समस्या उत्पन्न होती है जब राज्य के नीतियां या उनको लागू करने के तरीके से सब्सिडी की मूल परिभाषा से भटकाव होने लगता है। यह भटकाव दो तरीकों से हो सकता है , पहला सरकार इन चीजों पर छूट दे जो गैर जरूरी श्रेणी में आती हों। दूसरा तरीका है कि छूट का लाभ उनको मिले जिनको इसकी आवश्यकता नहीं है। हालिया वर्षों में भारत में सब्सिडी के लिए मुफ्तखोरी, रेवड़ी बांटना जैसे शब्दों का प्रचलन बढ़ा है तो इसके पीछे के कारणों की तहकीकात भी आवश्यक है।
भारत में जिन क्षेत्रों में सबसे ज्यादा सब्सिडी दी जाती है वो 3F से पहचाने जाते हैं फूड, फ्यूल और फर्टिलाइजर। फूड सब्सिडी यानी खाद्य सब्सिडी हमारे यहां सबसे बड़ा मद है खास कर खाद्य सुरक्षा कानून के लागू होने के बाद। 75% ग्रामीण और 50% शहरी जनसंख्या खाद्य सुरक्षा कानून के अंतर्गत नगण्य कीमतों पर खाद्यान्न पाती है। भारत जैसे देश में भूख की समस्या पर काबू पाने के लिए यह कदम आवश्यक है, लेकिन फिर भी यह कहना गलत नहीं होगा कि इस के दायरे में एक बड़ी ऐसी जनसंख्या भी शामिल है जिसको शायद इस छूट का लाभ नहीं मिलना चाहिए।
सब्सिडी का दूसरा सबसे बड़ा मद है फर्टिलाइजर या उर्वरक। ऊपरी तौर पर देखें तो भारत, जिसकी अर्थव्यवस्था की रीढ़ कृषि मानी जाती है, में कृषि को सहायक उर्वरक सब्सिडी सही दिखती है। लेकिन उर्वरकों पर दी जा रही सब्सिडी के पर्यावरणीय दुष्परिणाम हमारे सामने हैं। भूजल प्रदूषण, खाद्य श्रृंखला संकेंद्रण , कैंसर जैसी बीमारियां और घटती जैव विविधता इसके दुष्परिणाम हैं।
पेट्रोलियम उत्पादों पर सब्सिडी भारतीय अर्थव्यवस्था की दुखती रग है। एक तो पेट्रोलियम के आयात का बोझ उपर से जो डीजल सब्सिडी किसानों के लिए लक्षित है उसका प्रयोग महंगी एसयूवी गाड़ियों के द्वारा किया जाना। इनके अलावा कृषि सम्बद्ध अन्य सब्सिडी जैसे न्यूनतम समर्थन मूल्य, कृषि उपकरण सब्सिडी का भी अच्छा खासा योगदान बन पड़ता है।
भारत में बढ़ते सब्सिडी के बोझ और कोरोना काल के दौरान आई इसमें अप्रत्याशित बढ़ोतरी के बीच यह प्रश्न और भी प्रासंगिक हो उठा है कि कल्याणकारी राज्य के नाम पर चलाई जा रही योजनाएं हमारे लक्ष्य के साधक हैं या क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थ के साधक मात्र बन के राज गए हैं। अगर ऐसा है तो हमारी इस नीति की पुनरीक्षण की आवश्यकता है। हां एक बात यहां साफ कर देना जरूरी है कि हमें बाहरी दवाब में आकर सब्सिडी कम या खत्म करने की आवश्यकता बिलकुल नहीं है। विकसित देश WTO जैसी संस्थाओं के मंच से भारत पर सब्सिडी खत्म करने का जो दवाब बनाया जाता है वो उनके दोहरे चरित्र को उजागर ही करता है। विकसित देश खुद अपने देश में हमारे देश से बीसियों गुना सब्सिडी देते हैं। वर्ष 2018 में भारत जहां अपने किसानों को 49 डालर की सब्सिडी देता था वहीं अमेरिका अपने