What I think? I will let you know here.. Listen to the voices from my heart
Saturday, December 28, 2019
आवरण में छुपा सत्य
Friday, December 20, 2019
सरकार को झुकाना है
हां सरकार झुकती है। लोकतंत्र में जनता ही सर्वोपरि है। जनता चाहे तो बार बड़े तख्त को झुकना पड़ता है। लेकिन सरकार को झुकाने के लिए तर्कपूर्ण वादविवाद होना चाहिए ना कि लोगों को बहला फुसला कर आगजनी कराके। सरकार और जनता को इमोस्नली ब्लैकमेल करके अगर तथाकथित जीत मिल भी गई तो भी आगे चल कर ऐसी शिकस्त मिलेगी जिसको बताना कठिन है। सरकार तो झुक जाएगी, नुकसान किसका होगा?
आज से बीस साल पहले भी ऐसा वक़्त आया था। दिसंबर 1999। कंधार में हमारे ic 814को अगवा करके के के जाया गया था। उन्होंने हमारे नागरिकों को बचाने के लिए मसूद अजहर और अन्य आतंकियों को छोड़ने की मांग की। उस समय यही मीडिया थी जिसने उनके अपहृत नागरिकों के परिवारों को के जाकर 7 रेसकोर्स रोड पर बिठा दिया था। उनके आंसू दिखा दिखा कर ऐसा माहौल बनाया कि सरकार कितनी निर्दय है जो अपने नागरिकों की जान की परवाह नहीं कर रही। सरकार झुक गई। छोड़ दिया मसूद अजहर को। आगे क्या हुआ? उसी मसूद अजहर ने संसद पर हमला किया, मुंबई को दहला डाला। सरकार नहीं हारी, हार गया देश।
सड़क पर हजार कंकड़ हों, आज जूते पहन कर आराम से चल सकते हैं। लेकिन एक कंकड़ अगर आपके जूते के अंदर चला जाए तो आप एक कदम भी नहीं चल सकते। बाहरी खतरों से कहीं ज्यादा खतरनाक है अंदरूनी कमजोरी। अपनी तात्कालिक जीत आगे चल कर कितनी महती हार सिद्ध होती है, कंधार प्रकरण उसका जीवंत उदाहरण है। सिर्फ मसूद नहीं छूटा, टूट गया यह भरम भी भारत सख्त कदम उठा सकता है और पागल कुत्तों के सामने समर्पण नहीं करता है।
एक राष्ट्र की परिभाषा के चार तत्वों में शामिल है जनसंख्या, भूभाग, संप्रभुता और सरकार। पहली ही शर्त है जनसंख्या। संविधान की प्रस्तावना आरंभ ही होती है, हम भारत के लोग से। क्या राष्ट्र को इतना अधिकार नहीं कि वह अपने लोगों की पहचान तक कर सके? इस आंदोलन के दौरान एसी आवाज़ें उठी है कि हम अपने राज्य में नागरिकता अधिनियम लागू नहीं करेंगे, संयुक्त राष्ट्र से दखलंदाज़ी तक की बात हो चुकी है। यह देश की संप्रभुता पर हमला है। आइडिया ऑफ इंडिया के नाम पर इंडिया को ही तार तार किया जा रहा है। एनआरसी आ गया तो मेरी विधवा दादी का क्या होगा, मेरे जुम्मन चचा की खाला कहां से कागज दिखाएगी? ऐसे तर्क सुन कर 1999 फिर से याद आ जाता है। भाई जो सरकार, जो देश आपको मुफ्त शिक्षा, मुफ्त निवास, मुफ्त उपचार, मुफ्त भोजन दे रही है, उससे इतनी तो मानवता की आशा तो रखो कि उन सभी मानवों का खयाल रखा गया है और रखा जाएगा। 10 लोगों के आंसू दिखा कर पूरी मुंबई को हम पहले ही रुला चुके हैं। पिछली बार तो सिर्फ एक मसूद छोड़ा था, नागरिकता कानून सख्त नहीं बनाया तो इतने मसूद घर घुस आएंगे कि आंसू तक सूख जाएंगे। नागरिकों की पहचान ना कर पाने की अक्षमता को हम अपनी दयालुता और मानवता का नाम नहीं दे सकते।
