Saturday, February 19, 2022

अपने उदगम पर ही सूखती हिंदी

अपने ब्लॉग के लिए 300वां ब्लॉग लिखने के लिए विषय की तलाश काशी से बेहतर स्थान पर पूरी नहीं हो सकती थी। आखिर काशी हिंदी साहित्य और भाषा के अविरल प्रवाह का उद्गम स्रोत सा रहा है। काशी ही वो धरती है जहां से कबीर ने अपने अक्खड़ अंदाज से भक्ति आंदोलन का श्रीगणेश किया। यह काशी असी घाट ही था जहां बैठ कवि श्रेष्ठ तुलसी दास ने रामचरितमानस की रचना की और राम कथा को अजर अमर बना दिया। अगर तुलसी अवधी में रामचरित मानस ना रचते तो वाल्मीकि की रामायण संस्कृत भाषा की कैद में बंद एक बुलबुल बन गई होती जिसकी आवाज जन साधारण तक नहीं कुछ विशेष वर्ग तक ही पहुंच कर घुट घुट कर मर जाती। 

यह वाराणसी की पावन धरती ही थी जहां भारतेंदु आए और हिंदी में पुनर्जागरण का बीड़ा उठाया। यहीं की गलियों में प्रेमचंद के उपन्यास और कहानियां रची गई तो वाराणसी में ही मनु श्रद्धा और इड़ा की कामायनी प्रसाद जी के हाथों अवतरित हुई। जैनेंद्र भी यहीं रहे और धूमिल की विद्रोही मशाल भी यहीं प्रज्जवलित हुई। यहां तक कि जेएनयू के कीर्ति स्तंभ और हिंदी आलोचना के सुपरस्टार नामवर सिंह भी बनारस के ही थे। 

मैने सोचा कि कितना अच्छा हो कि बाबा विश्वनाथ के दर्शन के बाद हिंदी साहित्य के इन रत्नों इन महापुरुषों के स्मारक और निशानियों का साक्षात्कार किया जाय। जैसे ही मैंने जानकारी जुटानी शुरू की, मेरे हाथ निराशा के कुछ और ना लगा। जयशंकर प्रसाद की एक मूर्ति तक तलाश पाना असम्भव है। उनका निवास स्थान , पांडुलिपियां सब गुमनाम हैं। कोई भी बता नहीं पाया जयशंकर प्रसाद का। अपने ही शहर में लापता से हो गए हैं प्रसाद जी। तुलसी की कर्म भूमि असी घाट पर एकांत तलाशते युवा जोड़ियों और उनकी सेल्फी के बाद एक और सेल्फी लेने की हरकतें ही दिखी, तुलसी कहीं नहीं दिखे। एक ऑटो वाला लमही का ही निकला, मैंने पूछा भैया प्रेमचंद के जन्मस्थान या स्मारक पर ही ले चलो। उसने भारी मन से बताया कि एक छोटा सा स्मारक है तो कभी खुलता है कभी नहीं। अभी शायद बंद ही हो, बेहतर है आप वहां ना ही जाएं। भारतेंदु के नाम पर एक बच्चों का पार्क अवश्य है लेकिन उनके साहित्य को स्मरण करता कोई भी पुस्तकालय या संग्रहालय का पता मुझे नहीं लगा। इन सब के बाद धूमिल , नामवर आदि का नाम पूछने का साहस मुझे नहीं हुआ।

फिर मुझे याद आया कि भले ही साहित्यकारों की यादों को सहेज पाने में हम अक्षम रहे हैं, लेकिन एक संस्था जिसने आधुनिक हिंदी के लिए भागीरथ का कार्य किया, उसके पदचिह्न अभी भी यहां जरूर होंगे। नागरी प्रचारिणी सभा, जिसके तत्वावधान में आचार्य राम चंद्र शुक्ल ने हिंदी साहित्य का इतिहास लिखा, हिंदी शब्द सागर का संकलन हुआ और जिन्होंने सरस्वती पत्रिका का प्रकाशन कर खड़ी बोली हिंदी के मानकीकरण की दिशा में अभूतपूर्व कदम उठाए। 

गूगल पर खोजा तो नागरी प्रचारिणी सभा मिल गई। मेरी खुशी का ठिकाना न रहा। आखिर इतनी निराशा हाथ लगने के बाद, कुछ क्या बहुत कुछ मिला। अगर नागरी प्रचारिणी सभा की संस्थागत उपस्थिति वाराणसी में है तो आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, सरस्वती पत्रिका, आचार्य शुक्ल के पदचिन्हों से रूबरू होने का एक सुनहरा अवसर मिल सकता था।

चटपट मैने रिक्शा लिया और रिक्शे वाले को गूगल मैप के आधार पर नागरी प्रचारिणी सभा वाले अपने गंतव्य पर ले गया। और वहां पहुंचते ही मेरी आशा का दीपक बुझने लगा। नागरी प्रचारिणी सभा का तोरण द्वार तो बना हुआ था, लेकिन कब्रिस्तानों में भी उससे ज्यादा चहल पहल दिखाई देती है। सुनसान सा पड़ा एक द्वार जिसके बाहर एक पान की गुमटी लगी है । पान मसाला की रंगीन लड़ियों के पीछे झांकते पान वाले ने कहा कि भैया लाइब्रेरी तो बंद है , सोमवार को खुलेगी। मैने कहा कि पुस्तकालय नहीं , यहां और भी बहुत कुछ होगा, वो ही देख लूंगा। 
अंदर घुसते ही आर्य भाषा पुस्तकालय की तख्ती लगी थी। तख्ती के दिखाए रास्ते पर आगे बढ़ा तो पुस्तकालय के बंद किवाड़ों के बगल में कचरे के ढेर के ऊपर एक पट्टिका लगी दिखी। पट्टी पर लिखा था कि आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की कांस्य प्रतिमा का अनावरण कविवर सुमित्रा नंदन पंत के द्वारा आचार्य जी की जन्म शती के मौके पर किया गया। पट्टिका जगह जगह से टूट चुकी थी और सबसे बड़ी बात कि आचार्य की प्रतिमा गायब है। शायद नागरी प्रचारिणी सभा की दुर्दशा देख आचार्य खुद रूष्ट हो कहीं चले गए हैं।
आगे घूमने पर पर पता चला कि प्रांगण की एक बिल्डिंग का प्रयोग कोई कंपनी अपने गोदाम के रूप में कर रही है। आगे एक बड़ी से दीवार पर नागरी प्रचारिणी सभा का कुल गीत लिखा हुआ है। 
जय हिंदी जय नागरी
ऋषि मुनियों के अमर मंत्र की गागरी
जय हिंदी जय नागरी।

पूरे प्रांगण में जगह जगह पर पट्टिका लगी है कि अमुक तारीख को अमुक ने अमुक का शिलान्यास किया। सभी पट्टिका का अध्ययन करने के बाद पता चला कि आखिरी बार कोई कार्यक्रम यहां 45 साल पहले हुआ था। पूरे प्रांगण में आवारा कुत्ते आराम फरमा रहे थे। दिल भर आया। 

सच कहिए तो नागरी प्रचारिणी सभा जिस हालत में दिखी, हमारी हिंदी उससे बुरी हालत में है। भारतेंदु याद आ गए। निज भाषा उन्नति अहे, सब उन्नति के मूल। अगर उनकी इस बात में कोई सच्चाई है, तो हमारी उन्नति के आसार कम ही हैं। 
बाहर निकलते समय तोरण द्वार पर उल्टी दिशा मोटे मोटे अक्षरों में लिखा दिखा , जय हिंदी जय नागरी। चिंता को लेकर कोई काशी से नहीं निकलता। आप अपनी चिंताएं बाबा को सुपर्द कर आते हैं, यही सोच बाबा का स्मरण किया और वहां से प्रयाण किया। हर हर महादेव।

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