Tuesday, October 16, 2018

नाम में क्या रखा है??

बारहवी शताब्दी अपने अंतिम दशक में थी। भगवान बुद्ध के महापरिनिर्वाण के छह शताब्दियों के बाद भी उनके द्वारा जलाई गई ज्ञान ज्योत नालंदा विश्वविद्यालय के रूप में अपनी ख्याति के चर्मोत्कर्ष पर था। ज्ञान का यह प्रकाश स्तंभ पूरे विश्व के छात्रों को गणित, विज्ञान, चिकित्सा , संगीत और दर्शन जैसे विषयों पर शोध और अध्ययन का अवसर प्रदान कर रहा था। उधर सुदूर दिल्ली में दिल्ली सल्तनत की शुरुआत हो चुकी थी और इस्लाम का प्रसार करने के लिए कुतुबुद्दीन ऐबक का एक सिपहसालार बख्तियार बिन खिलजी गंगा के मैदानों में पूर्व का रुख कर चुका था। मध्य एशिया का खिलजी भले ही शारीरिक रूप से अत्यंत सबल था, बदली जलवायु की परिस्थितियों के सामने मानव शरीर बहुधा निर्बल ही होता है। वर्तमान पटना शहर के पास से गुजरते वक़्त खिलजी का स्वास्थ्य बिगड़ गया। अब अस्वस्थ शरीर से काफिरों पर फतह का परचम क्या फहराया जाता। बख्तियार का काफिला पटना से कुछ दूर पर रुक गया। काफिले के साथ आये हकीमों की सारी दवा बेअसर साबित हुई। खिलजी उत्तरोत्तर कमजोर होता गया। मृत्यु के समीप आने पर मनुष्य बहुधा धर्मपरायण हो जाता है। ख़िलजी भी दिन रात कुरान का अध्ययन करने लगा। किसी ने कहा कि पास में ही नालंदा विश्वविद्यालय है जहां चिकित्सा विभाग के प्राध्यापक राहुल श्रीभद्र हैं। उनका चिकित्सा ज्ञान अप्रतिम है और उनसे सलाह ले लेनी चाहिये।


राहुल श्रीभद्र को संदेश भेजा गया कि खिलजी के प्राणों की रक्षा में उनसे ही आस बची है। श्रीभद्र संयोग से आस पास ही थे और खिलजी के शिविर में जा पहुंचे। एक चिकित्सक का कर्तव्य निभाने को अपना धर्म मानने वाले श्रीभद्र को सामने वाले का धर्म नहीं सिर्फ उसकी व्याधि ही दिखती थी। उसके उलट खिलजी को सामने एक चिकित्सक नहीं बौद्ध भिक्षु के वस्त्र पहने खड़ा एक काफ़िर दिख रहा था। एक काफ़िर को अपनी नब्ज दिखाने से इंकार करते हुए कहा खिलजी ने कहा कि मैं एक काफ़िर के हाथों से दवा नहीं ले सकता। अगर यह राहुल श्रीभद्र इतना ही बड़ा चिकित्सक है तो मुझे बिना छुए और मुझे बिना कोई दवा पिलाये मुझे स्वस्थ करके दिखाए। इतना कह कर  खिलजी अपने सामने रखे पाक क़ुरान के पन्नो को उलट पर उसे पढ़ने लगा।

ज्ञान अच्छी वस्तु है लेकिन ज्ञानी होने का अहसास कभी कभी गर्व के अज्ञान को जन्म दे देता है। विश्व के सर्वश्रेष्ठ शिक्षण संस्थान का प्रमुख होने का गर्व कदाचित श्रीभद्र के विवेक पर एक पर्दा डाल गया। वो यह नहीं देख पाए कि जो धर्मांध अपने धर्म को ही उत्तम मानता है और बाकी किसी मनुष्य को घृणा से देखता है वह एक आने वाली विपत्ति है। घृणा में सराबोर मनुष्य मानव कहलाने योग्य नहीं है और मानवता के सिद्धांत अधिकार सिर्फ मानवों के लिए हैं। अपने चिकित्सा ज्ञान को दी गई ललकार ने श्रीभद्र के गर्व पर चोट पहुंचाई।श्रीभद्र ने खिलजी के दिये हुए चुनौती को मन ही मन स्वीकार किया। मंद मंद मुस्कुराते हुए बोले, महाशय जैसी आपकी इच्छा। मैं आपको स्पर्श नहीं करूंगा। लेकिन क्या मैं वो किताब देख सकता हूँ जो आप पढ़ रहे है। खिलजी ने कुरान ए पाक को श्रीभद्र की तरफ
बढ़ा दिया। श्रीभद्र के किताब अपने हाथ में ली और उसे कुछ देर उलट पुलट कर देखते रहे। फिर किताब वापस करते हुए बोले कि आप इस किताब को दिन में तीन बार पढ़ें। ईश्वर ने चाहा तो आप छह दिनों में स्वस्थ हो जाएंगे। यह कहकर श्रीभद्र खिलजी के शिविर से निकल नालन्दा के लिए चल पड़े और खिलजी कुरान के पन्ने वापस से पलट कर पढ़ने लगा।


दो तीन दिन बीते और खिलजी के स्वास्थ्य में चमत्कारिक रूप से सुधार आने लगा और जैसा कि श्रीभद्र ने कहा था छठवें दिन खिलजी पूर्णतः स्वस्थ हो गया। वह अपने जिहाद को आगे बढाने के लिए पूरी तरह तैयार लेकिन एक रहस्य को जानने बिना वह आगे नहीं जा सकता था। आखिर श्रीभद्र ने बिना उसे छुए वो कैसे कर दिखाया जो उसके हकीम न कर सके? ख़िलजी ने अपना एक दूत श्रीभद्र के पास भेजा कि खिलजी अपने ठीक होने का रहस्य जानना चाहता है। श्रीभद्र ने बताया कि उन्होंने देखा कि खिलजी कुरान के पन्नों को पलटने के लिये अपनी उंगली में थूक लगा कर पलटता है। इसीलिए मैंने कुरान के पन्नो के किनारों पर दवा का एक लेप लगा दिया और उन्हें कुरान नियमित पढ़ने के सलाह दी। पन्ने पलटने के दौरान दवा उंगलियो द्वारा खिलजी के शरीर में पहुंची और अपना असर दिखाया।

जिस तरह एक कन्या का सौंदर्य उसके पिता के हृदय में गर्व, उसके प्रेमी के हृदय में प्रेम और एक कामांध के हृदय में वासना का संचार करता है, ज्ञान का प्रदर्शन दूसरे ज्ञानी को जिज्ञासु और उपकृत बनाता है तो एक हठी मूर्ख को ईर्ष्या की अग्नि में जलाता है। खिलजी श्रीभद्र के चिकित्सा कौशल का चमत्कार देख उपकृत नहीं हुआ बल्कि क्रोध से उबल पड़ा। एक काफ़िर के पास वो ज्ञान कैसे हो सकता है जो उसके धर्म को मानने वालों के पास नहीं हो। उसने कहा कि इस ज्ञान के स्रोत को ही समाप्त करना होगा। श्रीभद्र की औषधि  से स्वस्थ हुआ धर्मांध खिलजी आयुर्वेद, बौद्धधर्म के ज्ञान के मूल नालंदा विश्वविद्यालय जा पहुंचा। उसने सभी आचार्यों, छात्रों को मारने का आदेश तो दिया ही, साथ ही यह भी सुनिश्चित किया कि विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में रखी नब्बे लाख पुस्तकें और पांडुलिपि अग्नि के हवाले कर दी जाएं। बौद्ध साहित्य में वर्णन मिलता है कि नालंदा का पुस्तकालय तीन मास तक जलता रहा।

यह कथा यहीं समाप्त नहीं होती अपितु आज भी जारी है। खिलजी का शूल अब भी बिहार की छाती पर गड़ा हुआ है। जहाँ पर ख़िलजी ने अस्वस्थ होकर अपना शिविर लगाया और जहाँ पर श्रीभद्र की दवा ने उसके प्राण बचाये, वो स्थान आज भी बख्तियारपुर के नाम से जाना जाता है। और  राहुल श्री भद्र ? उनका नाम तो नालंदा के पुस्तकालय की राख और हमारे अज्ञान की मोटी परत के नीचे कहीँ दबा पड़ा है। किसी सभ्यता का पतन तब नहीं होता जब कोई दूसरी सभ्यता उसे सामरिक युद्ध में पराजित करे, सभ्यता का पतन तब होता है जब किसी सभ्यता में अपनी संस्कृति पर गर्व होना समाप्त हो जाता है। मानसिक रूप से परास्त सभ्यता  अपने गौरवशाली इतिहास के सत्य के बदले तलवार के बल पर सिखाये गए असत्य को उचित ठहराती है। एक पराजित सभ्यता ही आक्रांताओं के अन्याय को अपनी नियति मान कर हाथ पर हाथ धरे बैठती है और कदाचित अन्याय को न्यायपूर्ण भी ठहराने का प्रयास करती है। बख्तियारपुर नाम अपने आप में मानवता और हमारे स्वाभिमान के साथ भद्दा मजाक है। सत्यमेव जयते के सिद्धांत वाले देश में बख्तियारपुर नाम किसी भी तरीके से स्वीकार्य नहीं है। सहिष्णुता, गंगा जमुनी संस्कृति और साझी विरासत जैसे इत्र छिड़क कर आप बख्तियारपुर जैसे नामों की विष्ठा को ग्राहय नहीं बना सकते। देर से ही सही पर सही कार्य होना अवश्य चाहिये। बख़्तियारपुर का नाम श्रीभद्रपुर होना ही चाहिये। जय भारत।

Monday, October 1, 2018

जीवन में ज्ञान प्राप्ति।।

आपने कई बार पढ़ा होगा कि भगवान बुध्द को बोधगया में बोधिवृक्ष के नीचे बैठे ज्ञान प्राप्त हुआ। मैने भी पढ़ा है लेकिन यह नहीं समझ पाया कि वास्तव में आखिर क्या हुआ होगा। क्या कोई दैवीय चमत्कार हुआ कि गौतम को किसी ने सारा ज्ञान हस्तांतरित कर दिया। या जैसा धार्मिक धारावाहिकों में दिखाया जाता है कि एक प्रकाश पुंज मस्तक के आस पास  आ जाता है। जिस तरह धारावाहिक में दिखाया गया प्रकाश पुंज ज्ञान का एक  काल्पनिक चित्रण भर है जिसका वास्तविक घटित घटनाओं से शायद कोई संबंध नही है। उसी प्रकार ज्ञान प्राप्त होना भी कदाचित किसी और प्रक्रिया का साहित्यिक चित्रण भर है। वास्तव में यह प्रक्रिया कुछ और रही होगी जिसे लोग ज्ञान प्राप्त होना कहते हैं।

बैरिस्टर मोहनदास गांधी अपने मुवक्किल दादा अब्दुल्ला के मुकदमे की पैरवी के लिए रेल से डर्बन से प्रिटोरिया जा रहे थे। मोहनदास ने बैरिस्टरी की पढ़ाई लंदन में की और वहां पूरी तरह अँग्रेजों की तरह रहे। सूट बूट पहन कर काठियावाड़ का यह युवक अपने लंदन प्रवास के दौरान अंग्रेजी संस्कृति में घुलने का प्रयास करता रहा। दूसरे शब्दों में कहें तो शायद सभ्य बनने की कोशिश करता रहा। यहां तक कि उसने पाश्चात्य नृत्य बॉल डांस को सीखने के लिए टयूशन तक ले ली थी। पढ़ाई पूरी कर मुम्बई में वकालत की पर कुछ खास चली नहीं। ऐसे ही एक दिन दादा अब्दुल्ला ने एक मुकदमे की पैरवी के लिए दक्षिण अफ्रीका बुला लिया तो युवा मोहन चल पड़ा नई संभावनाओं की तलाश में दक्षिण अफ्रीका। और बिल्कुल अंग्रेजों की तरह पहली श्रेणी का टिकट लेकर डर्बन से प्रिटोरिया जाने वाली रेल गाड़ी में बैठ गया।  फिर क्या हुआ?  रेल के टिकट निरीक्षक ने उसे बताया कि पहले श्रेणी में बैठने के लिए पहली श्रेणी का टिकट पर्याप्त नहीं है उसके लिए चमड़ी का रंग भी गोरा होंना चाहिये। जिन अंग्रेजों ने उसे बैरिस्टरी की पढ़ाई के दौरान न्याय, कानून और अधिकारों के बारे में सिखाया था वही अंग्रेज अब यह बता रहे थे कि न्याय और अधिकार की बातें सार्वभौमिक नहीं वरन चमड़े के रंग का एक फलन हैं। विनम्रता पूर्वक अनुनय और तर्क करना काम न आया और अंग्रेज़ी कपड़े पहने अंग्रेज़ी शिक्षा प्राप्त और अंग्रेज़ बनने की सुप्त इच्छा रखने वाले मोहन दास को सामान सहित पेटरमारितज़्बेर्ग स्टेशन पर प्लेटफार्म पर फेंक दिया गया। मोहन दास ने अपना सामान उठाने की भी परवाह नही की और रात भर वहीं पड़े सोचते रहे। मोहन दास ने महात्मा बनने की ओर पहला कदम उसी स्टेशन पर उठाया।


मोहन दास को उस दिन क्या नया पता चला। क्या वो अंग्रेजी सरकार के दमन से पूरी तरह नावाक़िफ़ थे? संभव नहीं लगता। क्या उस रात  उन्होंने पहली बार रंगभेद देखा था? कदाचित नही। फिर क्या हुआ? हुआ सिर्फ यह कि मोहन दास को उस दिन उसका जीवन लक्ष्य मिल गया। उसने निर्णय लिया कि आगे का जीवन इस अन्याय के विरुद्ध लड़ते हुए बीतेगा। ऐसा ही कुछ गौतम के साथ हुआ होगा। जीवन, मृत्यु और वृद्धावस्था के रहस्य उनको पहले ही पता रहे होंगे। पर उस दिन बोधिवृक्ष के नीचे उन्होंने यह निर्णय लिया होगा कि शेष जीवन में क्या करना है। एक राजकुमार जो 29 साल तक की आयु तक भोगविलास में डूबा रहा , एक रात अपनी पत्नी और नवजात को छोड़ निकल जाता है। भूखे रह कर मरणासन्न हो जाता है, फिर एक दिन सुजाता की खीर खाकर मध्य मार्ग पर चलने का निर्णय लेता है। शायद जीवन लक्ष्य निर्धारित होने को ही ज्ञान प्राप्त कहा गया है। मुझे बुद्ध का नहीं पता पर अगर कहूँ कि उस रात ट्रैन से फेंके जाने पर मोहन दास को जरूर ज्ञान प्राप्त हुआ तो शायद अतिश्योक्ति न होगी।

अच्छी बात यह है कि ज्ञान प्राप्त होने और करने की कोई उम्र नहीं है। आपका इतिहास आपके भविष्य का द्योतक कतई नहीं है। अगर ऐसा होता तो एक भोगी युवराज भगवान बुद्ध ना बनता और न ही अंग्रेजी नृत्य सीखने का इच्छुक एक युवक पूरे अंग्रेजी साम्राज्य को नचा डालता। बस वह एक पल आने की देर है जब आपका जीवन चरित बदल जाता है। जब आपको ज्ञान प्राप्त होता है। सावधान और सतर्क रहें क्योंकि यह मोड़ किसी भी रूप में आ सकता है। विष्णुगुप्त चाणक्य को यह धनानंद के अपमान के रूप में मिला तो न्यूटन को सर पर गिरे एक सेव के रूप में। किसी के लिए सुजाता की खीर काम कर गयी तो किसी के लिए ट्रेन से फेंका जाना। सबको जीवन तो मिलता है जीवन लक्ष्य बिरले ही प्राप्त कर पाते हैं । ईश्वर से प्रार्थना करें कि आपको जीवन और जीवन लक्ष्य दोनो प्राप्त हों।

