चंद लोग चल फिर रहे हैं सुस्त कदमों से,
फीके लग रहे हैं तोरण द्वार,
उनसे लटकी उलझी हुईं हैं
बुझी हुई झालरें।
चौराहे पर बैठ कर ऊंघ रहा है
रात भर ड्यूटी बजाता सिपाही,
घर से घाट तक छाई है एक नीरवता
थम गया है लोकगीतों का कलरव
और पटाखों का शोर,
बाकी है तो बस हवाओं में
घुली ठेकुआ खबौनी की खुशबू,
जिसे खाकर तृप्त हो गया है
मानो पूरा शहर,
कुछ ऐसे निढाल पड़ा है हर कोई
जैसे बेटी ब्याह कर सोया हो कोई बाप,
यह छठ के बाद की सुबह है।
जिसका उल्लास बिहार
डूब के मनाता है
जिसका उल्लास बिहार
खूब से मनाता है।
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