प्रेमचंद की मृत्यु हमें याद दिलाती है कि कलम तलवार से मजबूत तभी हो सकती है जब कलम चलाने वाला भूखा न रहे। तलवार चाहे कितनी भी तेज क्यों ना हो, जिस सैनिक के हाथों में तलवार है , उस सैनिक के हाथों को उचित पोषण मिलना भी आवश्यक है। तलवार चलाने वाले हाथों के ऊपर अन्य सांसारिक चिंताओं का बोझ नहीं होना चाहिए। बोझिल मानसिकता और कुपोषित हाथों में तेज तलवार भी शत्रु को परास्त नहीं कर सकती। कलम की प्रखर धार भी वैसे लेखक के हाथों में कुंद पड़ जाती है अगर लेखक अपने जीवन में सामान्य भौतिक सुख सुविधाओं के लिए तरसता रहे।
प्रेमचंद की प्रज्ञा कितनी भी तेज रही है, उनकी क्षुधा की आग हमेशा उनकी प्रज्ञा को सताती रही। आखिर क्षुधित काया में स्वास्थ्य और रचनात्मकता कितने दिन वास कर सकती है। प्रेमचंद हमारे महानतम कलमकार भले ही रहे हों, हमेशा अकिंचन ही बने रहे। उनका प्रेस तो उनका खून पीकर ही चलती रही। उनकी फटे जूते देख कर तो परसाई जी एक निबंध तक लिख दिया। कई संस्मरण तो यह भी बताते हैं कि उनकी आखिरी यात्रा में कुल छह साथ लोग ही शामिल थे। पूरे साहित्य जगत को रोशनी की लौ लिए दिशा देने वाले प्रेमचंद एक गुमनाम लाश की तरह इस दुनिया से विदा हुए।
किसी भी सभ्यता की पहचान इससे होती है कि इस सभ्यता के नायकों चयन जनमानस में कैसे होता है और सभ्यता अपने नायकों के साथ कैसा व्यवहार करती है। हम भले ही मेरा भारत महान के नारे लगा कर अपनी सभ्यता के महान होने का दंभ भरते रहें, हम अपने साहित्य और साहित्यकारों के साथ उचित व्यवहार कभी नहीं कर पाए। निराला भूख से जूझते रहे, तो मुक्तिबोध अपने जीवन काल में अपनी एक कविता प्रकाशित नहीं करवा सके। आज भी कोई गीत सुनकर हम उसके गायक को पहचान ले, उसपर थिरकते अभिनेताओं की भाव भंगिमा तक उतार लें, गीतकार का नाम हमें शायद ही पता भी होता है। अपने साहित्यकारोंं को नायक बना के सम्मानित करना तो दूर , साहित्यकार होने का अर्थ ही गया है एक निरीह झोला टांगे हुए व्यक्ति से जिसकी जरूरत तो है लेकिन कदर कोई खास नहीं है। स्वाभाविक है इसका असर हमारी पूरी पीढ़ी की रचनात्मकता और रचनाशीलता पर पड़ा है। कब आखिरी बार हमारे बीच से कोई मौलिक रचना निकली है जो विश्व जनमानस पर छा गई हो? कोई मौलिक कहानी, उपन्यास या कोई और साहित्यिक रचना गढ़ने में हमारा हाथ तंग ही दिखता है। अंग्रेजी भाषा में कदाचित कुछ लिखा भी जा रहा है, हमारी भारतीय भाषाओं की स्थिति तो उत्तरोत्तर खराब ही होती जा रही है। मां सरस्वती की वंदना करने वाले देश में सरस्वती पुत्रों की ऐसी दुर्दशा अकल्पनीय और अस्वीकार्य है।
आज से 86 साल पहले इन्हीं गलतियों के कारण हमने एक हीरा मुंशी प्रेमचंद के रूप में खोया था। आज उनकी पुण्यतिथि पर हमें विचार करना होगा कि हम अपने साहित्यकारों रूपी रत्नों को सहेज कर रखने के लिए क्या कर सकते हैं।
उपन्यास सम्राट को उनकी पुण्य तिथि पर शत शत नमन।
2 comments:
उम्दा लेखन
आज के युग में ऐसी यथार्थ लेखनी नदारद है।
हमें प्रकाशवान करते रहें।
धन्यवाद ।
आपका आभार
और धन्यवाद।
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