Tuesday, December 27, 2022

happy 57th Birthday Salman bhai

A guy born in 1988 is not eligible to appear in the UPSC 2023 examination as he is three years older than the maximum age limit allowed to appear in the examination.

If we take 1988 as the reference year, Virat Kohli was yet to be born, as were the rest of our cricket team. Messi was a toddler yet to celebrate his first birthday. Disha Patani was four years away from being born, and Bill Gates was just a new billionaire with a net worth of $1.5 billion.

BJP had 2 MPs in Lok Sabha and Congress had 404. The phenomenon of Lalu Ji was yet to happen in Bihar, and Ramanand Sagar's Ramayan was still running its first telecast on Doordarshan. And yes, no 90s kids have been born yet. Sachin still had to play his first international match.

Seems pretty old, na.. that's when "Biwi ho to aisi" was released with Sallu bhai as the leading man. Thanks to the love of the audience and the advance medical technology of surgeons, the world around him has gotten old, but not our Bhai.

Happy birthday, Salman bhai. May you remain young as always and keep hosting Bigg Boss, by which you remain the biggest crusader and individual contributor in mass scale solid waste management efforts in India.

बक्सा और लकड़ी

सीधी लकड़ी फिट नहीं होती
एक छोटे बक्से के भीतर,
चाहे उसे टेढ़ी रखो या आड़ी।
चाहे उसका अधिकतर हिस्सा 
चला जाय बक्से के अंदर,
लेकिन एक सिरा फिर भी
बाहर झांकता रहता है ।
मानो मंजूर नहीं उसको
पूरी तरह बक्से में कैद हो जाना।
जैसे अपने हिस्से की खुली हवा 
के लिए मंजूर है उसको 
अपनी गर्दन फसाना बक्से के ढक्कन के बीच।
सीधी लकड़ी का बाहर झांकता सिरा
फिट नहीं होने देता बक्से के ढक्कन को,
ढंग से बंद नहीं ही पाता बक्सा
लकड़ी की वजह से।
अधखुला बक्सा छुपा नहीं पाता
उसके अंदर पड़ी तुड़ी मुड़ी तारों को।
जो लकड़ी से कहीं ज्यादा महंगी हैं
लेकिन जो मुड़ गई हैं बक्से के अनुसार।
दूसरे तारों से जुड़ने के लिए 
तारें नंगी भी हुई हैं किनारों पर।

तारें जो मुड़ जाती हैं 
बहुत आसानी से 
जुड़ जाती हैं आसानी से दूसरी नंगी तारों से।
और आसानी से ढाल लेती हैं
अपने आप को बक्से के मुताबिक
और बना लेती हैं अपना नेटवर्क।
लेकिन सीधी लकड़ी ना मुड़ती है
और ना जुड़ती हैं आसानी से।
और ना ही बनता है 
सीधी लकड़ी का कोई नेटवर्क।

लकड़ी को जोड़ने के लिए 
बींधना पड़ता है उसे कीलों से।
और जुड़ने के बाद भी उनमें
वो करेंट नहीं दौड़ता।
जो दौड़ जाता है जुड़ी मुड़ी नंगी
 सुचालक तारों से।
सीधी लकड़ी कुचालक कही जाती हैं
जो बिगाड़ देती हैं बक्से की हर कोशिश
उसको अपने अंदर समेटने की।

इसलिए हर बक्सा करता रहता है कोशिश
 सीधी लकड़ी को तोड़ने की
पर लकड़ी है कि अपनी ज़िद पर अड़ी रहती है ।
टूट जाने पर भले पड़ी रहती है
टूटी हुई लकड़ी नंगी तारों के साथ, बक्से के अंदर ।
जब तक टूटे नहीं हर सीधी लकड़ी
बिना मुड़े, बिल्कुल सीधे
छोटे वाले बक्से की गर्दन पर खड़ी रहती है।



Monday, December 19, 2022

दूर के रिश्तों की कथा

रिश्तेदार दो तरह के होते हैं। एक होते हैं रिश्तेदार जैसे बहन, साला। और दूसरे होते हैं दूर के रिश्तेदार।  जैसे दूर की बहन, दूर का साला। रिश्तेदारों की बात क्या करें। रिश्तेदारों की कारनामें अगर जानना हो तो रामायण, महाभारत कुछ भी पढ़ लें, पता चल जायेगा। रामायण और महाभारत पढ़ने का समय ना हो तो पास के किसी वकील के पास कचहरी चले जाएं , नजदीकी रिश्तेदारों की कहानी आपको पता चल जायेगी। आज हम बात करेंगे दूसरे टाइप के रिश्तेदारों की , दूर के रिश्तेदारों की।

पहला रिश्ता है जीवन साथी का। आप कहेंगे पति पत्नी कहां से दूर का रिश्ता हो गया। तो सुनिए, बीवी तो हमेशा ही दूर की अच्छी  लगती है। पति दूर ही रहे तभी सुहाता है, घर पर बैठा पति तो जान की आफत के जैसा है। दूर बैठा पति दो पैसे कमा के भेजता है। घर बैठे पति को सुबह गरम चाय चाहिए और रात में गरम बिस्तर। वैसे ही दूर बैठी बीवी फोन पर प्यार के दो लफ्ज़ सुनाती है, रात में खर्राटों की शिकायत नहीं करती और ना ही दीवाली की सफाई के लिए चिक चिक करती है।  पति या पत्नी में दूरी का गुण मिल जाय तो पति या पत्नी चाहे कैसी भी हो सर्वगुण संपन्न लगने लगती है। शायद शादी के समय मिलाए जाने वाला छत्तीसवां गुण दूरी ही है। 

बाकी के दूर के रिश्तेदारों की बात ही अलग है। हमेशा किसी शादी में मिलेंगे, मीठा मीठा बोलेंगे। अरे यह इतनी बड़ी हो गई, वो इतना बड़ा हो गया।  चाहे आप पूरे मोहल्ले की ताई दिखने लगी हों , दूर वाले रिश्तेदार कहेंगे तुम तो बिल्कुल भी अपने बच्चों की मां नहीं लगती उनकी बहन लगती हो। आप खुश हो जाते हो। हालांकि इसका एक मतलब यह भी हो सकता है कि आपके बच्चे भी पूरे मोहल्ले के ताऊ जैसे दिखते हैं इसी लिए आपके भाई बहन जैसे दिखते हैं। खैर जो भी हो दूर के रिश्तेदार मिल कर क्षणिक ही सही आपको खुशी देते हैं। और उनके बच्चों को देख कर आपको अपने बच्चों के लिए नए जीवन लक्ष्य भी मुफ्त में मिल जाते हैं। जैसे उसका बेटा तो कोटा जाकर पढ़ रहा है, बेटी ने आईएएस की कोचिंग में एडमिशन लिया था, आज एक आईएएस उसका बॉयफ्रेंड है। छोटा बेटा सातवीं में ही आईआईटी के क्वेश्चन सॉल्व करता है। मिल गया आपको मैटेरियल अपने बच्चों को जीवन ज्ञान देने के लिए। और ऐसा नहीं है कि सिर्फ आपको जीवन ज्ञान मिला, आपके बच्चों को भी काफी कुछ मिल जाता है आपसे बात करने लायक। पापा उन्होंने अपने बेटे को आईफोन 14 pro मैक्स दिलाया है और आपने मुझे माइक्रो मैक्स। मम्मी उनकी बेटी शहनाज हुसैन के पार्लर से फेशियल कराती है और आप घर की बची हुई दही और हल्दी से फेशियल करती हो मेरा। फिर तो बैंक पीओ दामाद से काम चलाओ, आईएएस दामाद के लिए इन्वेस्ट करना पड़ता है बेटी में। कुछ सीखो दूर वाले अंकल आंटी से।

रिश्तेदार दूर के बहुत काम भी आते हैं। Oyo होटलों, और पार्कों में आप अक्सर दूर के cousins को एकसाथ देखते हो। अगर दूर के cousins ना हों तो होटलों का आधा धंधा तो ऐसे ही बंद हो जाय। कॉफी शॉप को ताला पड़ जाय और पार्क में सिर्फ वो बूढ़े दिखें जिनको डाक्टर ने सुबह की दवाई खाने से पहले टहलने को कहा है। मतलब यह कि यह दूर के रिश्तेदार के बदौलत ही देश के पार्कों, बाजारों और होटलों की रौनक है ।

दूर के रिश्तेदारों की बात ही अलग है। नजदीक के पड़ोसियों पर धौंस जमाने के लिए दूर के रिश्तेदारों सी अच्छी चीज आज तक नहीं बनी। बैंगलोर में रहने वाले हर बंगाली परिवार की दूर की बुआ ममता दी हैं और दिल्ली के चित्तरंजन पार्क में घूमता हर बंगाली मिथुन दा या सौरव गांगुली का रिश्तेदार है। किसी भी बिहारी से मिल लीजिए। या तो तेजस्वी उनके दूर के मामा होंगे या नीतीश दूर के फूफा। कुछ बूढ़े हुए तो वो लालू जी के साथ बीएन कॉलेज में पढ़े होंगे या सुशील मोदी की चचेरी बहु उनकी मौसेरी बहन लगेगी। असर तो पड़ता ही है। आजमगढ़ का हर लौंडा जब भाई शब्द बोलता है तो वो दुबई और कराची वाले दाऊद भाई की ही बात करता है।

बाकी अपने रिश्तेदार तो गिने चुने ही होते हैं, बाकी दुनिया पर तो दूर के रिश्तेदारों का ही कब्जा है। भगवान की बनाई सबसे नायब चीज है दूर का रिश्ता। खून के रिश्तों को बहुत मेहनत करने की जरूरत है दूर के रिश्तों की तरह बनने के लिए। 

Tuesday, November 15, 2022

कांतारा और रामलीला में गूंजते अनुनाद की ध्वनियां

भौतिकी की एक अवधारणा है जिसे अनुनाद कहते हैं। अंग्रेजी में इसे resonance कहा जाता है। इसके अनुसार हर वस्तु की एक प्राकृतिक आवृति होती है, जब भी कोई बाह्य बल वस्तु पर उसकी प्राकृतिक आवृति के बराबर या उसके आस पास की आवृति से लगता है तो वस्तु में सर्वाधिक दोलन प्रारंभ हो जाता है। सामान्य बोलचाल की भाषा में समझें तो इसे किसी वस्तु के बाह्य बल के प्रति प्रतिक्रिया उस समय सर्वाधिक होती है जब वस्तु बाह्य बल की आवृति या प्रकृति से साम्य का अनुभव करता है। 

हमारे गांवों में शहरों में विदेशों में बसे भारतीय मूल के समाजों में रामलीला या रामायण आधारित कहानियों का मंचन एक सामान्य बात है। दिल्ली जैसे बड़े शहरों में रामलीला को देखने के लिए उमड़ती भीड़ एक सवाल जगा जाती है। आखिर यह भीड़ इतनी उमड़ती क्यों है? सबको पता है कहानी क्या है, यहां तक कि पात्र तक वही रहते हैं। वोही एक आदमी हर साल हनुमान बनता है और वोही एक आदमी रावण। यहां तक कि सीता भी कोई आदमी ही बनता है वो भी हर एक साल। फिर भी हजारों की भीड़ जमा होती है, हरेक संवाद पर ताली बजाती, हरेक दृश्य पर भावुक होती, हरेक युद्ध के दृश्य पर रोमाचित होती। ऐसा दृश्य किसी और भी फिल्म नाटक या कथा को देखते वक्त क्यों नहीं होता, जहां अलग कहानी अलग पात्र अलग संवाद और अलग रोमांच मिलकर भी रामलीला का असर उत्पन्न नहीं कर पाते।
हाल में फिल्म कंतारा देखने का अवसर मिला। बिल्कुल गंवई कहानी है। बीड़ी, गांजा, ताड़ी पीता नायक। पुलिस में सिपाही की छोटी नौकरी करती नायिका। गांव के अनपढ़ लोगों की दकियानूसी वाली बातें जिन्हें कोला नृत्य करने वाले नर्तक को भगवान मानने की आदत है। संगीत भी मुझे कोई खास नहीं लगा, लेकिन जाने क्या बात है कि फिल्म बॉक्स ऑफिस पर और समीक्षकों दोनो की नजर में विजेता बन के उभरी है। ऊपरी सरसरी निगाह से ऐसा कुछ भी नहीं दिखता जिसकी वजह से फिल्म इतनी बड़ी हिट हो जाय। लेकिन फिल्म सिर्फ हिट होने की बात नहीं है, दर्शकों पर यह फिल्म गहरा असर छोड़ती है। थिएटर के अंधेरे कमरे से बाहर निकलने के बाद भी दर्शक अपने साथ कंतारा का एक टुकड़ा साथ लेकर लौटते हैं। 
रामालीला हो, कांतारा हो, रामायण सीरियल का दूरदर्शन पर फिर से दिखाया जाना हो, दर्शकों पर इसकी प्रतिक्रिया सामान्यतया अपेक्षित प्रतिक्रिया से कहीं ज्यादा है। ऐसा कुछ जैसे गैर भौतिक चीजों में अनुनाद या resonance की प्रक्रिया हो रही हो। कांतारा का नायक नशा करता है, भैंसों के साथ दौड़ता है, जंगली सूअर का शिकार करता है, लेकिन फिर भी दर्शकों का प्यारा बना रहता है। शायद इसलिए कि कहीं न कहीं वो शिव के ढांचे में ढाला गया एक चरित्र है। और भगवान शिव तो भारतीय जनमानस में हमेशा से बसे हैं। चाहे वो सिंधू घाटी के मुहरों पर विराजमान पशुपति हों, या हर हर शंभू वाले पॉप सांग की प्रेरणा , या फिर कांतारा के नायक की मूल प्रतिकृति। शिव हमारी संस्कृति के सतत चरित्र के संवाहक रहे हैं। ऐसा ही कुछ राम के चरित्र के साथ भी है। कदाचित इसीलिए राम कथा चिर पुरातन होने के साथ साथ सदैव नव्यता का भाव लिए चिर नूतन भी बनी रहती है।

राम और शिव के चरित्र की आवृति भारतीय जनमानस भारतीय संस्कृति की मूल आवृति के बहुत नजदीक है। इसलिए इन चरित्रों के आसपास गढ़ी गई कथाएं हम पर इतना ज्यादा प्रभाव डालती हैं। यह अनुनाद या रेजोनेंस का एक ही एक और पहलू है जिसे मौतिकी के सूत्रों या सिद्धांतों के आधार पर परिभाषित या व्याख्यायित करना संभव नहीं है। 

