एक आदमी कड़ी धूप में कुल्हाड़ी लिये सड़क किनारे खड़े पेड़ों को काट रहा था। आसपास के लोगों ने उसको पूछा कि भाई यह हरे भरे पेड़ क्यों काट रहे हो। उस आदमी ने कहा कि कल यहाँ पर मंत्री जी आकर पर्यावरण जागरूकता कार्यक्रम के तहत वृक्षारोपण करेंगे , इसीलिये यहाँ पर उसके लिए जगह बना रहा हूँ।
आये दिन आप देखते होंगे मदर्स डे, फादर्स डे, फ़्रेंड शिप डे वाले सन्देश आते रहते हैं। हम भारतीय अगर इन दिनों को मनाना शुरू कर दें तो यह एक विडम्बना ही है। जो सभ्यता माँ और मातृभूमि को स्वर्ग से भी ऊपर मानती है, वहां मदर्स डे मनाने की कोशिश पेड़ काट कर वृक्षारोपण है। फ्रेंडशिप डे पर मुझे व्हाट्सएप्प पर ऐसे मेसेज मिलते हैं कि अगर आपको मेरा यह मैसेज मिला तो मतलब आप मेरे दोस्त हो। आप मुझे यह मैसेज वापस भेजिए तो मैं मानूँगा कि आप भी मुझे दोस्त मानते हो। जहाँ कृष्ण ने सुदामा को राजमहल और दुर्योधन ने कर्ण को राजपाट देने के बाद बदले में कुछ नहीं चाहा, वहां लोग एक फॉरवर्ड वापस ना पाने पर सोचते हैं कि वह तो मेरा दोस्त नहीं।
आखिर यह चीज़ें हमारे यहाँ क्यों हो रही हैं? इसका कारण है कि हम विदेशी परंपराओं को बिना समझे अपना रहे हैं। सिर्फ इसलिए कि हमने विदेशियों ऐसा करते देखा है, हम भी करना चाहते हैं। इन परंपराओं की जरूरत पश्चिमी देशों में ज्यादा है। आपने अगर फ्रेंड्स, हाव आई मेट योर मदर और द बिग बैंग थियोरी जैसे धारावाहिक देखे होंगे तो आपने देखा होगा कि वहाँ पर माँ बाप बच्चों से अलग रहते हैं, बच्चों का माँ बाप के साथ रहना सामान्य नहीं माना जाता। बिग बैंग थ्योरी में तो हॉवर्ड नाम के किरदार का मज़ाक हर एपिसोड में इसलिये उड़ाया जाता है कि वह अपनी माँ के साथ रहता है। मेरा मकसद यह कतई नहीं है कि पाश्चात्य संस्कृति हमसे नीचे है या गलत है। हाँ वह हमसे अलग जरूर है। इसीलिये मदर्स डे मनाना उनको ज्यादा शोभा देता है, शायद उनको ज्यादा जरूरत है। हमको जरूरत है कि हम टाइगर दिवस मनाये क्योंकि टाइगर कम बचे हैं, जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी वालों को मदर्स डे मनाने की स्थिति अभी नहीं आयी।
अब राजनीतिक परिपेक्ष्य ही लें। पिछले 40 सालों से अगर भारतीय राजनीति किसी एक शब्द के चारों और घूम रही है तो वह शब्द है धर्मनिरपेक्षता। आपको पता होगा कि हमारे संविधान की मूल प्रति या प्रस्तावना में यह शब्द नहीं है। यह शब्द बाद में 1976 में 42वें संविधान संशोधन के तहत जोड़े गये। जिस धर्मनिरपेक्षता को भारत की राजनीति में लाया गया, उसकी अवधारणा मूलतः यूरोपियन है। यूरोप जहाँ का इतिहास चर्च और चर्च के राजनीतिक चरित्र की एक गाथा है। किसी से छुपा नहीं है कि चर्च ने अपने राजनीतिक विरोधियों का दमन किस क्रूरता से किया। चर्च के विरोध का अर्थ था सुनिश्चित और हृदयविदारक मौत। तो जब यूरोप में लोकतंत्र आया तो यह सुनिश्चित करने के लिये कि चर्च और धर्म का हस्तक्षेप राजनीति में न हो, वहां धर्मंनिर्पेक्षता के सिद्धांत का प्रतिपादन किया। इसका मकसद था कि सत्ता और सरकार का कोई धर्म न हो दूसरे शब्दों में कहें तो चर्च को सरकार से दूर रखा जाये। यह धर्मनिरपेक्षता यूरोप की आवश्यता थी और इसने यूरोप में लोकतंत्र स्थापित करने में मदद भी की। लेकिन क्या भारत में इसकी जरूरत थी? क्या भारत के मंदिर चर्च की तरह राजनीतिक केंद्र रहे हैं ? क्या भारत के अशोक और अकबर जैसे शासकों ने जैसे शासन चलाया वह धर्मनिरपेक्ष नहीं था? वसुधैव कुटुम्बकम जैसे सिद्धांत के रहते क्या हमें कहीं और से धर्मनिरपेक्षता सीखने की आवश्यकता है?
