Saturday, October 18, 2025

नीले निशान का गीत

देखता हूं —
युवा पीढ़ी को उंगली में स्याही लगा के
सेल्फी लेते हुए।
कैमरे के सामने मुस्कुराते हैं,
जैसे कोई युद्ध जीत आए हों
या जैसे लोकतंत्र
उनकी उंगली पर सिमट आया हो।

पर मैं जानता हूं —
यह स्याही यूं ही नहीं लगती।
इसका रंग बना है
असंख्य शिक्षकों के पसीने से,
जो घर-घर जाते हैं,
नाम पुकारते हैं —
“कहीं कोई मतदाता छूट तो नहीं गया?”

उनके जूतों में धूल है,
पर आंखों में उजाला —
कि नाम जुड़ते रहें
तो देश जुड़ता रहेगा।

इस स्याही में मिला है
उन सिपाहियों का त्याग,
जो अपने घरों से दूर
वीरान स्कूलों में ठहरते हैं —
जहां बिजली नहीं,
पर मच्छर जरूर होते हैं।
वे कहते हैं —
“ड्यूटी इज़ ऑन, सर।”
और उस एक वाक्य में
सारा राष्ट्र गूंजता है।

यह स्याही बनी है
उन अधिकारियों की थकी  सूखी आंखों से
जो भूल चुके हैं
अपना घर, अपनी छुट्टियां, अपनी नींद।
फाइलों के बोझे तले
वे खोजते हैं लोकतंत्र का चेहरा —
हर बार नए नाम से, नई सटीकता से।

और जब कोई युवा
अपनी स्याही लगी उंगली
सोशल मीडिया पर दिखाता है —
मुझे लगता है
जैसे किसी नदी ने
अपना जल लौटाया है बादलों को।

यह स्याही का काला टीका
सिर्फ़ निशान नहीं —
एक वादा है,
एक स्मरण है,
कि हम इस सपने को सहेज कर रखेंगे,
और स्नेह भरा एक दबा सा डर
कि अपनी जम्हूरियत पर
कभी किसी की नज़र न लगे।

हर कुछ वर्षों में
यह स्याही फिर लगनी चाहिए —
जैसे दीपावली में दिया जलता है,
वैसे ही चुनाव में लोकतंत्र।

क्योंकि यही तो वह रंग है
जिससे भरी जाती है आशा की मतपेटी।
हर वोट — एक कली है
जो खिलती है विश्वास के मौसम में
और बनाती है अपना लोकतंत्र का बागीचा।

तो जब उंगली पर स्याही लगे —
थोड़ा ठहर कर देखना,
यह सिर्फ़ नीला काला  रंग नहीं है —
यह मेहनत, यह त्याग, यह उम्मीद का रंग है।

और इस रंग को
बीच-बीच में लगाना ज़रूरी है —
कि याद रहे,
हम अब भी ज़िंदा हैं
एक लोकतंत्र में,
जहां स्याही सूखती नहीं,
बस अगली सुबह तक
सम्भाल कर रखी रहती है।

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