वैसे आप चाहे मुझे निराशावादी कह लें अपनी जनता पर भरोसा मुझे कम ही है। अपना ही खून चाट कर जनता अपना प्यास बुझाने का स्वांग भरती है। नागरिकता कानून तो बहुत बड़ी बात है। हमारे यहां प्याज महंगा हो जाए तो हम सरकार गिरा देते हैं। भाई महाराष्ट्र में इस बार बारिश बहुत ज्यादा हुई, प्याज की फसल औसत से कम हुई। प्याज तो महंगा हो गा ही। हमारे पुरखों ने यथेष्ठ संख्या में कोल्ड स्टोरेज नहीं बनाए जिसमें हम प्याज रख सकें। लेकिन हमें क्या? हमें प्याज चाहिए। चाहे सरकार को जाकर तुर्की के सामने हाथ फैलाना पड़े कि हमें प्याज दे दो। उसी तुर्की के सामने जिसे दुनिया के सामने कश्मीर मुद्दे पर हमारा विरोध करने पर हमने फटकार लगाई थी।
1965 की लड़ाई के समय देश में अनाज की कमी थी। शास्त्री जी ने देश से एक शाम का खाना नहीं खाने को कहा, तो क्या हमने जाकर उनके कार्यालय के समक्ष प्रदर्शन किया? अगर हमने उस समय ऐसा किया होता तो सरकार झुक जाती। पक्का झुक जाती और कहीं से मांग कर अनाज भी ले आती। क्या यह जनता की जीत होती या राष्ट्र की हार? विचार करके देखें।
संविधान की दुहाई देने से पहले और हाथ में मोमबत्ती लेकर "हम भारत के लोग" का समवेत वाचन करने से पहले "भारत के लोग " बनने का कर्त्तव्य तो निभाएं। घर का लड़का पानी टंकी पर चढ़ कर जिद करे कि मैं तो अपनी बकरी से विवाह करूंगा और अगर मना किया तो कूद कर जान दे दूंगा। और उसके घर वाले मान जाएं, तो जीत लड़के की हुई या नहीं। इस प्रश्न का उत्तर में मन सोच लें और निकल पड़ें सड़कों पर जनतंत्र बचाने और सरकार को झुकाने को।
Thursday, December 12, 2019
जेम्स वाट और सोनागाछी
अठारहवीं शताब्दी का पांचवा दशक चल रहा था । अलसाई सी दुपहरी में अपनी मां को खाना बनाते देखता एक बालक की कौतूहल भरी दृष्टि चूल्हे पर चढ़ी पतीले पर पड़ी। उबलते हुए पानी के पतीले का ढक्कन बार बार उठता और गिरता था। बालक के मन में एक विचार आया कि यह जलवाष्प क्या इतना शक्तिशाली है कि पतीले के ढक्कन को उठा सकता है। क्या भाप की इस शक्ति का प्रयोग किसी अन्य कार्य के लिए किया जा सकता है? अगर हां तो कैसे।
इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में भी कोलकाता के शोभाबाजार मेट्रो से उतर कर चहलकदमी करके आप पहुंच सकते हैं सोनागाछी । वही सोनागाछी जिस के मकान की खिड़कियों से झांकती आखें आपको बुलाती हैं इशारे करती हैं और बंद दरवाजों के पीछे चंद रुपयों के लिए मानवता तार तार होती रहती हैं। यह चंद्रमुखियों का इलाका है। फर्क बस इतना है कि उनके देवदास दिन में पच्चीस बार बदल सकते हैं और चुन्नी बाबू चंद्रमुखी के साथ सहानुभूति नहीं रखते बल्कि उसकी कमाई का अधिकतर हिस्सा अपनी जेब में रख लेते हैं। इन चंद्रमुखी की कमाई अंधेरे में होती है और उजाले में यह चंद्रमुखी तभी आती है जब उसे अपने अंधेरे कमरे में लौटने के लिए एक और देवदास की तलाश करनी होती है। यह विश्व की शायद सबसे बड़ी देहमंडी है जहां इंसान की इंसानियत की कसक सिक्कों की खनखनाहट के नीचे दब गई है। क्या कारण है कि जिस कोलकाता शहर को उल्लास का शहर कहा जाता है वहीं पर सिसकियां का स्वर इतना तीव्र है? क्या कारण है कि विद्रूपताओं भरे इस शहर ने छह नोबेल पुरस्कार विजेता दिए हैं? क्या कारण है कि बंगाल पर ही लाल झंडे ने करीब चार दशक का निर्बाध शासन किया?