बापू के जन्मदिवस की शुभकामनाएं।।

Saturday, September 15, 2018

सिन्धु घाटी की सभ्यता

जब कभी भी सिंधु घाटी सभ्यता के बारे में पढ़ता हूँ, गौरवान्वित महसूस करता हूँ। क्या हुआ होता अगर यह सभ्यता विलुप्त न होती। मानव सभ्यता आज कम से कम 1000 साल आगे होती। मोहनजोदड़ो और हड़प्पा के नगर नष्ट होने से और वापस महाजनपदों के शहर जैसे पाटलिपुत्र और राजगृह के बसने के बीच करीब 2000 साल का अंतराल है। मोहन जोदड़ो जैसे शहरी व्यवस्था को खोने के बाद मानव को बीस शताब्दी लग गए वैसे नगर दुबारा बसाने में। आपको अचरज होगा कि जल निकास की व्यवस्था में मोहनजोदड़ो का शहर गुडगांव और मुम्बई जैसे आधुनिक शहरों से बेहतर प्रतीत होता है। इन शहरों का भवन निर्माण पकी हुई ईंटों से हुआ है और हम 50 दशकों बाद 2022 तक सबको पक्के मकान देने के लक्ष्य से जूझ रहे हैं। इन शहर का निर्माणकाल गीज़ा के पिरामिडों के समकालीन है। अर्थात ईसा से 3 हज़ार वर्ष पूर्व शहर निर्माण और अभियांत्रिकी का इतना उन्नत विकास हो चुका था पर दुर्भाग्य से यह ज्ञान आने वाली पीढ़ियों को न मिल सका। उनका यह ज्ञान आज भी एक अबूझ भाषा में लिपिबद्ध है। 10 सेंटीमीटर लंबी कांसे की नर्तकी की प्रतिमा को देखिये। खड़े होने की भंगिमा, चेहरे के भाव, शरीर पर आभूषण और विभिन्न अंगों का समानुपातिक गढ़ाव। हमारे पूर्वज धातुओं की उपयोगिता से एक कदम आगे निकल कला और सौंदर्य तक पहुंचे थे। जितने भी साक्ष्य मिले है, प्रतीत होता है कि समाज मातृ सत्तात्मक था। एक स्त्री के गर्भ से निकलती पौधे का चित्र प्राप्त हुआ है जिसे उर्वरता की देवी कहा जा रहा है। शायद स्त्री के सम्मान और उनके अधिकारों को देने में भी हमारा आधुनिक समाज आज भी पीछे है।अगर खेल के मैदान और वृहद स्नानागार मिले हैं, तो लिपिस्टिक और मनके के कारखाने का भी अस्तित्व मिला है। वो जल संरक्षण के भी ज्ञाता थे और व्यापार के लिए पत्तन भी बना सकते थे। जनतंत्र, दाशमिक प्रणाली, गणित, मौसम विज्ञान और नाप तौल जैसे आधुनिक सिद्धांत वो खोज चुके थे और उनका प्रयोग कर रहे थे। जरूर उन्होंने अपने शहर के नाम कुछ सोच कर अच्छे ही रखे होंगे। काश उनकी लिपि हम पढ़ पाते तो शायद ऐसे भव्य शहरों को मुर्दों के टीले (मोहनजोदड़ो) ना कहते।


निश्चय ही उनकी सभ्यता कहीं ज्यादा विकसित रही होगी क्योंकि उनके बारे में हमारा ज्ञान तो सिर्फ साक्ष्यों पर और उनको समझ सकने की हमारी क्षमता पर आधारित है। आज़ादी के बाद हुए बंटवारे में अगर सबसे बड़ा नुकसान हुआ तो यह कि मानवता की यह अमूल्य धरोहर पाकिस्तान में चली गई। एक ऐसे देश में जो मुहम्मद बिन कासिम से पहले के अपने इतिहास को स्वीकारने में शर्म महसूस करता है। वहां इन धरोहरों की क्या देखभाल हो रही होगी, यह सोचना भी व्यर्थ है। डरता हूँ कि कहीं इनका हाल भी बामियान की तरह ना हो। हमें चाहिये कि हम अपने बच्चों को सिर्फ इतिहास के नीरस अध्याय की तरह यह चीज़े ना बतायें बल्कि उसे आधुनिक काल से जोड़ कर सुनाए।

Monday, September 3, 2018

Guess the German

A german who tried to impose his utopian idea on the world. His ideas caused sufferings and deaths to millions of civilians. Sometimes the effects were so drastic that it still shames the humanity. Unfortunate part is that there are  people who still believe in this false ideology and refuse to see and acknowledge the havoc it caused around the world. These remaining followers think themselves to be superior to those who challenge their ideas and methodologies and they often ridicule their opposition than counter them logically. I wish that this toxic philosophy dies the same painful death, which it awarded to humans across the globe.

That's all about Karl Marx. We will talk about Adolph Hitler some other time.


जन्माष्टमी के अवसर पर

क्रूर राजा के आठ बंद दरवाजों वाले कारावास में जन्म,  जन्म से पहले ही हत्या के पूरा प्रबंध, पूतना और कालिया द्वारा हत्या के प्रयास के बावजूद एक ग्वाले का दत्तक पुत्र अगर आगे चल कर भगवान बन सकता है, तो कोई वजह नहीं है कि आप अपनी क्षमताओं और संभावनाओं पर एक पल भी संदेह करें। भगवान श्रीकृष्ण का जीवन एक संदेश है कि आपकी शुरुआत और वर्तमान परिस्थितियों से आपके भविष्य का कोई भी अनुमान लगा कर निराश होने का कोई कारण नहीं है। अगर कृष्ण विषधर नाग के फन पर खड़े होकर भी वंशी बजा सकते है तो निश्चय ही आपके क्रंदन करने की वजह मामूली है। काले रंग के चरवाहे हो कर भी आप प्रियदर्शी और सर्वप्रिय हो सकते हैं। सार्वजनिक रूप से शिशुपाल द्वारा सौ बार अपमानित होने के बाद भी आपका आत्मसम्मान बना रहना चाहिये। निराशा और विपरीत परिस्थितियों के बीच भी अगर साहस और ज्ञान आपके साथ है तो संख्या बल में बीस गुना ज्यादा शत्रु पर भी आपकी विजय संभव है।

श्रीकृष्ण जन्माष्टमी की शुभकामनाएं।। जय श्री कृष्ण।।


Saturday, August 25, 2018

मनी बेन को समर्पित।।

बैरिस्टर वल्लभ भाई पटेल एक मुकदमे की पैरवी कर रहे थे। पूरा ध्यान अदालत में चल रही जिरह और कानूनी दांव पेंचों पर लगा हुआ था। सरदार जिरह कर अपनी दलील पेश कर ही रहे थे कि एक सहयोगी ने आकर एक कागज का टुकड़ा हाथ में थमाया और कान में फुसफुसा कर कुछ कहा। सरदार ने कागज़ पर एक नज़र डाली, चेहरा एक पल के लिये विचलित सा हुआ, लेकिन उन्होंने कागज मोड़कर जेब में रख लिया। वापस अपनी जिरह में लग गये। सुनवाई खत्म होने के मुकदमे का फ़ैसला अपने हक़ में आने के बाद अपने सहयोगी से बोले,मेरी धर्मपत्नी झावेरीबा का देहांत हो गया है, मुझे घर जाना पड़ेगा। ज़िरह के दौरान जो तार मुझे मिला ,उसी से यह दुखद समाचार मुझे मिला है।

उपरोक्त कथा बहुतेरे लोगों ने सुनी है। सरदार पटेल को लौह पुरुष वाले व्यक्तित्व को परिभाषित करने वाली यह एक सर्वविदित प्रसंग है। जो बात ज्यादातर लोग नहीं जानते कि यह घटना 1909 की है, उस समय वल्लभ भाई की बेटी मनी छह साल की थी और बेटा दाहया तीन साल का। सामान्य कोई व्यक्ति होता तो शायद कुछ दिन घर पर बिताता , बच्चों की देखभाल के लिये दुबारा विवाह रचाता। लेकिन लौह पुरुष तो ठहरा लौहपुरुष। न शादी की और ना ही देशसेवा में कोई कमी होने दी। मतलब यह कि बच्चों की माँ तो चली ही गयी और अक्खड़ पिता देशप्रेम के मार्ग पर पहले ही निकल चुका था। ऐसे में मनी बेन ने अपने छोटे भाई का खयाल रखना शुरू किया। मनी ने यह फैसला किया कि उन्हें माँ की कमी भले महसूस हो,दाहया को वो माँ की कमी महसूस नही होने देंगी। छह साल की एक बच्ची अपने तीन साल के भाई का खयाल रखे, अगर यह बात अतिशयोक्ति लगती है तो यह प्रसंग सुनिये।



देश की पहली सरकार के गृहमंत्री और उपप्रधानमंत्री सरदार पटेल अपनी मृत्युशैय्या पर पड़े थे। बेटी मनी बेन को धीरे से बुलाया और कहा कि अगर उन्हें कुछ हो जाए तो घर पर रखे एक बक्से और एक बही खाते को जवाहर लाल को दे दिया जाए। पटेल कुछ दिनों बाद अपनी इहलीला समाप्त कर चल बसे। मृत्यु के समय उनके पहने वस्त्र ही उनकी संपत्ति थी। अपनी बेटी और बेटे के लिये वो अगर कुछ छोड़ गये थे तो वो था उनकी यादों और उनके आदर्शों का एक भारी गठ्ठर। वो गठ्ठर जिस उठा कर मनी बेन को चलना था। पिता का आदेश याद आया। बक्से और बही खाते को लेकर जवाहर लाल नेहरू के पास पहुंची। कहा कि पिता जी ने कहा था कि यह बक्सा आपको पहुंचा दिया जाए। नेहरू जी ने बक्सा खोल कर देखा, पैंतीस लाख रुपये की रकम रखी हुई थी, साथ में थी वो बही जिसमें कांग्रेस को चंदे में मिली राशि का पाई पाई का हिसाब था। नेहरू जी ने एक बार मनी की ओर देखा और फिर एक अर्दली को बक्सा अंदर रखने का आदेश दिया। साथ में नेहरू जी भी अंदर चले गये। पिता की मृत्यु एक बहुत बड़ी चोट होती है जो मजबूत से मजबूत व्यक्ति को एक क्षण के लिये मायूस और मजबूर सा कर देती है। त्रासद हृदय सहानुभूति के लिये व्याकुल होता है। मनी बेन कुछ देर वहां बैठीं रही, किसी मदद की आशा में नहीं बल्कि इस लिए कि शायद चाचा शायद सर पर एक बार हाथ रखेंगे और उनसे यह तो पूछेगें कि उनकी ज़िंदगी आगे कैसे चलेगी। पर जिस मनी के भाग्य में न माँ का प्यार था, न बाप की लाड़ , चाचा की सहानुभूति कैसे हो सकती थी। नेहरू जी कमरे से बाहर न आये, कुछ देर बाद मनी बेन उठ कर चली आयी, उनकी गाड़ी का समय हो रहा था। अहमदाबाद जाने वाली रेल गाडी के थर्ड क्लास के डब्बे में बैठी मनी की आँखों में दो कतरे आंसुओं के अलावा अगर कुछ था तो पिता के सेवाव्रत को आगे बढ़ाने का प्रण और पिता के आदर्शों के प्रति समर्पण। मनी बेन वापस आकर साबरमती आश्रम में उसी सेवा भाव से लग गईं जिस सेवा और त्याग को उन्होंने अपने पिता में साक्षात भाव में देखा था।

लोहा वैसे बड़ा कठोर और मजबूत होता है लेकिन बारिश और नम हवाएं उसमें जंग लगा देती हैं। जंग लगा लोहा परत दर परत अपनी मजबूती और चमक खोता जाता है। हाँ लोहे में अगर थोड़ा कार्बन और मैंगनीज़ जैसे तत्व मिला दिये जायें तो लोहा इस्पात बन जाता है। फिर लोहा नमी और जल से मिलकर भी जंग नहीं खाता और मजबूत बना रहता है। एक बात दीगर है कि ये तत्व इस्पात में अलग से नहीं दिखते, अदृश्य होकर भी वे लोहे  का रक्षाकवच बनते हैं। लोहे की ताकत को यह अदृश्य अवयव ही अक्षुण्ण बनाये रखते हैं।

सरदार पटेल भीषण पारिवारिक स्थितियों और निजी विषम परिस्थितियों में भी अपने देशप्रेम के व्रत में अगर निर्बाध भाव से लगे रहे , अगर लोभ और स्वहित की आंधी में भी लौह पुरूष जंग लगकर कमजोर नही हुआ तो इसका कारण मनी का त्याग था जो बहुधा इतिहासकारों और कथाकारों को दृष्टिगत नहीं होता। यह मनी का निःस्वार्थ निष्काम व्यक्तित्व ही था जो अदृश्य बन कर लौहपुरुष को मजबूती प्रदान करता रहा। वल्लभ 'भाई' और मनी  'बेन' का यह गौरवशाली अध्याय हर भारतवासी के लिये एक प्रेरणास्रोत है।

रक्षाबंधन पर मनी बेन को सादर प्रणाम।।

Friday, August 17, 2018

अटल जी को समर्पित

‌एक कवि का कोमल हृदय रखने वाला जो पोखरण जैसे कठोर निर्णय भी ले सकता है। राजनीति में अजातशत्रु कहलाने वाला एक नेता जो करगिल में घुस आए दुश्मनों को पराजित करने वाला सेनापति बन सकता है। कंधार में पीठ पर घोंपे गए खंजर के बावजूद जो मैत्री का संदेश लेकर लाहौर जा सकता है। चार दशक विपक्ष में बैठने के बाद मिली सत्ता को छल द्वारा एक वोट से छीने जाने पर भी जो बिना चेहरे पर शिकन के झेल सकता है। संयुक्त राष्ट्र में अपनी मातृभाषा में बोलने पर गर्व का अनुभव करने वाला जो दिल्ली मेट्रो की परिकल्पना भी कर सकता है। दो सीट वाली सूक्ष्म पार्टी से शुरुआत करने वाला जो स्वर्णिम चतुर्भुज जैसी दीर्घकालीन और दूरदर्शी परियोजनाओं को धरातल पर उतारने का कार्य कर सकता है। दलगत राजनीति के दौर में भी जो सच में राष्ट्र नेता कहला सकता है। विराम लेकर बोलने वाला जो अपने संगठन और दल के लिये सात दशकों तक अविराम श्रम कर सकता है। धीमी चाल से चलने वाला जो देश को तीव्र आर्थिक विकास दर से आगे ले जा सकता है।

‌वो जो भी हो वो भारत का अनमोल रत्न है जिसकी कीर्ति ध्रुव तारे की तरह अप्रतिम है, अटल है। अश्रुपूरित श्रद्दांजलि।


Wednesday, August 15, 2018

गांव वाला पन्द्रह अगस्त

सुबह के छह बजे सारे बच्चे स्कूल प्रांगण में जमा हैं। सबके कपडे भले ही पुराने हों, झंडा तिरंगा सबका नया है। विद्यालय प्रांगण भी बिल्कुल अलग सा दिख रहा है,सजा संवारा सा। खड़ी और पड़ी ईंटो के डिजाइन से घेरा गया है झंडोतोलन का स्थान । सजावट के लिये प्रयुक्त ये ईंट पास के ज़मीन्दार के अर्धनिर्मित बैठक और बनिये की चहारदीवारी के लिए रखे गए ईंट के ढेर से नज़र बचा कर लाये गए हैं। अगर देश के लिए मरना शहादत और मारना वीरता कहलाती है तो देश के लिए चोरी करना क्या कहलायेगा, इस पचड़े में बच्चे नहीं पड़ते। उन्हें तो बस पंद्रह अगस्त मनाना है। उसके लिए जो करना पड़े, वो करेंगे। अब उस बांस को ही देख लीजिये जो शान से सर उठाये झंडोतोलन के लिए तैयार सावधान मुद्रा में बीच प्रांगण में खड़ा है, इतनी आसानी से नहीं मिला। कल शाम में कम से कम बारह बच्चों की वानर सेना ने इसको तलाशने के लिये खेत खलिहानो में धमाचौकड़ी  मचायी । बीसियों बांसों को देखने के बाद उस बांस की बल्ली को चुना गया जिसपर तिरंगा को आसमान की ऊंचाई तक पहुंचाने की जिम्मेदारी सौंपी जाएगी।

बांस को चुन लेना तो बस उतना ही काम है जितना कि गांधी जी ने कह दिया कि अंग्रेजों भारत छोड़ो। असली लड़ाई तो उसके बाद लड़ी गयी। बांस काँटना भी कुछ वैसा ही है। बांस की झाड़ियां एक दूसरे से वैसे उलझी होती हैं जैसे बोफोर्स और अगुस्ता की डील। बांस को झाड़ियों कर खींच कर निकालने में एकता का जो परिचय बच्चे देते हैं वो परिचय अगर नेहरू और बोस ने दिया होता तो शायद आजादी 5 साल पहले मिल गयी होती। उसके बाद बांस को हंसूए से छील कर साफ और चिकना किया जाता है। आज़ादी सत्य अंहिंसा के बल पर बिना खून बहाये शायद मिली हो, बांस को छीलने में बच्चों का खून जरूर कुर्बान होता है। पर पंद्रह अगस्त के समय पर इसकी परवाह कैसी।परवाह तो है कि जल्दी से यह बांस स्कूल पहुंचे और बाकी की तैयारियां  पूरी की जा सकें।


