Tuesday, August 9, 2022

कोउ नृप होउ हमहि का हानी।

करि कुरूप बिधि परबस कीन्हा। बवा सो लुनिअ लहिअ जो दीन्हा॥
कोउ नृप होउ हमहि का हानी। चेरि छाड़ि अब होब कि रानी॥3॥

रामचरितमानस के अयोध्या काण्ड के इस दोहे का सामान्यतया एक चौथाई ही प्रसिद्ध है और बोल चाल में प्रयुक्त होता है। कोउ नृप होउ हमहि का हानी , सामान्यतया वैसे लोग बोलते हैं जो अपने आप को राजनीतिक रूप से तटस्थ दिखाना चाहते हैं। यह एक विडंबना ही है क्योंकि यह पंक्ति मूल रूप में दासी मंथरा द्वारा रानी कैकेयी को कही गई थी और इसमें अभिधात्मक नहीं वरना व्यंजना भाव प्रमुख है। सर्वविदित है कि मंथरा की कूटनीति ने ही राम के वनवास की नींव रखी।  यह तथाकथित तटस्थ वक्तव्य हमारे इतिहास का सबसे कूटनीतिक वक्तव्य है। राजनीति ऐसी ही होती है, जो दिखता है वो होता नहीं और जो होता है वो दिखता नहीं।

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