इन प्रश्नों का उत्तर ढूंढने के लिए हम वापस चलते है अठारहवीं सदी के उस दुपहरी में पानी के पतीले के ढक्कन को गिरते उठते देख विस्मित होते बालक के पास। इस बालक का नाम है जेम्स वॉट। बालक जेम्स अपने इस कौतूहल को यूं ही नहीं जाने देता। जलवाष्प की उस शक्ति का दोहन वह बड़े पैमाने पर करना चाहता है।
जेम्स वॉट की यह कोशिश सफल होती है और वह भाप इंजन का निर्माण करता है। यह भाप इंजन प्रथम औद्योगिक क्रांति का आधार बनता है और विश्व में आधुनिकता का प्रादुर्भाव होता है। इस भाप इंजन की बदौलत घर पर आधारित कुटीर उद्योगों का स्थान फैक्ट्रियों ने ले लिया है और अहर्निश धूम्र उगलते इंजनों और उनसे चलने वाले मशीनों को चाहिए कच्चे माल की अनवरत आपूर्ति । साथ ही साथ बने माल की मांग के लिए चाहिए एक बड़ा बाज़ार।
कच्चे माल के स्रोतों और उनकी फैक्ट्रियों के बने सामानों के बाज़ार के लिए ब्रितानियों का देश अपर्याप्त सिद्ध होता है और उनकी नजर सात समंदर पार भारत पर पड़ती है।
भारत का राजनीतिक नेतृत्व इन सभी बदलावों से बेखबर रीतिकाल के साहित्य के मांसल सौंदर्य का रसास्वादन करने में व्यस्त है। चारण कवियों की चाटुकारी से उब होने पर मन बहलाने के लिए हरम का रुख किया जाता है और हरम से जी भर जाए तो शिकार करने का बंदोबस्त किया जाता है। मुगलिया साम्राज्य नाम भर का रह गया है और उनके सामंतों में एक मुर्शीद कुली खां बंगाल का नवाब है। बंगाल भारत का सबसे समृद्ध प्रांत है लेकिन राजनीतिक रूप से सबसे सुभेद्य। ढाका के कारीगरों द्वारा बनाई गई रेशमी साड़ी एक अंगूठी से आर पार हो जाती है। बंगाल का नवाब सिरजुद्दौला इससे पहले कि कुछ समझ पाए क्लाइव और जाफर के षडयंत्र का शिकार हो जाता है और अपनी प्रजा के भविष्य को गोरी सरकार के काले मंसूबों के हवाले कर देता है। और गोरों को वह सब मिल जाता है जो उनको , उनकी कंपनी और उनकी ब्रिटेन की फैक्ट्रियों को चाहिए होता है।
अगर जेम्स वॉट के उस पतीले और सिराज की प्लासी में पराजय का संबंध यहां तक आप समझ गए हैं तो आगे की कहानी आसान होगी। ईस्ट इंडिया कम्पनी बंगाल पर स्थायी बंदोबस्त या जमींदारी प्रथा लागू करती है। जिसके तहत किसानों से नकद में लगान वसूला जाने लगा जिसकी न्यनूतम सीमा तो तय थी लेकिन अधिकतम सीमा जमींदार तय करने लगे। आखिर कुल लगान के ग्यारहवें हिस्से पर ही उनका अधिकार था बाकी सारा कंपनी बहादुर को जमा करना होता था। धन कमाने का एक ही मार्ग था अधिकाधिक करों की वसूली। परिणाम यह हुआ कि विश्व का सबसे समृद्ध क्षेत्र दुर्भिक्ष का केंद्र बन गया। बंगाल और अकाल समानार्थी हो गए।
आशा करता हूं आप अब तक मेरे साथ हैं। अगर हां तो अब हम अपने प्रश्नों के उत्तर के अत्यंत समीप हैं। जेम्स वाट के इंजन से बंगाल का दुर्भिक्ष कैसे जुड़ा है आप समझ चुके हैं। कम्पनी का अत्याचार कारीगरों पर भी हुआ। उनके हस्तकौशल का कोई खरीदार ना रहा , मशीनों के पिस्टन से उनकी नाज़ुक उंगलियां कब तक संघर्ष कर पाती। वे भी किसान पहले बने और भूमिहीन मजदूर बाद में। लेकिन जमींदार का लगान सुरसा के मुख की तरह बड़ा ही होता गया। अपनी फसल और ज़मीन बेचने के बाद भी जब किसान लगान ना भर पाते तो अपनी बेटियों तक को बेचने की नौबत तक आ गई। पेट की आग सारी नैतिकता और आदर्शों को जला देती है और उसकी ताकत के आगे मानवता सर झुका देती है। मानव मूल्यों की बात क्षुधापीडितों के पल्ले नहीं पड़ती। जैसे जैसे दुर्भिक्ष का काल बढ़ता गया, बेची गई बेटियों का बाज़ार बढ़ता गया। वही बाज़ार आज सोनागाछी कहलाता है ।