Sunday, November 6, 2022

गांव और डस्टबिन

हमारा गांव बहुत पिछड़ा हुआ था। हमारे गांव में किसी के घर में डस्टबिन नहीं था। कचरा के नाम पर सब्जी के छिलके होते थे जिसे गौमाता को खिला दिया जाता था। किचन से मांड़ और चोकर निकलता था जो गौमाता को ही अर्पित हो दूध बन कर वापस आ जाता था। दूध भी गौशाले से सीधे बाल्टी में घर आता था इसीलिए कभी प्लास्टिक के थैलों की जरूरत नहीं थी। सब्जी वाली अपने सर पर ताजी खेतों के तोड़ी हुई सब्जियों को ढोकर घर घर बेच आती थी, बाकी सब्जियां घर के पिछवाड़े बाड़ी से निकल आती थी। पॉलिथीन बैग का नाम नहीं सुना था। 

गेंहू धोकर आंगन में पुरानी साड़ी पर रख कर सुखा लिया जाता था और फिर गांव की चक्की में पीस कर आ जाता।कभी प्लास्टिक के थैलों में आटा रखने की जरूरत नहीं पड़ी। दालान वाला नीम का पेड़ ब्रश दे देता था और बहुत जरूरत पड़ी तो नमक और सरसों का तेल से दांतों की सफाई हो जाती थी। 

कपड़े साल में दो बार थान से कट के आते और पड़ोस से दर्जी से सिल के आते। कभी अमेजन वाली प्लास्टिक की तीन तह वाली पैकिंग की जरूरत नहीं पड़ी। गांव में कोई म्युनिसिपैलिटी वाली गाड़ी, गाड़ी वाला आया घर से कचरा निकाल, वाला गाना सुना कर कचरा तक जमा नहीं करता। क्योंकि किसी घर में कोई कचरा था ही नहीं। सत्यनारायण पूजा भी हुई तो प्रसाद केले के पत्ते पर और गांव में भोज हुआ तो सखुए के पत्ते में भोज हो जाता था। 

पानी घड़े में रहता था, उस समय प्लास्टिक की बोतल में पानी अगर कोई बेचता तो लोग उसपर आश्चर्य से हंसते बस। इसीलिए नहीं कि गांव वाले पानी की कोई कीमत नहीं समझते थे बल्कि इसीलिए की वो पानी को अमूल्य समझते थे। इसलिए नदियों को मां कहते और पोखर में किसी न किसी देवता का वास मानते। छठ की पूजा के बाद घाटों पर प्लास्टिक का अंबार नहीं बस केले के थंबों से बनी सजावट शेष रहती थी, जिसे साफ करने के लिए किसी एनजीओ या नगरनिगम की जरूरत नहीं पड़ती थी। 

आज देखता हूं घर घर में प्लास्टिक के कचरे को रखने के लिए प्लास्टिक के डस्टबिन हैं जिनमें प्लास्टिक का एक नया थैला रोज लगता है। अंदर दूध के पैकेट, पुराने टूथ ब्रश, सब्जियों वाली पॉलिथीन, पूजा के बाद प्लास्टिक के दोने और रात की पार्टी के बाद डिस्पोजेबल प्लेट और ग्लास के ढेर लगे होते हैं। कचरा अच्छे से जमा किया जाता है और अच्छे से शहर से दूर एक जगह जमा कर दिया जाता था। धीरे धीरे शहर खिसक कर कचरे के ढेर के पास पहुंच जाता है।  फिर कचरे का वो पहाड़ किसी और जगह दूर चला जाता है और फिर शहर खिसक खिसक कर कचरे के ढेर के पास पहुंच जाता है। कचरे के ढेर का पीछा करता शहर बड़ा होता जाता है। हमारा गांव कभी ऐसे बड़ा नहीं हुआ क्योंकि वोह कचरे के ढेर ना बनाता था और न उसका पीछा करता था। हमारा गांव पिछड़ा ही रह गया क्योंकि हमारे गांव में किसी भी घर में डस्टबिन नहीं था।

Thursday, November 3, 2022

शरीर में बांछे कहां होती हैं?

हिंदी में एक मुहावरा है बांछे खिलना। और इसी के साथ श्रीलाल शुक्ल द्वारा राग दरबारी में लिखा एक मशहूर मजाक है कि मुझे नहीं पता कि शरीर में बांछे कहां होती हैं लेकिन मेरी बांछे खिल गईं। मैने सोचा कि हिंदी में कोई बात ऐसे निरर्थक नहीं होती। अगर मानव शरीर में बांछे जैसा कोई अंग नहीं होता तो बांछे खिलना मुहावरा आया कहां से। बांछे खिलना का अर्थ है अत्यधिक प्रसन्न होना। 

चूंकि प्रसन्नता एक मानसिक अवस्था है तो बांछे खिलना का कोई मतलब मन से होना चाहिए। एक तत्सम शब्द है वांछा, जिसका अर्थ है इच्छा अभिलाषा। इसी शब्द से वांछनीय , अवांछनीय जैसे शब्द बने हैं। कल्पतरु को भी वांछा कल्पद्रूम कहा गया है। संभव है कि बांछे शब्द वांछा का अपभ्रंश है। स्वाभाविक है कि जब व्यक्ति प्रसन्न होता है तो इसमें अनेक सपनों, इच्छाओं, सुखद भविष्य की कल्पनाओं और आशाओं का संचरण होता है। यह सब व्यक्ति के मन में होता है और संभवतः मन और मन से जुड़े कल्पना लोक में आई इसी तीव्रता को बांछे खिलना जैसे मुहावरे द्वारा निरूपित किया जाता है। वैसे बांछा का एक देशज अर्थ होता है होंठो की संधि। मुस्कुराने की वजह से  हमारी चेहरे पर आई मुस्कान के लंबे होने को भी बांछे खिलने से जोड़ा जा सकता है। वैसे बांछे खिलना अगर प्रसन्नता से जुड़ा है तो आवश्यक नहीं कि वो चेहरे पर प्रतिबिंबित हो ही। मिलाजुलाकार इसकी पहली व्याख्या ही ज्यादा सही प्रतीत होती है।

तो अगली बार कोई जब कहे कि उन्हें नहीं पता कि शरीर में बांछे कहां होती हैं, तो आप उनको कह सकते हैं कि बांछे शरीर में नहीं आपके मन में होती हैं। और उन्हें यह भी बताएं कि बांछे ज्यादा खिलना वांछनीय नहीं है। 

Monday, October 31, 2022

छठ की सुबह

सूनी पड़ी हैं बिहार की सड़कें
चंद लोग चल फिर रहे हैं सुस्त कदमों से,
फीके लग रहे हैं तोरण द्वार,
उनसे लटकी उलझी हुईं हैं 
बुझी हुई झालरें।

चौराहे पर बैठ कर ऊंघ रहा है 
रात भर ड्यूटी बजाता सिपाही,
घर से घाट तक छाई है एक नीरवता
थम गया है लोकगीतों का कलरव
और पटाखों का शोर,
बाकी है तो बस हवाओं में
 घुली ठेकुआ खबौनी की खुशबू,
जिसे खाकर तृप्त हो गया है
 मानो पूरा शहर,
कुछ ऐसे निढाल पड़ा है हर कोई
जैसे बेटी ब्याह कर सोया हो कोई बाप,

यह छठ के बाद की सुबह है।
जिसका उल्लास बिहार
 डूब के मनाता है
जिसका उल्लास बिहार
 खूब से मनाता है।


Monday, October 24, 2022

दिल और दिमाग

 बार सुन चुका हूं कि यहां मैं दिल की सुन रहा हूं, दिमाग की नहीं। या वो दिमाग की सुनता है, दिल की कभी नहीं। चलो मान लिया। फिर यह दिल तो पागल है वाले डायलॉग का क्या मतलब हुआ? पागल तो वो हुआ जिसका दिमाग खराब हो गया हो, मतलब यह दिल के पागल होने का मतलब है दिल का दिमाग खराब हो गया है। इसका सीधा मतलब है कि दिल के पास अपना दिमाग है। और जब दिल से पास अपना दिमाग है तो फिर सोचने का काम दिल अपने वाले दिमाग से ही करता होगा। लब्बोलुआब यह कि दिल की दुहाई देने वाले भी अल्टीमेटली दिमाग से ही काम लेते हैं। दिल से सोचने वाली कोई भी बात बकवास ही है। 

आगे सोचिए तो "हम आपके दिल में रहते हैं" वाली बातें तो और भी डरावनी हैं । आप किसी को आपके दिल में बसा लो तो बेचारा अपना दिमाग बाहर छोड़ कर तो आयेगा नहीं। अपना दिमाग लेकर कोई आपके दिल में रहने लगे तो भारी समस्या है। आपके पास ऑलरेडी दो दिमाग है, एक सर वाला दिमाग और दूसरा दिल वाला दिमाग। सामने वाला इंसान भी अपना दो दिमाग लेकर आपके दिल में आ जाय तो आपका तो पूरा सिस्टम हिल जायेगा। टोटल चार दिमाग आपके शरीर के अंदर । आखिर शरीर सुनेगा किसकी? बाकी एक से ज्यादा चार पांच लोगों को दिल में बसा लेने वाले लोगों की हालत का तो आप बस अंदाजा ही लगा सकते हैं। तीन लोगों को अपने दिल में बसाने वाले लोग एक समय में टोटल आठ दिमाग लेकर चल रहे हैं। वैसे यह संख्या आठ ही हो कोई जरूरी नहीं। यह संख्या आठ से कहीं ज्यादा भी हो सकती है। मान लीजिए जिस इंसान को आपने अपने दिल में बसाया, उसने दिल में पहले से ही चार इंसान और बसते हैं, फिर उसी हिसाब से फी इंसान आपने अंदर दिल की संख्या उसी मुताबिक बढ़ती जाएगी। फिर यह भी हो सकता है कि जिसको आपने दिल में बसाया, वो ऑलरेडी अपना दिल किसी और को दे चुके हैं। फिर आपके अन्दर दिमाग की कुल संख्या उसी हिसाब से कम हो जायेगी। 

कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जिनकी खोपड़ी खाली होती है, मतलब उनके शरीर में दिल वाला दिमाग तो होता है लेकिन खोपड़ी वाला दिमाग नहीं। ऐसे लोग अगर आपके दिल में बसे हैं तो आपके शरीर में टोटल दिमाग की संख्या थोड़ी कम हो जायेगी। 
इसलिए तो बड़े बूढ़े कह गए हैं कि दिल लेना खेल है दिलदार का। एक दिल ले लेने के बाद जो शरीर में जो दिमाग का दही बनता है उसकी तो कल्पना करना भी मुश्किल है।  

अब जब दिमाग लगा के सोचता हूं तो समझने की कोशिश करता हूं कि जब लोग कहते हैं कि कोई दिमाग ही काम नहीं कर रहा, तो यह कोई साधारण बात नही है। कोई दिमाग कहने का सीधा अर्थ है कि वो अपने अंदर छुपे कई दिमागों के बारे में बात कर रहे हैं। वरना वो सीधे कहते कि मेरा दिमाग काम नहीं कर रहा। कोई शब्द लगाने का मतलब हुआ कि दिमाग की संख्या एक से ज्यादा है।

अब यह सारी बात सुना कर दिल हल्का सा लग रहा है। यह भी थोड़ा अजीब ही है। इतनी बकवास करके मैंने जो आपका दिमाग खाया है उसके बाद तो शरीर तो भारी महसूस करना चाहिए, हल्का क्यों महसूस कर रहा है? दिमाग लगा के इस प्रश्न का उत्तर ढूंढिए। बाकी कौन सा वाला दिमाग लगाइएगा, यह मैं आपके दिल पर छोड़ता हूं। दिल दिमाग जो लगाना है, लगाइए बस इतना याद रखिए कि जो भी काम करिए दिल से करिए। समझ नहीं आ रहा कि आगे इस टॉपिक पर लिखूं कि नहीं। दिल ही नहीं कर रहा।
चलिए बाय बाय।

Wednesday, October 12, 2022

गंगा जमुनी तहजीब की पोल

गंगा जमुनी तहजीब का मतलब मुझे समझ में नहीं आता। कारण यह कि प्रयागराज में यमुना आकर गंगा में मिल जाती है और अपना स्वतंत्र अस्तित्व खो देती है और गंगा कहलाने लगती है। गंगा जमुनी तहजीब का मतलब यह कि प्रयाग के आगे सिर्फ गंगा रहेगी, यमुना नहीं। होना तो यह चाहिए कि कोई ऐसा नाम कहा जाय, जहां दोनो का सहअस्तित्व हो ना कि एक को अपने अंदर समेटने और समाहित करने के लिए दूसरा आतुर हो।  

मानव का सौन्दर्य दो अलग अलग आंखों , दो अलग अलग हाथों से ही है। दो आंखों को मिला कर एक बड़ी आंख और दो हाथों को जोड़ कर एक लंबा हाथ ना ही सुन्दर होगा और ना उपयोगी। 

अगली बार कोई गंगा जमुनी तहजीब की दुहाई दे तो पूछिएगा कि आपको जमुना के स्वतंत्र अस्तित्व से इतनी समस्या क्यों है? आप गंगा कावेरी संस्कृति की बात क्यों नहीं करते। उनके तनिक से इशक की कलई खुल जाएगी।

Saturday, October 8, 2022

प्रेमचंद के फटे जूतों के मायने

प्रेमचंद की मृत्यु हमें याद दिलाती है कि कलम तलवार से मजबूत तभी हो सकती है जब कलम चलाने वाला भूखा न रहे। तलवार चाहे कितनी भी तेज क्यों ना हो, जिस सैनिक के हाथों में तलवार है , उस सैनिक के हाथों को उचित पोषण मिलना भी आवश्यक है। तलवार चलाने वाले हाथों के ऊपर अन्य सांसारिक चिंताओं का बोझ नहीं होना चाहिए। बोझिल मानसिकता और कुपोषित हाथों में तेज तलवार भी शत्रु को परास्त नहीं कर सकती। कलम की प्रखर धार भी वैसे लेखक के हाथों में कुंद पड़ जाती है अगर लेखक अपने जीवन में सामान्य भौतिक सुख सुविधाओं के लिए तरसता रहे। 

प्रेमचंद की प्रज्ञा कितनी भी तेज रही है, उनकी क्षुधा की आग हमेशा उनकी प्रज्ञा को सताती रही। आखिर क्षुधित काया में स्वास्थ्य और रचनात्मकता कितने दिन वास कर सकती है। प्रेमचंद हमारे महानतम कलमकार भले ही रहे हों, हमेशा अकिंचन ही बने रहे। उनका प्रेस तो उनका खून पीकर ही चलती रही। उनकी फटे जूते देख कर तो परसाई जी एक निबंध तक लिख दिया। कई संस्मरण तो यह भी बताते हैं कि उनकी आखिरी यात्रा में कुल छह साथ लोग ही शामिल थे। पूरे साहित्य जगत को रोशनी की लौ लिए दिशा देने वाले प्रेमचंद एक गुमनाम लाश की तरह इस दुनिया से विदा हुए।

