हमारा गांव बहुत पिछड़ा हुआ था। हमारे गांव में किसी के घर में डस्टबिन नहीं था। कचरा के नाम पर सब्जी के छिलके होते थे जिसे गौमाता को खिला दिया जाता था। किचन से मांड़ और चोकर निकलता था जो गौमाता को ही अर्पित हो दूध बन कर वापस आ जाता था। दूध भी गौशाले से सीधे बाल्टी में घर आता था इसीलिए कभी प्लास्टिक के थैलों की जरूरत नहीं थी। सब्जी वाली अपने सर पर ताजी खेतों के तोड़ी हुई सब्जियों को ढोकर घर घर बेच आती थी, बाकी सब्जियां घर के पिछवाड़े बाड़ी से निकल आती थी। पॉलिथीन बैग का नाम नहीं सुना था।
गेंहू धोकर आंगन में पुरानी साड़ी पर रख कर सुखा लिया जाता था और फिर गांव की चक्की में पीस कर आ जाता।कभी प्लास्टिक के थैलों में आटा रखने की जरूरत नहीं पड़ी। दालान वाला नीम का पेड़ ब्रश दे देता था और बहुत जरूरत पड़ी तो नमक और सरसों का तेल से दांतों की सफाई हो जाती थी।
कपड़े साल में दो बार थान से कट के आते और पड़ोस से दर्जी से सिल के आते। कभी अमेजन वाली प्लास्टिक की तीन तह वाली पैकिंग की जरूरत नहीं पड़ी। गांव में कोई म्युनिसिपैलिटी वाली गाड़ी, गाड़ी वाला आया घर से कचरा निकाल, वाला गाना सुना कर कचरा तक जमा नहीं करता। क्योंकि किसी घर में कोई कचरा था ही नहीं। सत्यनारायण पूजा भी हुई तो प्रसाद केले के पत्ते पर और गांव में भोज हुआ तो सखुए के पत्ते में भोज हो जाता था।
पानी घड़े में रहता था, उस समय प्लास्टिक की बोतल में पानी अगर कोई बेचता तो लोग उसपर आश्चर्य से हंसते बस। इसीलिए नहीं कि गांव वाले पानी की कोई कीमत नहीं समझते थे बल्कि इसीलिए की वो पानी को अमूल्य समझते थे। इसलिए नदियों को मां कहते और पोखर में किसी न किसी देवता का वास मानते। छठ की पूजा के बाद घाटों पर प्लास्टिक का अंबार नहीं बस केले के थंबों से बनी सजावट शेष रहती थी, जिसे साफ करने के लिए किसी एनजीओ या नगरनिगम की जरूरत नहीं पड़ती थी।
आज देखता हूं घर घर में प्लास्टिक के कचरे को रखने के लिए प्लास्टिक के डस्टबिन हैं जिनमें प्लास्टिक का एक नया थैला रोज लगता है। अंदर दूध के पैकेट, पुराने टूथ ब्रश, सब्जियों वाली पॉलिथीन, पूजा के बाद प्लास्टिक के दोने और रात की पार्टी के बाद डिस्पोजेबल प्लेट और ग्लास के ढेर लगे होते हैं। कचरा अच्छे से जमा किया जाता है और अच्छे से शहर से दूर एक जगह जमा कर दिया जाता था। धीरे धीरे शहर खिसक कर कचरे के ढेर के पास पहुंच जाता है। फिर कचरे का वो पहाड़ किसी और जगह दूर चला जाता है और फिर शहर खिसक खिसक कर कचरे के ढेर के पास पहुंच जाता है। कचरे के ढेर का पीछा करता शहर बड़ा होता जाता है। हमारा गांव कभी ऐसे बड़ा नहीं हुआ क्योंकि वोह कचरे के ढेर ना बनाता था और न उसका पीछा करता था। हमारा गांव पिछड़ा ही रह गया क्योंकि हमारे गांव में किसी भी घर में डस्टबिन नहीं था।
No comments:
Post a Comment