यही सोनागाछी शरत चन्द्र की चंद्रमुखी का निवास है और देवदास उस जमींदार का लड़का है जिसके हाथ में किसानों के खून से भी गाढ़ा मय का प्याला है और जिसे पीकर वह पारो और चंद्रमुखी के बीच डोलता रहता है। जमींदार ही थे जिनके बच्चे लंदन जाकर पढ़ सकते थे। यही कारण है कि जमींदारों के परिवार से आने वाले राजा राम मोहन राय लंदन जाकर पढ़ सके तो सत्येन्द्र नाथ ठाकुर पहले आईसीएस अधिकारी बन सके। गुरुदेव रवींद्रनाथ भी जमींदार थे इसीलिए उनके पास रवीन्द्र संगीत और गीतांजलि रचने के लिए समय था। यही कारण है कि भारत का पहला नोबेल बंगाल में ही आया। जो श्रृंखला जेम्स वॉट के इंजन से शुरू हुई उसकी ही कड़ी है कि दरिद्र नारायणों की सेवा करने की आवश्यकता मैडम टेरेसा को पड़ी। युवा टेरेसा के मदर टेरेसा और और फिर संत टेरेसा बनने के कहानी के बीज भी उस अल्साई सी दुपहरी में बोए गए थे जिसकी चर्चा हमने शुरू में की। मेरा विश्वास है कि अब आप यह भी समझ गए होंगे कि पूरे भारत में बंगाल पर ही वामपन्थ का प्रभाव सर्वाधिक क्यों पड़ा ? गरीब किसानों और शोषित मजदूरों की अस्थियों से बनी खाद पर वामपन्थ की फसल सबसे अच्छी उगती है।
गणित का एक सिद्धांत है जिसे बटर फ़्लाई प्रभाव कहते हैं। यह कहता है कि विश्व के एक कोने में एक तितली के फड़फड़ाने से विश्व के दूसरी तरफ तूफान आ जाता है। भारत और विश्व में आए साम्राज्यवाद की उस सुनामी की जड़ें उस पानी के पतीले में उबलते पानी से सींची गई थी। हर घटना महत्वपूर्ण है और हर घटना का एक कारण है। अगर आप कारण समझते हैं तो दुनिया को समझना कतिपय सरल हो जाता है।
Saturday, December 7, 2019
आक्रोश का नियंत्रण
Wednesday, October 16, 2019
डायर ने गोलियां नहीं चलाई थीं
13 अप्रैल 1919 को हुआ जलियांवाला बाग हत्याकांड भारत के इतिहास का एक रक्तरंजित अध्याय है। सैकड़ों निःशस्त्र भारतीय बिना किसी पूर्व सूचना के मृत्यु के घाट उतार दिए गए। भारतीय स्वंतत्रता संग्राम के इस अध्याय ने नरमपंथी आंदोलन का पूर्ण पटाक्षेप कर दिया और स्वतंत्रता आंदोलन की दिशा अलग चरमपंथी और उग्रपंथी दिशा में तय कर दी। जैसा कि समकालीन वर्णन बताते हैं कि भगत सिंह के कोमल मानस पर इसका बहुत स्थायी से प्रभाव पड़ा और " बंदूके बो रहा हूँ" वाला बालक भगत पैदा हुआ। इसका बदला शहीद उधम सिंह ने पंजाब के तत्कालीन गवनर ओ"डायर को मार कर लिया। जनरल डायर को ब्रिटिश सरकार ने बिना किसी सजा के छोड़ दिया यद्यपि कई स्रोतों की माने तो डायर ने आत्महत्या कर अपने जीवन का अंत किया।