किसी भी सभ्यता की पहचान इससे होती है कि इस सभ्यता के नायकों चयन जनमानस में कैसे होता है और सभ्यता अपने नायकों के साथ कैसा व्यवहार करती है। हम भले ही मेरा भारत महान के नारे लगा कर अपनी सभ्यता के महान होने का दंभ भरते रहें, हम अपने साहित्य और साहित्यकारों के साथ उचित व्यवहार कभी नहीं कर पाए। निराला भूख से जूझते रहे, तो मुक्तिबोध अपने जीवन काल में अपनी एक कविता प्रकाशित नहीं करवा सके। आज भी कोई गीत सुनकर हम उसके गायक को पहचान ले, उसपर थिरकते अभिनेताओं की भाव भंगिमा तक उतार लें, गीतकार का नाम हमें शायद ही पता भी होता है। अपने साहित्यकारोंं को नायक बना के  सम्मानित करना तो दूर , साहित्यकार होने का अर्थ ही गया है एक निरीह झोला टांगे हुए व्यक्ति से जिसकी जरूरत तो है लेकिन कदर कोई खास नहीं है। स्वाभाविक है इसका असर हमारी पूरी पीढ़ी की रचनात्मकता और रचनाशीलता पर पड़ा है। कब आखिरी बार हमारे बीच से कोई मौलिक रचना निकली है जो विश्व जनमानस पर छा गई हो? कोई मौलिक कहानी, उपन्यास या कोई और साहित्यिक रचना गढ़ने में हमारा हाथ तंग ही दिखता है। अंग्रेजी भाषा में कदाचित कुछ लिखा भी जा रहा है, हमारी भारतीय भाषाओं की स्थिति तो उत्तरोत्तर खराब ही होती जा रही है। मां सरस्वती की वंदना करने वाले देश में सरस्वती पुत्रों की ऐसी दुर्दशा अकल्पनीय और अस्वीकार्य है। 

आज से 86 साल पहले इन्हीं गलतियों के कारण हमने एक हीरा मुंशी प्रेमचंद के रूप में खोया था। आज उनकी पुण्यतिथि पर हमें विचार करना होगा कि हम अपने साहित्यकारों रूपी रत्नों को सहेज कर रखने के लिए क्या कर सकते हैं।

 उपन्यास सम्राट को उनकी पुण्य तिथि पर शत शत नमन।

Tuesday, October 4, 2022

रावण : एक जटिल चरित्र

रावण का चरित्र एक जटिल चरित्र है। इसके चरित्र के विस्तार को विविध विमाओं में देखने की जरूरत है। रावण के चरित्र का एक विस्तार एक शिवभक्त के रूप में है। स्वयं महादेव रावण को अपना सबसे बड़ा भक्त मान चुके हैं।ऐसा भक्त जिसने शिव को अपना सिर तक काट तक चढ़ा दिया। ऐसा भक्त जिसके कहने पर वो अपना कैलाश त्याग कर उसके साथ चल पड़े। रावण वेदों का ज्ञाता और ऋषि विश्रवा का पुत्र और ऋषि पुलस्त्य का पौत्र था। इसके अलावा एक अत्यंत स्नेही भ्राता भी था जिसने अपनी बहन की मान सम्मान की रक्षा के लिए एक युद्ध छेड़ने तक से गुरेज नहीं किया। अपनी राक्षसी माता के कारण वो आधा राक्षस भी था। उसके पास शक्ति, ज्ञान, सैन्य शक्ति, धनबल, भक्तिबल किसी की भी कमी नहीं थी। शायद इतना कुछ पा लेने के बाद अहंकार हो जाना स्वाभाविक ही था। उसी अहंकार के कारण उसने परस्त्री का हरण किया और वोही उसके विनाश का कारण बना। लेकिन विष्णु अवतार मर्यादा पुरुषोत्तम राम के सामने उनका विरोधी चरित्र कोई साधारण सामान्य का एक दानव नहीं हो सकता। 

रावण का चरित्र रुपहले पर उतारने से पहले इन बारीकियों का ध्यान रखने की आवश्यकता है। उसके चरित्र के सभी पहलुओं में संतुलन बनते हुए उसे भगवान राम के एक योग्य प्रतिद्वंदी के रूप में दिखाना आसान नहीं है। इसके लिए साहित्य, पौराणिक ग्रंथों, उसकी उपलब्ध टीकाओं के गहन अध्ययन के साथ साथ अपनी एक स्वतंत्र राय होनी भी आवश्यक है। आने वाली फिल्म आदिपुरूष में रावण के चित्रण को देख कर इसका अभाव लगना स्वाभाविक है। एक बर्बर, दानव के रूप में रावण का चित्रण ना केवल अधूरा है बल्कि उसके साथ एक अन्याय है। राक्षसराज रावण राक्षस सुबाहु और मारीच की तरह नही है जिसके चरित्र को एकविमीय रूप में दिखाया जा सके। आशा रखता हूं आदिपुरुष फिल्म में रावण के चरित्र के साथ न्याय हुआ होगा। टीजर देखने के बाद उसकी आशा कम ही लगती है। 

दशहरा की छुट्टियां

मुझे दशहरा परिवार के साथ मनाना पसंद है। आखिर हमारा सबसे बड़ा त्योहार है, साल में एक बार मेला देखना और एंजॉय करना तो बनता है। मैं चाहता हूं कि नवरात्रि और दशहरा के बीच पूरे शहर में ट्रैफिक ठीक से काम करे। मेला के दौरान ट्रैफिक जाम मुझे बिल्कुल पसंद नहीं। सारे ट्रैफिक पुलिस वालों को चाहिए कि हमेशा वो मुस्तैद रहें ताकि कहीं जाम ना लगे। मेला।के आस पास गंदगी भी न फैले तो सारे नगर निगम वाले कर्मचारियों को भी पूजा के दौरान ड्यूटी पर लगा रहना चाहिए ताकि कहीं गंदगी ना फैले। और हां, नवरात्र में मैं उपवास और पूजा पर रहता हूं, इसीलिए मैं चाहता हूं कि सुबह सुबह आकर घर के सभी नौकर चाकर आकर मेरे घर की सफाई कर जाएं। मेरे नाश्ते के लिए फल और दूध चाहिए होगा इसीलिए वो दुकान हमेशा खुली रहनी चाहिए। पिछले बार विसर्जन के समय बिजली कट गई थी, मैं बिजली विभाग वालों को फोन लगाता रहा, सब गायब थे। यह कोई तरीका है!! बिजली विभाग वालों को ड्यूटी पर होना चाहिए। मेला देखने के लिए बड़ी भीड़ हो जाती है, और मुझे भीड़ में ड्राइव करना बिल्कुल पसंद नहीं है। यह त्योहार के समय सारे टैक्सी वाले भी पता नहीं कहां गायब हो जाते हैं, बताइए यह कोई तरीका है। उन सारे टैक्सी वालों का लाइसेंस रद्द कर देना चाहिए जो पर्व के समय गायब रहते हैं। मुझे मेला देखने के लिए टैक्सी ,रिक्शा, ऑटो किसी की दिक्कत नहीं होनी चाहिए।

पता नहीं, मेरे बच्चों के ट्यूशन टीचर को भी इसी समय छुट्टी क्यों चाहिए। भला, बच्चों को होमवर्क कौन करवाएगा, पूजा के तुरंत बाद उनके एग्जाम भी हैं, उसकी तैयारी भी उसी को करवानी थी। अब मुझे साल में एक बार छुट्टी मिलती है, उस समय बैठ कर बच्चों को होमवर्क कौन करवाए। आने दो ट्यूशन टीचर को वापस, जितने दिन गायब रहा है ,उतने दिन के पैसे काटूंगा। मजाक बना रखा है। छुट्टी का बहाना चाहिए इन लोगों को।

और क्या कहूं! बस आराम से छुट्टी बिताना चाहता हूं। क्या इतना भी हक नहीं बनता मेरा। आप सब को भी त्योहारों की बहुत बहुत शुभकामना।। 



Sunday, October 2, 2022

देश का लाल : लाल बहादुर

सन 1965 के युद्ध के दौरान पाकिस्तान के राष्ट्रपति मोहम्मद अयूब खान को लगा कि सन बासठ की हार और पंडित नेहरू की मृत्यु के बाद भारत को हराना आसान होगा। अयूब अतिआत्मविश्वास में बोल गए कि हमारी सेनाएं टहलते हुए दिल्ली तक पहुंच जाएंगी। जाहिर है कि उन्होंने पांच फीट दो इंच ऊंचे भारतीय प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री का आकलन उनकी शारीरिक बनावट पर किया था। आगे जो हुआ वो सर्वविदित है, शास्त्री जी ने ना केवल देश का नेतृत्व किया बल्कि पाकिस्तानी जनरल अयूब खान की दिल्ली तक टहल कर पहुंच जाने की सारी योजना मुंगेरीलाल के सपने साबित हुई। युद्धोपरांत रामलीला मैदान में अपने भाषण में एक विजयी वीर की भांति शास्त्री जी ने कहा: अयूब खान ने कहा था कि वो टहलते हुए दिल्ली तक आएंगे, वो तो नहीं आ पाए, इसीलिए हम टहल कर लाहौर पहुंच गए। जनता ने बहरा कर देने वाली करतल ध्वनि से अपने विजेता प्रधानमंत्री का अभिवादन किया।

यह एक संयोग ही है कि 2 अक्टूबर को ही जन्मे महात्मा गांधी जहां सत्य अहिंसा के लिए जाने जाते हैं, दो अक्टूबर को जन्मे शास्त्री जी जो एक गांधीवादी नेता थे, भारत के इतिहास में एक युद्ध विजेता की तरह याद किए जाएंगे। शास्त्री जी ने एक बार राष्ट्र के नाम अपने संदेश में कहा था कि अगर कोई देश न्यूक्लियर हथियार या तलवार की नोंक पर हमें डराने का प्रयास करेगा तो हम इतना बता दें कि हम झुकने वालों में से नहीं है। इनको मेरा इतना ही जवाब होगा कि हथियारों का जवाब हथियारों से दिया जायेगा। नौ साल बाद भारत ने पोखरण में पहला परमाणु परीक्षण किया तो उसका पहला सार्वजनिक संकेत शास्त्री जी ने पहले ही दे दिया था।

कृतज्ञ राष्ट्र की तरफ से शास्त्री जी को उनकी 118वी जयंती पर कोटि कोटि नमन।

Wednesday, September 21, 2022

राजू भईया के लिए।

गजोधर भैया,
हंसाते हंसाते अचानक से चल दिए। अब कौन सुनाएगा कि बूढ़ा गब्बर का आगे क्या हुआ? क्या सांबा और कालिया अब भी उसको लाफा देते रहते हैं? कौन फिल्म थिएटर में देख कर उसकी कहानी हमको सुनाएगा। बहुत इच्छा थी कि आप लाल सिंह चड्ढा देख कर आते और उसकी कहानी सुनाते। अब यह इच्छा तो पूरी होगी नहीं। जीजा साली वाली कहानी भी आप अधूरी छोड़ गए। जीजू!! एक रसगुल्ला, खाना पड़ेगा!!! कहने वाली साली कहां है आज कल? बहन की शादी करवाने वाले भाई की शादी हुई कि नहीं, यह भी बिना बताए चल दिए। कभी कभी गुस्सा भी आता है कि शायद आप बड़े आदमी बन गए तो हम लोगों की परवाह करना छोड़ दिया। हां कर लो यह पहले, बड़े आदमी हैं करते होंगे। 

राजू भैया, कितनी बातें थी जो तुमसे सुननी थी। कितनी कहानियां थी जो आपको सुनानी थी।

बड़े शौक से सुन रहा था जमाना, तुम ही सो गए दास्तां कहते-कहते।

जहां रहना, हंसते रहना!! हंसाते रहना।।

Tuesday, September 20, 2022

A peaceful natural death

Queen Elizabeth II has died peacefully of natural causes. Of course, she lived an extraordinary life. She was corronated as queen almost seven decades ago. She saw a lot of water flow down the Thames. But more than her life, it's her death that catches my attention. When I read the news about the queen dying peacefully of natural causes, I thought this kind of death is becoming very very rare. How many of us have seen people around us dying peacefully at home due to natural causes after living a full life. Most of the deaths we see are preceded by prolonged illness, medical procedures, and painful medication. Diabetes in kids, heart attacks in thirties and deaths in 40s don't surprise us anymore. Rarely do people die at home; it's either in hospital or on the way to hospital. Heart attacks, diabetes, hypertension, and other lifestyle diseases have denied most of us a natural, peaceful death. The Queen definitely had a privileged life, and she had a privileged death too. Most of us may wish for a life like her; a death like her is equally desirable, if not more. May her soul rest in peace!

अलार्म घड़ी सुलाने के लिए है

अलार्म घड़ी बजनी चाहिए यह बताने के लिए कि सोने का वक्त हो गया। अलार्म घड़ी इसलिए नहीं बनी कि आपको कच्ची नींद से जगाए । अलार्म घड़ी इसलिए बनी है कि आपको कहे कि थोड़ा सो जाओ, थक गए होगे ना कि सुबह सुबह आपको चिल्ला चिल्ला कर जगाए कि उठ जाओ कब तक सोते रहोगे। अलार्म घड़ी आपका खयाल रखने के लिए बनी है, आपकी एक सेविका है जो आपको सही समय याद दिलाती है। हमने उसको अपनी एक क्रूर गुस्सैल मालकिन बना दिया है जिसकी आवाज तक हम सुनना नहीं चाहते, लेकिन जिसकी बात मानना हमारी मजबूरी बन गई है। क्यों ना हम अलार्म घड़ी को ऐसे अपने जीवन में ऐसे अपनाए कि उसकी आवाज सुन कर हमें खुशी हो न कि हर सुबह उसको बार बार खीझ कर हम चुप कराते रहें। 

भला किसको अपनी जिंदगी में हर सुबह चीख चीख कर नींद तोड़ने वाला दोस्त चाहिए!! 