स्कूल तक पहुंचने का रास्ता कच्चा है इसीलिये पानी और कीचड़ को हटा कर उसमें बालू और मिट्टी डाली गई है जहां पानी ज्यादा है वहां ईंटें लगा दी गईं है बच्चों द्वारा। कभी कभी लगता है आज़ादी दिलाने में मानसून का सहयोग आज तक किसी ने नही माना। अगर फिरंगियों के मन में रहा भी होगा कि अभी आज़ादी दें या कुछ दिन रुक कर जाएं तो सारा शुबहा मॉनसून की बारिश देख कर ही दूर हो गया होगा। इसीलिए अंग्रेज़ बीच बरसात में भारत छोड़ कर भाग गए। स्कूल प्रांगण की सारी घास साफ कर दी गयी है और बाहर डाल दी गई है। बकरियों का एक झुंड कटी घास पर नेवतें उड़ा रहा है।

कुछ बच्चे विद्यालय प्रांगण में बैठे नारियल की रस्सी में आम के पत्ते फंस कर वल्लरी बना रहे हैं जिससे झंडोतोलन वाले बांस को बाकी के प्राँगण को सजाया जाएगा। कुछ बच्चे कागज की तिकोने छोटे छोटे झंडे गोंद से रस्सी में  चिपका कर रहे हैं। इससे  विद्यालय का तोरणद्वार बनाया जाएगा। झंडोत्तोलन के समय जो फूल झंडा खुलने के बाद बरसने हैं, उन्हें भी बच्चे ले आएं हैं। लेकिन इन फूलों को झंडे के कपड़े में बाँधने की जो कला है वो अद्वितीय है। फूल  ऐसे बाँधे जाने चाहिए कि फहराने के समय रस्सियों के एक झटके से खुल जायें सिर्फ रस्सियों के झटके से ही खुलें । अब यह कला तो सिर्फ स्कूल के चपरासी चाचा को आती है। दो बच्चे उनको सुबह सुबह उनके घर उठा ले आये हैं ताकि झंडे में फूल बांध झंडोतोलन की बाकी तैयारियां पूरी की जा सके।

स्कूल सरस्वती पूजा के बाद फिर से सजा संवारा दिख रहा है। अब ऐसी सजावट अगर गाँव वाले न देखें तो फिर क्या मज़ा? इसलिये पंद्रह अगस्त को बच्चे सवेरे सवेरे पूरे गांव में प्रभातफेरी कर आये हैं। इन्कलाब ज़िंदाबाद और महात्मा गांधी अमर रहें का नारा लगाने वालों बच्चों को शायद इसके मायने भी नही पता , लेकिन गांव वालों के लिये इसका एक ही मतलब है। बच्चे हम गांव वालों को न्योता देने आए हैं कि हमारे स्कूल आओ और देखो हमने क्या सजावट की हैं। ज़मीन्दार के बेटे की बारात का निमंत्रण ठुकराया जा सकता है लेकिन इन मासूमों का निमंत्रण ठुकराने वाली कठोरता अभी गांव वालों में नहीं आई।
कै बजे फहरेगा झंडा?? साढ़े आठ बजे ।
पांच बच्चे एक साथ जवाब देते हैं।
ठीक है हम लोग आ जाएंगे। हो गया आमंत्रण स्वीकार।

सवा आठ बजे सारे बच्चे , सारे शिक्षक और सारी शिक्षिकाएं स्कूल पहुंच गए हैं। गणित वाली मैडम भी जिसको देख कर की आधे बच्चों का हलक सूख जाता है आज कितनी प्यारी दिख रही हैं। इतिहास वाले मास्टर साब जिनकी मुस्कान दिखना सिंधु घाटी की भाषा पढ़ने जैसा कठिन है, आज कितना मुस्कुरा रहे हैं। सारे बच्चे कक्षा के हिसाब से कतार में लग गये हैं, और हेडमास्टर साब भी झंडोतोलन के लिए आ चुके हैं। 9वी कक्षा का एक छात्र चिल्लाता है सावधान। आधे बच्चे सावधान की मुद्रा में खड़े हो जाये हैं, जिनको सावधान की मुद्रा का पता नही बस ठिठक कर खड़े हो जाते हैं।

जिस तरह हेडमास्टर साब का खादी वाला परिधान 15 अगस्त को पहनना पक्का है, झंडा उनसे न खुलना भी पक्का है। चपरासी चाचा आगे बढ़ते है और बताते हैं कि रस्सी के किस सिरे को पकड़ना है और किस सिरे को खींचना है। कितना भी बताओ, हेडमास्टर साब को क्या समझ में आना। चपरासी चाचा आगे बढ़ कर अपने हाथों से रस्सी को झटका देते हैं और वो गाँठ खुलती है जिससे उन्होनें खुद बांधी थी। ऊपर से पुष्वर्षा होती है और राष्ट्रगान शुरू हो जाता है। कभी कभी लगता है कि चपरासी चाचा जान बूझ कर ऐसे गांठ लगाते थे कि झंडा उनकी मदद के बिना फहर ही न सके।

भाषण के बाद शुरू होता है जलेबी , बूंदी और सेव बंटने का दौर। एक चीज़ समझ में नहीं आती, कि भी कुछ देर पहले  सारे जिन बच्चों को देश का भविष्य और नेता बताया जा रहा था को कहा जा रहा था कि राष्ट्र निर्माण की सारी जिम्मेदारी उनपर हैं उन्हें  मिठाई  बांटने जैसी छोटी जिम्मेदारी निभाने लायक भी नही समझा गया । देश बनाना की जिम्मेदारी भले ही बच्चों की हो पर मिठाई तो खंडूस मास्टर साब ही बांटेंगे। खैर जो भी हो, मिठाई कोई भी बांटे, स्वाद तो वही रहेगा। अप्रतिम और अमूल्य। पांच सितारा होटल के कॉन्टिनेंटल डेसर्ट्स में भी वो स्वाद अब मयस्सर नहीं। स्वतंत्रता सेनानियों को आज़ादी पाकर कितनी खुशी मिली होगी इसका अंदाज़ा बच्चों को जलेबी और सेव पाकर मिली खुशी से लगाया जा सकता है। स्कूल आकर भी कक्षा में पढ़ाई नही करनी, मिठाई खा कर चाहो तो दिन भर कबड्डी, खोखो खेलते रहो। कोई रोकने वाला नहीं, कोई टोकने वाला नहीं। आज़ादी और स्वतंत्रता शायद इसको ही कहते हैं।

अब जब 15 अगस्त के मतलब लांग वीकेंड और ड्राई डे हो गया है, याद आता है बचपन वाला गांव का 15 अगस्त। आजकल हर कोई बताता है कि हैप्पी इंडिपेंडेंस डे पर इंडिपेंडेंस का पता नही चलता । पहले कोई बताता नही था पर आजादी का पता चलता था।

स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाएं। जय हिंद।।

Tuesday, July 31, 2018

यह मछली की गंध नही है।

यह मछली की गंध नही है।

यह गंध है उस मौत की जो आपने अपने जाल में फंसा कर उसको बक्शी है। नदी में स्वच्छंद विचरती मछली से बास नहीं आती, बास आती है जब वही स्वच्छन्दता आपकी भूख मिटाने के लिये बिछाये जाल में फंस कर आपके जंग लगे बटखरों के साथ किलो के भाव से बिकने को बाज़ार पहुंच जाती है। यह गंध आपने उसको दी है उसका पानी छीन कर। यह गंध आई है मछली में आपके निष्ठुर हाथों से जब आपके हाथों ने उसके अधमरे गलफड़ों को खोल कर देखा कि मछली की लाश ताज़ी है या बासी हो चली है। नाक पर रुमाल रख कर मछली बाज़ार में घूमने का यह नाटक क्यों जब यह मौत का बाजार आपने ही सजाया है। अगर मछली न मरे तो तुम भूखे मरोगे और यकीन मानो तुम्हारी लाश को कोई दो कौड़ी फी किलो के भाव से भी न खरीदेगा। तुम्हारी कहावतें सुनी थी मैने तुम्हारे जाल में फसने के समय। वो क्या कहते हो तुम कि बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है!! अगर यह मत्स्य न्याय है तो पूरे तालाब को गंदा करने, सारी मछलियों को पकड़ कर खाने और उसी तालाब को मिट्टी भर कर अपने भवन बनाने को क्या आदम न्याय कहना चाहिये।

तुम्हारी गंध जीते जी मरी मछली की गंध से कहीं ज्यादा घृणास्पद है लेकिन वो तुम्हें पता नही चलेगा क्योंकि तुम उसके आदी हो चुके हो। हाँ जब वही गंध तुम्हारे संसर्ग में आने के बाद मछली में आ गयी है तो तुम नाक भौं सिकोड़ रहे हो। अगर मत्स्यगंधा एक गाली है तो मनुष्यगन्धा क्या होगी खुद सोच लो। जब अगली बार मछली बाज़ार की सडांध तुम्हें परेशान करे तो याद रखना कि यह तुम्हारी अपनी गंध है जो तुम्हारी दुनिया में आने पर मुझे मिली है।

यह मछली की गंध नही है।


Friday, July 20, 2018

मैं हिन्दू हूँ।।

मैं हिन्दू हूँ।

उपकृत हूँ मैं प्रकृति का। उसके हर रूप की उपासना की है मैंने। नदियों को माँ कह उसके गोद में खेला हूँ तो उसकी आँचल समान किनारों पर मैंने सनातन सभ्यता बसाई है। सूर्य और चंद्र ही नहीं, समस्त नवग्रह की विशालता और ऐश्वर्य को नमस्कार किया है। सूदूर तारों को सप्तर्षि कह सम्मानित किया है मैंने। और असंख्य तारों अपने बिछड़े पूर्वज और प्रियजन मान कर प्यार से निहारा है। पर्वत को अपने इष्ट का निवास कैलाश मान कर पूजनीय बनाया है तो हिमालय को माता गौरी का पिता कहा है। तुलसी और बरगद मेरे लिए कल्पतरु हैं। हमेशा चरणों के नीचे रहने वाली दूब जब तक मेरी पूजा में ना हो , मेरी पूजा अधूरी रहती है।

समस्त प्राणीजगत मेरे लिए प्रकृति और मेरे पूजा स्थल का एक अनिवार्य भाग है और मेरे लिए सम्मान का पात्र है।
एक बैल मेरे इष्ट का वाहन बन कर मेरा आराध्य है।  जिसके विषदंतो से मेरे प्राण चले जाएं, उसे भी मैंने अपने इष्ट के कंधों पर स्थान दिया है। मेरे फसलों को चुरा कर नष्ट करने वाले मूषक भी मेरे आंगन में मोदक पाते है और गणपति के साथ मेरी प्रथम पूजा में सम्मिलित हैं। नभ में विचरने वाले विशाल गरुड़ मेरी माँ की अस्मिता बचाने वाले रक्षक के रूप में जाने गए हैं तो एक वानर ने संजीवनी बूटी लाकर मेरे इष्ट के प्राण बचाये हैं। वानर भक्त को मैंने भगवान से ऊपर माना है। गौ को मैंने समस्त देवताओं का निवास स्थान माना है तो श्वान मेरे लिए धर्मराज के साथ सशरीर स्वर्ग जाने वाला एक मात्र जीव है। गौ को अगर मैंने माँ कहा है तो बिल्ली को मौसी कह पुकारा है। एक क्रोंच पक्षी युगल को रोते देख मेरे भावुक हृदय ने रामायण की रचना कर डाली है। शेर मेरे लिए शक्ति का वाहन है तो गजराज ऐश्वर्य का। समस्त प्रकृति मेरे लिए सम्मान का पात्र है ना कि भय और घृणा का। वसुधा पर निवास करने वाला हर वासी मेरे लिये परिवार है,सम्मानित है और मैं उसके बिना अपूर्ण हूँ।


सिर्फ प्रियदर्शी प्राणिजगत ही मेरे हृदय में वास करता हो, ऐसा नही है। मेरे हृदय में डरावने और कुरूप भूत पिशाचों के लिए भी स्थान है। उन्हें शिव का गण होने का गौरव प्राप्त है जो बनने के लिए हजारों सालों की तपस्या भी विफल जाती है। आठ अंगों से टेढ़े अष्टावक्र अपने ज्ञान के लिए हमारे पूजनीय हैं तो कुरूप वेद व्यास को महाभारत लिखने का अवसर मैने दिया है।

तुलसी, सूर और रैदास की छन्दों की चाशनी में डूबी मेरी वाणी है। मेरे  तानसेन और बैजू बावरा के राग और रागनियों में गुंजायमान है सरस्वती की वीणा। कृष्ण की सम्मोहण वाली बाँसुरी से लेकर कोकिला लता सब मुझमें ही समाहित है। मैं आर्यभट्ट का शून्य हूँ, तो मैं विंष्णुगुप्त का अर्थशास्त्र भी हूँ। सुश्रुत का चिकित्सा ज्ञान और विश्वकर्मा की अभियांत्रिकी मुझसे निकले हैं। वात्स्यायन का कामसूत्र भी जानता हूँ और रमण की तरह भौतिकी भी ज्ञात है मुझे। तिरुवल्लुवर की कविता हूँ, मण्डन का ज्ञान हूँ, शंकराचार्य की दूरदृष्टि हूँ, शुक्राचार्य की युद्धनीति हूँ और विवेकानंद का ओज हूँ। सुभाष की चपलता हूँ तो गांधी का गाम्भीर्य भी।

उर्मिला की विरह वेदना और भरत मिलाप का उल्लास दोनो मैं हूँ। सावित्री का सतीत्व हूँ तो अनुसूया का पातिव्रत्य भी। कर्ण और दधीचि का दान हूँ तो श्रवण की सेवा भी मैं ही हूँ। परशुराम का क्रोध हूँ तो यशोदा का वात्सल्य भी हूँ। अशोक का साम्राज्य हूँ तो चोल वंश का गौरव भी। बीरबल का हास्य हूँ। गोनू और तेनाली की प्रत्युत्पन्नमति हूँ। हिंदी की सरलता और व्यापकता हूँ, तो बंगाली की मिठास हूँ। तमिल के पद हूँ तो मलयालम के गीत। तेलगु की प्रार्थना हूँ तो गुजराती की रास। गुरमुखी में लिखी पंजाबी का थिरकता भांगड़ा हूँ तो असमिया की बाउल धुन। प्रेमचंद की लेखनी हूँ तो रवींद्र की बहुमुखी प्रतिभा भी।

मैं वो हूँ जो  बुद्ध और महावीर को भी अपने इष्ट का रूप मान कर पूजता है। मैं वो हूँ जो शिव और साईं दोनो के दरबार में नतमस्तक है। मैं अपने पवित्र त्रिवेणी संगम और प्रयागराज को भी अल्लाहाबाद कह पुकारता हूँ। मैं वो हूँ जो सूदूर देश से आई एक नन को मदर मानता है। गुरुद्वारे में सेवा करने में लगे सेवादारों की कतार में सर पर रूमाल बांधे में आपको दिखूंगा तो पुष्कर में ब्रह्म की उपासना के बाद अजमेर में  हर साल चादर चढ़ाने भी जरूर पहुंचता हूँ। मुझे न जानने वाले जब मुझे धर्मनिरपेक्षता की संकीर्ण परिभाषा समझाते हैं तो मन ही मन उन पर मंद मंद मुस्कुराता भी हूँ।

 मैं वो हूँ जो जिसने गौरी, तैमूर और औरंगज़ेब को जज़िया दिया पर अपना धर्म नहीं। मैं अगर मीरा का समर्पण हूँ तो कलिंग का प्रतिरोध भी हूँ। पराजय में भी सहेजा हुआ आत्मसम्मान पुरु हूँ मैं। मैं वो हूँ जो जयचंद की वजह से अगर पराजित  हुआ है तो शिवाजी की शौर्य गाथा का उत्तराधिकारी भी है। मैं सबमें समाहित हूँ,सबसे मिल कर रहा हूँ। रति और मोहिनी का सौंदर्य और लावण्य हूँ तो काली की रक्त से सनी जिह्वा भी हूँ। मैं शिव का डमरू हूँ और तीसरा नेत्र भी हूँ। तांडव भी ज्ञात है मुझे। शिमला की शांतिवार्ता हूँ तो पोखरण की ज्वाला भी मैं ही हूँ। भाई भाई सुन कर अक्साईचिन गंवाने वाला मैं हूँ तो 1971 में ढाका की वीरगाथा भी मैं ही हूँ।

मैं चिर सनातन हूँ । मैं हूँ तो यह धरा और भी सुंदर है।मैं कुछ शब्दों  में परिभाषित नहीं हो सकता। मैं अनन्त हूँ, मेरी कथायें अनन्त है। इस अनंत गौरवशाली कथा का एक पन्ना हूँ मैं। हिमालय से हिन्द तक मैं ही हूँ। मैं वो हूँ जिसका लहू गंगा, कालिंदी, कावेरी और नर्मदा के जल से बना है। मेरी अस्थियां हिमालय के पाषाण की तरह कठोर हैं। गीता और वेद मेरी दो आँखें हैं जो मुझे ज्ञान का मार्ग दिखाती हैं।

मैं वो हूँ जो हिन्दुस्तान का वासी है।

मैं हिन्दू हूँ।

Saturday, July 14, 2018

If BCCI conducts football world cup

Following six things will happen if BCCI conducts football world cup:

1) first 30 min and last 20 mins will be considered power play, when goalkeeper hands and legs will be tied.

