हावड़ा से रात पौने दस बजे एक ट्रेन खुलती है, हावड़ा जमालपुर एक्सप्रेस। पर लोग इस ट्रेन को सुपर के नाम से जानते हैं। गाडी खुलने के दस पंद्रह मिनट पहले चौदह नंबर प्लेटफार्म पर अगर आप खड़े हों तो आपको लगेगा कि आप बंगाल में नहीं बल्कि बिहार में खड़े हैं। अरे महराज, रास्ते में खड़े रहियेेगा तो कैसे होगा। थोड़ा सा हटो बाबु। सुपर खुल गया का। थरमस दो, बच्चे के लिए पानी भर लेते हैं। ऐसी आवाज़ें और बोली सुन कर आपको महसूस होता है कि रोजी रोटी की तलाश में आकर कोलकाता शहर में बसे आप अकेले प्रवासी बिहारी नहीं है। बहुतेरे हैं, जो शहर में टैक्सी चलाते हैं, और बदले में कोलकाता उनकी रसोई चलाता है। कुछ हैं जो रिक्शा चलाते हैं, कुछ हैं जो लैपटॉप चलाते हैं, और कोलकाता उनकी गृहस्थी चलाती है।
ट्रेन में बैठिये और राजनीति की बात न हो, संभव ही नहीं है। और आप बिहार जाने वाली ट्रेन में बैठे हैं और राजनीति की बात न हो रही हो, तो आपको तुरंत ही चेन खींच कर उतर जाना चाहिये, क्योंकि निश्चित तौर से आप गलत ट्रेन में बैठे हो। भले ही रात के पौने दस बजे ट्रेन हावड़ा से खुले, एक डेढ़ घंटे तक देश लौटने की खुशी और फिर देश का हाल बयां करना लोग नहीं भूलते। बिहारी लोग गांव को देश बोलते हैं। गांव से दूर कोई भी जगह विदेश जैसी ही तो है। बड़ा दिन से सोच रहे थे कि देश हो आयेंं, मौके नहीं मिल पा रहा था। मेरा मंझला बेटा पुतोहू इधर ही हैं मानिकताला में। वहीँ आये थे भेंट घांट हो गया , अब जा रहे हैं । हमारा सेंटर पड़ा था बालीगंज हाई स्कूल में पीओ के एग्जाम का। पिछले बार,, इंटरव्यू तक गए थे, इस बार रिटेन ही बढ़िया नहीं हुआ। देखिये क्या होता है। जितने सीट, उतनी मानव कहानियां। हर किसी को साथ लिए सुपर चलती है, छुक छुक वाली लोरी भी सुनाती रहती है।
सीट लगा लें थोड़ा, हमको साहेबगंज उतरना है। मैं कहता हूँ, तो विषय वस्तु ही बदल जाती है चर्चा की। लोवर बर्थ लेकर मुझे मिडल बर्थ देने वाले चचा शुरू हो जाते हैं। टाइम तो वैसे साढ़े तीन का ही है, लेकिन आजकल लेट कर दे रहा है। तीनपहाड़ के पास अपर इंडिया से क्रॉसिंग में ही गाड़िया लेट हो जाती है। यही दस दिन पहले गए थे, सात बजा दिया था साहेबगंज पहुँचने में। सुपर की सारी समसामयिकी कथा बांचने के बाद आपको सोने का मौका मिलता है। आराम से सो जाइये, आपको उठा देंगे, हमको भी वहीँ उतरना है, अगर गाडी संकरी में रुकी तो वहीँ उतर लेंगे। जी धन्यवाद चचा कहकर सोने की कोशिश करता हूँ।
आपको बोले ना इ रिजरबेसन बॉगी है, आप उतर के चले जाइये जेनरल में। टीटी की आवाज़ मेरी कच्ची नींद तोड़ती हुई फ़ैल जाती है पूरे बॉगी में। देखिये सर अगर कुछ हो सके तो, साथ में लेडीज है। एक और गुज़ारिश। आप लोगों को समझना चाहिये, बिना रिजर्वेशन के फैमिली लेकर चलना चाहिए क्या? ऐसा करिये, इकहत्तर नंबर पर फिलहाल बैठिये, हम बाकी चेक करके आते हैं। काले कोट वाले की बात सुन दोनों के चेहरे पर चमक आ जाती है। और फिर मैं वापस अपनी नींद पाने को कोशिश करने लगता हूँ।