किसानों को औसतन सत्रह सौ डालर से ऊपर की सब्सिडी देता था। यही हाल कमोबेश यूरोप , ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड का है। यह देश भी अपने किसानों, दूध उत्पादक , मुर्गी पालकों और सूअर पालकों को भारत से कहीं अधिक सब्सिडी देते हैं। भारत में सब्सिडी जहां गरीबी उन्मूलन, अंत्योदय जैसे लक्ष्यों से चालित है, इन देशों की सब्सिडी पॉलिसी पूरी तरह से बाजार आधारित और मुनाफा खोरी और भारत जैसे विशाल बाजार पर कब्जा करने की नीति से प्रेरित है।
अब रही बात हमारी सब्सिडी पॉलिसी में सुधार की बात तो शायद इससे ज्वलंत मुद्दा शायद ही कोई हो। बेतहाशा लोकलुभावन वादे और योजनाओं के कारण हमारे कुछ राज्य इस हालत में पहुंच गए हैं जहां उन्हें अपने पिछले कर्ज के सूद को चुकाने के लिए नया कर्ज लेना पड़ रहा है। यह स्थिति अत्यंत चिंताजनक है।
सबसे पहले तो हमें अपने लक्षित लाभुकों के पहचान की व्यवस्था को दुरुस्त करना होगा। जिस प्रकार नीम कोटेड यूरिया से यूरिया की कालाबाजारी कम हो गई है उसी प्रकार से नवाचार आधारित उपाय अन्य क्षेत्रों में भी लगाना पड़ेगा। आधार, मोबाइल और जन धन खाता की तिकड़ी के आधार पर सीधे लाभ अंतरण सिस्टम का कड़ाई से शत प्रतिशत अनुपालन करवाना होगा ताकि सब्सिडी का लाभ सिर्फ जरूरतमंदों तक ही पहुंचे। ऐसे क्षेत्रों में सब्सिडी बिलकुल ही सीमित होनी चाहिए जिसके लिए हम आयातित हाइड्रोकार्बन या कोयला पर आधारित हैं। कोयले से उत्पादित बिजली को सस्ती दरों पर बांट कर हम अपनी अर्थव्यवस्था , जलवायु, सतत विकास लक्ष्य और वैश्विक छवि सबके साथ एक साथ गंभीर मजाक कर रहे हैं।
इससे बड़ी ज़रूरत होगी सब्सिडी के राजनैतिक दुरुपयोग को रोकने की। चुनावी रैलियों के मंच से गहन आर्थिक फैसले लेने की प्रवृति पर रोक लगाना आवश्यक है। इससे लिए सम्मिलित राजनैतिक इच्छा शक्ति की आवश्यकता है और अगर आवश्यक हो तो चुनाव आचार संहिता में भी बदलाव लाया जाना चाहिए। इससे देश की विकास और सतत आर्थिक प्रगति की जगह लोक लुभावन नीतियों के द्वारा जनता को रिश्वत देने की प्रवृति रुकेगी। आखिर में जिम्मेदारी हम जनता की भी बनती है, हम सब का दायित्व बनता है कि हम अपने देश को एक परिवार समझें। जिस प्रकार परिवार में किसी बीमार सदस्य के लिए एक गिलास दूध ज्यादा रखा जाता है तो परिवार के अन्य सदस्य कोई आपत्ति नहीं करते और न ही बीमार होने का स्वांग करते हैं कि उन्हें भी दूध मिल जाय। उसी प्रकार सब्सिडी हमारे परिवार के वंचितों के लिए है, उनको ही लेने दिया जाय। बाकी लोगों को संयम और संतोष का अनुशासन पालन करना होगा। अगर ऐसा नहीं हुआ तो ना ही कभी परिवार का बीमार सदस्य अपनी निर्धारित खुराक पा सकेगा और बाकी सदस्य वंचन के भाव से प्रेरित हो असंतुष्ट ही रहेंगे।
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