2) Defenders and mid fielders will not be allowed to tackle or chase opposite striker more than twice in a match.

3) Yellow and red cards will be eliminated. Players will have to pay only a part of match fees to BCCI.

4) Events will be renamed as per sponsors. Like  in cricket a sixer is called a DLF maximum, a goal will be called Jio mobile Goal.

5) Commentary panel will entertain Bollywood celebrities for their film promotion during break. Actors will analyze the acting skills of Players liie Neymar and Ronaldo.

6) No new hindi commemtators will be hired. Arun lal and Sunil doshi will use their same dialogues like Kuch bhi ho, jeet football ki hui hai aur maine to pahle hi kaha tha, pakdo catch jeeto match.



Wednesday, July 11, 2018

to Ojas .. on 4th bday

I want you to follow your own dreams, yet I wish you fulfill all my dreams I could not achieve.

I want you to be independent and fearless, yet I am worried even when you simply want to walk without holding my finger.

I want you to be a self-made man, yet I cannot stop the urge to provide you with everything beyond my capacity.

I want to spend time with you, yet I often make choices to go away from you so that I can spend time with you.

I want you to value inner qualities like love and compassion over skin deep beauty, yet I feel you are the most beautiful kid in this world.

I want you to be down to earth and modest, yet I am so proud of you.

In future, as a grown up, I am the person with whom your opinions may clash the most, yet I will be your biggest supporter in whatever you decide to do.

I am your old man, yet I am at my youngest when I am with you.

Happy 4th birthday Dear Ojas...


अश्वत्थामा हतो: का चीत्कार

‌कुरुक्षेत्र में महाभारत के युध्द को शुरू हुए चौदह दिन बीत चुके थे। कौरवों की सेना का नेतृत्व अब गुरु द्रोण कर रहे थे। पितामह भीष्म के शरशय्या पर जाने के बाद पांडवों ने युद्ध को आसानी से जीत लेने का जो स्वप्न देखा था, गुरु द्रोण के रहते वो एक दिवास्वप्न से अधिक कुछ नही था। अर्जुन की गांडीव गुरु द्रोण के बाणों के सामने ऐसे निस्तेज थी जैसे सूर्य के सामने दीपक। ऋषि भरद्वाज के पुत्र और परशुराम के शिष्य द्रोण की रणनीति तथा उनकी रचित सेनाओं की अभेद्य व्यूह रचना का पांडव सेनापति धृष्टद्युम्न के पास कोई तोड़ ना था। पांडवों के पास ऐसी कोई विद्या न थी जिससे वह अपने ही गुरु द्रोण को परास्त कर सकें। युध्द कला में पारंगत वो क्रोधित ब्राह्मण महाभारत के युद्ध को मानो एक ही दिन में समाप्त करने का प्रण ले चुका था।
गुरु द्रोण को सीधे नीतिपरक युध्द में हराना असंभव था। परंतु युद्ध सिर्फ अस्त्र शस्त्र और रणकौशल से रणभूमि में नहीं लड़ा जाता। युद्ध लड़ा जाता है बुद्धि और कूटनीति से। युद्ध लड़ा जाता है छल से। पांडवों ने द्रोण को मारने के लिये छल का सहारा लेने का निर्णय लिया। गुरु द्रोण के मन में अपने पुत्र अश्वत्थामा के लिये जो अत्यधिक प्रेम की दुर्बलता थी, उसी दुर्बलता पर वार करने का निर्णय लिया गया। दुष्प्रचार, अर्धसत्य, और कुटिलता में सनी योजना के तहत धर्मराज युद्धिष्ठिर के द्वारा द्रोण को उनके पुत्र के मारे जाने की असत्य सूचना दी गयी । पुत्रवियोग में शोकाकुल और धरती पर पड़े निःशस्त्र पिता को पीछे से वार कर धृष्टद्युम्न द्वारा मार डाला गया।



‌मार्च के महीने में हज़ारों किसान नासिक से मुम्बई नंगे पांव पैदल चल कर पहुंचे। पूरी मीडिया में किसानों के फटे पांवों की बिवावियाँ दिखा दिखा कर खूब सहानुभूति बटोरी गई। जब वे किसान मुम्बई पहुंचे तो उन्हें पता चला कि उनकी सारी मांगे तो पहले ही मानी जा चुकी हैं। अभी सारे भारत में ऐसे माहौल बनाया जा रहा है कि दलितों और अल्पसंख्यकों पर अत्यााचार बढ़ गए हैं। एक बहुत बड़े वर्ग को यह बार बार बताया जा रहा है कि उनका आरक्षण छीन लिया जाएगा और संविधान बदल कर मनुस्मृति लागू कर दी जाएगी। और यह बातें एक खास बुद्धिजीवियों द्वारा निरंतर अखबार, टीवी और मोबाइल के माध्यम से परोसी जा रही है। एक भय और अराजकता का माहौल बनाने की कोशिश की जा रही है। कुछ पत्रकार असुरक्षित महसूस होने का दावा कर रहे हैं, कुछ धर्मगुरु लोकतंत्र की सुरक्षा के लिए प्रार्थना सभाएं आयोजित कर रहे हैं। हर तरफ़ से अश्वत्थामा हतो: सरीखे चीत्कार सुनाई पड़ रहे हैं।
अगर वास्तव में लोकतंत्र खतरे में होता तो यह सारे लोग इतनी खुल कर अपनी बात न रख पाते। अगर आरक्षण वाक़ई छीना जाने वाला होता, तो उसके लिये सरकार किसी शुभ मुहूर्त का इंतज़ार न कर रही होती। दुष्प्रचार और असत्य आज युद्ध के सबसे बड़े शस्त्र हैं। पहले पूरी दुनिया को बताया जाता है कि इराक में जैविक और रासायनिक हथियारों का जखीरा है। जब पूरे विश्व का इसका विश्वास हो जाता है, तो अमरीकी सेनाएँ बग़दाद में घुस सद्दाम हुसैन का तख्त पलट देती है और सद्दाम को फांसी दे दी जाती है। जैविक और रासायनिक हथियार ना वहां कभी थे और ना कभी मिले। वहां पर तेल भरपूर मात्रा में अवश्य था जिसके लिए वास्तविकता में यह युद्ध लड़ा गया था । आये दिन खबरें आती हैं कि महिला को डायन बात कर मार डाला गया। अधिकतर मामलों में अकेली वृद्ध विधवा महिलाओ की संपत्ति हड़पने का यह एक पुराना तरीका है।
‌द्रोण वध की कथा पुरानी अवश्य है लेकिन आज के समय में प्रासंगिक उतनी ही है जितनी पहले थी। जब भी किसी द्रोण को सीधे युध्द में हराना कठिन प्रतीत होता है, उसे हराने के लिए असत्य और दुष्प्रचार का सहारा लिया जाता है। असत्य फैलाने के लिए पहले किसी निर्दोष अश्वस्थामा हाथी को मारा जाता है और फिर उसकी मौत की खबर को असत्य और अर्धसत्य की चाशनी में लपेट कर फैलाया जाता है। द्रोण को उसके पुत्र की मृत्यु का समाचार ऐसे सुनाया गया था जैसे उनके हितैषी उनके दुख में शामिल होना चाहते हों। लक्ष्य तो था गुरु द्रोण को मानसिक रूप से अक्षम करना ताकि वो युद्धभूमि में सही निर्णय न ले सकें और भावुक हो शस्त्र त्याग दें। और उनका वध करना आसान हो जाये।
आसिफा हो या वेमुला, यह सब उस अश्वस्थामा हाथी ही तरह हैं जिन्हें खास राजनीतिक उद्देश्य से मारा गया है और उनकी मृत्यु का अर्धसत्य आपको सुना कर आपको भावुक और निर्बल किया जा रहा है। किसी भी उत्तेजक और भावुक समाचार को सुन तुरंत निर्णय न लें चाहे आपको वो सूचना उस व्यक्ति से मिल रही हो जिसे आप धर्मराज मानते हैं। झूठ फैलाने के लिए धर्मराजों का ही सहारा लिया जाता है। किसी दुष्प्रचार का शिकार होने से बचें। सूचनाओं को सत्य की कसौटी पर कस कर ही आत्मसात करें। जिस दिन आपसे सत्य पहचानने और उचित निर्णय लेने मे भूल हुई, किसी धृष्टद्युम्न की तलवार आपकी गर्दन पर वार करने के लिए उठ चुकी होगी।

मुखिया मेरी बीवी को क्यों नही मना रहा

एक आदमी था। बड़ा ही सनकी और गुस्सैल। हमेशा बीवी को धमकियां देता और ताने मारता। चाय लाने में दो मिनट देर हुई नही की गालियॉ देना शुरू। तेरे लक्षण ठीक नहीं है, तेरा गांव के मुखिया से चक्कर है। एक दिन गुस्से में आकर उसने बीवी को थप्पड़ जड़ दिया। बीवी ने हड़ताल कर दी। माफी मांगो तभी घर का चूल्हा जलेगा। 2-3 दिन तो चला, फिर आदमी की अकल ठिकाने आयी। बीवी की हड़ताल खत्म करने के लिये गांव के मुखिया के यहां डेरा डाल दिया।
आने जाने वाले लोगों को कहता मुखिया मेरी बीवी को क्यों नही मना रहा, और अगर मेरा घर एक अलग गांव होता तो मैं उसका मुखिया होता और बीवी की हड़ताल खत्म करवा देता। दो चार दूर के पड़ोसी भी जमा हुए जिनका मुखिया से थोड़ा मनमुटाव था। कहने लगे रूठी बीवी को मनाना मुखिया का धर्म है, मुखिया अधर्मी हो अपने कर्त्तव्य से विमुख है।
हम चाहते हैं कि मुखिया इस भले आदमी की दो मांगे अभी मान ले। उसकी बीवी की हड़ताल अभी खत्म करवाये और उसके घर को अलग गांव घोषित करे। गांव वाले परेशान थे, मुखिया के दरवाज़े जाएँ तो तमाशबीनों का मेला लगा रहता। उन्होंने मन बना लिया कि अपनी ही बीवी को थप्पड़ मार कर यह सारा तमाशा करने वाले इस आदमी को गांव से जरूर निकाल फेकेंगे। बस वो अगले मौके का इंतजार कर रहे थे।

जलालत मिली वो भी मोल लेकर

हवाई जहाज में बीच वाली सीट पर बैठा आदमी दुनिया के सबसे बदनसीब प्राणियों में शुमार होता है। वो कहते हैं ना कि हाथ को आया पर मुंह को ना आया। बेचारा पैसे सबके बराबर या जहाँ तक हो सबसे ज्यादा ही भरता है। अगर आपके पास आइल सीट या विंडो वाली सीट है तो इसका मतलब है कि आपने टिकट बहुत पहले कटाई थी जब किराये कम थे। बीच वाले बदनसीब लोगों ने बाद में टिकट ली जब सारी किनारे वाली सीट खत्म हो गई और दाम भी बढ़ गए। मतलब कि जलालत मिली वो भी मोल लेकर।


भाई, हवाई जहाज में इतने पैसे करके के सफर कर रहे हैं पर किस्मत ने ऐसी सीट दी है जिसे यह में नही पता चलता कि हाथ रखने के लिए उनका वाला बाजू कौन सा है। विंडों और आइल वाले अपना हाथ हटाएँ तो इन बीच वालों को हाथ रखने के लिए जगह मिलती है। विंडों वालों का क्या है जब तक मन हुआ खिड़की के बाहर नज़ारे देखे , जब मन हुआ खिड़की बन्द की और सर खिड़की से लगा कर सो गये। आइल सीट वालों के लिए तो आइल एक फ़ैशन रैंप की तरह होता है और वो उसके फ्रंट सीट वाले वीआईपी । एयरहोस्टेस की कैटवाक का नज़ारा देखते रहो सफर का लुफ्त लेते रहो। बेचारे बीच सीट वाले क्या करें। न नज़ारे नसीब में हैं ना नींद!! कैसे सोएं। विंडों सीट वाले साहबजादे ने तीन बोतल तो पानी पी रखी है एयरहोस्टेस से मांग मांग कर। अब पक्का यह उठकर बाथरूम जाएगा। साहबजादे बाथरूम जाना चाहते हैं, बीच सीट वाले खड़े होकर इस्तक़बाल फरमाएं वरना हुज़ूर की तौहीन समझी जाएगी। जलालत यहीं खत्म हो तो कोई बात नही, साहबजादे जब निपट कर वापस आएंगे तो फिर उनके इस्तक़बाल में खड़े हो जाना है। जब तक हुज़ूर बैठ नहीं जाते, बीच सीट वाले बैठ नही सकते। ऐसी बेइज़्ज़ती झेल कर आँखों में आंसू भले आ जाएं, नींद कतई नही आ सकती।
चाय नाश्ते के वक़्त पर होने वाली बेइज़्ज़ती और भी नागवार गुजरती है। विंडो सीट वाले साहब तक एयरहोस्टेस मोहतरमा के हाथ नही पहुंच सकते। बेचारी विंडो सीट वाले को नाश्ता का डब्बा देने के लिए आइल सीट वाले खुशनसीब के इतना करीब आ गयी है मानो यह साथ हवाई जहाज के सफर नही बल्कि कई मुद्दत तक चलेगा। विंडों सीट वाले साहबजादे मुस्कुरा कर नाश्ता के ट्रे पकड़ रहे हैं, आएल सीट वाले मना रहे हैं कि यह पल बस यहीं थम जाए और बीच सीट वाले परेशान हैं कि अभी हवाई जहाज हिला और गरम चाय की प्याली मेरे सर पर गिरेगी। आखिर कोई कैसे जिये ऐसी हालत में।
भगवान बुद्ध ने मध्यम मार्ग अपनाने को कहा था क्योंकि मध्यम सीट पर बैठ कर खुश रहना बिना बुद्ध बने संभव नही है। अपने बगल बैठे खुशनसीबों की विलासिता देख बिना क्रोधित हुए एक संत का जीवन जीने वाले यह मिडिल सीट वाले आज के बुद्ध से कम नहीं हैं।

Her name is Sadia Anas.

Myth : Her name is Tanvi Seth..
Fact :. Her name is Sadia Anas.

Myth: They are an interfaith couple.
Fact: They are a muslim couple as she converted to Islam during her nikaah.

Myth : She was harrassed during passport interview.
Fact: She was asked valid questions to prove her eligibility by showing valid and consistent documents.

Myth: She is a victim.
Fact: She is not victim. Victim is that person who got marching orders despite doing his job not a person who got passport despite wrong name, incorrect address and negative police verification.

Myth: Sushma Swaraj is a victim.
Truth : Sushma swaraj is a coward who is hiding behind that victim card and dodging legitimate questions.

Myth: BJP doesn't believe in appeasement.
Fact: BJP suffers from low self esteem so they always seek approval from left liberals and pseudo seculars who they claim to be fighting against.

This is Shah Bano case BJP edition. In Shah Bano a true victim was denied her rights by politics of appeasement. Here a fraud drama queen is given lollypop of passport dripping in appeasement syrup. This appeasement syrup is made by mixing sugary dreams of BJP for muslim votes in ganga jamuni tahzeeb water and cooked over pyres of all rules and an honest officer called Vikas Mishra.

