Wednesday, June 1, 2022

परहित भाव की महत्ता

समस्त सृष्टि में मनुष्य ही है जो कवि है, प्रेमी है , चित्रकार है, लोकहित में कार्य करने वाला प्रशासक है, अधिकारों के लिए लड़ने वाला मजदूर संघ का नेता है, गरीब वंचितों की सेवा करने वाला डाक्टर है। बाकी सब जीव तो जीवन, मृत्यु, भोजन और वंशवृद्धि के चक्र से आगे नहीं जा सकते। मनुष्य और अन्य जीवों में यह मूल अंतर इसीलिए है कि मानव अपने निज आवश्यकताओं पूर्ति के परे सोच सकता है। कल्पना करिए, क्या कोई कवि हो सकता है अगर कोई सुनने वाला कविता पढ़ने वाला न हो। प्रेम तो वैसे भी दूसरे मनुष्य से ही किया जा सकता है। कहा भी गया है कि वियोगी होगा पहला कवि। बिना दूसरों के वियोग भी संभव नहीं और संयोग भी नहीं। पहली चित्रकारी भी दूसरों को देख कर दूसरों के देखने के लिए बनी होगी। 
दूसरों के अधिकारों के लिए लड़ने वाला नेल्सन मंडेला भी अगर विश्व में अकेला होता तो मंडेला नहीं बनता। अगर दूसरे ना हों तो कोई डाक्टर भी नहीं होगा । सेवा भी दूसरों की ही की जा सकती है। 

कोई भी व्यापार , कोई भी मानवीय गतिविधि इस मूल तथ्य पर आधारित है कि करने वाला अपने सिवा दूसरों के लिए भी कर रहा है। मनुष्य के सामाजिक संबंधों की नींव पर ही मानव सभ्यता का निर्माण हुआ है। चूंकि अन्य जीव अपने सिवा कुछ खास कर नहीं पाते उनके विकास का स्तर निज आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उद्यम तक सीमित है। कोई शेर अगर जान भी जाय कि जंगल के खास क्षेत्र में शिकारी जाल बिछा कर बैठे हैं और जाल से कैसे बचा जा सकता है, वो शेर अपने इस ज्ञान को दूसरों के साथ साझा नहीं करता । परिणाम यह कि सैकड़ों सालों से वोही जाल शेरों का शिकार कर पाने में सक्षम हैं क्योंकि शेर अपने पूर्वजों से कुछ नहीं सीख सकते, क्योंकि जो शेर शिकार से बचना भी जानते हैं वो दूसरों को नहीं बताते।

मानव अपने अर्जित ज्ञान को दूसरों तक पहुंचाता है, इससे मानवता अपने पूर्वजों के संचित ज्ञान से आगे का सोचती है और उसका उत्तरोत्तर विकास होता है। इन सबके पीछे परहित का मूल भाव समाहित है। बिना दूसरों की उपस्थिति और बिना दूसरों के हित के भाव के मानव सभ्यता का अस्तित्व संभव नहीं। अकेला चना सचमुच कोई भाड़ नहीं फोड़ता। 

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