कमोबेश देखें तो उपरोक्त विवरण इतिहास की पाठ्य पुस्तकों में पढ़ाये जा रहे विवरण का सार है। चूंकि हम इस बार इसकी सौवीं सालगिरह मना रहे हैं तो इस अध्याय को एक दूसरे नज़रिये से देखना भी आवश्यक हो जाता है। ब्रिटिश सेना में भारतीयों और अंग्रेजों का अनुपात करीब करीब 4: 1 था। निचले स्तर पर यह अनुपात ज्यादा ही रहा होगा। जैसा कि मैंने फिल्मों में देखा है कि डायर एक जीप में बैठ कर आता है और सैनिक उसके पीछे पैदल मार्च करते हुए बाग में प्रवेश करते हैं। यह अनुमान लगाना सरल है कि पैदल सैनिक या सिपोय भारतीय ही रहे होंगे। सरकारी आलेख बताते हैं कि दायर के साथ कुल 90 सैनिक थे जो सिख, गोरखा, बलोच और राजपूत बटालियन से लिये गए थे। इसका वर्णन नहीं मिलता कि डायर ने खुद बंदूक चलाई। हाँ, उसने फायर का वह क्रूर आदेश जरूर दिया, लेकिन खुद गोली नहीं चलाई। तकनीकी रूप से कहें तो जालियां वाला बाग हत्याकांड के पीछे दिमाग और योजना भले की विदेशी हो, उस योजना को अंजाम भारतीय हाथों ने ही दिया था। कुल 1650 राउंड गोलियां चलाईं गई, और तब तब चलाई गई जब तक गोलियां खत्म ना हो गईं। मरने वालेकी संख्या और भी ज्यादा ही सकती थी लेकिन मशीनगनों से लैस 2 जीप संकरे दरवाजे को पार न कर सके और बाहर ही खड़े रहे। गोलियां चलाने वाले भारतीय, मरने वाले भारतीय और एक डायर।
डायर का अपराध अक्षम्य है, लेकिन उन भारतीय सैनिकों का क्या? क्या उनके हाथ निर्दोषो के खून से नहीं सने? चलाई गई 1650 राउंड सारी की सारी गोलियाँ भीड़ ही क्यों चली? किसी भारतीय सैनिक के भी मन में नहीं आया कि अपने संगीन का रुख डायर की तरफ कर दे? क्या ग़ुलामी और अंग्रेजों के प्रति वफादारी के मोतियाबिंद ने किसी सैनिक को मरते बच्चों और महिलाओं की तरफ दयादृष्टि दिखाने से रोक दिया। क्या अंग्रेज़ मालिक के आदेश सुन सुन कर उनके कान इतने अभ्यस्त हो चुके थे कि उन्हें निरपराधों की चीख तक न सुनाई पड़ी। अनाधिकृत सूत्र बताते हैं कि डायर उस रात एक भारतीय जमींदार के यहाँ रात के खाने पर आमंत्रित हुआ और उसने भोजन का आनंद पूरे भारतीय आथित्य के साथ लिया।
मानव जीवन भी कुछ ऐसा ही है। हमारी विनाशकारी गतिविधियों के लिए मुख्यतः हम स्वयं जिम्मेदार होते हैं। यह अलग बात है कि हमारी विनाशलीला का डायर कोई बाह्य व्यक्ति, बाहरी परिस्थिति या कोई अन्य कारण हो सकता है। लेकिन वो डायर भी आपको विनाश के लिए आदेश ही दे सकता है, अपने आप पर गोली आप खुद चलाते हो। आवश्यक है की किसी बाहरी डायर को आप अपने आप पर इतना हावी न होने दें कि आपके आत्मविश्लेषण की क्षमता जाती रहे। किसी भी व्यक्ति या परिस्थिति का आप पर इतना असर न हो कि आपका स्वविवेक कुंद पड़ जाए और आप बाह्य कारकों को रोकने के लिए एक गोली भी न चला सकें। याद रखना चाहिये कि भले ही दुनिया आपके डायर को आपके विनाश के लिए उत्तरदायी ठहराए, लेकिन उसका कोई फायदा नहीं। आपके हृदय के एक कोने में यह टीस हमेशा रहेगी कि स्वविनाश के कार्यवाहक आप स्वयं हैं भले ही उत्प्रेरक बाह्य कारण हों।
किसी विद्वान ने कहा है कि इतिहास से हम यही सीखते हैं कि हम इतिहास से कुछ नहीं सीखते। कदाचित यह सच भी है क्योंकि हर व्यक्ति अपनी कहानी का एक डायर
ढूँढ ही लेता है जिस पर सारी विनाशलीला की जिम्मेदारी मढ़ दी जाती है और अपनी कमजोरियों को एक उत्पीड़ित छवि की मोटी चादर ओढा दी जाती है। आत्मविश्लेषण करें तो शायद निजी जीवन के कई जलियांवाला रोके जा सकते हैं।
Friday, April 5, 2019
नेता और नेतागिरी