उठिये उठिये, गाडी संकरी इन कर गया है। शायद फरक्का एक्सप्रेस से क्रोसिंग दे दिया है। हम उतर रहे हैं, आप भी उठ जाइये। अगला साहेबगंज ही है। सहयात्री सीट के नीचे अपनी चप्पल ढूंढते ढूंढते आपको भी उठाने का अपना वायदा पूरा करना नहीं भूलते। हवाई जहाज में सौ यात्रियों की मदद के लिए चार एयर हॉस्टेस होती हैं, रेल के डब्बे का हर यात्री दूसरे के लिये एयरहोस्टेस होता है। कुछ खाइएगा, अरे लीजिये थोड़ा, बाजार में नहीं मिलेगा इ चीज़ खाने को आपको, लीजिये बीच वाला पन्ना आप पढ़ लीजिये, फ्रोन्ट पेज हम पढ़ कर दे देते हैं कुछ देर में, एक मिनट रुकिए आपका अटैची हम निकाल के देते हैं, आपको दिक्कत होगा। सुपर के सहयात्री आपको जब यह सारी सुविधाएं दे रहे हैं वह भी बिना कीमत के, तो फिर आप एयरहोस्टेस की कमी क्यों महसूस करेंगे।
अपना सामान ले साहेबगंज स्टेशन पर उतरता हूँ, तो चार पांच लोग सामान उठाने को आ जाते हैं। मैं अपना सामन खुद उठाने का पक्षधर रहा हूँ, कभी कभी यह सोच कर भी रुक जाता हूँ कि किसी ईश्वरचंद्र विद्यासागर से सामान उठवाने की भूल न कर बैठूं। वैसे साहेबगंज स्टेशन आपको भले ही छोटा सा दिखे, इतिहास का एक पन्ना वहां भी पड़ा हुआ है। यह साहेबगंज रेलवे डिवीज़न ही था, जिसको पत्र लिख ओखिल चंद्र सेन ने रेलवे डब्बे में शौचालय की व्यवस्था करवाई थी।
सुबह के चार बजने वाले हैं, साढ़े चार तक मनिहारी वाली पहली एल सी टी खुलेगी। सामान हाथ में लिये, स्टेशन से बाहर निकलता हूँ तो सारे रिक्शेवाले इतनी आत्मीयता से आवाज़ लगाते हैं कि आप अनसुना नहीं कर सकते। इ बाबू। घाट चलना है, आइये पहुंचा देंगे। अभी एल सी टी निकलने में देर है, रिक्शा से चलिएगा तो दस मिनट लगेगा। पैदल मत जाइए, राते में एक ठो पगला कुत्ता भमोर ले रहा है आजकल सबको। पैदल भाग भी नहीं पाइयेगा। भय के बिना होत न प्रीति वाले सिद्धांत को इन रिक्शावालो ने अच्छे से जीवन में उतार लिया है। पिछले बारह साल से साहेबगंज उतर कर मनिहारी के लिए एल सी टी पकड़ता हूं, आजतक कोई पागल कुत्ता नहीं दिखा। लेकिन आज भी वही मार्केटिंग तकनीक उतनी ही प्रभावी है, यह देख शायद कोटलर साहब भी शरमा जाएँ। एक मुस्कान के साथ एक को इशारा करता हूँ। घाट पर चलने का कितना लोगे । जो सही बनेगा दे दीजियेगा , आपसे कुछ छिपा थोड़े है। मेहनत के बदले जो बने, छाती के बल पर टान ते हैं रिक्शा। अब इस डायलॉग के बाद आपकी मोलभाव की सारी शक्ति जाती रहती है, और आप बैठ जाते हैं रिक्शे में।
गमछा हमारे सीमांचल इलाके की एक पहचान है। आपने गमछे से ज्यादा बहुपयोगी चीज़ शायद ही देखी हो। गर्मी के दिनों में भींगा गमछा, सर का आवरण बनता है तो छाव में सुस्ताने के लिए तकिया। कभी लेटने के लिये चादर बन जाता है तो नहाने समय अंगवस्त्र। रिक्शे वाले के लिये गमछा एक सत्तु बांधता टिफिन बॉक्स भी है तो सीट साफ़ करने के लिये झाड़न भी। रिक्शेवाले आपको बिना सीट साफ़ किए, बैठने के लिए नहीं कहेंगे। गमछे से साफ़ की गयी सीट पर बैठकर चल पड़ता हूँ साहेबगंज घाट की ओर। रास्ते में वही पुराना आधा बना मंदिर जिसके सामने पड़ा 'मंदिर निर्माण के लिए दान दें' वाला पोस्टर साल में दो बार बदल जाता है। उसका वो पुरोहित जिसे अब पहचानने सा लगा हूँ। रिक्शा वाला हमेशा वहाँ रुक एक बार प्रणाम जरूर करेगा। बोहनी सवारी है ना, मैय्या का आसीरबाद रहा तो दिन बढ़िया जायेगा। रिक्शे वाले के साथ आप भी सर झुकाते हो। मैया के दरबार में सब बराबर।
सिर्फ मैया के दरबार में सब बराबर नहीं होते। साहेबगंज घाट से मनिहारी घाट तक चलने वाले एल सी टी में में इंसान ही नहीं, ट्रक, मोटर साइकिल , गाय, भैंस, बकरी सब बराबर हैं। सबको गंगा पार जाने के लिये एल सी टी ही पकड़नी है।