स्लीपर और वातानुकूलित

रेलवे के स्लीपर क्लास में सबके पास अपने अपने रंगीन कंबल और चद्दर होते हैं. रात में स्लीपर क्लास में सोते लोग ऐसे दिखते हैं मानो पहाड़ों के नीचे घाटियों में रंग बिरंगे फूल खिले हों. चारों ओर जीवन ही जीवन. लोहे की पटरियों पर दौड़ती रेल का अविरल कलरव और हवाओं का शोर मानो जीवमात्र की सांसो की ध्वनि आ रही हो |

वहीं उच्च वातानुकूलित डब्बों में सारे लोग सफेद चादर ओढ़ सोए रहते हैं, जैसे पहाड़ की चोटियों पर बर्फ ही बर्फ बिछी हो | ना पटरियों का कलरव ना हवाओं का गुदगुदाता शोर| सुनाई देती है तो सिर्फ़ ख़र्राटों की आवाज़ मानो मशीनो का घर्घर नाद सुन रहे हों | जीवन की तरंग नहीं कृत्रिमता का एक हताश कर देने वाला माहौल | आप रेल में बैठे हैं पर रेल की आवाज़ महसूस नही कर सकते । रेल सरसों के पीले पीले फूलों वालों खेतों से गुज़र रही है, पर आप उसकी खुशबू से मरहूम हैं । शायद आपने परदे भी गिरा रखें हैं ताकि आप अपने मोबाइल की स्क्रीन आराम से देख सकें । गाडी स्टेशन पर पहुँचती है तो चाय वाले, फल वाले , खोमचे वाले सारे स्लीपर क्लास की और दौड़ते हैं, जैसे कि मधुमक्खियाँ और तितलियां भी फूलों के बागीचे की तरफ ही उड़ते है। वातानुकूलित डब्बे उन तितलियों के लिए किसी उजाड़ चमन से कम नहीं । आप इलाहाबाद से गुज़रेंगे पर वहां के अमरुद आप तक नहीं पहुंचेंगे , ना ही आप तक पहुचेगी पटना स्टेशन पर मिलने वाली लिट्टी चोखे की सुगंध , हावड़ा पहुँच कर भी झाल मूढ़ी की तेज झांस से आप वंचित रहेंगे ।


स्लीपर में आप अपने सहयात्रियों के जीवन अनुभवों का रसास्वादन भी करेंगे क्योंकि समय काटने का उससे बेहतर कोई तरीका वहां नहीं है। वातानुकूलित डब्बे में हर सीट पर बिजली की व्यवस्था है , इसलिए आप अपने लैपटॉप पर लगे रहेंगे । आपके सहयात्री आपके लिए एक सीट नंबर से ज्यादा कुछ नहीं ।

आपका सफर वातानुकूलित डब्बे में एक यात्रा होगी और स्लीपर क्लास में एक अनुभव । #अबे_सुन_बे_गुलाब #CommunistThoughts #LifeAtTheBottomOfPyramid

भाषा ही वह वर्जित फल है

कहावत कहती है कि एक चुप सौ को हराता है । कहते हैं कि कुत्ता मनुष्य सबसे अच्छा दोस्त है । संत कवि तिरुवल्लुवर ने कहा था कि वीणा मधुर है और वंशी मधुर है, ऐसा वही कहते हैं जिसने नवजात की किलकारी नहीं सुनी । चलचित्रों में चार्ली चैपलिन का कार्य सर्वोत्तम की श्रेणी में रखा जाता है । अंग्रेजी गायक रोनन कीटिंग के एक गाने की पंक्ति में प्रेमी कहता है कि जब तुम कुछ नहीं कहती तो सब कुछ कह जाती हो।

ऊपर के सारे उद्धरण एक ही दिशा में इंगित करते हैं। शायद चीज़ें बेहतर होती हैं जब आपकी भाषा मौखिक न हो । यह बात गौर करने लायक है कि पूरे जगत में मनुष्य ने ही मौखिक और लिखित भाषा का विकास किया है । और समस्त प्राणी जगत में मनुष्य ही एक प्राणी है जो झूठ बोल सकता है । क्या सच और झूठ की उत्पत्ति भाषा की उत्पत्ति के बाद हुई? क्या बिना भाषा के विकास झूठ बोलना संभव था ? बच्चे भगवान का रूप कहे जाते हैं क्योंकि वह झूठ नहीं बोलते या उन्होंने पूरी तरह भाषा की विद्वता प्राप्त नहीं की होती है । आखिर बच्चों और बड़ों में क्या फर्क आ जाता है कि भगवान का रूप कहे जाने वाले बच्चे बड़े होकर भगवान नहीं कहलाते । क्या भगवान भगवान इसीलिए कहलाते हैं कि वह मंदिरों, मस्जिदों और गिरजाघरों में वह कभी कुछ नहीं बोलते । शायद यही कारण है ईश्वर की लाठी में आवाज़ नहीं होने की बात कही गयी है ।

 

शायद भाषा ही वह वर्जित फल है जिसको चखने के बाद हम इंसान ईश्वर के घर से निकाल दिए गए। हमारे पुरखों ने जरूर इस चीज़ को महसूस किया होगा कि उनकी सारी समस्याओं की जड़ यह भाषा ही है । इसीलिए बचपन से ही सुनते आये कि सोच समझ कर बोला करो । बोलने से पहले यह सोचो कि सुन ने वालों को बुरा तो नहीं लगेगा । सत्य वचन बोलो , असत्य मत बोलो । सत्य बोलने की भी पूर्ण आज़ादी शायद नहीं दी गयी है । सत्य बोलो लेकिन अप्रिय सत्य मत बोलो। बोलने की मात्रा भी निर्धारित की गयी है । ज्यादा मत बोलो । वैसे यह कभी नहीं बताया गया कि कितना बोलना उचित है और कितना बोलना अनुचित । बोलने में थोड़ी कमी रह जाए तो आपको जल्द ही सुनने को मिलेगा कि आप तो कुछ बोलते ही नहीं । कुछ बोलो भी ऊपर वाले ने जुबान नहीं दी क्या ?

विडम्बना देखिये कि भाषा का आविष्कार मनुष्य ने एक दूसरे को समझने के लिए किया लेकिन मनुष्य स्वयं आज तक तक भाषा का समुचित इस्तेमाल करना नहीं समझ पाया । यह कुछ ऐसा ही है जैसा कि कहानियों में किसी वैज्ञानिक का अपना ही बनाया रोबोट उसके नियंत्रण बाहर हो उसके विनाश का कारण बने या भगवान शिव का भक्त भस्मासुर बन जाये ।

एक तर्क यह भी दिया जाता है भाषा ही मानव सभ्यता का आधार है । परंतु यह कैसी सभ्यता है जिसके इतिहास का हर एक पन्ना युद्धों की गाथा है । अगर भाषा नहीं होती तो शायद कोई युद्ध भी नहीं होते। बिना भाषा के क्या किसी का अपमान करना संभव है? क्या शेर अपने से निर्बल जीवों का अपमान करते हैं? घृणा , अपमान , धर्म , मिथ्या जो मानव की समस्त समस्याओं की जड़ हैं , क्या उसके मूल में भाषा नहीं है? प्यार जताने के लिये भाषा की जरूरत नहीं है, हाँ बिना भाषा के आप द्वेष नहीं फैला सकते । काम क्रोध लोभ मोह मदऔर मत्सर्य मानव की कमजोरियां बताई गयी हैं, जिनपर अगर वश कर लिया जाए तो पृथ्वी स्वर्ग बन जाये । परंतु यह सारे अवगुण शेर, हाथी , स्वान सब में विद्यमान नहीं हैं? क्या शेर काम महसूस नहीं करते, या क्रोधित नहीं होते। हाथियों में भी भोजन देख लोभ होता है, अपने बच्चों के लिए मोह तो सर्व सुलभ प्राकृतिक गुण है

लब्बोलुआब ये कि इन सारे सार्वभौमिक अवगुणों के होने के बाद भी समस्त प्राणिमात्र में मनुष्य की समस्याएं सबसे जटिल हैं । इसका अर्थ है कि हममें शायद कोई और अवगुण भी है जो ईश्वर प्रदत्त नहीं है । कोई अवगुण है जो सिर्फ मनुष्यों में है और जिसका विकास शायद मनुष्य ने ही किया है । क्या वह चीज़ भाषा है ?

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चिर आपका ,
शेखर सुमन

जब रिपब्लिक आ जायेगा।

जब रिपब्लिक आ जायेगा।

ना किसी का राज रहेगा, ना कोई दीप जलेगा,
बहुत ही कम बरसेगी बरखा, हर कँवल मुरझायेगा।
जब रिपब्लिक आ जायेगा।

न कोई वाकेगा न कोई टाकेगा,
लुट जायेगी निधि,ना फिर आपको चौबे पकायेगा।
जब रिपब्लिक आ जायेगा।

स्क्रीन पर छायेगा अँधेरा, ग्रहण लगेगा रवीश को,
बढ़ेगा इनटॉलेरेंस, फिर उठेगी उंगली इशरत के तफ्तीश को।
पिटेंगे झा और आशुतोष , लेट मी स्पीक पीरज़ादा चिल्लायेगा।
जब रिपब्लिक आ जायेगा।

नाउ बनेगा देन, टुडे यस्टरडे कहलायेगा,
आई बी अन होगा डेड, एक्स अननोन बन जायेगा।
कर लो मज़े चार दिन की चांदनी में,
अँधेरा वापस तेरे स्टूडियो में छायेगा।
जब रिपब्लिक आ जायेगा।

जब रिपब्लिक आ जायेगा ।

सवालों से आहत न हों,

हस्तिनापुर कीे रंगभूमि में कौरव और पांडव राजकुमारों की शस्त्र कला में अर्जित कौशल का प्रदर्शन चल रहा था। राजकुमार भीम जहाँ अपने गदा कौशल से सबको विस्मित किये हुए थे, वहीँ राजकुमार दुर्योधन के गदा कौशल कीे प्रशंसक समस्त हस्तिनापुर की प्रजा हो गयी थी। विशेषतः राजकुमार अर्जुन की धनुर्विद्या के सभी कायल थे। अर्जुन के रणकौशल की एक बानगी भर देख किसी के मन में कोई संदेह न रहा कि कुंती पुत्र अर्जुन विश्व के सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर हैं। किंतु ये क्या? एक सामान्य सा युवक जिसके कपडे साधारण थे, किन्तु मुख पर दिवाकर का तेज था, जिसकी आँखें विनम्रता का भाव तो दिखलाती थी, परंतु उसके कवच और कुंडल इस बात का प्रमाण थे कि युद्ध में इसे हराना अत्यंत दुरूह होगा। कर्ण नाम का यह युवक अकेला खड़ा रंगभूमि में अर्जुन को ललकार रहा था। उसकी बस एक ही मांग थी कि अर्जुन को सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर घोषित करने से पूर्व उसे एक बार अपनी धनुर्विद्या का प्रदर्शन करने दिया जाए। 


गुरु द्रोण और कृपाचार्य की अनुभवी आँखें यह परख चुकी थीं कि कर्ण कोई साधारण योद्धा नहीं बल्कि अर्जुन से भी प्रवीण धनुर्धर है। एक साधारण युवक से कुंतीपुत्र अर्जुन की हार उन्हें कतई स्वीकार्य ना थी। उन्होंने कर्ण को प्रदर्शन से रोकने के लिए एक युक्ति निकाली। उन्होंने कर्ण को पूछा कि युद्ध करने से पूर्व वो अपनी जाति बताये और यह प्रमाणित करे कि वह एक आर्य पुत्र क्षत्रिय है। कर्ण ने आग्रह किया कि उसकी जाति का रण कौशल से क्या लेना देना। सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर कौन है इस बात का फैसला धनुष बाण से होना चाहिए ना कि उसकी जाति, कुल, उपनाम से। कर्ण को सूतपुत्र कह रणकौशल के प्रदर्शन से भले ही रोक दिया गया किन्तु रंगभूमि में उपस्थित प्रत्येक हस्तिनापुर वासी यह जान गया कि कदाचित सूर्यपुत्र राधेय कर्ण पाण्डुपुत्र अर्जुन से बड़ा धनुर्धर है। कर्ण को सूतपुत्र कह पुकारने से उसकी धनुर्विद्या कम नहीं हुई बल्कि जनमानस में यह बात फ़ैली कि कर्ण को रोकने के लिये राजगुरुओं ने अनैतिक तरीकों का सहारा लिया।

इस कथा को वर्तमान राजनैतिक और सामजिक परिपेक्ष्य में देखें तो यह कथा अत्यंत ही प्रासंगिक है। बहुधा ऐसा देखा जाता है कि कोई न कोई सूतपुत्र आकर एक व्यवस्था को ललकारता है। कोई राधेय आकर कुछ ऐसे प्रश्न पूछता है जो सत्ता में बैठे लोगों को सहज प्रतीत नहीं होती। कोई कर्ण आ जाता है जिसके तर्क के बाण व्यवस्था के अहंकार और दम्भ की छाती में जा चुभते हैं।
और जब समाज, व्यवस्था उन असहज सवालों से बिफर पड़ता है तो कर्ण को रोकने को कोशिश की जाती है। उसके तर्क को सुने बिना उसे सूत पुत्र कह अपमानित किया जाता है। उसकी धनुर्विद्या नहीं उसकी जाति की चर्चा की जाती है ताकि व्यवस्था के अर्जुन की तथाकथित सर्वश्रेष्ठता बनी रहे।

अमेरिका के इसबार के चुनाव को ही लें, डोनाल्ड ट्रम्प ने व्यवस्था पर कुछ असहज सवाल उठाये। वहां की जनता को भी लगा कि यह सवाल पूछे जाने चाहिए। लेकिन व्यवस्था ने क्या किया, उन सवालों के जवाब देने के बजाय ट्रम्प को अपमानित करना शुरू किया। उसके समर्थकों को निकृष्ट और घिनौने की उपाधि तक दे दी गयी। व्यवस्था ने हर वो कोशिश की जिससे ट्रम्प और उसके समर्थक अपमानित हों लेकिन उनके प्रश्नों का उत्तर देने की कोशिश नहीं की। शायद व्यवस्था के पास उनका कोई जवाब था भी नहीं। एक प्रेसवार्ता के दौरान एक छात्रा द्वारा पूछे गए एक सवाल से ममता बनर्जी इतनी असहज हो गयी कि उस छात्रा को माओवादी, नक्सली और विरोधी पार्टी का बता दिया। किन्तु उसके सवाल का उत्तर नहीं दिया। शायद उस प्रश्न का उत्तर उनके पास नहीं था, इसीलिए सवाल पूछने वाले की प्रामाणिकता पर ही सवाल उठा दिये गए।
आप तुष्टीकरण पर सवाल उठाओ तो हिन्दू धर्मांध कह दिए जाते हो। आप सरकार की नीतियों पर सवाल उठाओ तो राष्ट्रविरोधी कह दिए जाते हो। मुस्लिम हितों के मुद्दे उठाने वाले जिहादी कह दिए जाते हैं और आदिवासियों की बात करने वाले नक्सली।
अगर आप सवाल पूछ रहे हैं और आपको नाम दिए जा रहे हैं तो समझ लीजिए कि आप वह राधेय हैं और व्यवस्था के पास आपके प्रश्नों का जवाब नहीं है। अगर आप किसी के असहज सवालों का उत्तर न देकर उसे अपमानित कर रहे हैं तो आप वह व्यवस्था हैं जो एक कर्ण की चुनौती से घबरा गया है। आप निश्चिन्त रहे कि वह रश्मिरथी आपके तम के साम्राज्य पर भारी पड़ेगा।

हर कोई कभी कर्ण होता है, तो कभी अर्जुन और तो कभी व्यवस्था रुपी द्रोण। अगर आप कर्ण हैं तो अपना संघर्ष जारी रखें। अगर आप अर्जुन और द्रोण हैं तो जानलें कि इतिहास आपकी विजय को पराजय से भी निकृष्ट मानेगी।

यह भी हो सकता है कि आप न तो कर्ण हैं, ना अर्जुन और ना द्रोण। इसका अर्थ है कि आप रंगशाला में बैठी हस्तिनापुर की जनता हैं। आप अगर किसी कर्ण के साथ हुए अपमान को देख चुप हैं, तटस्थ हैं तो समझ लें कि कुरुक्षेत्र के अवश्यम्भावी युद्ध में आपका भी विनाश निकट है। जरूरत है कि आप कर्ण के सवालों से आहत न हों, उसे अपमानित न करें। उसका साथ दें, महाभारत का विनाशकारी युद्ध रोकने का यही एक उपाय है।

Ojas 5th bday

Today is a special day for me.. I am a five year old father today. and what do you expect from a five year old? Goofy, naughty, free from worries and looking forward to nothing but joy..
But its not that simple.. The world is asking me to get serious now.. World is asking me to stop enjoying and work more as a father.. They say I am buying too many toys but should buy more books now.. I want be to be careless and naughty, but they want me to be more coy. When I resist, they say.. tum hi bigad rahe ho bete ko.
I am sure at the school I am sending you now, they are telling you some do's and piling you with tonnes of dont's. Listen to them and try to follow them as many of them serve you good. But there is no one in history who became a great man following all those rules.. To do something different, you have to break some rules.. or may be most of those rules.. Which rules you want to break ? How can I tell? I am just a five year old father.. That will be your decision. But before breaking these rules, learn these rules.. Thats why I am sponsoring your school. You have to learn their game to beat them at it..
You have everything to do that.. Sometimes I envy you.. How easily you get everything you want.. Wish as a grownup I could replace some of my plans with your perseverance.. Really.. You get everything as per your wish , from toys, to books, games and and you do it without hurting anyone, without losing any friends, with no stress and no tension.. Remember this recipe in your heart, it will be handy when you grow up.. It will be your key to success. In case you forget, I wont be able to teach you this as I have almost forgotten this now.
One little exception.. You can break any rule you want but not this one.. Always love your family.. Because if you damage that, the spare you get are not reliable.. and when you get damage, there is no one more reliable than family.
yeah.. You may realize maintaining a family comes at a cost.. It has a high maintenance cost.. You have to be a mule for them and you have to be a tiger for them.. bit tough.. But who said good things come cheap ? And yes.. add some friends to your family.. Have few but close friends.. Like your family.. How to have a loving family and close friends? Be smart for the world but stay naive for them.. Smarter you become while dealing with friends and family, dumber you are in the long run..
Enough of all this.. I am gonna enjoy my fifth birthday as a father today... There is a cake.. There are candles.. There are gifts.. There are people.. all cheering me.. and you are helping me tear all those gift wrappers.. How thoughtful.. Thanks Son..
And by the way.. Isn't it a coincidence that you are also completing 5 years today.. Love and happy birthday Dear Ojas