नेता होना एक रोजगार/व्यवसाय/कार्य है। नेतागिरी एक चारित्रिक गुण है। नेतागिरी वाले नेता हों आवश्यक नहीं, नेता नेतागिरी करें बिल्कुल भी आवश्यक नहीं। छुटभैये अपने नेता के नाम पर नेतागिरी करते हैं, और नेता बनना चाहते हैं ताकि जीवन भर नेतागिरी न करना पड़े। नेता एक पड़ाव है और नेतागिरी उसकी दुर्गम यात्रा। गाँव शहर क़स्बों में जीवन भर नेतागिरी करने वाले एक लाखों अनजान चेहरे चुनाव के समय दिखते हैं। मीडिया नेता की रैली दिखाता है, गरीब के घर खाना खाते दिखाता है, और नहीं दिखाता नेपथ्य में खड़ा वह चेहरा जिसके कंधों पर नेता खड़ा होकर ऊंचा दिखता है। नेता की हर सही बात का प्रचार और गलत काम का बचाव करने वाला और गुमनामी का जीवन जीने वाला वह छुटभैया आपको स्वार्थ और निस्वार्थ के बीच पतली सी कतार के दोनों तरफ पाँव रखे अपने नेता के भार को कंधो पर उठाये चलता है। उसके घर में नेता के साथ दूसरे बीस पचीसों लोगों के साथ ले गई एक तस्वीर होती है जिसे वो अपने ड्राइंग रूम में फ्रेम करवा कर सबको दिखाता है। उसका कर्म और उसकी नियति सब उस नेता से जुड़ी होती है जिसे शायद उसका पूरा नाम तक नहीं पता । नेता उससे उसके नाम से बुला ले तो वो धन्य हो उठता है। जोश दुगुना हो जाता है। विचारधारा निर्गुण भक्ति जैसे है, सबके समझ नहीं आती। नेतागिरी सगुण भक्ति है, आम लोगों के लिए है। नेता के पीछे खड़ी भीड़ नेतागिरी वाली भीड़ ज्यादा है विचारधारा वाली कम। नेता अपनी विचारधारा बदल भी ले तो नेतागिरी वाले छुटभैये को कोई फर्क नहीं पड़ता। उसकी आहारनाल विचारधारा का रक्त प्रवाहित नहीं करती, बल्कि पूर्ण समर्पण और विश्वासपात्र बने रहने की दवा उसकी धमनियों में पहुँचाती है। यही वो दवा है जो तब असर दिखाती है जब नेता के बदले उसके बेटे, बहू यहाँ तक कि उसकी रखैल तक को अपने कंधे पर उठा वह छुटभैया वही सम्मान और पद देता है जिसकी आशा उसके अपने जीवन में सदा के लिये बुझ चुकी है। नेताजी के कंधों पर पड़ा वो रेशम का साफा इन्ही सैकड़ों कीड़ों के लार तंतु से बना होता है। छुटभैये जो करते हैं वो नेतागिरी राजनीति का वह शोषण यंत्र है जिसके पाश में बंध बिरला ही कोई बड़ा होता है। नेतागिरी ही वह आग का दरिया है जिसमें डूब कर जाना होता है। छुटभैये की चर्बी से जलने वाले दीप राजनीतिक दलों के दफ़्तरों की रोशनी करते हैं और उनकी उनकी अस्थियों से ही रैली का वह ऊंचा सा मचान खड़ा होता है।
जनता नेता का नाम जपती है और छुटभैये तिरस्कार ही पाते हैं। जीवन ऐसा ही है उनका। लोकतंत्र के इस महापर्व की फ़िल्म में छुटभैये वो एक्स्ट्रा कलाकार और स्पॉट बॉय हैं जो आवश्यक हैं , महत्वपूर्ण नहीं। फ़िल्म खत्म होने के बाद पर्दे पर उभरते सैकड़ों नामों में शायद उनका भी नाम होता हो, लेकिन उसे पढता कौन है। आप भले न पढ़ें, फ़िल्म बनी है तो उसके बल पर ही। अगली बार नेता जी की रैली दिखें तो गौर से देखिएगा नेतागिरी वाले भी आपको दिख जाएंगे। चुनाव के इस मौसम में आँखें खुली रखिये, और हृदय कोमल। शायद इन गुमनाम चेहरों पर लिखी जीवन के हज़ारों दस्तावेज़ आप पढ़ पाएंगे। रैली के शोर और चुनाव के नगाड़ों के बीच यह मूक स्वर आपको नम्र बना देगा।