यह कुछ ऐसा ही है जैसे किसी स्वस्थ आदमी का ह्रदय निकाल उसको कृत्रिम हृदय प्रत्यारोपित कर दिया जाये। इससे व्यक्ति पहले से बेहतर नहीं हो सकता। ह्रदय प्रत्यारोपण दिल के मरीजों के लिए है, स्वस्थ व्यक्ति के लिए यह जानलेवा तक हो सकता है। मूर्खतापूर्ण और खर्चीला तो यह होगा अलग से । यह किसी से छुपी बात नहीं है कि जब से यह धर्मनिरपेक्षता वाला कृत्रिम ह्रदय हमारे लोकतंत्र को लगाया गया है, हमारे हार्ट अटैक बढ़ ही गये हैं, घटे नहीं। सेकुलरिस्म के नाम पर वह सारी चीज़ें की जा रही हैं जो धर्मनिरपेक्ष कतई नहीं है। अशोक स्वयं बौद्ध थे और अकबर दीन ए इलाही का धर्म चलाते थे। इस हिसाब से इस यूरोपियन धर्मनिरपेक्षता के अनुसार दोनों धर्मांध थे न कि धर्मनिरपेक्ष।
यह बात बहुत आश्चर्यजनक नहीं है कि हमें अपनी चीज़ों और अपनी संस्कृति से पाश्चात्य चीज़ें बेहतर लगती हैं। इसका कारण यह है कि उन्होंने हमपर राजनीतिक और मानसिक रूप से शासन किया है। राजनीतिक शासन तो 1947 में समाप्त हो गया, मानसिक शासन अभी पूरी तरह समाप्त नहीं हुआ। जरूरत है कि हम अपनी चीज़ों के महत्व को समझें और वन काटकर वृक्षारोपण वाला कार्य न करें।
आये दिन आप देखते होंगे मदर्स डे, फादर्स डे, फ़्रेंड शिप डे वाले सन्देश आते रहते हैं। हम भारतीय अगर इन दिनों को मनाना शुरू कर दें तो यह एक विडम्बना ही है। जो सभ्यता माँ और मातृभूमि को स्वर्ग से भी ऊपर मानती है, वहां मदर्स डे मनाने की कोशिश पेड़ काट कर वृक्षारोपण है। फ्रेंडशिप डे पर मुझे व्हाट्सएप्प पर ऐसे मेसेज मिलते हैं कि अगर आपको मेरा यह मैसेज मिला तो मतलब आप मेरे दोस्त हो। आप मुझे यह मैसेज वापस भेजिए तो मैं मानूँगा कि आप भी मुझे दोस्त मानते हो। जहाँ कृष्ण ने सुदामा को राजमहल और दुर्योधन ने कर्ण को राजपाट देने के बाद बदले में कुछ नहीं चाहा, वहां लोग एक फॉरवर्ड वापस ना पाने पर सोचते हैं कि वह तो मेरा दोस्त नहीं।
आखिर यह चीज़ें हमारे यहाँ क्यों हो रही हैं? इसका कारण है कि हम विदेशी परंपराओं को बिना समझे अपना रहे हैं। सिर्फ इसलिए कि हमने विदेशियों ऐसा करते देखा है, हम भी करना चाहते हैं। इन परंपराओं की जरूरत पश्चिमी देशों में ज्यादा है। आपने अगर फ्रेंड्स, हाव आई मेट योर मदर और द बिग बैंग थियोरी जैसे धारावाहिक देखे होंगे तो आपने देखा होगा कि वहाँ पर माँ बाप बच्चों से अलग रहते हैं, बच्चों का माँ बाप के साथ रहना सामान्य नहीं माना जाता। बिग बैंग थ्योरी में तो हॉवर्ड नाम के किरदार का मज़ाक हर एपिसोड में इसलिये उड़ाया जाता है कि वह अपनी माँ के साथ रहता है। मेरा मकसद यह कतई नहीं है कि पाश्चात्य संस्कृति हमसे नीचे है या गलत है। हाँ वह हमसे अलग जरूर है। इसीलिये मदर्स डे मनाना उनको ज्यादा शोभा देता है, शायद उनको ज्यादा जरूरत है। हमको जरूरत है कि हम टाइगर दिवस मनाये क्योंकि टाइगर कम बचे हैं, जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी वालों को मदर्स डे मनाने की स्थिति अभी नहीं आयी।
अब राजनीतिक परिपेक्ष्य ही लें। पिछले 40 सालों से अगर भारतीय राजनीति किसी एक शब्द के चारों और घूम रही है तो वह शब्द है धर्मनिरपेक्षता। आपको पता होगा कि हमारे संविधान की मूल प्रति या प्रस्तावना में यह शब्द नहीं है। यह शब्द बाद में 1976 में 42वें संविधान संशोधन के तहत जोड़े गये। जिस धर्मनिरपेक्षता को भारत की राजनीति में लाया गया, उसकी अवधारणा मूलतः यूरोपियन है। यूरोप जहाँ का इतिहास चर्च और चर्च के राजनीतिक चरित्र की एक गाथा है। किसी से छुपा नहीं है कि चर्च ने अपने राजनीतिक विरोधियों का दमन किस क्रूरता से किया। चर्च के विरोध का अर्थ था सुनिश्चित और हृदयविदारक मौत। तो जब यूरोप में लोकतंत्र आया तो यह सुनिश्चित करने के लिये कि चर्च और धर्म का हस्तक्षेप राजनीति में न हो, वहां धर्मंनिर्पेक्षता के सिद्धांत का प्रतिपादन किया। इसका मकसद था कि सत्ता और सरकार का कोई धर्म न हो दूसरे शब्दों में कहें तो चर्च को सरकार से दूर रखा जाये। यह धर्मनिरपेक्षता यूरोप की आवश्यता थी और इसने यूरोप में लोकतंत्र स्थापित करने में मदद भी की। लेकिन क्या भारत में इसकी जरूरत थी? क्या भारत के मंदिर चर्च की तरह राजनीतिक केंद्र रहे हैं ? क्या भारत के अशोक और अकबर जैसे शासकों ने जैसे शासन चलाया वह धर्मनिरपेक्ष नहीं था? वसुधैव कुटुम्बकम जैसे सिद्धांत के रहते क्या हमें कहीं और से धर्मनिरपेक्षता सीखने की आवश्यकता है?
यह कुछ ऐसा ही है जैसे किसी स्वस्थ आदमी का ह्रदय निकाल उसको कृत्रिम हृदय प्रत्यारोपित कर दिया जाये। इससे व्यक्ति पहले से बेहतर नहीं हो सकता। ह्रदय प्रत्यारोपण दिल के मरीजों के लिए है, स्वस्थ व्यक्ति के लिए यह जानलेवा तक हो सकता है। मूर्खतापूर्ण और खर्चीला तो यह होगा अलग से । यह किसी से छुपी बात नहीं है कि जब से यह धर्मनिरपेक्षता वाला कृत्रिम ह्रदय हमारे लोकतंत्र को लगाया गया है, हमारे हार्ट अटैक बढ़ ही गये हैं, घटे नहीं। सेकुलरिस्म के नाम पर वह सारी चीज़ें की जा रही हैं जो धर्मनिरपेक्ष कतई नहीं है। अशोक स्वयं बौद्ध थे और अकबर दीन ए इलाही का धर्म चलाते थे। इस हिसाब से इस यूरोपियन धर्मनिरपेक्षता के अनुसार दोनों धर्मांध थे न कि धर्मनिरपेक्ष।
यह बात बहुत आश्चर्यजनक नहीं है कि हमें अपनी चीज़ों और अपनी संस्कृति से पाश्चात्य चीज़ें बेहतर लगती हैं। इसका कारण यह है कि उन्होंने हमपर राजनीतिक और मानसिक रूप से शासन किया है। राजनीतिक शासन तो 1947 में समाप्त हो गया, मानसिक शासन अभी पूरी तरह समाप्त नहीं हुआ। जरूरत है कि हम अपनी चीज़ों के महत्व को समझें और वन काटकर वृक्षारोपण वाला कार्य न करें।
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