गांव के अँधेरे थिएटर में प्रवेश

गांव आकर यह एहसास होता है शहर के चहल पहल और चमक दमक में आप बहुत सारी चीज़ें पीछे छोड़ आये हैं। रात को ही लें, रात का मतलब शहर में नाईट लाइफ और डीजे का तेज संगीत से आप लेते हैं। गांव की नाईट लाइफ का मतलब है घुप्प अँधेरा। शहर में इतना ज्यादा कृत्रिम प्रकाश है कि घुप्प अंधकार शहर में मिलना शायद नामुमकिन ही है। गांव आते ही आप शुरू में अन्धकार से शायद कुछ डरते हैं, आपके मन में यह भाव उठता है कि कहाँ आकर फंस गया। लेकिन जल्द ही यह अंधकार काले जादू सा आपको अपने वश में करने लगता है। जैसे तेज प्रकाश से आप सिनेमाहाल में प्रवेश करते ही शुरू में आप थोड़े असहज होते हैं पर जल्द ही परदे पर चल रहा प्रकाश और संगीत आपको सब कुछ भुला देता है। गांव के अँधेरे थिएटर में प्रवेश करने के कुछ समय के बाद जब आपकी आंखें अँधेरे में अभ्यस्त होती है तो सबसे पहले आपकी नज़र पड़ती है दुनिया के सबसे बड़े परदे आसमान पर। आसमान और उसपर जगमगाते तारों ने जाने कितने वैज्ञानिको, दार्शनिको, साहित्यकारों और प्रेमी युगलों को क्यों प्रभावित किया है इसका अहसास आप गांव से दिखने वाले आसमान को देख कर ही कर सकते हैं। आपके ऊपर का तारों से सुसज्जित आकाश किसी प्रेमी को प्रेमिका के आँचल सा तो किसी वैज्ञानिक को किसी सुदूर ग्रह से आती अन्य सभ्यता की लौ का अहसास कराती है। गांव वालों के लिए यह आकाश दिन भर की कड़ी मेहनत के बाद सुकून से सोने के लिए बनी एक बड़ी सी चादर है जिसे मानो माँ प्रकृति अपने सोये सारे बच्चों को एक साथ ओढा देती है।


जैसे सोने में सुगंध आ जाये वैसे ही इस अनुपम दृश्य में प्रकृति और भी रंग डालती है। तारों के आसामान के नीचे बैठे आप एक दैविक शांति का अनुभव करते हैं, पर आप इस शांति को सन्नाटा न समझें। सन्नाटा तो जीवन रहित भय का संकेत है। गांव में भय कैसा और जीवन की ध्वनि गांव के रेशे रेशे से आती रहती है। गांव की शांति में आप दूर से आते किसी वृद्ध के संध्या आरती के भजन की मधुर ध्वनि सुन सकते हैं। साथ में सुनायी देता है झींगुरों का कलरव, मानो जीवमात्र रात्रि की देवी की उपासना में लगा हो। इस उपासना के समारोह में पेड़ पौधे शामिल न हों ऐसा कैसे हो सकता है। रात्रि में खिलने वाले खुशबू दार फूलों वाले पेड़ों, मंजर से लदे आम के बागानों से जब बहकर हवा आती है तो ऐसा लगता है कि पूजा में अगरबत्तियों की सुगंध फ़ैल गयी है।

‌खेतों में फलों और फसलों की रखवाली करने गये किसान अपने आप को गर्म रखने के लिए अलाव जला बैठे रहते हैं। अलाव के पास बैठे किसान और बागान के रखवालों को देख अपने घर के फायर प्लेस के सामने बैठे अंग्रेजों की याद आ जाती है। अलाव के सामने बैठ चिलम फूंकते अपने फलों से लदे बागान देख जो सुकून एक किसान को मिलता है वह शायद क्यूबन सिगार पीते साहबों को न मिलता हो। गांव की रात्रि में पेड़ों के बीच अलाव जलाये किसान माँ प्रकृति की गोद में बैठे बच्चों की तरह लगते है जिनके साथ प्रकृति के दूसरे बच्चे भी बाल क्रीड़ा आ मिलते हैं। कुत्तों का समूह भी अपने दिन के सारे मतभेद भुला उस अलाव के पास आ जाता है जैसे युद्ध विराम के बाद सारे सैनिक अपनी संगीनों को परे रख हंसी मजाक कर रहे हों। जैसे सैनिक भले ही रात में आराम कर लें जासूसों का काम रात में भी नहीं रुकता। उसी तरह चमगादड़ों का समूह रात में भी फलों के बागान में अपने भोजन की तलाश में घूमता रहता है। दूर से आती सियारों की आवाज़ ऐसे लगती है जैसे दुश्मन का खेमा अगले आक्रमण की योजना बना रहा हो। गांव में बैठ कर रात को दूर तक देखें तो कहाँ आकाश ख़त्म हुआ और कहाँ धरती शुरू हुई पता नहीं चलता। आखिर जुगनुओं का टिमटिमाता सामूहिक सौंदर्य तारों के रूप से किसी रूप में कमतर थोड़े ही है।
‌लेकिन यह रात्रि उत्सव उषाकाल से कहीं पूर्व समाप्ति की ओर बढ़ जाता है। सूर्य के आगमन के लिए स्वागत गान गाते पंछी , जलाशय की ओर जाता भैंसों का समूह के कदमताल की आवाज़, दूध की आस में अपनी माँ को पुकारते गाय के बछड़ों की पुकार सब मिल आपको जगाते हैं कि उठो दिवस प्रारम्भ होने को है। अलाव की राख की गर्म चादर में सोये गांव के पहरेदार कुत्ते अब भी अलसाये से पड़े रहते हैं और एक खीझ वाला भाव जताते हैं कि सुबह इतनी जल्दी क्यों आ गयी। गांव वाले भी अपने अलसाये आँखों को मलते उठते हैं और जीवन चक्र फिर वैसे ही द्रुत गति से चल पड़ता है अपने अगले रैन बसेरे की तलाश में।

‌मैं शहर हूँ

मैं शहर हूँ। कोई मुझे विलासी कहता है, कहते हैं कि मैं अपनी जड़ों को भूल बैठा हूँ, खो गया हूँ अपनी रंगीनियों में, पसंद आने लगी हैं मुझे चमक दमक और दिखावा। जरूरत से ज्यादा खर्चता हूँ, जरूरत से कम बचाता हूँ। जी चाहता है कि कभी फुर्सत में इन बातों के जवाब दूं, लेकिन शायद जवाब देना मेरी फितरत में नहीं है। वक्त भी नहीं मिलता कि इन बातों का जवाब दे सकूँ। मोहनजोदारो से लेकर गुडगाँव तक, दमिश्क से लेकर काशी तक आज तक के सफर में सांस लेने की फुर्सत तक नहीं मिली। सोचा अगर वक़्त इन सवालों के जवाब देने के लिए रुका, तो उन हज़ारों सपनों के गट्ठर को उतार वास्तविकता के कठोर धरातल पर रखना होगा, जिन्हें मिलाकर ही मैं शहर बना हूँ। बच्चों के सुनहरे भविष्य का सपना, एक घर का सपना, दुनिया का बादशाह बनने का सपना, ऐसे हज़ारों सपनो को अपने साथ सहेज कर चलता हूँ। उन सपनो को ठेस न लगे, सारा वक्त उनको पूरा करने में ही लगे इसीलिए तो अनवरत चला जाता हूँ। हर रोज़ कुछ सपने पूरे होते हैं तो इससे पहले कि मुस्कुरा सकूँ, देखता हूँ हज़ारों नए सपने अपने सर पर उम्मीद की पोटली लिए मेरे दरवाज़े पर खड़े हैं। फिर उन सपनो भरी आँखों में उम्मीद की एक किरण जलाने के लिए खुद को जलाता हूँ पर शायद ही किसी को वापस भेजता हूँ।



‌गांव की धरती अपनी छाती फाड़कर अन्न उपजाती है तो उसका गुणगान करने वाले बहुतेरे हैं। पर अपने सीने पर सपनो से भी ऊंची ऊंची अट्टालिकाओं को उठाये मैं भी चल रहा हूँ पर मैंने कभी उफ़ तक नहीं की, न ही किसी से धन्यवाद की अपेक्षा की। चाहता तो गांव की तरह ताज़ी हवा में घूम सकता था, पर सपनो की ऊंची उड़ान के लिए जरूरी इन ऊंची चिमनियों के साये में जीने का फैसला किया। परिवार के बच्चे अगर आँगन में खेल पा रहे हैं तो यह भी तय है कि कोई रसोई की गरमी और धुएँ में बैठा कोई खाना पका रहा है। मेरा भी जी करता है कि गांव के बड़े से चौबारे और आसमान से बड़े आँगन में खेलूं लेकिन फिर भी वन बी एच के के बंद दायरे में आपने आप को समेट रखा है ताकि गांव के चौबारे के बच्चों के लिए कुछ खिलौने भेज सकूँ। किसका जी नहीं चाहता कि रसोई में बैठ तवे से उतरी गरमागरम फुल्के साग के साथ खाऊं, फिर भी अख़बार में लपेटी बासी पूरी और सब्जी खाकर खुश हूं ताकि घर का चूल्हा ठंढा न पड़े।

‌मैं शहर हूँ । सब कहते हैं कि तेरे पास दिल नहीं है, पत्थर दिल हो गया हूँ मैं , कैसे कहूँ कि मैं उस सैनिक सा हूँ जो सीने पर गोलियां खा कर आह नहीं करता पर गांव से आयी एक प्यार की पाती पढ़ कर रो पड़ता है। एक सैनिक की तरह मैं जागता हूँ चौबीसों घंटे। हर रात की ये तेज़ रोशनियां कोई दीवाली नहीं बल्कि हवन कुंड की वह लौ है जिसको अखंड और अक्षुण्ण रखने के लिए मैंने खुद को झोंक रखा है। मेरे सीने पर रेंगती दौड़ती यह हज़ारों गाड़ियां जिन्हें हमेशा कहीं पहुँचने की जल्दी होती है, देर होने पर झुंझलाती है, चिल्लाती हैं, मुझे कोसती हैं पर फिर भी इनके नखरों का बोझ उठाता हूँ। आखिर जीवन की राह पर तेज दौड़ने का सपना भी तो मैंने ही दिखाया था। यह सारी गाड़ियां भी मैंने ही दिलायी थी उन्हें कुछ छोटे सपने पूरे होने पर ताकि वो अपने बड़े सपनों की तरफ और तेज़ी से दौड़ सकें।

‌मेरी कहानी तब शुरू होती है जब मानव ने जन्म भोजन मैथुन और मृत्यु के चक्र को तोड़ कुछ अलग करने की कोशिश शुरू की। दुनिया की कहानी वास्तव में मेरी ही कहानी तो है। जब जब मानव ने कुछ अलग करने की कोशिश की, मैं किसी न किसी रूप में मानव का साथ दिया। मानव क्या भगवन कृष्ण भी जब मथुरा को छोड़ चले तो मैंने ही द्वारका बन उनका स्वागत किया। द्यूतक्रीड़ा में पराजित पांडव जब हस्तिनापुर से निकाले गए तो इंद्रप्रस्थ बन मैं ही उनकी राजधानी बना। अगर मैंने पाटलिपुत्र के रूप में मगध साम्राज्य का चरम ऐश्वर्य देखा है तो मैंने ही हिरोशिमा और नागासाकी के रूप में दुनिया की सबसे बड़ी तबाही का मंज़र भी देखा है । लखनऊ के रूप में अगर मैंने नवाब वाजिद अली शाह की विलासिता और सुख देखे हैं, तो लखनऊ छोड़ जाते उसका 'बाबुल मोरा नैहर छूटो जाए' वाला क्रंदन सुन उसके साथ रोया भी हूँ। कराची के रूप में जब मुझे छोड़ लोग अंदरूनी मुल्क ईद मनाने को जा रहे थे, तब मेरे चेहरे पर अगर एक मुस्कान आयी तो बंटवारे की विभीषिका में लाहौर की तरह जला भी हूँ।

सारी मुसीबतों को सह कर सारी विपरीत परिस्थितियों पर इंसान के शह की दास्ताँ हूँ मैं, इसलिए शहर हूँ मैं।

योग्यता को सम्मान दें

मुग़ल काल की बात है। बादशाह सलामत अपने कमरे में बैठे नाच गाने का एक कार्यक्रम देख रहे थे। नर्तकी अपनी भाव भंगिमाओं से बादशाह का दिल बहलाने की कोशिश कर रही थी और साथ में अपनी दिलकश आवाज़ से गा भी रही थी। नर्तकी का लावण्य, उसकी नृत्य कला और उसकी आवाज़ सुल्तान को ऐसी पसंद आयी कि बादशाह ने उसे अपने पास बुलाया और कहा कि तुम एक लड़की नहीं बल्कि परी हो जिसकी आवाज़ प्रणय के गीत गाती कोकिला जैसी है।
नर्तकी: ऐसा न कहें जहाँपनाह। मैं तो सिर्फ एक दासी हूँ।
बादशाह: अगर ऐसा है तो हम तुम्हें अपनी बेग़म बना दिल्ली ले जाएंगे।
नर्तकी: जब मैं बेगम बन जाऊंगी, तब तो मुझे यहां से दूर महल में रहना पड़ेगा, फिर मैं ज़ोहरा से कैसे मिल पाऊंगी?
बादशाह : कौन ज़ोहरा?
नर्तकी: मेरी सबसे अच्छी दोस्त ज़ोहरा। यहीं तरबूज़ बेचती है। दिल्ली के सबसे मीठे तरबूज़।
बादशाह: ठीक है तो हम ज़ोहरा को आपकी मुख्य बांदी नियुक्त करते है, वो महल में हमेशा आपके साथ आपकी खिदमत में रहेगी।
नर्तकी : जहाँपनाह , और मेरे भाई नियामत का क्या जो सारंगी बजाता है?
बादशाह: हम नियामत को मुल्तान का नया सूबेदार बनाते है। अब खुश बेगम?

आप इसे कोई काल्पनिक कहानी नहीं समझें, बल्कि नवें मुग़ल बादशाह और औरंगज़ेब के पोते जहांदार शाह और उसकी बीवी लाल कुंवर की सच्ची कहानी है।


प्रकृति के मूल सिद्धांतों में एक मूल सिद्धांत है वांछित का अभाव। जो भी चीज़ वांछित होती है, वह अभाव में होती है। अभाव सेे उत्पन्न होती है प्रतिस्पर्धा। वांछित वस्तुओं के लिए हुई प्रतिस्पर्धा में जो सबसे योग्य प्रमाणित होता है, वस्तु उसे ही प्राप्त होती है। यह भी एक प्राकृतिक सत्य है। यह धरा इसी सिद्धांत पर चलती है। अमेज़न के वर्षावनों का उदाहरण लें। घने जंगलों में सूर्यप्रकाश का अभाव होता है और उसको पाने के लिए पेड़ों की प्रतिस्पर्धा होती है जिसकी वजह से पेड़ इतने ऊंचे ऊंचे हो जाते हैं।

अगर कोई भी मानवीय नियम या व्यवस्था इस नैसर्गिक नियम के विरुद्ध किसी अयोग्य को योग्य के ऊपर रखता है और वांछित से योग्य को वंचित करता है तो पतन की शुरुआत होती है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि जहांदार शाह मुग़ल बादशाह बनने लायक नहीं थे, लेकिन वह बादशाह बने और मुग़ल साम्राज्य के पतन की गाथा में वह एक बड़े खलनायक के रूप में इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं।

भारतीय सन्दर्भ में देखें तो वर्णव्यवस्था जिसने प्रतिस्पर्धा और योग्यता की जगह जन्म और कुल को वरीयता दी, भारतीय समाज के पिछड़ेपन का सबसे बड़ा कारण है। यही वह कारण है जिसकी वजह से यह निश्चित किया गया कि सिर्फ क्षत्रिय जाति ही युद्ध कर सकती है, कोई और योद्धा नहीं। परिणाम यह कि जब भी बाहरी आक्रमणकारियों का आक्रमण हुआ, हम पराजित हुए और दो हज़ार सालों की दासता हमारे हिस्से आयी। वर्णव्यवस्था ही थी जिसने ज्ञान और विद्या पर ब्राह्मणों का एकाधिकार स्थापित किया और परिणाम यह है कि हम आज हम विश्वगुरु की जगह दुनिया के पिछड़े देशों में शुमार होते हैं।

