Tuesday, February 15, 2022

पटना गया पैसेंजर

रविवार की तपती उमस वाली सांझ
मैं पहुंचा गया स्टेशन हांफते हांफते
तो पाया कि खचाखच भरा है हर डब्बा
पटना गया पैसेंजर का।

और दनादन सीटी मार रही है,
मानो हर लेट लतीफ
 छूटे पैसेंजर को बुला रही हो,
कि आ जाओ, मैं निकलने वाली हूं।
भैया सोच क्या रहे हो 
आज की आखिरी गाड़ी हूं, 
अगली पैसेंजर मिलेगी आठ घंटे बाद।
देखा अपनी कलाई घड़ी की ओर तो पाया
कि नियत समय से पांच मिनट
 ज्यादा ही हो गया था।
फिर देखा ट्रेन की तरफ 
मानो मेरे लिए ही रूकी हो,
कह रही हो जैसे कि
किसी तरह बैठ जाओ, 
मिल जायेगी आगे कहीं सीट भी।
ठुकरा ना पाया आमंत्रण
पटना गया पैसेंजर का।
ठुकराता भी कैसे,
सोमवार की सुबह ऑफिस भी
तो पहुंचना था टाइम से,
 वरना साहब जी का पारा हो जाता पार
गया जी की गर्मी से भी ज्यादा।
हिम्मत कर घुसा जनरल डिब्बे में  
तो पाया कि भर चुकी है सारी सीट
एक सज्जन ने कहा , आज भीड़ बहुत है, 
कल रैली है ना गरीब पिछड़ों की।
मतलब कि गरीबों को 
उनके मसीहा से मिलाने की,
पटना तक ले जाने का काम है
पटना गया पैसेंजर का। 

फिर सज्जन ने कहा कि भैया
 नीचे तो सीट मिलेगी नहीं, 
बैठ जाओ आप ऊपर वाली 
सामान रैक पर
उतार लेता हूं मैं अपनी गठरी
 उतर जाऊंगा जहानाबाद वैसे भी मैं।
उनकी आत्मीयता पाकर लगा 
मानो फैल गई
 मनुष्यता की शीतल बयार,
सुकून सा भरा लगने लगा डिब्बा
पटना गया पैसेंजर का।

गठरियों के बीच जा बैठा 
मैं दुबका सा
बैठना मुश्किल से हो रहा था, 
और ध्यान नीचे चप्पलों पर था,
तो चप्पलों के बहाने ही सुनने लगा
कि क्या बातें हो रही हैं लोगों में।
कह रहे थे एक सज्जन
 कि आए थे गया जी
वो अपने भतीजे के साथ ,
पिंडदान करने उनके भाई और भाभी का
जो चढ़ गए भेंट कोरोना के,
अब रहता है उनका छोटा भतीजा
 उनके ही साथ।
इसीलिए साथ लेकर आए हैं उसको 
कि दे सके वो अंतिम भेंट 
अपने दिवंगत माता पिता को।
सबकी निगाहें गई 
उस छोटे बच्चे की तरफ
बैठा चाचा की गोद में
देख रहा था खिड़की से बाहर।
अपने गम को समझने तक में नाकाम,
इसीलिए शायद अपने दर्द को
 झेलने में सबसे सक्षम।
लेकिन एक सिहरन सी
 फैल गई डब्बे में
सहानुभूति की बारिश 
होने लगी चारों तरफ से

सुनाने लगे सभी अपना दुखड़ा
कि कोरोना में मैंने इसे खोया
मैने उसे खोया
वो गया
वो भी नहीं बचा
हर किसी की खुल गई दुख वाली पोटरी
रिसने लगे सूखते घाव
गमछे से पोंछी जाने लगी भरभराती आखें
दुखों का बादल फट पड़ा
और बह सा गया आसूंओं में जनरल डब्बा
पटना गया पैसेंजर का।

कि अचानक आ गया एक पेडे वाला
बेचने दस रुपए के दो पेडे।
और वो बच्चा कहने लगा 
चाचा पेडे खाऊंगा,
एक नहीं दो खाऊंगा
और दिला दो मुझे सोहनपापड़ी
 का वो बड़ा सा डब्बा।
मुस्कान सी तैर गई चाचा के चेहरे पर
कहने लगे बहुत शरारती है यह
मिठाई पसंद है इसे।
सुनकर यह सब बताने लगे 
कि अपने अपने
घरों के मुन्ने के बारे में।
उनकी चुहल उनकी जिद और
उनकी शरारतों के बारे में।
हर कोने से आने लगी बच्चों की बातें
हर आंख मुस्कुरा उठी।
और गमछे से पोंछे जाने लगे 
बच्चों के मिठाई और पेडे लगे मुंह।
खिलखिला सा उठा डब्बा
पटना गया पैसेंजर का।

ऊपर बैठे बैठे सोचा मैने
कि यह दुनिया है एक शीशा घर
चारों तरफ लगे हैं आईने ही आईने ।
दुनिया नहीं देखते हो आप,
देखते तो आप बस अपनी ही शकल
चारों ओर दुनिया के आईने में।
रोते हुए को दिखती दुनिया रोती हुई
और पेडे खाते बच्चे के लिए 
दुनिया है मिठाई घर।
पेडे और सोहन हलवे से भरी।
दिखता है अपना ही प्रतिबिंब
दुनिया में आपको।
चाहिए खुशहाल दुनिया तो 
रहना पड़ता है खुश
और बदहाल लोगों के लिए
रोती चिल्लाती है यह दुनिया।
बुद्ध को मिला ज्ञान गया में
और मैंने पाई जहां यह आभा
वो था जनरल डब्बा
पटना गया पैसेंजर का।

वो जनरल डब्बा
पटना गया पैसेंजर का।

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