्षण करे, अपनी गलतियों से सीखे ताकि उसे पुनः वही भरोसा फिर से प्राप्त हो जो एक बुढ़िया को अपने गांव के डाकिए पर होता है। यह मार्ग आसान नहीं है पर संभव है। संभव ही नहीं बल्कि अत्यंत आवश्यक है। मीडिया की पहुँच हर आदमी तक है। यह वह कुआँ है जिससे हर कोई पानी भरता है। इस कुएं में गंदगी गिरेगी तो पूरा समाज बीमार पड़ जाएगा।जब मीडिया की विश्वसनीयता कम होती है तो अफवाहों का दौर शुरू हो जाता है। अफवाह और जंगल की आग एक ही चीज़ है जिसका एक ही परिणाम है .. विनाश।
मीडिया के लिए स्वतंत्र होना अत्यंत आवश्यक है। इसके लिए मीडिया और मीडिया कर्मियों को निश्चय ही कठिनाइयों का मार्ग चुनना पड़ेगा। अब यह हमारी मीडिया पर निर्भर करता है कि वह उस स्वतंत्र जंगली चीते की ज़िन्दगी चुनता है जिसे शायद कई दिनों तक भूखा रहना पड़े पर जिसकी गति और चाल लोगों में धाक जमाती है । या उस परतंत्र कुत्ते की ज़िन्दगी चुनता है जिसे सुबह शाम बैठे बिठाये खाना मिलता है , वातानुकूलित कार की सवारी मिलती है लेकिन गले में एक पट्टा डालना पड़ता है। अगर संदेशवाहक अपने कार्य को ईमानदारी से करें तो शायद डोंट शूट द मेसेंजर कहने की जरूरत कम हो जायेगी। ईमानदार पत्रकार क्लार्क केंट की तरह होता है। सुपर मैन का सौम्य रूप। और दुनिया जानती है कि क्लार्क केंट हो या सुपरमैन, गोलियां दोनों पर असर नहीं करती।

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