समाजवाद, साम्यवाद और कम्युनिस्ट विचारधारा को बहुत सारे दार्शनिकों, लेखकों और कवियों ने दुनिया की जरूरत बताया है, एक ऐसी व्यवस्था जहाँ हर कोई बराबर हो, संसाधनों पर अधिकार योग्यता नहीं बल्कि नियमों के आधार पर तय हो। सुनने में भले ही ऐसी व्यवस्था आपको सर्वोत्तम और दोषहीन लगे, लेकिन वास्तविकता में इस व्यवस्था ने मानवजाति को जितने कष्ट दिए है, शायद महामारियों ने भी नहीं दिए। रूस, पूर्वी यूरोप, वेनेज़ुएला जैसे समाजवादी देशो की अर्थव्यवस्था और वहां के लोगों की हालत किसी से छुपी नहीं है। समाजवाद की भी वही समस्या है, कि यह प्रतिस्पर्धा और योग्यता के आधार पर वांछित के आवंटन के नैसर्गिक नियम का विरोध करती है। और इसके दुष्परिणाम आप सब जगह देख सकते हैं। अगर मैं कॉर्ल मार्क्स को मानवता का सबसे बडा खलनायक कहूँ तो अतिशयोक्ति न होगी। जितने लोगों ने कॉर्ल मार्क्स की विचारधारा की वजह से कष्ट झेलें है, उस संख्या के सामने हिटलर की विचारधारा की बलि चढ़े लोगों की संख्या नगण्य है।

अगर कोई भी व्यवस्था प्रतिस्पर्धा को नकार अयोग्य लोगों को योग्य लोगों से वरीयता या समानता देती है तो पतन अवश्यम्भावी है। जिसने भी इस नियम के विरुद्ध कुछ भी किया, उसके विनाशकारी परिणाम हुए। अपने अयोग्य भाइयों विचित्रवीर्य और चित्रांगद के लिए गंगापुत्र भीष्म स्वयंवर से काशी नरेश की राजकुमारियों अम्बा, अम्बिका और अम्बालिका को हर लाये। उन्होंने प्रतिस्पर्धा के नैसर्गिक नियम का उल्लंघन किया, जिसका परिणाम यह हुआ कि इच्छामृत्यु होने के बावजूद राजकुमारी अम्बा उनकी मृत्यु का कारण बनी।

मुग़ल साम्राज्य का पतन हो, गंगापुत्र भीष्म की मृत्यु हो, वेनेज़ुएला की अर्थव्यवस्था हो या भारतवर्ष की दासता हो, मूल कारण एक ही है। प्रतिस्पर्धा को बनाये रखें, योग्यता को सम्मान दें । ऐसी कोई भी व्यवस्था , कोई भी संस्था, कोई भी व्यक्ति जो योग्यता की वरीयता को झुठलाये, उसका बहिष्कार करें, विरोध करें। मानवता का विकास और कल्याण इसी में निहित है।

निष्ठा और परतंत्रता

अगर आपकी निष्ठा आपको अधर्म का साथ देने को विवश करती है तो आपकी निष्ठा निष्ठा नही बल्कि दासत्व है। अगर अपने सामने मातृभूमि और राष्ट्र के अपमान के विरुद्ध बोलने के मार्ग में निष्ठा आ खड़ी होती है, तो आपको अपनी निष्ठा के पुनर्मूल्यांकन करने की आवश्यकता है। अगर आपकी अंतर्मन की आवाज़ आपके स्वामी की आवाज़ से दब रही है, तो आप अपनी कमजोरियों और नपुंसकता को निष्ठा का आवरण पहना रहे हैं। अगर पांचाली के चीरहरण को देख , हस्तिनापुर के प्रति निष्ठा की ढाल में आप छुप रहे हैं तो समय के तीक्ष्ण शरों की शय्या आपकी प्रतीक्षा कर रही है। अगर निष्ठा के नाम पर आप छल पूर्वक किये गए अभिमन्यु के वध को धर्मयुद्ध बता रहे है तो आप धर्मराज युद्धिष्ठर के द्वारा भी छले जाने तो तैयार रहे। अगर निष्ठा आपके लिये निकास के सारे द्वार बंद करती है, तो आप निष्ठा के नाम पर परतंत्रता को अंगीकार कर रहे हैं। परतंत्रता में पुरुषार्थ उतना ही विरल होता है जितना मरुभूमि में जलप्रवाह। अगर आपका समस्त ज्ञान, कौशल, विद्या और अनुभव सत्य और असत्य का अंतर नहीं पहचान पा रहा तो इन समस्त गुणों के बावजूद आप इतिहास से रहम की उम्मीद न रखें।जिस आत्मसम्मान को आपने पहले ही दासता की पैरों तले कुचलने के लिए छोड़ दिया है, उसपर चोट लगने पर आपका चीत्कार व्यर्थ है।

एक ठो लभर बॉय रहिन नाम रहे शांतनु

बहुते साल पहले एक ठो लभर बॉय रहिन नाम रहे शांतनु। भाई साब के माथे पर इशक के भूत ए तरीके से छैले रहे कि कोनों भी मौड़ीयन के देख पसर जैहियेण बस। बस कैसो करके कौनो मौड़ी टांका भिराबै खातिर मान जाए तो लाइफे सेट हो जाई, यही सोच डेली डेली नदी किनारे शिकार पर निकल जैहैं। एक दिन का देखें कि एक ठो बहुते जबरदस्त टाइप मौड़ी नदी किनारे खड़ी रहें। फिर का? फिसल गेलै भाई साब बिना बरसात के। जाके लड़किन को बोलें कि हमरे साथ बियाह रचाई लियो तो तुम्हरी लाइफ बना देंगे। पैसा कौड़ी ज़मीन जायदाद हेरा जवाहरात की कौनो कमी तो थी नहीं लौंडे के पास। देखे में शांतनु भी उ दिन मस्त राजकुमार टाइप लग रैलहै थे। बस बिल्ली के भाग से छीका गया टूट। लड़की मान ता गइली लेकिन एक ठो शर्त रख दीहिस। शर्त इ की आप हमको कभियो किसी बात पर टोकेंगे नहीं, रोकेंगे नहीं। जै दिन टोका, वै दिन चल देंगे हम छोड़ छाड़ के और रह जइयो फिर अकेले। शांतनु मन में विचार करिहें कि ऐसी सुन्दर लुगाई को काहेे ला टोकेंगे। इ मान जाये बस। बिना सोचे समझे हाँ कह दिये भाई साब और गंगा भाभी को ले घर को आ गये। 



फिर तो भाई साब के मजे ही मजे। भाई साब की मेहनत लायो रंग और गंगा भाभी के पाँव हो गियो भारी। एक साल के भीतर एक बेटा भी हुओ । इससे पहले कि शांतनु बाबू मुँह मीठा करवाते सबका, गंगा भाभी बचवन को जाके फेंक आयी पानी में। शांतनु बस कसमसा के रह गइनी। का करते..वादा कर चुके थे कि कभियो किसी बात पर न टोकेंगे। कहीं भाभी छोड़ के गयी तो बचवा तो गया ही लुगाई भी चल देगी। लभर बॉय कितने दिन उदास रहते, कुछे दिन दुःख में गुजारे, फिर खो गए भाभी के प्यार में। अगले साल फिर एक बेटा। भाभी एहो बार बचवन के पानी में बहा आयी। उसके बाद फेर तो इ स्कूल के एनुअल फंक्शन हो गइनी। हर साल भाई साब मेहनत करते, भाभी मेहनत पे पानी फेर आती। सात साल ऐसे ही चलयो। आठवें साल फिर से एक बेटा हुआ, और भाभी जी ले के चल दी बचवे को नदी में बहाने। अबकी बार भैया रोक नहीं पाये अपन को और बोले । बहुत हो गया तुम्हार खेला। अबकी बार बचवे की जान न लेने देंगे। लवर बॉय से पूरा एंग्री यंग मैन बन गए रहैं भाई साब। भाभी भी कोई कच्ची खिलाडन थोड़े न थी। बोली अब तुमसे निबाह न हो पायेगा। हमरी शर्त तोड़ी, हम रिश्ता ही तोड़ के जा रहे हैं। चलो इस बेटे को न मारेंगे, लौटा देंगे तुमको इसको पाल पोस के। इ कह के गंगा भाभी चल दिहिस और हमारे लवर बॉय बन गयो देवदास ।

फिर तो भाई साब 15-20 साल हाथ पैर समेट राज काज पर ध्यान देते रहें फिर एक दिन गंगा भाभी आठवें बेटे को लौटाबे खातिर प्रकट भई । बोलीं की इ लो अपना बेटा देवव्रत। भाई साब खूब कोशिस कर लस कि कैसो से भाभी भी रुक जाये, लेकिन उ हो न सका। भाभी शांतनु भैया के दिल फेर से तोड़ के चल दीं।

भाभी को देख भैया भीतरे भीतर फेर जवान हो गइलस। आखिर घास कब तक ज़मीन के भीतर पड़ल रहें, बारिश को दू बूँद पड़े नहीं कि बढ़ जाऐं हरहरा के। फेर से वही नदी किनारे मटरगश्ती वाली आदत शुरू कर देलस। एक दिन का देखे, कि एक सुन्दर मौड़ी खड़ी है नाव लेके। भाई साब उसके नाव पे का बैठे, डूब गए मौड़ीयन के आँखों में। जाके उसके बाप से बोले कि अपनी लड़की सत्यवती का बियाह हमसे कर दो , तुम्हरी और तुम्हरी बेटी दोनों की लाइफ सेट कर देंगे। पहले तो बुढऊ बाप बड़ी माई बाप करलस की हमरे भाग खुल गए और फलाना ढिमका। इससे पहले की अपने लवर बॉय मन में फूटे लड्डू खा पाते, बुढऊ रख दिहिस एक शर्त। शर्त इ की आपका बेटा देवव्रत राजा न बनिहैं, राजा बनिहैं तो हमार नाती। इ शर्त सुन लवर बॉय समझ गये की लड्डू हाथ तो आया पर मुंह न आया। मन में सोचे कि शर्त मानने वाली बात अब न मानेंगे। पर का करें किस्मते लिखी गयी है हमरी गधे की कलम से, बिना शर्त कोई मौड़ी हां ही ना बोलती। बोले इ शर्त हम न मान सकते, और कह के लौट आये।

पर फेर से वही सत्यवती की याद में मुंह लटकाय के घर में बैठे रहें अपने भाई साब। बेटवा भी जवान हो गये रहें, समझ गइनी कि बापू फेर से कहीं फिसल गए हैं। ज्यादा काबिल बनै के चक्कर में पहुच गए अपने ही बाप के लगन लेकर बुढऊ और सत्यवती के पास। बुढऊ समझ गइनी कि लौंडा जवानी के जोश में कुछो दे बैठेगा। बेचारे नए लौंडे से कहलवा लिया कि ऊ ज़िन्दगी भर कुंवारे रहेगा औ कुंआरे ही मरेगा। देवब्रत अपन बाप लवर बॉय के लिए नयी लुगाई ले अइ लस तो बाप भी थोड़ी देर खातिर खूब आशिरबाद वगैरह दिहिस कि खूबे ज़िंदा रहो लेकिन फिर अपनी नयी बीवी के साथे अपने पुराने दिन गुज़ारने लगिस।

ऐ लंबी लवर बॉय कहानी से दू ठो बतवा समझे के हइ । पहला इशक लडैयो लेकिन थोड़ा लिमिट में रह के। इतना जरूर ध्यान रखियो की अपने ही हिस्से का इश्कबाज़ी करे न की बेटवा के हिस्से की इश्कबाज़ी भी खुदे कर जइयो। दूसरा इ की इश्कबाज़ी के चक्कर में लड़की पावे खातिर जो सो बात पर हाँ न कर दियोे। वरना होगा इ की आप तो मस्ती करके निकल लोगे और आपका बेटवा बिना बाप बने ही ज़िंदगी भर पितामह पितामह कहलैतै रहीं। मतलब इ की खाया न पिया गिलास तोडिस दस हज़ार का।सावधानी हटी दुर्घटना घटी। बाकी आप खुदे समझदार हो। हाँ हैप्पी वाला वैलेंटाइन डे तो बोलना भूलिये गये। लगता है बूढ़ा रहे है ससुरा।

बाबूजी , आपके गये चार साल हो गये।

बाबूजी , आपके गये चार साल हो गये।

छिना सर से पितृस्नेह का छाता,
क्या कहें हम पर क्या क्या बीता।
दुनिया की कड़ी धूप में खड़े,
हमारे चेहरे क्या, रूह तक लाल हो गये।
बाबूजी , आपके गये चार साल हो गये।

ठीक से रो तक नहीं पाये,
आप सो गये और फिर हम सो तक नहीं पाये।
दुनिया भले कहे कि हम हैं खुशहाल,
सब कुछ रहते भी बड़े कंगाल हो गये।
बाबूजी , आपके गये चार साल हो गये।

सब कुछ दिया ना सिखायी दुनियादारी,
आप गये छोड़ देकर सारी जिम्मेदारी।
अनाथों को दुनियावालों ने ऐसा दिखाया रूप,
आपके बच्चे दुनियादारी में बेमिसाल हो गये।
बाबूजी , आपके गये चार साल हो गये।

दर्द कम न हुआ, हाँ हो गयी अब आदत
आंसू सूखे, पर सीने में अब भी है थरथराहट
आप दिखते वैसे ही मुस्कुराते अपनी तस्वीर में,
आपके बच्चों के होना शुरू सफ़ेद बाल हो गये
बाबूजी , आपके गये चार साल हो गये।

वहाँ से वापस आती सिर्फ याद गये आप बिछड़कर जहाँ,
आपसे मिलूंगा शायद ऊपर, दिल कहता है हाँ
क्या दे सकते हैं हमारा सब कुछ, आपकी बस एक झलक पाने को,
ईश्वर पूछे , तो कहूँ हाँ बिना सोचे,
यह तो निहायत ही आसान सवाल हो गये।
बाबूजी , आपके गये चार साल हो गये।

सूचनाओं की जुगाली

कुछ शाकाहारी जीवों में पायी जाने वाली एक अलग और अजीब सी प्रवृति है जुगाली। गाय, बकरी, भैंस जैसे जीव खाते समय अपने भोजन को पूरी तरह नहीं चबाते बल्कि निगल जाते हैं। उनकी शारीरिक संरचना कुछ इस प्रकार की होती है कि यह जानवर भोजन के कुछ देर बाद उसी निगले भोजन को छोटे छोटे टुकड़ों में अपने उदर से वापस मुंह में ले आते हैं। फिर शुरू होता है उस भोजन को चबाने और पचाने का काम। सही में पूछें तो जुगाली करते जानवर बड़े हास्यास्पद से लगते हैं। बैठे हैं पसर के एक तरफ और बस मुंह चला रहे हैं। कभी कभी मुंह से झाग तक गिर रही है और जानवर हैं कि अपने आस पास की दुनिया से बेखबर लगे हुए हैं मुंह चलाने में। बैठ कर जुगाली करते जीव आलसी और नकारा से लगते हैं। लेकिन वास्तविकता में वो जीवन का बहुत ही आवश्यक और अनिवार्य कार्य कर रहे होते हैं। बिना जुगाली के निगले हुए भोजन का सही पाचन और बिना सही पाचन के पशु का सही पोषण और जीवन संभव नहीं है।

क्या जुगाली करने की प्रवृति सिर्फ जानवरों तक सीमित है? क्या और कोई जीव जुगाली नहीं करते या उन्हें जुगाली करने की जरूरत नहीं है? जुगाली शब्द का प्रयोग यहाँ एक चिन्ह स्वरुप किया गया है। जुगाली वास्तव में है क्या? आखिर जुगाली प्रक्रिया का मूल सिद्धांत क्या है? इस प्रक्रिया की आवश्यकता क्यों है और इस प्रक्रिया द्वारा किस उद्देश्य की प्राप्ति होती है ? अगर हम इन प्रश्नों के समुचित उत्तर ढूंढ सकें तो शायद जुगाली के ऊपर से प्रतीत होते कदाचित हास्यास्पद और अनाकर्षक रूप के भीतर छुपे गूढ़ अर्थ को पहचान पायें।

जुगाली को हम सब एक मंथन की एक प्रकिया के रूप में देख सकते हैं । पशु ने ढेर सारा भोजन निगल लिया जल्दी जल्दी में, अब जुगाली के दौरान उसको धीरे धीरे चबा रहा है। चबाने के दौरान भोजन को दांत पीसते हैं, उसमें मुख में मौजूद लार ग्रंथियां लार और अन्य पाचक अवयव मिलाती हैं, और भोजन सुपाच्य होने जाने के बाद वापस शरीर को भेज दिया जाता है ग्रहण करने के लिए। जुगाली के बाद ही निगल हुआ भोजन वास्तव में पशु के शरीर के लिये जीवन दायक और पुष्टिकारक सिद्ध होता है।