Tuesday, August 23, 2022

उत्थान और पतन

गुरुत्वाकर्षण का बल हमेशा हर किसी को नीचे खींचता रहता है। कोई वस्तु उपर जा रही है तो इसका अर्थ यह नहीं कि उसपर गुरुत्व के बल ने काम करना बंद कर दिया है, इसका अर्थ यह है कि वस्तु ने गुरुत्वाकर्षण बल के अधिक बल विपरीत दिशा में लगा कर गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव को अस्थाई रूप से प्रभावहीन बना दिया है। लेकिन यह प्रभाव अस्थाई ही है क्योंकि हर उपर जा रही वस्तु पर भी उसे नीचे खींचने वाला बल सतत रूप से लगा रहता है। गुरुत्व का बल को लगातार हराना पड़ता है, हर पल हराना पड़ता है, क्योंकि हर उपर जा रही वस्तु पर नीचे लाने वाले ताकतें हमेशा लगी रहती हैं।

ऊपर ले जाने वाला बल थक जाता है, नीचे खींचने वाला बल कभी नहीं थकता। ऊपर जाना उद्यम है और नीचे गिरना अंतिम नियति।  उत्थान उद्यम है और पतन नियति। उद्यम से नियति को टाल सकते हैं , बदल नहीं सकते। लेकिन नियति से लड़ना ही पुरुषार्थ है, जीवन है, नियति के आगे विवश हो जाना ही तो मृत्यु है, अंतिम पतन है। ऐसा पतन जिसके बाद कोई उठता नहीं। पतन स्वाभाविक प्रक्रिया है, उसके लिए बल नहीं लगाना पड़ता, उत्थान स्वाभाविक नहीं है, उसके लिए बल लगाना पड़ता है। जिस दिन उत्थान का प्रयास कम हो जाता है, पतन की जीत का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। यह नियम सबके लिए शाश्वत है चाहे व्यक्ति हो, वस्तु हो, कोई संस्था हो , या साम्राज्य हो या नैतिक चरित्र, सबके लिए पतन स्वाभाविक है, शाश्वत नियति है । जग में वोही महान रहा है जिसने अपने उद्यम, संयम, प्रयास से पतनकारी शक्तियों को लगातार पराजित किया है। अपने प्रयास , उद्यम, संयम को बनाए रखें, पतन को पराजित करने की कोई और युक्ति नहीं है।

Saturday, August 20, 2022

छोटी छोटी खुशियां और मैं

बार बार जाता हूं
समंदर के किनारे
देखने कि कैसे बच्चे बनाते हैं
रेत के टीले,
और लहरों को देख खुश होते हैं,
कैसे बीनते हैं सीप के टुकड़े,
और अपनी मुठ्ठी में भर 
लेते हैं लहरों की झाग,
छोटी छोटी खुशियों से
भर जाती है उनकी झोली।

और मैं उनके साथ ही खड़ा
महरूम हूं उन सारी खुशियां से,
वक्त और तजुर्बे की मोटी चादर 
जम गई है मेरे चारों ओर
कि जिसके बाहर ही रह जा
रही हैं ये बच्चों की खुशियां
और अंदर मैं कुछ घुट सा रहा हूं।

करता हूं पुरजोर कोशिश 
कि शामिल हो सकूं उनके साथ
उन छोटी छोटी खुशियों में,
पा सकूं एक टुकड़ा अपने हिस्से की
मुस्कुराहट का।
जैसे कोई अंधा बाप दूसरों से 
सुन कर देखने की कोशिश
रहा हो अपने बेटे
की पहली फिल्म
और धीमे धीमे मुस्कुरा रहा हो
देख अपने बेटे को परदे पर
मन की आंखों से।


Saturday, August 13, 2022

हीरक जयंती पर स्वर्ण जयंती की यादें

स्वतंत्रता की पचासवीं सालगिरह वर्ष 1997, मैं नवोदय विद्यालय कटिहार में छात्र हुआ करता था। अच्छी तरह से याद है, स्टेंसिल्स की मदद की हमारे हॉस्टल में हरेक दीवार पर जय हिंद, तिरंगा, सारे जहां से अच्छा , मेरा भारत महान जैसे नारे उकेरे गए थे। अभी पच्चीस साल बाद पीछे मुड़ के देखता हूं कि देश कितना बदल गया है। एक बानगी तो यही कि उस भव्य समारोह की सिर्फ स्मृतियां हैं हमारे पास फोटो एक भी नहीं। आज के ज़माने से बहुत अलग थी वो दुनिया। हमने आजादी की पचासवीं वर्षगांठ तक पिज्जा नहीं खाया था। पिज्जा छोड़िए, राजमा और छोले भटूरे और आइसक्रीम भी नहीं खाई थी। हम लोग लाल बर्फ को ही आइसक्रीम मानते थे। चॉकलेट के नाम पर चीनी की उबली गोलियां जिसको लेमन चूस बोलते थे वोही खाई थी। किस्मी टॉफी बार और मोर्टन ही हमारे लिए चॉकलेट हुआ करते थे। डियोडरेंट और परफ्यूम का अंतर पता नहीं था। हम बस सेंट जानते थे जो शादियों में दूल्हे और हमारे म्यूजिक सर लगाया करते थे।कंप्यूटर देखा नहीं था हमने। पक्के से याद नहीं शायद सुना भी नहीं था। मोबाइल फोन हमने फिल्मों तक में नहीं देखा था। 

कुछ चीज़ें अभी बेतुकी लग सकती हैं लेकिन एक बात का खयाल रखना भी जरुरी है कि यह बिहार के एक गुमनाम से जिले के एक स्कूल छात्र के निजी अनुभव हैं। आज़ादी की स्वर्ण जयंती तक हमने जींस नहीं पहनी थी, ब्रांडेड कपड़े क्या होते हैं हमें पता नहीं था। बिसलेरी वाला पानी पीना अभी बाकी था और सोडा से कपड़े धोना सुना था, सोडा पिया भी जाता है, यह पता नहीं था। एसी में कभी नहीं बैठे थे, एसी डब्बे में सफर नहीं किया था। अपनी कार का सपना तक देखना बाकी था, सायकिल चलाना सीखना भी उधार की साइकिल से हुआ था। 

बर्थडे का पता था लेकिन बर्थडे में केक काटना और केक चेहरे पर लगाना होता है पता ना था। वेस्टर्न टॉयलेट पर नहीं बैठे थे और बाटा जूता समृद्धि की निशानी समझा जाता था। नेपाली घड़ियां जिसमें चाभी की जगह बैटरी लगती थी, कुछ लोगों के पास हुआ करती थी। चाइनीज घड़ियां, रेडियो और कैमरे नेपाल के रास्ते स्मगलर लोग लाया करते थे। बॉबी देओल स्टाइल आइकन हुआ करते थे जिनकी फिल्म गुप्त की चर्चा हर तरफ थी। अमिताभ बच्चन तब तक भी अपने आप को बूढ़ा मानने को तैयार ना थे और मृत्युदाता जैसी फिल्में कर रहे थे। 

गिनती करते करते थक जाऊंगा लेकिन शायद आज के बच्चों को पच्चीस साल पुरानी दुनिया का अहसास नहीं करवा पाऊंगा। यकीन मानिए, हमारा देश बहुत आगे बढ़ा है स्वर्ण और हीरक जयंती के बीच। सफर बहुत बड़ा है। ईश्वर की दया से अगर स्वस्थ रहा और आज़ादी की सौवी वर्षगाठ देखने का अवसर मिला तो एक सेवानिवृत वृद्ध की तरह आजादी की पचासवीं और पचहत्तरवी वर्षगाठ को याद करूंगा। पक्का यकीन है कि जिस तरह आज बैठकर यह अंदाज लगाना तक कठिन है कि 2047 में दुनिया कैसी होगी, 2047 में यह यकीन करना भी मुश्किल होगा कि 2022 में दुनिया ऐसी थी। 

आप सबको आज़ादी के अमृत महोत्सव की बहुत बहुत शुभकामनाएं। जय हिंद।🙏

Tuesday, August 9, 2022

कोउ नृप होउ हमहि का हानी।

करि कुरूप बिधि परबस कीन्हा। बवा सो लुनिअ लहिअ जो दीन्हा॥
कोउ नृप होउ हमहि का हानी। चेरि छाड़ि अब होब कि रानी॥3॥

रामचरितमानस के अयोध्या काण्ड के इस दोहे का सामान्यतया एक चौथाई ही प्रसिद्ध है और बोल चाल में प्रयुक्त होता है। कोउ नृप होउ हमहि का हानी , सामान्यतया वैसे लोग बोलते हैं जो अपने आप को राजनीतिक रूप से तटस्थ दिखाना चाहते हैं। यह एक विडंबना ही है क्योंकि यह पंक्ति मूल रूप में दासी मंथरा द्वारा रानी कैकेयी को कही गई थी और इसमें अभिधात्मक नहीं वरना व्यंजना भाव प्रमुख है। सर्वविदित है कि मंथरा की कूटनीति ने ही राम के वनवास की नींव रखी।  यह तथाकथित तटस्थ वक्तव्य हमारे इतिहास का सबसे कूटनीतिक वक्तव्य है। राजनीति ऐसी ही होती है, जो दिखता है वो होता नहीं और जो होता है वो दिखता नहीं।

Saturday, August 6, 2022

happy friendship day to all except

Happy friendship day to all my friends except those jisne kaha ki

1. Maine apne aankhon se dekha, section C wali line de rahi tumko..Pink shirt sahi lagti hai tumper..wohi pahan ke aaj class chalna..

2. Chal na Aaj night show dekh aate hain, kal ka assignment ka fikar mat kar.. bhai hai tu mera..main kar dunga Tera assignment..

3. Tujhe nahin pata nahin.. lekin main jaanta hoon.. sachcha pyar karta hai tu usse . Tu jaaker nahin bolega to main jaaker bol dunga.. de uska number abhi baat karta hoon..

4. Abe Mahatma Gandhi ki aulaad. Ek se kuch nahin hota. Aankh band kar aur gatak jaa..

5. Yeh kya Nandan aur Champak padh raha hai.. asli magazine padhega?

6. Main ek jaruri kaam se bahar nikal raha hoon, Teri bhabhi ne bulaya hoon.. us khadoos teacher ki class mein proxy laga dena .

7. Aaj main wallet Lana bhool gaya.. mera contri tu hi kar de.. ma Kasam.. next time main de dunga tere badle ..

And last but not the least .

8. Bhai engineering kar le.. bahut scope hai.. meri baat maan, life set ho jayegi..

Sunday, July 31, 2022

नए कोंपल की जरूरत

कोई पेड़ कितना जिएगा, उसकी आयु कितनी बची है यह इस बात पर उतना निर्भर नहीं करता कि तना कितना मजबूत है। या उसकी जड़ें कितनी गहरी हैं। तना कितना भी मजबूत हो , तनों पर फूल नहीं खिलते। तनों से फल नहीं लगते। फूल खिलते हैं नई पतली टहनियों पर, फूल खिलते हैं नई कोंपलों से। भले जड़ कितनी भी गहरी क्यों ना हो, प्रकाश संश्लेषण का काम नहीं कर सकती जिससे वृक्ष को नई ऊर्जा मिलती है। 

किसी वृक्ष की जीवन आयु इस बार पर निर्भर करती है कि उसमें नए पत्ते आ रहे हैं या नहीं। क्योंकि विकास और वृद्धि नई कोंपलों से ही हो सकती है। भविष्य की संभावनाओं से भरे नए बीज, नई हरी टहनियों से लगे नए फलों के अंदर ही संरक्षित हो सकते हैं।
कोई भी विचारधारा, संस्था तब तक हो जीवन्त बनी रहती है जब तक युवा उसकी ओर आकर्षित हो उसमें शामिल होते रहते हैं। यह युवा ही संस्था में प्राण वायु का संचार करते हैं, विचारधारा के बीजों को संरक्षित करते हैं और दूर दूर तक नई पौध का आधार बनते हैं। हरे पत्तों के बिना मजबूत से मजबूत तना भी ठूंठ बन जाता है और हरे पत्तों के बिना गहरी जड़ें भी बिना श्वास के सूख जाती हैं। 

Friday, July 29, 2022

निंदक को नियरे राखिए, मन में नहीं।

खाना खाना आसान है, बनाना नहीं। फिल्म देखना आसान है , बनाना नहीं। खेल देखना आसान है, खेलना नहीं। परीक्षा की तैयारी के लिए निर्देश देना आसान है, परीक्षा पास करना नहीं।बच्चों को कम अंक आने पर डांटना आसान है, बच्चों को पढ़ाना मुश्किल। इसलिए फूड ब्लॉगर ज्यादा हैं शेफ कम। फिल्म क्रिटिक्स ज्यादा हैं फिल्मकार कम। खिलाड़ी कम हैं कॉमेंटेटर ज्यादा। कोचिंग चलाने वाले ज्यादा हैं , आईएएस अधिकारी कम। डांटने वाले ज्यादा तो शिक्षक कम। 
अगर आप हर क्षेत्र में टिप्पणीकार की भूमिका में हैं तो आवश्यक है कि कम से कम एक क्षेत्र में आप रचनाकार बनें, कर्ता बनें। फिर आप अपनी टिप्पणी को रचनात्मक बना पाएंगे, कर्ता के प्रति सहानुभूति रखेंगे और अपमान करने की प्रवृति से बचेंगे । जिसने लिखा ही नहीं उसकी वर्तनी की गलती तो होगी नहीं ।यह भी संभव है कि आप रचनाकार और कर्ता की भूमिका में हैं और टिप्पणीकारों से परेशान हो गए हों, तो याद रखें कि कबीर दास ने निंदक को नजदीक रखने कहा है न कि अपने मन मस्तिष्क में उनको बसा लेने के लिए। अपने मन मस्तिष्क को अपनी रचनात्मकता के लिए खाली रखिए वहां निंदक को घर बनाने ना दें। निंदक का योगदान जरूरी है लेकिन बस स्वच्छ करने के लिए साबुन की तरह ही। साबुन बाहर लगाया जाता है, खाया नहीं जाता। 

Friday, July 22, 2022

सब्सिडी का खेल

सब्सिडी, जिसे हिंदी में सहायिकी या राज्य सहायता कहा जाता है, की परिभाषा अगर हम देखें तो हमें दो बातें पता चलती हैं। यह जरूरी वस्तुओं और सेवाओं पर जरूरतमंद तबके को सरकार द्वारा दी जाने वाली छूट या सहायता है । यहां सरकार इन वस्तुओं या सेवाओं को उनके उत्पादन मूल्य से कम कीमत पर उपलब्ध करवाती है। भारत जैसे कल्याणकारी राज्य के लिए, जिनके संविधान की प्रस्तावना में ही समाजवादी शब्द प्रयुक्त हुआ है और फिर चाहे नीति निदेशक तत्व हों या अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के अधिकार हो, इन सबमें एक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा निहित है, हमारी योजनाओं के लिए सब्सिडी एक अत्यंत महत्वपूर्ण उपागम है। 

समस्या उत्पन्न होती है जब राज्य के नीतियां या उनको लागू करने के तरीके से सब्सिडी की मूल परिभाषा से भटकाव होने लगता है। यह भटकाव दो तरीकों से हो सकता है , पहला सरकार इन चीजों पर छूट दे जो गैर जरूरी श्रेणी में आती हों। दूसरा तरीका है कि छूट का लाभ उनको मिले जिनको इसकी आवश्यकता नहीं है। हालिया वर्षों में भारत में सब्सिडी के लिए मुफ्तखोरी, रेवड़ी बांटना जैसे शब्दों का प्रचलन बढ़ा है तो इसके पीछे के कारणों की तहकीकात भी आवश्यक है। 