सबसे पहले ट्रक चढ़ते हैं एल सी टी पर। चाय की एक छोटी दुकान पर बैठा ट्रक को एल सी टी पर लोड होते देखना भी एक अलग ही अनुभव है। एक ट्रक को ऊपर घाट से कच्चे रास्ते बैक गियर में नीचे गंगा में खड़ी एल सी टी पर चढ़ाना कोई आसान काम नहीं है। अकेला ड्राइवर नहीं कर सकता, इसीलिये कम से कम दस लोग मदद करते हैं ।
आराम से । आराम से। दायें दाब के चलो, थोड़ा और। हाँ जाने दो जाने दो।
अरे बाबू, हट जाओ पीछे से, इतना जल्दी काहे है गंगा मैया से मिलने का।
कैसा खलासी है, नया भर्ती हुआ है क्या? देख नहीं रहा है गाडी जा रहा है पानी में। बुड़बक कहीं का।
चाय वाला चाय बनाते बनाते यह सारी कमेंट्री करता रहता है, चाहे ड्राइवर उसकी सुने या ना सुने। उसका काम है बोलना। ट्रक लोड होने के बाद कार जीप और मोटर सायकिल लोड होती हैं। सबसे आखिर में
मैं सवार होता हूँ , ताकि जहाज में सबसे आगे खड़ा हो गंगा पार कर सकूं। अपने नियत समय से एल सी टी चल पड़ती है।
सुबह सुबह सूर्योदय से पहले जहाज के डेक पर खड़े ठंडी हवा को अपने चेहरे पर महसूस करने का आनंद शब्दों में बयान करना असंभव है। पानी की आवाज़, नेपथ्य से आती जहाज के मोटर की चीख, लोगों का चलता संवाद , और गाय भैंसों का वार्तालाप सब मिल विविध भारती के पचरंगी कार्यक्रम से ही लगते है। फिर कुछ देर बाद जब आप गंगा की बीच धारा में पहुँचते हो तो आकाश अरुणिम हो जाता है। मानो पिया सूरज के आने की खबर सुन शर्म और खुशी से नवविवाहिता आकाश के गाल सूर्ख हो गये हों। उषाकाल का सौंदर्य आप शहर में शायद ही देख पाते हैं। उषाकाल के किरणों के आने के साथ आपको दिखने लगता है नदी के बीच में बालू वाली ज़मीन के टुकड़े जिनको दियारा कहते हैं। दियारा क्षेत्र खीरा, तरबूज़ और परवल की खेती के लिए उपयुक्त होते हैं । छोटे छोटे नाव और डोंगी सब्जियों से भर मनिहारी और कटिहार बाजार के लिए जाते आपको दिखने लगते हैं। इसे पहले की आप इस सौंदर्य को पूरी तरह आत्मसात कर सकें, आवाज़ सुनाई पड़ती है। सोंस, वह देखो सोंस। मीठे पानी की डॉल्फिन जो गंगा में मिलती है, सोंस कहलाती है। आपके जहाज के साथ कभी होड़ लगाते सोंस का दल आपको हतप्रभ कर देता है। पर यह नज़ारा ज्यादा देर तक नहीं रहता, सोंस शर्मीले स्वभाव के जीव हैं। जल्दी ही छिप जाते है माँ गंगा की गोद में।
अब सूरज भी पूरी तरह निकल चुका होता है और सुदूर क्षितिज पर आपको दिखने लगता है, मनिहारी घाट। गंगा स्नान करते श्रद्धालु, उनको प्रसाद, सामान, गंगा जल का पात्र बेचते छोटे दूकान, अघोरी बाबा, और बालू ढोने वाले मल्लाहों को आप दूर से ही देख सकते हैं। फिर आपको अचानक से लगने लगता है कि यह जहाज़ इतना धीरे क्यों चल रहा है। जल्दी से किनारे क्यों नहीं पहुँचता। जैसे जैसे जहाज़ नज़दीक पहुँचता है आप गंगा किनारे खड़े लोगों की आवाज़ भी सुन सकते हैं।
जैसे ही जहाज मनिहारी घाट पर लगता है, दौड़ कर सबसे पहले उतरता हूँ। और जब रिक्शा वाले, ऑटो वाले मेरा नाम लेकर पुकारते है तो अहसास होता है कि घर आ गया। वैसे ही सुरक्षित महसूस करता हूँ जैसे लूडो की गोटी सारे खतरों को पार कर लंबी दूरी तय कर अपने होम पहुँच गयी हो जहाँ उसे न ही किसी और गोटी से कटने का डर है और ना किसी गोटी को काटने की इच्छा। जहाँ से आगे कहीं नहीं जाना , बस आराम से रहना है। आप घर आ गए हैं।