अगर जुगाली के इस बाह्य रूप और आवरण के भीतर झांके तो यह आवश्यक रूप से वही प्रक्रिया है जिसे डाटा प्रोसेसिंग भी कह सकते हैं। डाटा प्रोसेसिंग मतलब हज़ारों सूचनाओं, विचारों, सिद्धांतो के समंदर से अपने विवेक का इस्तेमाल कर अपने काम का ज्ञान निकाल लेना। आज के सूचना क्रांति के युग में आप सूचनाओं के बवंडर के बीच खड़े हैं। चौबीसों घंटे ब्रेकिंग न्यूज़ परोसते समाचार चैनल, पल पल समाचारों की नोटिफिकेशन भेजते न्यूज़ एप्प, व्हाट्सएप्प पर मिलती सूचनाएं, हर बात पर हंगामा मचाता ट्विटर, फेसबुक पर हर छोटी बड़ी चीज़ शेयर करते मित्रगण, रास्ते पर बड़े बड़े होर्डिंग्स और एफ एम पर चिल्लाता रेडियो जॉकी सब मिल आपको बस सूचनाएं देते रहते हैं। अनवरत गति से, निर्बाध रूप से आप सूचनाएं पाते रहते हैं, सूचनाओं की मात्रा दिन प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है और इसके कम होने की कोई आशा निकट भविष्य में नज़र नहीं आती।
जल्दबाज़ी , कार्य की बहुतायत, समय का अभाव, निज विचारधारा की वजह से कई बार हम इस सारी सूचनाओं को बस ग्रहण कर लेते है। यह कुछ ऐसा ही है जैसे पशु घास चरते समय मैदान में ढेर सारी घास खा लेते हैं। हम मनुष्यों और पशुओं में फर्क यह है पशु तो निगली हुई सारी घास को जुगाली करने बाद ही वास्तव में ग्रहण करते हैं, हम मनुष्य जैसी सूचनाएं मिली, सत्य मान आत्मसात कर लेते हैं।
कुछ लोग अपने निजी स्वार्थ के लिए मानव की इस प्रवृत्ति का गलत फायदा उठाने का सतत प्रयास करते रहते हैं। किसी ने कह दिया कि भगवान गणेश की मूर्ति दूध पी रही है, सब लोग जा पहुँचे मंदिरों में और करनेे लगे दावा कि उन्होंने भी गणपति बप्पा को अपने हाथों से दूध पिला दिया। किसी राजनेता ने कहा कि देश में असहिष्णुता बढ़ रही है, एक अभिनेता ने हाँ में हाँ मिला दी, कुछ पत्रकार और न्यूज़ चैनल कहने लगे और आप सब मान बैठे कि हाँ भई असहिष्णुता बढ़ गयी है ,भले ही आप इस असहिष्णुता शब्द का अर्थ तक न समझें। दंगे फ़ैलाने के लिए बस सीरिया की वीडियो क्लिप व्हाट्सअप पर फैला दी जाती है कि यह घटना भारत में हुई है और हम हो जाते हैं तैयार मरने मारने को।

आवश्यक है कि जो भी सूचना हम ग्रहण करें, सबको मंथन की प्रक्रिया के गुज़ारना आवश्यक समझें। दूसरे शब्दों में सूचनाओं की जुगाली करनी आवश्यक है। सभी सूचनाओं पर तर्क संगत विमर्श की जरूरत है।इस प्रक्रिया से जिस भी चीज़ को अलग रखा जायेगा और ग्रहण किया जाएगा वह चीज़ पचेगी नहीं, पूरे शरीर और समाज का नुकसान करेगी।
जो भी सूचना आप ग्रहण करें उसकी जुगाली करें। तर्क के दांतों द्वारा उसको चीरें फाड़े, पीसें । विवेक और विचारों की लार उसमें मिलने दें। सिर्फ यह न सुने कि सामने वाला क्या कह रहा है, बल्कि यह भी सोचें कि वह ऐसा क्यों कह रहा है, अभी ही क्यों कह रहा है? आखिर वह कहना क्या चाहता है? ये साधारण से सवाल बड़े से बड़े षड्यंत्र के साथ कहे गये झूठ का नक़ाब उतार फेंकने में सक्षम हैं। यह प्रक्रिया इतनी सरल भी नहीं है। हो सकता है कुछ लोग गुस्सा हो हंगामा करें, आप उसको मुख से गिरती झाग की तरह अनदेखा करें । असत्य और मिथ्या सूचनाएं आपके तर्क के दाँतों का प्रहार नहीं झेल पाएंगी और उनका वास्तविक रूप सामने आ जायेगा। मिट्टी को मिठाई का रूप दे देने से आप जिह्वा रूपी बुद्धि को नहीं ठग सकते। पर आवश्यक है कि आप किसी चीज़ को मिठाई को मानने से पहले और खाने से पहले उसे अपनी जिह्वा से स्पर्श जरूर करवाएं। सिर्फ इसीलिए किसी चीज़ को मिठाई मान न निगल जाएँ क्योंकि लोग कह रहे हैं। सबसे जरूरी बात, यह चीज़ें आराम से करें। कोई जल्दबाज़ी नहीं, आराम से , शांतचित्त हो। किसी भी बात पर उद्वेलित हो फ़ौरन यकीन कर अपनी विचारधारा न बनाएं। एक बात और, जिस चीज़ के बारे में आप स्वयं आश्वस्त नहीं है, दूसरों को उस चीज़ के लिए आश्वस्त न करें। अगर आप नहीं कर सकते और कम से कम करने वालों को न रोकें। तर्क संगत तरीके से सूचनाओं को कसौटी पर कसने वालों पर तंज न कसें। उनको नर्ड, फिलॉस्फर, दार्शनिक आदि की संज्ञा देकर मुख्य धारा से अलग करने की कोशिश न करें। वो पूरी तरह से सामान्य जन हैं जो जनसामान्य के बीच रह जनसामान्य के हित का कार्य कर रहे हैं। जब समाज में कोई सूचनाओं की जुगाली कर रहा हो तो उसको परेशान न करें।

इतनी छोटी सी बात जो में में करने वाली बकरी समझती है तो मैं मैं करने वाला इंसान क्यों नहीं समझ सकता।

शेर लिखना और शेर होना अलग अलग चीज़ें है।

अगर अपनी विचारधारा की ज़मीन पर खड़े होने में आप दिक्कत महसूस कर रहे हैं, बार बार फिसल जा रहे हैं, तो शायद आपकी विचारधारा की ज़मीन पर काई लग चुकी है। काई लगने की वजह से आपको अपनी ज़मीन हरी भरी भले ही दिखे पर यह हरियाली आपको कोई फसल नहीं दे सकती। वही हरियाली आपको फसल दे सकती है तो ज़मीन पर खड़ी है, जो हल के पैने दांतो का प्रहार झेल सकती है, जो धूप और हवा को निरंतर झेल सकती है। काई तो सिर्फ यह दिखाती है कि आपकी विचारधारा वास्तविकता के धरातल के दूर है और ज्ञान की उथली जलधारा ने आपकी विचारधारा की ज़मीन को ढक रखा है। आपकी ज़मीन ने न ही सालों से हल का सामना किया है और न ही नए विचारों की खाद उसमें पडी है।आप हरे तो दिख रहे हैं, पर आप हारे हुए ज्यादा हैं। आपके ऊपर पडी उथली जल की मात्रा अब सूखने वाली है और फिर यह तय है कि सूर्य की तेज़ किरणे आपकी वनस्पति होने का भरम जल्द ही तोड़ने वाली हैं। फिर जिस जमीन को आप ज्ञान और विद्या जल से रहित सूखी ज़मीन बता रहे है, उस पर खड़ा इंसान न फिसलता है और न वह ज़मीन तर्क और विवाद से ताप से डरती है। अगर आप सच में मुकाबला चाहते हैं तो अपने ऊपर से पडी वह दम्भ की जल परत को हटाएं । आपने विचारधारा की ऊपर ज़मी काई को मिटायें , आप देखेंगे कि आपका फिसलना कम हो गया है। गहरे समंदर में काई नहीं जमती और न ही सूखी ज़मीन पर। काई जमती है वहां जो ना पूरी तरह सूखी ज़मीन बनने का साहस रखता है और न ही उसमें सागर जैसी गहराई है। काई वाली ज़मीन पर जो पानी रहता है, उसमें आप तैर नहीं सकते, सिर्फ फिसल सकते है, आपकी ज़बान फिसल सकती है। आप भले ही आपने आप को समंदर मानें, हरियाली मानें, ज़मीन मानें, वास्तविकता में आप तीनो में कुछ भी नहीं है। हाँ आपकी तस्वीर ज़रूर अच्छी आ सकती है, तस्वीर में आप ज़रूर हरे भरे, तरल और प्रियदर्शी प्रतीत हो सकते है, पर यह तस्वीर सिर्फ मंदबुद्धि लोगों को आकर्षित कर सकती है। और वह मंदबुद्धि लोग अगर आपकी विचारधारा की ज़मीन पर आपके साथ खड़े होने की कोशिश करेंगे तो उनका फिसलना स्वाभाविक है। योद्धा को अपने आप को प्रमाणित करने के लिए भरतनाट्यम सीखने की आवश्यकता नहीं है। और भरतनाट्यम का असली जानकार कभी भी किसी सैनिक का मज़ाक इसलिए नहीं उड़ाएगा कि वह भरतनाट्यम नहीं जानता। यह सिर्फ यह दिखाता है कि आप भरतनाट्यम में कच्चे हैं और सैनिक तो आप कभी थे ही नहीं। शेर लिखना और शेर होना अलग अलग चीज़ें है। जंगल में आइये, आप जान जाएंगे असली शेर कैसा होता है।

तटस्थ रहने का विकल्प

लंकाधीश रावण द्वारा अपनी पत्नी सीता के अपहरण के पश्चात् पत्नी वियोग में रामचंद्र सीते सीते की आवाज़ लगाते वन वन विचरने लगे। वन में भटकते भटकते रामचंद्र किष्किंधा जा पहुंचे। किष्किंधा में रामचंद्र और लक्ष्मण पहले हनुमान और फिर वानर नरेश सुग्रीव से मिले। सुग्रीव ने रामचंद्र को सीता के आभूषण और वस्त्र दिखाये जो सीता ने पुष्पक विमान से नीचे गिराए थे। रामचंद्र को आभूषण देख यह विश्वास हुआ कि सीता की उनकी खोज सही दिशा में जा रही है। इन सारी बातों के बीच रामचंद्र यह जान गए कि किसी चीज़ को लेकर सुग्रीव बहुत चिंतित हैं। कारण पूछने पर सुग्रीव ने बताया कि उसके बड़े भाई बालि ने न सिर्फ उसका समस्त राजपाट छीन लिया है बल्कि उनकी पत्नी को भी अपने राजमहल में रख लिया है। इतना सुनते ही रामचंद्र ने कहा कि सीता को ढूंढने से पहले हमें बालि के अन्याय का अंत करना होगा। फिर रामचंद्र ने बालि-सुग्रीव संग्राम के बीच पेड़ के पीछे से बाण चला कर बालि का वध किया और सुग्रीव को किष्किंधा का राजा बनाया।


जीवन में हमारे सामने बहुधा ऐसे अवसर आते हैं जब हमें यह निर्णय लेना होता है कि उस विषय में हम हस्तक्षेप करें या तटस्थ रहें। तटस्थ रहने का विकल्प हमारे पास इसीलिए होता है क्योंकि उपरोक्त मामले से हमारा सम्बन्ध नहीं होता। उस मामले में कुछ भी हो, हमारे जीवन, दिनचर्या पर कोई असर होता प्रतीत नहीं होता। तटस्थ होने के पीछे दूसरा कारण होता है किसी की निजता में दखल न देने की बात। हम बहुत चीज़ों से यह कह कर अपने आप को अलग कर लेते हैं कि यह तो उनका निजी मामला है, हम बीच में क्यूँ पड़ें। तटस्थ होने के पीछे नियमों का हवाला दिया जाता है कि उस मामले में हमारा हस्तक्षेप इन सामजिक और दंडसंहिता का नियमों का उल्लंघन माना जायेगा। कई बार ऐसा होता है कि अंतःमन में यह सोचने के बावजूद कि हमारा हस्तक्षेप अपेक्षित था, हम उपरोक्त कारणों की वजह से अपने आप को तटस्थ रखने का निर्णय लेते हैं।

1971 में भारत के सामने कुछ ऐसी ही स्थिति थी। बांग्लादेश में पाकिस्तान की सेनाएं निहत्थी जनता पर हर तरह के अमानवीय अत्याचार की अति कर रही थी। महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार, बच्चों की निर्मम हत्याएं और रिहायशी इलाकों में सैन्य कार्रवाई की खबरें अंतराष्ट्रीय पटल पर आ रही थी। सारे देश इसे पाकिस्तान का अंदरूनी मामला बता, अंतराष्ट्रीय नियमों का हवाला दे कर तटस्थ रहे और हस्तक्षेप से इंकार किया। भारत सरकार और तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने दूसरे देशों से अलग इस जनसंहार को रोकनेे के लिये सैन्य हस्तक्षेप करने का निर्णय लिया। सैम मानेकशॉ की सेनायें बांग्लादेश घुसी और आगे जो हुआ वह भारत के गौरवशाली इतिहास का एक स्वर्णिम पन्ना है।

अब सोचिये कि क्या होता अगर रामचंद्र बालि सुग्रीव प्रसंग में इसे दो भाइयों का आपसी मामला बता कर तटस्थ रहते और यह सोचते कि अपनी पत्नी को ढूंढना उनका पहला कर्तव्य है, उसे छोड़ बालि सुग्रीव के प्रसंग में क्या पड़ना। क्या होता अगर भारत ने बांग्लादेश में हस्तक्षेप करने का निर्णय नहीं लिया होता तो क्या आम जनता पर हो रहे सैन्य अत्याचार रुकते? सीधा सा उत्तर है कि यह गलत होता। रामचंद्र ने भले ही बालि को छिप कर बाण से मारा जो युद्ध के नियमों का उल्लंघन है, लेकिन बालि वध उचित निर्णय था न कि तटस्थ रहने का फैसला। उसी प्रकार से एक तरीके से देखें तो बांग्लादेश के युद्ध में भारत का हस्तक्षेप पाकिस्तान की संप्रभुता का हनन और अंतराष्ट्रीय नियमों का उल्लंघन था, लेकिन भारतीय सेना का बांग्लादेश प्रवेश न केवल उचित था बल्कि सराहनीय और गौरवशाली भी था।

‌कुछ दिन पहले घरेलू हिंसा को रोकने के लिए एक जागरूकता अभियान चलाया गया था, बेल बजाओ या रिंग द बेल अभियान। इसमें दिखाते थे कि किसी घर से आती घरेलू हिंसा की आवाजों को अनसुना कर तटस्थ न रहें बल्कि जाकर उस घर की कॉल बेल बजा कर दखल दें। यह छोटा सा कदम किसी का जीवन तक बचा सकता है। चाहे आप किसी बाल मजदूरी के शिकार बच्चे को देखें , रिश्वतखोरी का शिकार बनते किसी लाचार को, निर्णय आपको करना है कि द्रौपदी के चीरहरण के दौरान आप धृतराष्ट्र बन तटस्थ रहेंगे या कृष्ण की तरह हस्तक्षेप कर द्रौपदी की लाज बचाएंगे।

रोड एक्सीडेंट और रोड रेज के मामलों में मरने वाले लोगों की संख्या दस गुना कम हो जाए अगर लोग तटस्थ न रह दखल दें। लड़कियों पर एसिड फेंकने वालों को सबसे बड़ी ताकत इसी बात से मिलती है कि वह जानते हैं कि भरे बाज़ार में भी वह ऐसा कर निकल जाएंगे क्योंकि लोग चुप चाप तटस्थ रह सारा कुछ देखेंगे, करेंगे कुछ नहीं।

तटस्थ रहने का एक और तरीका है कि जिस समय कड़े शब्दों और कार्रवाई की जरूरत हो,आप गोल मोल नीति और सौहार्द की बातें करने लगे। आप भले ही उस समय अपने आप को तटस्थ नीति परायण और नीति कुशल मानें पर आप वस्तुतः अन्यायी का साथ दे रहे हैं। जिस समय दंड और भेद की आवश्यकता है उस समय साम की बातें करना तटस्थता नहीं कायरता है। हो सकता है कि आपको दखल देने के लिये कुछ नियम तोड़ने पड़ें, लेकिन अगर घर में आग लगी हो तो सामने पड़े पानी के टैंकर का नल खोलने के लिए आप नगरनिगम की आज्ञा की प्रतीक्षा नहीं कर सकते। अपना दखल दें, अपने विचार रखें, निर्भीक होकर रखें, को नृप होई हमें का हानि वाली मानसिकता से बचें। आप अगर संकट और अन्याय के समय शुतुरमुर्ग वाला व्यवहार जारी रखते है, तो फिर मानवाधिकारों की आशा भी न रखें।

जितनी बातें कहने में मुझे इतने शब्द लगे, दिनकर जी ने दो पंक्तियों में समेट कर कहा है।

समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याघ्र,
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध।