बैठा होगा कोई अपने शीश महल में
अपने झरोखों से झांकते हुए
उसने देखा होगा किसी मुसाफिर को
कंधे पर झोला लटकाए,पैदल चलते
और सोचा होगा कि सामने वाला
दुखी है कितना,
धूल धूप झेल रहा है
बोझा उठाए चल रहा है
तो उसने कहा होगा
मुहावरा कि फलां सड़क पर आ गया
फिर उसने कहा होगा कि
सड़क पर होने का मतलब
आज से हुआ बरबाद हो जाना।
जब होता हूं सड़कों पर
तो शायद खुश रहता हूं सबसे ज्यादा,
क्योंकि मेरी सारी जरूरतें
सिमट जाती हैं
मेरे कंधे पर लटके एक थैले में।
एक जोड़ी कपड़े और एक बोतल पानी
और एक कुछ बासी पूरियां एक टिफिन में,
काफी हो जाती है मेरे लिए।
शायद उससे भी ज्यादा हो जाती हैं
क्योंकि जब खड़ा होता हूं सड़कों पर।
तो आ जाता है कोई भूखा
होठों पर प्यास और आखों में आस लिए
एक टुकड़ा रोटी के लिए हाथ फैलाए।
फिर सोचता हूं कि
यह आया है मेरे पास मांगने एक रोटी
शीश महल में क्यों नहीं जाता
जहां हैं मेवे के भंडार
और यह आया है मेरे पास जिसके पास है
एक झोला कंधे पर
और गिनी चुनी चार पूरियां।
क्योंकि पता है उसे भी शायद कि
दे वो ही सकता है जिसकी खुद की
जरूरतें कम हैं ।
जब होता हूं सड़कों पर
कम होती हैं मेरी जरूरतें
कम होता है मेरा बोझा
इसीलिए तेज चल पाता हूं
इसीलिए किसी भूखे के दिल में
आस जगा पाता हूं।
जब होता हूं सड़कों पर
समझ पाता हूं चीजों की असली अहमियत
इसीलिए संभाल कर बंद करता हूं
पानी की छोटी बोतल का ढक्कन।
जबकि घर पर खुला बहता नल भी
मुझे परेशान नहीं करता,
इसीलिए हजारों लीटर वाली टंकी भी
कम पड़ जाती है।
जब होता हूं सड़कों पर
तो गुरूर नहीं होता मेरे पास,
पीछे छूट जाती हैं मेरी डिग्रियां
और ज्ञान का अहंकार।
एक अनपढ़ रिक्शेवाले से भी पूछता हूं
कि भैया जरा रास्ता बताओगे,
थोड़ा भटक गया हूं।
एक सड़क किनारे टपरी पर खड़ी बुढिया से
पूछता हूं कि आई! एक कप चाय मिलेगी क्या?
ना मांगने वाले में शर्म,
ना देने वाले में कोई कोई शिकन
सामने वाला जिसे एक पल
में बना लिया भाई और मां
बताते हैं रास्ता इत्मीनान से
और दे देते हैं दो बिस्किट
चाय के साथ बिना मांगे।
जब होता हूं सड़कों पर
ज्यादा समझता हूं रिश्तों की अहमियत
याद करता हूं दोस्तों को,
घर वालों को।
एक पल को ठहर सा जाता हूं
जब देखता हूं लिखा कि
धीरे चलिए, घर पर कोई
आपका इंतजार कर रहा है।
जब होता हूं सड़कों पर
तो हो जाता हूं ज्यादा विनम्र
हर छोटे बड़े मंदिर पर शीश झुकाता हूं।
स्वीकार करता हूं लंगर,
भिक्षुक की तरह हाथ फैलाए।
आगे नहीं निकलता बिना सजदा
किए किसी पीर को।
निकल जाता हूं बगल से,
सड़क के बीच बैठी गाय के
बिना उसे उठाए, बिना उसे जगाए।
रुक जाता हूं जब तक खत्म नहीं होता
छोटे कुत्ते के बच्चों का खेल सड़क पर।
इंतजार करता हूं तब तक
जब तक सारे बच्चे बतख के
पार नहीं कर लेते सड़क।
जब होता हूं सड़क पर
तो हंसता हूं उसपर
जिसने बरबाद होने को नाम दिया
सड़क पर होने का।
क्योंकि जब होता हूं सड़क पर
तो रत्ती भर ही सही
शायद होता हूं ज्यादा आबाद।
एक माशा ही सही
शायद होता हूं एक बेहतर इंसान
एक इंच ही सही
शायद होता हूं प्रकृति के नजदीक
एक पल के लिए ही सही
शायद होता हूं ज्यादा खुश।
जब होता हूं सड़कों पर
जब होता हूं सड़कों पर
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