भारत में जिन क्षेत्रों में सबसे ज्यादा सब्सिडी दी जाती है वो 3F से पहचाने जाते हैं फूड, फ्यूल और फर्टिलाइजर। फूड सब्सिडी यानी खाद्य सब्सिडी हमारे यहां सबसे बड़ा मद है खास कर खाद्य सुरक्षा कानून के लागू होने के बाद। 75% ग्रामीण और 50% शहरी जनसंख्या खाद्य सुरक्षा कानून के अंतर्गत नगण्य कीमतों पर खाद्यान्न पाती है। भारत जैसे देश में भूख की समस्या पर काबू पाने के लिए यह कदम आवश्यक है, लेकिन फिर भी यह कहना गलत नहीं होगा कि इस के दायरे में एक बड़ी ऐसी जनसंख्या भी शामिल है जिसको शायद इस छूट का लाभ नहीं मिलना चाहिए।
सब्सिडी का दूसरा सबसे बड़ा मद है फर्टिलाइजर या उर्वरक। ऊपरी तौर पर देखें तो भारत, जिसकी अर्थव्यवस्था की रीढ़ कृषि मानी जाती है, में कृषि को सहायक उर्वरक सब्सिडी सही दिखती है। लेकिन उर्वरकों पर दी जा रही सब्सिडी के पर्यावरणीय दुष्परिणाम हमारे सामने हैं। भूजल प्रदूषण, खाद्य श्रृंखला संकेंद्रण , कैंसर जैसी बीमारियां और घटती जैव विविधता इसके दुष्परिणाम हैं।
पेट्रोलियम उत्पादों पर सब्सिडी भारतीय अर्थव्यवस्था की दुखती रग है। एक तो पेट्रोलियम के आयात का बोझ उपर से जो डीजल सब्सिडी किसानों के लिए लक्षित है उसका प्रयोग महंगी एसयूवी गाड़ियों के द्वारा किया जाना। इनके अलावा कृषि सम्बद्ध अन्य सब्सिडी जैसे न्यूनतम समर्थन मूल्य, कृषि उपकरण सब्सिडी का भी अच्छा खासा योगदान बन पड़ता है।

भारत में बढ़ते सब्सिडी के बोझ और कोरोना काल के दौरान आई इसमें अप्रत्याशित बढ़ोतरी के बीच यह प्रश्न और भी प्रासंगिक हो उठा है कि कल्याणकारी राज्य के नाम पर चलाई जा रही योजनाएं हमारे लक्ष्य के साधक हैं या क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थ के साधक मात्र बन के राज गए हैं। अगर ऐसा है तो हमारी इस नीति की पुनरीक्षण की आवश्यकता है। हां एक बात यहां साफ कर देना जरूरी है कि हमें बाहरी दवाब में आकर सब्सिडी कम या खत्म करने की आवश्यकता बिलकुल नहीं है। विकसित देश WTO जैसी संस्थाओं के मंच से भारत पर सब्सिडी खत्म करने का जो दवाब बनाया जाता है वो उनके दोहरे चरित्र को उजागर ही करता है। विकसित देश खुद अपने देश में हमारे देश से बीसियों गुना सब्सिडी देते हैं। वर्ष 2018 में भारत जहां अपने किसानों को 49 डालर की सब्सिडी देता था वहीं अमेरिका अपने किसानों को औसतन सत्रह सौ डालर से ऊपर की सब्सिडी देता था। यही हाल कमोबेश यूरोप , ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड का है। यह देश भी अपने किसानों, दूध उत्पादक , मुर्गी पालकों और सूअर पालकों को भारत से कहीं अधिक सब्सिडी देते हैं। भारत में सब्सिडी जहां गरीबी उन्मूलन, अंत्योदय जैसे लक्ष्यों से चालित है, इन देशों की सब्सिडी पॉलिसी पूरी तरह से बाजार आधारित और मुनाफा खोरी और भारत जैसे विशाल बाजार पर कब्जा करने की नीति से प्रेरित है।
अब रही बात हमारी सब्सिडी पॉलिसी में सुधार की बात तो शायद इससे ज्वलंत मुद्दा शायद ही कोई हो। बेतहाशा लोकलुभावन वादे और योजनाओं के कारण हमारे कुछ राज्य इस हालत में पहुंच गए हैं जहां उन्हें अपने पिछले कर्ज के सूद को चुकाने के लिए नया कर्ज लेना पड़ रहा है। यह स्थिति अत्यंत चिंताजनक है। 

सबसे पहले तो हमें अपने लक्षित लाभुकों के पहचान की व्यवस्था को दुरुस्त करना होगा। जिस प्रकार नीम कोटेड यूरिया से यूरिया की कालाबाजारी कम हो गई है उसी प्रकार से नवाचार आधारित उपाय अन्य क्षेत्रों में भी लगाना पड़ेगा। आधार, मोबाइल और जन धन खाता की तिकड़ी के आधार पर सीधे लाभ अंतरण सिस्टम का कड़ाई से शत प्रतिशत अनुपालन करवाना होगा ताकि सब्सिडी का लाभ सिर्फ जरूरतमंदों तक ही पहुंचे। ऐसे क्षेत्रों में सब्सिडी बिलकुल ही सीमित होनी चाहिए जिसके लिए हम आयातित हाइड्रोकार्बन या कोयला पर आधारित हैं। कोयले से उत्पादित बिजली को सस्ती दरों पर बांट कर हम अपनी अर्थव्यवस्था , जलवायु, सतत विकास लक्ष्य और वैश्विक छवि सबके साथ एक साथ गंभीर मजाक कर रहे हैं।

इससे बड़ी ज़रूरत होगी सब्सिडी के राजनैतिक दुरुपयोग को रोकने की। चुनावी रैलियों के मंच से गहन आर्थिक फैसले लेने की प्रवृति पर रोक लगाना आवश्यक है। इससे लिए सम्मिलित राजनैतिक इच्छा शक्ति की आवश्यकता है और अगर आवश्यक हो तो चुनाव आचार संहिता में भी बदलाव लाया जाना चाहिए। इससे देश की विकास और सतत आर्थिक प्रगति की जगह लोक लुभावन नीतियों के द्वारा जनता को रिश्वत देने की प्रवृति रुकेगी। आखिर में जिम्मेदारी हम जनता की भी बनती है, हम सब का दायित्व बनता है कि हम अपने देश को एक परिवार समझें। जिस प्रकार परिवार में किसी बीमार सदस्य के लिए एक गिलास दूध ज्यादा रखा जाता है तो परिवार के अन्य सदस्य कोई आपत्ति नहीं करते और न ही बीमार होने का स्वांग करते हैं कि उन्हें भी दूध मिल जाय। उसी प्रकार सब्सिडी हमारे परिवार के वंचितों के लिए है, उनको ही लेने दिया जाय। बाकी लोगों को संयम और संतोष का अनुशासन पालन करना होगा। अगर ऐसा नहीं हुआ तो ना ही कभी परिवार का बीमार सदस्य अपनी निर्धारित खुराक पा सकेगा और बाकी सदस्य वंचन के भाव से प्रेरित हो असंतुष्ट ही रहेंगे।

http://m.rashtriyasahara.com/imageview_26318_97306484_4_9_23-07-2022_4_i_1_sf.html

द्रौपदी का नाम

तुम्हारा नाम क्या था द्रौपदी
द्रुपद की बेटी के अलावा क्या 
थी तुम्हारी पहचान?
श्याम वर्ण की थी इसीलिए
शायद कृष्णा कही गई,
पर यह तो तुम्हारे रंग पर
एक कटाक्ष भर ही था
इसीलिए सोचता हूं
कि तुम्हारा नाम क्या था द्रौपदी?

पांचाली नाम सिर्फ इसलिए क्योंकि
तुम पांचाल की थी
क्या बहुओं को उनके मायके के
नाम से बुलाना उस समय से ही है
तुम्हारा कुछ तो नाम तो होगा
अर्जुन , भीष्म , देवव्रत की तरह
क्या तुमने कभी अपना नाम तक जाना
या छुपाती रही जीवन भर।

कहने को सैरंध्री था एक छद्म नाम
लेकिन तुम्हारा तो हर नाम छद्म ही था
किसी नाम ने नहीं बताया 
तुम्हारे बारे में
बताया सिर्फ उन बंधनों के बारे में
जिनमें तुम बंधी रही आजन्म।

तुम आई नहीं थी दुनिया में
एक स्त्री और पुरुष के
 प्रेम मिलन से
बल्कि तुम उत्पन्न हुई दो पुरुषों
के अहंकार और अपमान 
की जलन से
अग्नि की कोख से पली 
पिता के प्रतिशोध की 
आहुति से सींची गई
एक संतान से ज्यादा 
एक अस्त्र थी
अपने पिता के लिए।
इसीलिए शायद एक नाम 
तक ना पा सकी ।
इतिहास के पन्नों में
लिखी गई महाभारत 
भले कहलाए महाकाव्य
कही जाय एक पूर्ण कथा
लेकिन अनुत्तरित रहता है
यह प्रश्न  अब भी कि
तुम्हारा नाम क्या था द्रौपदी।









Wednesday, July 20, 2022

वैशाली का विशाल यश

वैशाली विरुद्धों का सामंजस्य है। एक तरफ यह समस्त सांसारिक विषयों का त्याग कर कैवल्य प्राप्त करने वाले भगवान महावीर की भूमि है तो वहीं पाषाण ह्रदय में भी आसक्ति के बीज पनपा देने वाली वैशाली की नगरवधू आम्रपाली की भूमि भी है। वैशाली विश्व का पहला गणराज्य तो था ही, यही पर पहली बार सौंदर्य के सम्मान दिए गए। मिस वर्ल्ड और मिस इंडिया जैसे सम्मान सदियों पहले वैशाली में नगरवधू के नाम से दिए गए। अंबापालिका या आम्रपाली पहली विश्वसुंदरी कही जा सकती है।

यहीं पर कपिलवस्तु से निकलकर सिद्धार्थ आए और बुद्ध बनने की राह में अपने ब्राह्मण गुरू अलार कलाम से मिले। वैशाली बुद्ध के भी गुरु की भूमि है जहां युवा सिद्धार्थ ने ध्यान और तप की बुनियादी बातें ग्रहण की। बुद्ध बनने के बाद भी वो बहुधा वैशाली आते रहे। बौद्ध विहारों में महिलाओं के प्रवेश को अनुमति वैशाली में ही मिली थी। बुद्ध बनने की राह पर पहला कदम अगर वैशाली में उठाया गया था तो अपने महापरिनिर्वाण की यात्रा में कुशीनगर के लिए बुद्ध यहीं से निकले थे। वैशाली के लोग बुद्ध के साथ चल पड़े, बुद्ध ने उनसे निवेदन किया कि वो लौट जाएं लेकिन वैशाली के गण माने नहीं। भगवान बुद्ध ने उनको अपना भिक्षा पात्र तक दे दिया लेकिन बुद्ध के पीछे आने का वैशाली वालों का हठ दूर ना हुआ। अंततः केसरिया गांव से वैशाली वाले लोग लौटे और बुद्ध अपनी अंतिम यात्रा पर निकल गए। बाद में सम्राट अशोक ने यहां स्तूप का निर्माण कराया जो आज भी संरक्षित है। 

शिषुनाग वंश के सम्राट कालाशोक ने द्वितीय बौद्ध संगीति का आयोजन भी वैशाली में ही किया था। यहीं बौद्ध धर्म स्थापित और महासंघिक दो भागों में विभक्त हुआ। अभिषेक पुष्करिणी वो स्थान है जहां वैशाली गणराज्य के नवनिर्वाचित जन प्रतिनिधि जन कल्याण की शपथ लेते थे जिसे आप आजकल शपथ ग्रहण समारोह के रूप में देख सकते हैं। उसी कुंड में खिले सौंदर्य से सने खिले कमल आपका स्वागत करते हैं। यह वोही कमल हैं जिन्हें बाबर ने पहली बार सासाराम में देखा था और जिसका वर्णन उनसे अपनी आत्मकथा में किया है। यही कमल आपको वैशाली में अशोक स्तंभ में भी शेर की प्रतिमा में दिखेगा लेकिन उल्टा। 

वैशाली का इतिहास बुद्ध और जैन काल से भी पुराना है। राजा विशाल जिनके नाम पर वैशाली इश्वाकु वंश के शासक थे , वोही वंश जिससे पुरुषोत्तम भगवान राम थे। राजा विशाल के नाम पर विशालपुरी नाम कालांतर में वैशाली हो गया। यह वैशाली की प्रसिद्धि ही थी फहयान और ह्वेनसांग दोनो यहां आए और यहां का वर्णन अपने यात्रा वृतांत में किया। और हां, वैशाली में अशोक का वो स्तंभ भी है जिसपर शेर की प्रतिमा है। आज भी पूर्णतः सुरक्षित है महान अशोक का शेर और शेर की वो मुस्कान (!!) । कभी बिहार आएं तो वैशाली के विशाल इतिहास को करीब से महसूस करने का मौका न गवाएं।



Friday, July 15, 2022

आर्थिक संकट और स्टार्टअप

2008 की आर्थिक मंदी की यादें अभी ठीक से गई भी नहीं थी कि एक गहरे आर्थिक संकट के पूर्वानुमानों से हम मुखातिब हैं। विविध पूर्वानुमान बता रहे हैं कि आने वाला आर्थिक संकट वर्ष 2008 से भी गहरा हो सकता है। वर्ष 2021 में कोविड से अधिकतम प्रभावित वर्ष 2020 के बाद बाजार में लंबित मांग के कारण काफी उत्साह का माहौल रहा , वर्तमान वर्ष में आकर यह उत्साह ठंडा पड़ता दिख रहा है। वर्ष 2021 जहां भारत में कुल 42 यूनिकॉर्न बने इस साल यूनिकॉर्न स्टार्टअप के बारे में कर्मचारियों की छंटनी की खबरे ज्यादा आ रही हैं।

शायद भारतीय स्टार्टअप का स्वर्णिम दौर कुछ वक्त के लिए थम सा गया है। भारतीय स्टार्टअप के लिए विदेशी फंडिंग में तीव्र कमी आई है। इसके कारणों का विवेचन करने पर हमें सदी के पहले आर्थिक संकट डॉट कॉम बबल संकट की याद आती है। भारतीय मार्केट में निवेश के संकट की छवि और कारणों को बीस साल पहले आए संकट में तलाश सकते हैं। इंटरनेट की पहुंच बढ़ने के साथ ही जहां डॉट कॉम कंपनियों की बाढ़ आ गई थी , उनमें बिना ज्यादा सोच विचार किए निवेश की प्रवृति भी बढ़ गई थी। ऐसा ही कुछ हालिया वर्षों में भी दिखा है। बिजनेस मॉडल और वास्तविक कमाई की जगह वैल्यूएशन पर ज्यादा बातें हो रही हैं। बाजार में इस प्रवृति को ग्रेटर फूल थ्योरी या बड़ा बेवकूफ सिद्धांत कहते हैं। ग्रेटर फूल थ्योरी कहती है कि किसी भी वस्तु की कीमत तब तक बढ़ती है जबतक बाजार को यह यकीन रहता है कि कोई ना कोई मिल जायेगा जो इसको बढ़ी हुई कीमत पर खरीद ले। भारतीय बाजार में कई निवेशक में इसी उम्मीद से निवेश कर रहे हैं कि उनके निवेश लागत के ज्यादा पैसे देकर कोई ना कोई उनकी स्टार्टअप को ज्यादा वैल्यूएशन पर खरीदने को तैयार हो ही जायेगा। इससे बाजार में किसी नई कंपनी के बिजनेस मॉडल, आय स्रोत और ग्राहक नीति को जांचने परखने का धैर्य नहीं रहता। 