ढोल और शिकार
शिकार के शौकीन राजा रजवाड़े पाने साथ एक पूरी टोली लेकर चलते थे। ढोल नगाड़े बज कर जानवरों को डरा जंगल में एक और इकट्ठा किया जाता था। वन्य जीव ढोल से डर जाते और दूसरी ओर जहां से आवाज़ न आ रही हो, पूरी शांति का माहौल हो राजा साब अपनी दुनाली में कारतूस भरे बैठे रहते यगे। जानवर ढोल के शोर से डरता था जबकि असली खतरा शोर की दिशा में नहीं शांत दिखने वाली दिशा में होता था। जानवर हमेशा इस व्यूह रचना को समझने में नाकाम रहते और राजा साब का काम आसान हो जाता। जिसदिन जानवर को यह समझ में आ जाये कि ढोल बजा कर उसे डराने वाले उसके हितैषी नहीं हैं और एक बार इस झूठ का प्रपंच फैलाने वालों को हूल देने की जरूरत है, उनका शिकार ही बंद हो जाये। अब राजा साब में इतनी हिम्मत कहाँ कि सामने आयें और खुल कर शिकार करें। इससे जान का खतरा भी है और मेहनत भी ज्यादा है। शिकार करने से पहले जानवरों को डराना जरूरी है इससे शिकार में सहूलियत रहती है।
जब भी बिना मौसम के शोर मचे और एक दिशा से ढोल बजने लगे तो समझ जाएं कि शिकारी बाबा को शिकार जुटाने वाला पारिस्थितिकी तंत्र सक्रिय ही चुका है। अब शोर भी इतना तेज है आप बेजुबानों को समझा भी नहीं सकते। उनके कान तो भागो,बचो और आसमान गिरा की आवाजों से भर दिए गए हैं। बेजुबान भले पूछे भी कैसे कि भैया हर बर्फ आसमान गिरनेकी बात करते जो आज तक आसमान गिरा तो नहीं। फिर बीच बीच में डराने क्यों आ जाते हो? और जिन जीवों ने तुम्हारी चेतावनी मान कर दूसरी दिशा का रुख किया वो कहाँ हैं कैसे हैं ?
जानवर पूछते नहीं, ढोल वाला शोर कम होता नहीं और इसी की आड़ में शिकार रुकता नहीं,अनवरत चलता रहता है। अभी भी चल रहा है,लेकिन शिकार होते जानवर की चीख भी नगाड़ों की आवाज में दब गई है। शिकार के बाद जितना ज्यादा शिकार होगा, राजा साब की जूठन चाटने इन ढोल वालों की किस्मत में उतना ही भोजन बचा होगा। शिकार हो जाने दीजिए, सबको शिकार में हिस्सा मिलेगा। #महापर्व
Monday, March 25, 2019
नारीवाद पर मंथन
नैमिषारण्य में मंद मंद प्रवाहित समीर और पुष्पों की सुवासित संगति में बैठे होने के बाद भी शिष्य के ललाट पर पड़े हुए बल देख गुरु का भी चिंतित होना स्वाभाविक था। पूछ बैठे, क्या हुआ वत्स? किस दुविधा में पड़े हो? मन में ऐसी कौन से गुत्थी है जिसको सुलझाने में तुम्हारे चेहरे की मांसपेशियां उलझ गई हैं। मन में कोई जिज्ञासा हो तो निस्संकोच होकर पूछो।
शिष्य ने कहा गुरु आप तो अंतर्यामी हैं, हर समस्या , उसके कारण और निवारण सबका ज्ञान रखते हैं। मैं जानता हूँ कि अगर मेरे प्रश्न का उत्तर है तो सिर्फ आपके पास है। लेकिन सोचता हूँ कि यह प्रश्न पूछ कर कोई विवाद ना उत्पन्न हो जाये।
देखो पुत्र,चित्त को भयमुक्त करो और प्रश्न करो। जिज्ञासा मानव विकास का मूल है और विवाद की चिंता जिज्ञासा का सबसे बड़ा शत्रु है। शिष्य का प्रश्न जितना कठिन हो गुरु का उत्तर उतना ही गूढ़ होता है। परंतु ऐसा कौन सा प्रश्न हो सकता है जिसके बारे में सवाल तक पूछने पर विवाद हो सकता है?
गुरुदेव, यह नारीवाद क्या है? इस शब्द के अर्थ को वर्तमान परिपेक्ष्य में परिभाषित करिये। और नारीवाद नारीकल्याण के कैसे भिन्न है?
