वो स्नान के बाद आई,
जैसे मंदिर की मूर्ति जल से पवित्र हुई हो—
भीगी पलकों पर कुछ नमी,
और देह पर भोर की हल्की धूप।
वो शीशे के सामने रुकी,
धीरे से उठाया वह छोटा डिब्बा,
और जब उसने अपनी माँग में
लाल सिंदूर सजाया,
एक क्षण को समय रुक गया।
मैंने देखा—
उसके काले घने बालों के बीच
सूरज की पहली किरण
कुछ इस तरह उतर आई,
मानो स्वर्ण-रेखा कोई
रात्रि की गहराई में खो गई हो।
उसकी माँग में भरा लाल रंग
मुझे उसके जीवन की धड़कन-सा लगा,
जैसे किसी के प्रेम में डूबा रक्त
धमनियों से निकल
ललाट तक आ गया हो।
यह सिंदूर,
न केवल उसका श्रृंगार है,
बल्कि उसकी आस्था, उसकी शक्ति है—
जिसे वह हर दिन
अपने संकल्प की तरह पहनती है।
मैं अपलक निहारता रहा—
उस नारी में कोई देवी समाई थी,
या देवी ने उसका रूप लिया था?
सोचता रहा—
क्या वह सौभाग्यवती है
क्योंकि उसका कोई पति है?
या उसका पति ही
भाग्यशाली है
कि जीवन ने उसे
ऐसी अर्धांगिनी दी?
शायद,
यह सिंदूर उस लौ की तरह है
जो किसी और के जीवन को
उजाला दे जाती है,
बिना जले,
बिना कुछ कहे।
(महादेवपुर घाट, भागलपुर, चैत्र मास शुक्ल अष्टमी, 2025)
1 comment:
Always pleasure to read you.. Very powerful lines, specially.. "या उसका पति ही
भाग्यशाली है
कि जीवन ने उसे
ऐसी अर्धांगिनी दी?"
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