भारतीय स्टार्टअप में निवेश की कमी को भी हम चार प्रमुख कारणों में देख सकते हैं। पहला कारण है प्रोडक्ट मार्केट फिट का अभाव। कई ऐसे स्टार्टअप आपको दिख जाएंगे जिनकी सेवाओं की जरूरत कोई खास दिखती नहीं। भला दस मिनट के अंदर आटे की बोरी कितने ग्राहकों को चाहिए , कोई जीवन रक्षक दवा थोड़े ना है। फिर भी ऐसे स्टार्टअप की कतार सी दिखती है।
 दूसरा कारण है मितव्ययिता का घोर अभाव। चूंकि कई स्टार्ट अप को फंडिंग आसानी से मिल गई, उनमें खर्च करने की प्रवृति बहुत ज्यादा देखी जा रही है। बेतहाशा मार्केटिंग व्यय को निवेश को पर्याय मान लिया गया है। ऐसी कम्पनियां जिन्होंने आज तक एक रुपया नहीं कमाया उनके विज्ञापन हर क्रिकेट मैच के हर ब्रेक पर दिखना भला निवेश कैसे हो सकता है।

ऐसा नहीं है कि सारे स्टार्ट अप अपनी वजह से ही असफल हो रहे हैं या फंडिंग के लिए तरस रहे हैं। सरकार द्वारा समय समय पर लगाए गए टैक्स कानून और अन्य कानून भी एक महत्वपूर्ण पहलू हैं। क्रिप्टो करेंसी और स्टार्टअप पर टीडीएस कानून इसकी बानगी हैं। इनसे भी निवेशकों का उत्साह ठंडा पड़ा है।
 चौथे कारक के रूप में हम उन स्टार्ट अप को देख सकते हैं तो समय से थोड़ा आगे हैं। एआई और मशीन लर्निंग पर आधारित स्टार्ट अप जो निश्चित रूप से भविष्य में अपना एक स्थान बना सकते हैं आज की जरूरतों से थोड़ा कटे से दिखते हैं। लेकिन यह कारक उतना भी महत्वपूर्ण नहीं है , अगर आइडिया में दम हो तो समय को भी बदला जा सकता है। शादी डॉट कॉम जैसे स्टार्ट अप भारत में तब शुरू हुए जब इंटरनेट की पहुंच नगण्य ही थी।

प्रश्न है कि आगे की राह क्या हो? इसका उत्तर भी प्रश्न में ही छुपा है। यह मान लेने में कोई हर्ज नहीं कि बिना बिजनेस मॉडल और आय के निरंतर स्रोत वाले स्टार्ट अप को फंडिंग मिलने का वक्त चला गया। जिन्हे फंडिंग मिली भी है उन्हें भी अब वैल्यूएशन के खेल से बाहर निकल लाभ कमा कर दिखाना होगा। मार्केटिंग पर अंधाधुंध खर्च करने के बजाय सप्लाई चेन मजबूत करना और अपनी सेवा और उत्पाद की गुणवत्ता में उत्तरोत्तर सुधार लाना होगा। सरकार की नीतियों के कारण कई स्टार्ट अप दुबई जैसे देशों का रुख कर रहे हैं। हमें उन्हें भारत में भी व्यापार करने के लिए प्रोत्साहन देना जारी रखना होगा। और हम अपने स्टार्ट अप के लिए केवल बाहरी निवेशकों का मुंह नहीं ताक सकते। इसके अलावा सिर्फ न्यू जनरेशन और आईटी टेक्नोलॉजी आधारित स्टार्ट अप को प्रोत्साहित करने की जरूरत नहीं है। ऐसे स्टार्ट अप जो सामाजिक सरोकार जैसे कचरा प्रबंधन, सीवर ट्रीटमेंट जैसे क्षेत्रों में कार्य कर रहे हैं उनको भी बढ़ावा देने की आवश्यकता है। कोई जरूरी नहीं कि हर नया स्टार्ट अप ड्रोन टेक्नोलॉजी और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस पर ही काम करे, गोबर और इथेनॉल से ऊर्जा निकालने वाले स्टार्ट अप या एमएसएमई सेक्टर के छोटे स्टार्टअप जो शायद यूनिकॉर्न कभी न बन पाएं, हमारी निवेश योजना में शामिल होने चाहिए।

अगर भारत से अगला गूगल, फेसबुक या टेस्ला आयेगा तो किसी नए स्टार्ट अप से ही आएगा। अपने आइडिया पर पूर्ण विश्वास और एक सॉलिड बिजनेस प्लान पर आधारित स्टार्टअप न केवल निवेश को आकर्षित करेगा बल्कि इस खेल में लंबे समय तक टिकेगा भी। अमेजन, गूगल जैसी कम्पनियां भी डॉट कॉम युग में ही बनी थी। उन्होंने वो गलतियां नहीं की जो इनके साथी स्टार्ट अप ने की थी। हमारे वर्तमान के स्टार्ट अप इनसे सीख ले सकते हैं कि सिर्फ वैल्यूएशन और फंडिंग जूता लेना सफलता का सूत्र नहीं है। ऐसा उत्पाद बनाना और ऐसी सेवा देना जिसके लिए उपभोक्ता खुद से पैसे देने को तैयार हो। सिर्फ कूपन, डिस्काउंट और मुफ्त ऑफर के आधार पर जुटाया गया उपभोक्ता टिकाऊ नहीं हो सकता। सही उत्पाद की सही कीमत वसूलना कोई बुरी बात नहीं। फिल्म द डार्क नाइट में जोकर का चरित्र एक बहुत महत्वपूर्ण बात कहता है कि अगर आप किसी काम में निपुण हो तो वो काम कभी भी मुफ्त में मत करो। डिस्काउंट और कूपन के बल पर अगला गूगल बनने की चाहत रखने वाले स्टार्टअप इससे सीख ले सकते हैं।


http://m.rashtriyasahara.com/imageview_25583_97334122_4_9_16-07-2022_4_i_1_sf.html

Sunday, July 10, 2022

श्रीलंका के सबक

श्रीलंका के हालत याद दिलाते हैं कि अर्थव्यवस्था ही मूल व्यवस्था है अन्य सभी व्यवस्था और सामाजिक संरचनाएं किसी न किसी रूप में मौलिक व्यवस्था अर्थव्यवस्था को ही प्रतिबिंबित करते हैं। सामाजिक ढांचा हो या राजनैतिक परंपराएं या धार्मिक मान्यताएं सबके मूल में अर्थव्यवस्था ही है। मानव रोटी कपड़ा मकान की मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने के बाद ही वो गतिविधियां कर पाता है जिसके वजह से वह प्राणीजगत के अन्य जीवों से अपने आप को अलग कर पाता है। और समस्त मानव जगत को मूलभूत आवश्यकताओं (जिसका दायरा आज रोटी कपड़ा मकान से कहीं ज्यादा विस्तृत हो चुका है) की पूर्ति अर्थव्यवस्था ही करता है। जब अर्थ व्यवस्था ध्वस्त होती है तो मानव वापस अपनी मूल भूत जरूरतों के लिए अपनी सभ्यता, नैतिक मूल्य सब बिसर जाता है। 
माननीय राष्ट्रपति के आवास को घेरना , आग लगा देना और मुंह अंधेरे देश से पलायन करता श्रीलंका का शीर्ष नेतृत्व दिखाता है कि अर्थव्यवस्था संबंधित कुछ भूलों की कितनी भारी कीमत चुकानी पड़ती है। पैसा हाथ का मैल नहीं , समाज की नीव का पत्थर है। मानव सभ्यता की विशालकाय अट्टालिका अर्थव्यवस्था की नीव के भरोसे ही खड़ा रहता है। आवश्यक है कि अपनी अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाए रखने में हर कोई अपना योगदान दे। यह सिर्फ सरकार की जिम्मेदारी नहीं है। अपना कर ईमानदारी से भरें, पेट्रोलियम जैसे उत्पाद , जिनके लिए हम पूर्णतः आयत पर निर्भर है, का मितव्यव्यिता से प्रयोग करें। सरकार की गलत आर्थिक नीतियों का विरोध करें, रचनात्मक आलोचना करें। मेरा क्या मुझे क्या वाली मानसिकता से बचें। अर्थव्यवस्था हम सब के जीवन को सर्वाधिक प्रभावित कर सकने वाली शक्ति है। इसकी महत्ता को समझने और समझाने का इसे बेहतर वक्त नहीं हो सकता। श्रीलंका की परिस्थिति से मिल रहे सबक अमूल्य हैं।

Monday, June 27, 2022

बिना फिकर अंजामों का

बाजारों से गुजरते पता चला
कि आया है मौसम आमों का
वरना इस बेमुरव्वत दौड़ में
पता ना चलता सुबह ओ शामों का

जिंदगी कट रही थी बेतकल्लुफ सी
कि वक्त आ गया झूठे एहतरामों का
जिंदगी की महफिल से गायब है साकी
और न ठिकाना है सुकून भरे जामों का।

तेरी यादों के सहारे ज़माना ए यारी
बोझा उठा रखा है इन फालतू कामों का
मिलेंगे तो बांटेंगे राज दिल के ए दोस्त
कुछ लम्हें कटेंगे बिना फिकर अंजामों का।

Friday, June 24, 2022

नालंदा के सबक

नालंदा के खंडहर केवल हमारा समृद्ध इतिहास याद नहीं दिलाते। नालंदा के खंडहर याद दिलाते हैं कि आध्यात्मिक ज्ञान, साहित्यिक ज्ञान, सभ्यता के साथ साथ बाहुबल और सैन्य शक्ति कितनी आवश्यक है। बिना बाहुबल के ज्ञान नीचे लटके पके आम की तरह है, कोई बच्चा तक तोड़ लेता है। बिना सैन्य बल के समृद्धि उतनी ही क्षण भंगुर है जितना पराजित बंदी बनाए सैनिक का आत्मसम्मान। 

खिलजी की नंगी तलवार के आगे हमारा सैकड़ों सालों का आध्यात्मिक ज्ञान बेबस हो गया और नालंदा का ज्ञान केंद्र खंडहर बन कर रह गया। काश हमारे बौद्ध भिक्षु बुद्ध, संघ, और धम्म की शरण में जाने के साथ साथ शक्ति की शरण में भी गए होते तो कदाचित खिलजी की तलवार का प्रतिरोध किया जा सकता था। वर्षों की समृद्ध रोमन सभ्यता बर्बर गोथों का एक वार नहीं झेल पाई और जमींदोज हो गई। आध्यात्मिक बल और नैतिक बल व्यर्थ है अगर वो बाह्य पाशविक बलों से अपनी रक्षा ना कर सके। 

आत्मो रक्षितो धर्मः। नालंदा के प्राचीन खंडहर जीते जागते सबक हैं कि राजा धर्म का पालन करे , यह उचित है लेकिन राजा धर्मगुरु बन कर प्रवचन करने लगे यह आने वाले संकट का द्योतक है। धम्म को आत्मसात करते सम्राट अशोक भले ही इतिहास के पन्नों में महान बन के दर्ज हों, यह भी सच है कि भविष्य में भारतवर्ष पर आक्रांताओं के निरंतर आक्रमण और विनाश के बीज उन्होंने ही बोए थे। विष्णु के एक हाथ में कमल तो दूसरे में चक्र यूं ही नहीं रहता। 

Thursday, June 23, 2022

सिराज: एक त्रासद हीरो

मेरे गांव का नाम नवाबगंज है। कारण यह कि नवाब सिराजुदौल्ला की सेना की एक टुकड़ी हमारे गांव में रहती थी। वो ही नवाब सिराजुदौला जिसको हरा कर ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने बंगाल पर कब्जा किया। जिसकी लाश पर क्लाइव, जाफर, मीरान और जगत सेठ जैसों ने तांडव किया। हम नहीं जानते कि अगर प्लासी की लड़ाई में नवाब सिराजुद्दौला नहीं हारते तो हिंदुस्तान की तस्वीर और तकदीर क्या होती। सिराज बहुत कुशल प्रशासक नहीं माने जाते, लेकिन फिर भी अगर सिराज बने रहते तो बंगाल सबसे समृद्ध राज्य से दुर्भिक्ष का केंद्र शायद ना बनता। सिराज हीरो नहीं थे लेकिन जाफर ने उनको दगा देखकर ट्रैजिक हीरो अवश्य बना दिया। इसीलिए आज से 265 साल पहले जब सिराज क्लाइव के छल से प्लासी में पराजित होकर भी इतिहास में हमेशा हमेशा के लिए दर्ज हो गए। जब सिराज मार दिए गए तो सिर्फ पच्चीस साल के थे। उनके बाद उनकी सारी पत्नियों सहित उनके नाना अलीवर्दी खान के खानदान की सारी औरतें मीर जाफर के बेटे मीरान के आदेश पर मार दी गई। नवाब जाफर के बेटे मीरान के कहने पर करीब 70 मासूम बेग़मों को एक नाव में बैठा कर हुगली नदी के बीचो-बीच ले जाया गया और वहीं नाव डुबो दी गई. सिराजुद्दौला ख़ानदान की बाकी औरतों को ज़हर दे कर मार दिया गया। 

बस सिराज की सबसे पसंदीदा बेगम लुफ्त उन निसा को जिंदा रखा गया। उन्हें जाफर और उसके बेटे दोनो ने निकाह का पैगाम भेजा। बेगम ने निकाह ठुकराते हुए वापस पैगाम भेजा कि मैं पहले हाथी की सवारी कर चुकी मैं अब गधे की सवारी नहीं करूंगी। you either die a hero aur you live long enough to be the villain. नवाब सिराजुदौल्ला एक नायक की मौत मरे और उनकी बेगम ने भी जाफर के सामने सर नहीं झुकाया। आज की तारीख ले जाती है वापस प्लासी के मैदान पर जहां भारत की तकदीर लुट रही थी और सिराज उन खुशकिस्मतों में से थे जिन्होंने ब्रिटिश लूट का नंगा नाच देखने के पहले ही अपनी आंखें मूंद ली। फिर भी जब भी अपने गांव का नाम पढ़ता हूं एक बार नवाब सिराजुद्दौला और प्लासी के मैदान तक ध्यान चला ही जाता है। 

Monday, June 13, 2022

टाई को बोलो बाय।।

भारत जैसे गर्म और आर्द्र देश में टाई बांधने को लेकर जो जुनून दिखता है वो समझ के परे है। भारत में खास कर गर्मियों में परिधान ऐसा होना चाहिए जो पसीने को सोखे और हवा का पारगमन संभव रखे। इसीलिए भारतीय परंपरा में पुरुषों के लिए धोती और महिलाओं के लिए साड़ी जैसे परिधान विकसित हुए। चुस्त कमीज जिसे गले तक बंद रखना पड़े, ऊपर से उसपर एक टाई बांधनी पड़े और सबके ऊपर से एक मोटा सा कोट पहनना पड़े, भारतीय गर्मी के मौसम के लिए बिल्कुल अनुपयुक्त ही है। 

लेकिन स्कूलों में नर्सरी के बच्चे हों, या कॉलेज में नौकरी के लिए साक्षात्कार देते युवा हों, शादी के लिए तैयार दूल्हे हो या जरूरी कानूनी मुकदमे में गवाही देने जाता वरिष्ठ नौकरशाह, बिना टाई के अपूर्ण माने जाते हैं। यह हास्यास्पद तो है ही , कॉमन सेंस पर औपनिवेशिक गुलामी वाली सोच के हावी होने से ज्यादा कुछ नहीं है। वक्त आ गया है कि हम अपने परिधानों पर शर्मिंदा होना और टाई ना पहनने वालों को शर्मसार करना बंद कर दें। गले की फांस की तरह गले से झूलता वो फालतू सा कपड़े का टुकड़ा कम से कम हमारे किसी काम का नहीं है। हां एक काम है उसका, यह याद दिलाना कि 1757 की प्लासी की हार से शुरू हुआ सिलसिला 1947 में बंद नहीं हुआ, 2022 में भी बदस्तूर जारी है। 

Monday, June 6, 2022

पहली बारिश की बूंदें

पहली बारिश की बूंदें
झर झर।

लगती हैं ऐसे जैसे 
शरारती तुमने सुबह सुबह जगाने
की कोशिश की हो पानी छिड़क कर
आसमान के छाए हों काले बादल 
मानो मेरा चेहरा छू रहे हों 
जैसे तुम्हारे खुले गीले बाल
और रिस रही हो उनसे बूंदें
अंजुली भर ।
पहली बारिश की बूंदें
झर झर।

काले बादलों के बीच चमकती
बिजली लगती है जैसे
बीच बीच में दिखता हो 
सफेद तौलिया जो बमुश्किल बांधे हुए है 
तुम्हारी भीगी केशराशि को।

है फैली चारों तरफ
पहली बारिश की महक 
जैसे अभी अभी तुम 
बाहर निकली हो गुसलखाने से
और महक उठा हो कमरा तुम्हारे
संदली साबुन की खुशबू से।
और मैं निहारता तुम्हें
जी भर।
पहली बारिश की बूंदें
झर झर।

बिस्तर पर अलसाया पड़ा मैं 
गर्मी से बेजान हो रहे पत्ते की तरह
और बारिश की बूंदें पड़कर
धुलने लगी हो पत्ते पर जमी
धूल की परत
और दुबारा दिखने लगी हो 
पत्ते की छुपी हरियाली 
पाकर ठंडक भरी दुपहरी में
खुशी में झूम सा गया हो 
शीतल बूंदें की गुलाबी चोट 
से कांप रहा हो
थर थर ।
पहली बारिश की बूंदें
झर झर।

पहली बारिश की बूंदें
जगा जाती हैं पहले प्यार की
 सोचता हूं कि कब सिखाई
तुमने बारिश को अपनी शरारतें
और कैसे है बादलों में 
तुम्हारी अदाओं का 
 जैसा असर
जब भी देखता हूं
पहली बारिश की बूंदें
झर झर।




Sunday, June 5, 2022

कुरुक्षेत्र में मान सम्मान के लिए लड़ता पक्ष

द्रौपदी के पांच पति थे, पांचों वीर थे, ज्ञानी थे, क्षात्र धर्म के अनुपालक थे लेकिन उन्होंने द्रौपदी को दांव पर लगाने से परहेज़ नहीं किया। आधा राज्य पाने के लिए उन्होंने ऐसा किया। युद्ध भी हस्तिनापुर के सिंहासन के लिए हुआ था, द्रौपदी के मान सम्मान के लिए नहीं। पांडव पांच गांव पाकर सब भूलने को तैयार थे। धन्यवाद करना चाहिए दुर्योधन का जिसने बिना युद्ध के सूई की नोंक के बराबर भूमि देने से मना कर दिया और भीम की दुःशासन की छाती फाड़ने वाली प्रतिज्ञा की लाज रह गई। हां दुर्योधन अवश्य अपने पिता को अंधा कहने वालों को क्षमा करने को तैयार कभी नहीं हुआ। अपने पिता के सम्मान के लिए वो अवश्य लड़ा। कुरुक्षेत्र के रण में सिर्फ एक पक्ष मान सम्मान के लिए लड़ रहा था और वो पक्ष पांडवों का नहीं था। जहां पांडव अपनी पत्नी तक के चीरहरण के मूक दर्शक बने रहे , दुर्योधन ने कभी भी अपने मित्र कर्ण को सूत पुत्र तक कहना सहन नहीं किया।

Wednesday, June 1, 2022

परहित भाव की महत्ता

समस्त सृष्टि में मनुष्य ही है जो कवि है, प्रेमी है , चित्रकार है, लोकहित में कार्य करने वाला प्रशासक है, अधिकारों के लिए लड़ने वाला मजदूर संघ का नेता है, गरीब वंचितों की सेवा करने वाला डाक्टर है। बाकी सब जीव तो जीवन, मृत्यु, भोजन और वंशवृद्धि के चक्र से आगे नहीं जा सकते। मनुष्य और अन्य जीवों में यह मूल अंतर इसीलिए है कि मानव अपने निज आवश्यकताओं पूर्ति के परे सोच सकता है। कल्पना करिए, क्या कोई कवि हो सकता है अगर कोई सुनने वाला कविता पढ़ने वाला न हो। प्रेम तो वैसे भी दूसरे मनुष्य से ही किया जा सकता है। कहा भी गया है कि वियोगी होगा पहला कवि। बिना दूसरों के वियोग भी संभव नहीं और संयोग भी नहीं। पहली चित्रकारी भी दूसरों को देख कर दूसरों के देखने के लिए बनी होगी। 
दूसरों के अधिकारों के लिए लड़ने वाला नेल्सन मंडेला भी अगर विश्व में अकेला होता तो मंडेला नहीं बनता। अगर दूसरे ना हों तो कोई डाक्टर भी नहीं होगा । सेवा भी दूसरों की ही की जा सकती है। 

कोई भी व्यापार , कोई भी मानवीय गतिविधि इस मूल तथ्य पर आधारित है कि करने वाला अपने सिवा दूसरों के लिए भी कर रहा है। मनुष्य के सामाजिक संबंधों की नींव पर ही मानव सभ्यता का निर्माण हुआ है। चूंकि अन्य जीव अपने सिवा कुछ खास कर नहीं पाते उनके विकास का स्तर निज आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उद्यम तक सीमित है। कोई शेर अगर जान भी जाय कि जंगल के खास क्षेत्र में शिकारी जाल बिछा कर बैठे हैं और जाल से कैसे बचा जा सकता है, वो शेर अपने इस ज्ञान को दूसरों के साथ साझा नहीं करता । परिणाम यह कि सैकड़ों सालों से वोही जाल शेरों का शिकार कर पाने में सक्षम हैं क्योंकि शेर अपने पूर्वजों से कुछ नहीं सीख सकते, क्योंकि जो शेर शिकार से बचना भी जानते हैं वो दूसरों को नहीं बताते।

मानव अपने अर्जित ज्ञान को दूसरों तक पहुंचाता है, इससे मानवता अपने पूर्वजों के संचित ज्ञान से आगे का सोचती है और उसका उत्तरोत्तर विकास होता है। इन सबके पीछे परहित का मूल भाव समाहित है। बिना दूसरों की उपस्थिति और बिना दूसरों के हित के भाव के मानव सभ्यता का अस्तित्व संभव नहीं। अकेला चना सचमुच कोई भाड़ नहीं फोड़ता। 

Wednesday, May 25, 2022

जॉनी डेप और एम्बर हर्ड वाद के निहितार्थ

‌पुरुष हमेशा महिला को एक सुखदायक छवि के रूप में देखता है। चाहे उसपर वात्सल्य की वर्षा करने वाली माता हो या स्नेह सिंचित कर देने वाली बहन। नवयुवक के रूप में एक पुरुष की प्रेयसी वाली समस्त कल्पनाएं प्रणय की गुलाबी क्षणों की और आनंददायक सान्निध्य की अजस्त्र धारा मात्रा होती है। गार्हस्थ्य जीवन में भी अंधांगिनी के रूप में प्रेम और विश्वास जड़ित सहयोग के बल पर ही पुरुष अपने स्वप्न नीड़ का निर्माण करता है। उसकी आने वाली पीढ़ियों के लालन पालन में भले ही वो अपने आप को संग्राहक और अर्जक के रूप में देखता है लेकिन अपने द्वारा अर्जित आय से अपने बच्चों की भौतिक आवश्यकताओं की सफल पूर्ति के लिए अपनी पत्नी को ही वाहक मानता है। वो जानता है कि चाहे वो कितना भी अर्जन करे, एक स्त्री, जो उसकी अर्धांगिनी और उसके बच्चों की मां है, बच्चों का उचित लालन पालन मां के बिना अधूरा ही है। जीवन की संध्या बेला में भी पुरुष एक स्त्री संगिनी के सहारे ही अपने पल काटने की कल्पना करता है। 

‌पुरुष की रचना ही ऐसे हुई है कि वो स्त्री के वात्सल्यमयी, स्नेहसिंचित, प्रेमपूर्ण और सुखद संगिनी रूप के अलावा किसी और रूप में सोच नहीं पाता। इसीलिए जब भी पुरुष स्त्री को इनके अलावा किसी और रूप में पाता है तो अत्यंत ही दयनीय हो जाता है। एक बालक जिसकी माता की असमय मृत्यु हो गई हो , पहली बार अपनी सौतेली मां को भी मां के रूप में देखता है और उससे मातृवत व्यवहार की आशा रखता है। सौतेली मां का रुख व्यवहार बालक के अबोध मन को समझ नहीं आते क्योंकि उसका मन स्त्री को क्रूर रूप में देखने के लिए बना ही नहीं होता। एक युवक भी अपनी पत्नी की समस्त कल्पनाओं से परे जब किसी अपनी जीवन संगिनी के हाथों प्रेम और निष्ठा के सिवा कोई और भाव पाकर किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है। पत्नी के हाथों क्रूरता झेलता पुरुष नितांत अकेला सा पड़ जाता है। बाह्य दुनिया उसकी बातों का विश्वास नहीं करती क्योंकि उसकी सच्चाई के उलट दुनिया स्त्री को एक ममतामयी रूप में तथा पुरुष को एक आक्रामक चरित्र के रूप में देखता है। 

‌यह सच है कि घरेलू हिंसा के अधिकतर मामलों में स्त्री ही पीड़ित होती है लेकिन घरेलू हिंसा के शिकार पुरुषों की संख्या भी कम नहीं है। यह संख्या अपनी वास्तविकता से कम दिखती है क्योंकि पीड़ित पुरुष बहुधा यह सोच कर अपना दर्द नहीं बताता कि पहला कोई उसका विश्वास नहीं करेगा दूसरा उसकी कहानी पुरुषों की "मर्द को दर्द नहीं होता" वाली छवि से मेल नहीं खाती। सौतली मां के हाथों प्रताड़ना झेलता बालक हो या पत्नी द्वारा झूठे दहेज मामले में अदालत के चक्कर लगाता पुरुष या अपनी बहू के हाथों अपमान का दंश सहता एक वृद्ध ससुर। सबकी कहानी अक्सर छुप जाती है या उजागर होने पर भी झुठला दी जाती है , मखौल का विषय बनती हैं।   

अमरीकी अभिनेता जॉनी डेप और उनकी तलाकशुदा पत्नी एम्बर हर्ड के चल रहे मुकदमे के दौरान बाहर आ रही जानकरियों ने इस बात को पुख्ता तौर से सामने रखा है कि पीड़ित पुरुषों की समस्या कोई अपवाद या कोई छोटी मोटी घटना नहीं है। महिला उत्पीडन की समस्या सर्वविदित है और उसके लिए पर्याप्त ना सही लेकिन कदम उठाए जा रहे हैं। उसके प्रति जागरूकता भी है। घरेलू हिंसा के पीड़ित पुरुषों के बारे में ऐसा कुछ भी नहीं है। यहां न जागरूकता है और न ही इस दिशा में कोई भी कदम उठाए गए हैं । इसे झूठी मर्दानगी के जोड़ दिया जाता है जहां पीड़ित पुरुष को शर्मिंदगी का अहसास कराया जाता है । परिवार,समाज , न्याय व्यवस्था, पुलिस थाने में पुरुष को अविश्वास की दृष्टि से देखा जाता है। घरेलू हिंसा से जुड़े कानूनों का महिला के पक्ष में अत्यधिक झुका होना भी न्याय के प्राकृतिक सिद्धांत की अवहेलना करता दिखता है।

अभिनेता जॉनी डेप ने अपनी कहानी दुनिया के सामने रख कर एक बहुत साहस का काम किया है। आशा है कि हम इस पूरे प्रकरण को एक मसालेदार पेज थ्री गॉसिप के रूप में देखने से ऊपर उठकर इसमें निहित संदेश को भी ग्रहण करेंगे और एक बेहतर समानता आधारित समाज की ओर बढ़ेंगे। 

Sunday, May 22, 2022

डॉक्टर गलत मरीज सही

एक महिला ने डॉक्टर को फोन किया। डॉक्टर साब, मेरे पति की तबियत ठीक नहीं है। डॉक्टर साब अपना आला, अपना बैग सब लेकर आए। पेसेंट को अच्छे से चेक किया और कहा , आई एम सॉरी। आपके पति अब नहीं रहे। महिला के पति ने कहा अबे यह क्या बात हुई मैं तो जिंदा हूं। महिला ने अपने पति को डांटते हुए कहा कि चुप रहो जी। तुम डॉक्टर हो या ये। तुमसे ज्यादा जानते हैं ये। ऐसे ही डॉक्टर थोड़े बने हैं।
कहने के लिए यह चुटकुला मैंने बचपन में सुना था और  शायद सुन कर हँसा भी था। लेकिन मन में यह भाव भी था कि ऐसा थोड़े ही हो सकता है। ऐसा कैसे हो सकता है कि सामने वाला बोले कि मैं जिंदा हूं और कोई डॉक्टर की बात मान के उसको मुर्दा मान ले। लेकिन जब से टीवी और आजकल यूट्यूब चैनल वालों को देखता हूं चुनाव परिणामों को समीक्षा करते हुए तो यही जोक याद आता है। जनता बोल चुकी है जो उसको बोलना था, और ये चुनावी पंडित अपने "सर्वे और अपने जमीनी अनुभव" का हवाला दे दे कर जनता को गलत साबित करने में लगे हुए हैं। भैया अब तो मान लो कि तुम्हारी डायग्नोसिस गलत थी। लेकिन नहीं, गले में चोंगा टांग रखा है तो हो गए डॉक्टर। और डॉक्टर तो हमेशा मरीज से ज्यादा ही जानता है!! 
तो उसी प्रकार से सामने एक माइक रख लेने और नाम के आगे वरिष्ठ पत्रकार, और चुनाव विशेषज्ञ लगा लेने के बावजूद भी जनता की आवाज के सामने तुम्हारी बात सही नहीं हो जाती। 

अगर आप अभी भी चुनावी विश्लेषण में लगे हुए हैं तो आप वोही डॉक्टर हैं जो जिंदा मरीज को मुर्दा और मुर्दा को जिंदा बता रहे हैं क्योंकि आपकी रिपोर्ट ऐसा कहती है। अगर आप उन लोगों में से हैं जो अभी तक उनको सुन रहे हैं और डॉक्टर को सही मानते हैं तो आप वो महिला हैं। मैडम, मरीज की सुनिए, डॉक्टर की नहीं। मरीज का हाल सबसे बेहतर मरीज ही बता सकता है। और अगर आप डॉक्टर और महिला दोनो नहीं हैं तो फिर आप जनता हैं। आप अच्छे से जिंदा हैं, किसी के कहने से आप और लोकतंत्र मर नहीं जाते, चाहे वो कहने वाला कोई भी हो। पंजाब हो या गोवा हो या हो उत्तर प्रदेश, जनता की आवाज में जनार्दन बोलते हैं। तो डॉक्टर साब, प्लीज अपना आला समेटिए, और निकल लीजिए पतली गली से। अगली बार किसी को दस्त की शिकायत हुई तो आपको फिर से आपको याद करेंगे !! 

पंचायत का अखंड कीर्तन

एकता कपूर के पास पैसा है, राइटर्स की जमात है ,मेकअप आर्टिस्ट की फौज है, VFX करने वाले टेक्नीशियन हैं, तो मैडम नागिन और गंदी बात का सीजन पर सीजन निकाल रही हैं। सलमान खान  के पास स्टारडम है, बॉलीवुड का सारा रिजेक्टेड कचरा है तो उसको रिसाइकल करके बिगबॉस बना बना के पैसे कमा रहे हैं।  टीवीएफ वालों के पास आइडिया है , कंटेंट है और इंटेंट है इसीलिए वो पंचायत बना रहे हैं । चाहे एकता कपूर और सलमान खान वाला कोई औकात नहीं है उनके पास। 

पंचायत का दूसरा सीजन देख के लगा जैसे मेनस्ट्रीम प्रोड्यूसर्स और डायरेक्टर्स मानो उस पूरा गांव के जैसे है जहां सबके पास शौचालय है लेकिन सब शौकिया खुले में कर रहे हैं । सीना तान के खुले में कर रहे हैं। और कुछ लोग हैं बिनोद जैसे , जो चाहते हैं कि कुछ भी हो बाहर हगने का सिस्टम बंद होना चाहिए। चाहे उसके लिए नंगी क्रांति तक क्यों नहीं करनी पड़े।

बाकी प्रधान जी मतलब रघुबीर यादव जी तो अभिनय के खेल के मंझे हुए खिलाड़ी हैं , और सचिव जी उर्फ जीतू भैया भी अब जाना पहचाना नाम हैं लेकिन इन सबके बीच बाजी मारी है सहायक सचिव और उप प्रधान जी ने। जासूस वही तो जासूस ना लगे और एक्टर वही जो एक्टिंग करता हुआ न दिखे। लगे कि बस कर रहा है, जी रहा है अपने किरदार को। सहायक सचिव उर्फ चंदन रॉय अपने रोल में घुस गया है। उसको देख के आप भी कहिएगा कि आपमें बहुत प्रतिभा है सर। पंचायत में गाना सब भी सही है, मुझे सिचुएशन के मुताबिक ही लगा। जहां जरूरत पड़ी बैकग्राउंड म्यूजिक भी बढ़िए दिया है। 

बाकी बचा मैन ऑफ द मैच। तो वो ट्रॉफी बहुत महीन अंतर से ही सही लेकिन उप प्रधान जी यानि हमारे फैसल मालिक को जाता है। आखिरी एपिसोड में फैसल पूरी सीरीज को अपने कंधे पर उठा लेते हैं और उस ऊंचाई पर ले जाते हैं जहां पंचायत को जाना ही चाहिए। अगर पंचायत का अगला सीजन आएगा तो लोग यह जानने में ज्यादा इंटरेस्टेड होंगे कि प्रह्लाद चचा कैसे हैं न कि सचिव जी का कैट क्लियर हुआ कि नहीं। 

बाकी सब कुछ अपनी जगह ठीक है। ठीक क्या बहुते बम पिलाट बना के धर दिया है अरुणाभ और दीपक जी ने। वैसे जब विद्यार्थी नब्बे से ज्यादए नंबर लाने लगता है तब टीचर खराब हैंडराइटिंग का भी नंबर काटने लगता है। उसी हिसाब से कुछ गलती अगर निकालनी ही है तो हम कहेंगे कि भाषा का टोन बलिया वाला नहीं है । यह टोन है पूर्णिया खगड़िया और बेगूसराय वाला। बाकी किसको पता फरक पड़ता है । सलमान खान और प्रियंका चोपड़ा का फेक एक्सेंट और कपिल शर्मा शो पर नकली लड़की बने लोगों को जब झेल ले रहे हैं तो इधर तो बस थोड़ा टोन ही गड़बड़ है। वैसे भी लड़का लड़की बन के नाचे तो फकौली वाले माफ करने वाले नहीं हैं तो फकौली बाजार में कपिल शर्मा नहीं चलने वाले। 

मौका लगे तो पंचायत का नबका सीजन देख मारिये, बहुत लोग तो अखंड कीर्तन की तरह एके बार में देख गए हैं जिसको अंग्रेजी में बिंज वाचिंग भी कहते हैं। और आप भी पंचायत का अखंड कीर्तन शुरू कर दीजिए। बिरयानी, पिज्जा और  सुशी और मोमो खा के अगर पक गए हैं तो प्रधान जी के बगीचे का लौकी खा के देखिए, मजा नहीं आया तो आप बनराकस ही हैं। आपका कुछ नहीं हो सकता।

Friday, May 20, 2022

ऊर्जा सुरक्षा और भारत

कहावत है कि किसी भी समस्या या दुविधा के समय एक आईना देखना सबसे ज्यादा कारगर उपाय है। जब आप आईना देखते हैं तो आपको अपनी समस्या का कारण और समाधान दोनो दिख जाते हैं। अभी भारत के सामने बिजली संकट और भीषण गर्मी की समस्या में यह बात बिलकुल सटीक बैठती है। बिजली संकट जहां हमारी ऊर्जा समस्या या ऊर्जा सुरक्षा के संकट दिखाती है वहीं बेहद गर्मी और सूर्यातप इसका समाधान है। 

करीब बाइस साल हो गए इक्कीसवीं सदी को और इस सदी को भारत की सदी बनाने का सपना अभी अधूरा ही दिखता है। विश्व के तीस सबसे प्रदूषित शहरों में बाइस भारत में हैं। राजधानी दिल्ली की बात करें तो प्रदूषण की वजह से औसतन एक सामान्य दिल्ली निवासी की जीवन प्रत्याशा करीब करीब नौ वर्ष कम हो जाती है। यह हवा लॉक डाउन के दौरान कुछ हद तक साफ हुई थी जब परिवहन, विनिर्माण, औद्योगिक गतिविधियों पर अभूतपूर्व रूप से रोक लग गई थी। लेकिन इस साफ हवा की कीमत थी लाखों का विस्थापन और उनका वापस गरीबी के दुष्चक्र में जा फंसने की गंभीर संकट। यह सच है कि भारत गरीबी और भूख की कीमत पर साफ हवा पाने का कार्य नहीं कर सकता।

इसका अर्थ है कि हमें अपनी समस्त आर्थिक गतिविधियों को जारी रखना है लेकिन हम उन्हें वर्तमान तौर तरीकों से जारी नहीं रख सकते। इसका सीधा सा तात्पर्य है कि हमें अपनी ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने के माध्यमों में बदलाव की जरूरत है और यह मुद्दा सीधे सीधे रूप से हमारी ऊर्जा सुरक्षा से जा जुड़ता है। हालिया अंतराष्ट्रीय घटनाक्रमों यथा रूस यूक्रेन युद्ध और अंतराष्ट्रीय बाजार में बढ़ती तेल की अनवरत कीमतों ने हमारी ऊर्जा सुरक्षा को सबसे महत्वपूर्ण विषय बना दिया है। बिना ऊर्जा सुरक्षा के इक्कीसवीं सदी के भारत की सदी बनाने का सपना एक दिवा स्वप्न के सिवा कुछ भी नहीं।
सौभाग्य की बात यह है कि हमारी पेट्रोलियम पर निर्भरता उतनी भी नहीं जितनी हम समझ रहे हैं। कार केवल छः प्रतिशत भारतीयों के पास है। लेकिन यह प्रतिशत तेजी से बढ़ रहा है। वर्ष 2050 तक भारत की शहरी जनसंख्या वर्ष 2014 के मुकाबले दुगुनी हो जायेगी। और हमारी ऊर्जा आवश्यकता चार गुनी हो जायेगी। वर्ष 2030 तक आवश्यक अवसंरचना के सत्तर प्रतिशत का निर्माण अभी हुआ ही नहीं है। यह सर्वविदित है कि भारत ने अगर अपनी ऊर्जा स्रोतों में बदलाव नहीं किए और 2050/2030 तक की भारत की यात्रा के परिणाम भारत ही नहीं पूरे विश्व के लिए घातक होंगे, आखिर मानवता के एक चौथाई हिस्से की के ऊर्जा उपभोग के परिणाम प्रदूषण, जलवायु परिवर्तन के रूप में सबको झेलने होंगे।
ऊर्जा सुरक्षा के लिए 2030 तक हम त्रिस्तरीय लक्ष्यों पर काम कर रहे हैं। पहला सौर और पवन ऊर्जा का अधिकतम उत्पादन और दोहन। दूसरा नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों का उन क्षेत्रों में उपयोग जहां अब तक इनकी खास पहुंच नहीं है जैसे औद्योगिक क्षेत्र और यातायात। तीसरा हमारे उपकरणों का ऊर्जा मितव्ययी और दक्ष करना। 

जहां तक पहले उपाय का प्रश्न है भारत सूर्यातप के मामले में अत्यंत ही सौभाग्यशाली है । प्रतिवर्ष 300 दिन हमें भरपूर सौर ऊर्जा मिलती है। भारत अपनी समस्त ऊर्जा जरूरतों को केवल अपनी 10 प्रतिशत बंजर भूमि पर सौर पैनल लगा कर पूरा कर सकता है। पवन ऊर्जा के मामले में भी कमोबेश यही स्थिति है। पवन ऊर्जा हमें उन दिनों में ज्यादा उपलब्ध हैं जब सौर ऊर्जा कम मिलती है जैसे मानसून के दौरान। आज हम उस स्थिति में पहुंच चुके हैं जब सौर और पवन ऊर्जा की लागत कोयले से उत्पन्न ऊर्जा से कम हो चुकी है और यह उत्तरोत्तर कम होती जायेगी। बैटरियों की लागत में भी लगातार गिरावट आई है और आज सबसे सस्ते सोलर पैनल और बैटरी बनाना भारत में संभव हो चुका है। सौर और पवन ऊर्जा में निवेश करने के लिए यह एक अत्यंत महत्वपूर्ण दशक है। ऊर्जा उत्पादन के।लिए राजस्थान के मरुस्थल और गुजरात के सामुद्रिक किनारों के साथ साथ विकेंद्रित ऊर्जा दोहन के लिए व्यवसायिक, सरकारी और निजी भवनों के ऊपर भी सोलर पैनल लगाने का काम तेजी से किया जा रहा है।

दूसरी बात यह कि हमें नवीकरणीय ऊर्जा को उन क्षेत्रों में पहुंचाना पड़ेगा जहां पारंपरिक रूप से इनका प्रयोग कम होता है। भारत का 80 प्रतिशत यातायात दोपहिया और तीनपहिया वाहनों से होता है। सड़क पर ई-रिक्शा की बढ़ती संख्या एक सुखदाई संकेतक है। यही काम हमें दोपहिया वाहनों के लिए भी करना होगा। सारी रेल को बिजली चालित करने के कार्य में हम तेजी से आगे बढ़ चुके हैं । डेडीकेटेड फ्रेट कॉरिडोर जैसी योजनाओं के बाद सड़क मार्ग से जाने वाला माल ढुलाई का काम रेल मार्ग के द्वारा साफ ऊर्जा के जरिए किया जा सकता है। भारी उद्योगों के लिए जहां सौर ऊर्जा और पवन ऊर्जा बेहतर विकल्प नहीं हैं वहां हमें हाइड्रोजन आधारित ऊर्जा का प्रयोग करना होगा।

सबसे ज्यादा ऊर्जा उत्पादन और उनको उपभोग के दायरे को विस्तृत करने के बाद भी यह कार्य अधूरा ही रहेगा और हमें ऊर्जा दक्षता और ऊर्जा मितव्ययिता पर काम नहीं किया। अगर हम आज उपलब्ध वातानुकूलन की दक्षता पर काम करें तो सिर्फ घरेलू एसी चलाने के लिए हमें यूरोप की तीन चौथाई ऊर्जा चाहिए होगी। अच्छी बात यह है कि अभी हम वर्क इन प्रोग्रेस नेशन हैं जहां अवसंरचना का निर्माण हो ही रहा है। नवनिर्माण में हम स्मार्ट बिल्डिंग, स्मार्ट लाईटिंग और स्मार्ट वातानुकूलन का प्रयोग कर अपनी ऊर्जा दक्षता बढ़ा रहे हैं। आवश्यक है कि हमारे नए निर्माण और नए शहरीकरण में इन मानकों का पूरी तरह पालन किया जाय। 

इन सबके अलावा हमें ऊर्जा क्षेत्र में वित्त अनुशासन और राजनीतिक समझदारी की घोर आवश्यकता है। मुफ्त में बिजली बांटने की योजनाएं वोट दिला सकती हैं लेकिन हमारे ऊर्जा क्षेत्र में जरूरी विदेशी निवेश इससे हतोत्साहित होता है। आवश्यक है कि हम राजनैतिक इच्छाशक्ति और वित्तीय अनुशासन को अपनी ऊर्जा नीति और क्रियान्वयन का हिस्सा बनाएंगे। इक्कीसवीं सदी को भारत की सदी बनाने का मार्ग ऊर्जा सुरक्षा के जरिए ही जाता है। और बाहर जो कड़ी धूप पड़ रही है ना, वोही हमारी सबसे बड़ी शक्ति भी है। 

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