गुरु की मुस्कान प्रश्न सुन कर ही कुम्हला गई। फिर अपने आप को संभालते हुए धीरे से बोलने लगे। सुनो वत्स। नारीवाद दो शब्दों से मिलकर बना है। नारी और वाद। पहले नारी शब्द को लो। नारी शब्द नर शब्द में ई मात्रा के युग्म से बना है। ई ईश का प्रतीक है, इष्ट का प्रतीक है। नर में जब इष्ट का तत्व मिलता है तो नारी का परिनिर्माण होता है। नारी नर का वह संवर्धित रूप है जो इष्ट के निकट है। नारी नर से हमेशा उत्तम है इसीलिये नर जब अपने सर्वोत्तम को प्राप्त कर लेता है तो नारी के समकक्ष हो जाता है।
आपको बीच में रोकूंगा गुरुदेव। नर अपने सर्वोत्तम अवस्था को प्राप्त होने पर नारी के समकक्ष हो जाता है?? यह बात उदाहरण देकर समझायें। ऐसा कैसे हो सकता है? और दूसरा मेरा प्रश्न? अगर नारी इतनी ही महान और पूज्य है तो मेरा प्रश्न सुन आपका मुख ऐसे क्यों कुम्हला गया जैसे सूदख़ोर महाजन को देख किसान की मुस्कुराहट गायब हो जाती है।
वत्स। मृत्यु को काल कहते हैं, उससे भी बड़े हैं भगवान महाकाल। और जो उनकी छाती पर सवार हो जाये उसको वह शक्ति महाकाली कहलाती है। भारत वर्ष में कोई कुश्ती में अच्छा करे तो उसे कहते हैं वाह क्या पहलवान है। वही पहलवान जब किसी से पराजित न हो तो लोग कहने लगते हैं कि यह अब दारा सिंह जैसे हो गया। दारा का मतलब जानते हो ना? दारा का अर्थ है स्त्री। उदहारण अनेक हैं, हर क्षेत्र में हैं। थोड़ा अध्ययन और थोड़ा सा चिंतन करो स्वतः समझ जाओगे।
गुरुदेव। आपके दिये उदाहरण सटीक है लेकिन मेरा मूल प्रश्न और दूसरा प्रश्न अभी भी अनुत्तरित है। मेरा ध्यान भटकाने का प्रयास न करें, उसके लिये तो समसामयिक मीडिया है। आप मेरी जिज्ञासा शांत करें बस।
शांत वत्स शांत। तुम्हारे प्रश्न का ही उत्तर दे रहा हूँ। तुम तो वैसे उत्तेजित ही जाते हो जैसे राहुल गांधी का एक ठीक ठाक भाषण सुन कर सुरजेवाला हो जाता है । तुमने पूछा था कि यह नारीवाद क्या है। मैने तुम्हें नारी का अर्थ समझाया। जब तक नारी का प्रश्न है , वो तो पूज्य है, श्रेष्ठ है। समस्या नारी शब्द से नही है। समस्या है यह शब्द वाद। वाद का मतलब है विवाद, वाद का अर्थ है बातें। तो नारीवाद का अर्थ क्या हुआ? नारीवाद का अर्थ हुआ, नारी को लेकर विवाद करना,नारी को लेकर बातें करना। मतलब जो नारी को लेकर ऐसे बातें करे जिससे विवाद हो तो वह व्यक्ति नारीवादी कहलायेगा और यह विवाद उत्पन्न करने की प्रवृत्ति नारी वाद कहलायेगी।
गुरुदेव। यह बात सुपाच्य नहीं लगती। नारीवाद का अर्थ है नारी को लेकर विवाद करने वाला। आप तो बिल्कुल एक पुरुषवादी पितृसत्तात्मक वराह की तरह बात कर रहे हैं।
वत्स। मैं एक मेल शौविनिस्टिक पिग या पुरुषवादी पितृसत्तात्मक वराह हूँ या नहीं यह तो नहीं पता लेकिन तुम एक आधुनिक नारीवादी अवश्य बन चुके हो। देखो तुमने नारी शब्द सुनते ही विवाद कर दिया। यह कहते ही गुरु के मुखारविन्द पर एक सरल मुस्कुराहट तैर गई।
क्षमा गुरुदेव। मैं दिग्भ्रमित से ही गया था। लेकिन आप ही मुझे आधुनिक नारीवाद के इस अंधकूप से बाहर निकालें।
देखो वत्स। अपने आप को संभालो। राजा राम मोहन रॉय जिन्होंने सती प्रथा का उन्मूलन करबे में अहम भूमिका निभायी, आज के पैमानों पर नारीवादी नहीं थे। उन्होंने सती प्रथा को बंद करवाया लेकिन क्या उससे पहले उन्होंने नारियों की सहमति ली। आ हेल्प ऑफर्ड विदाउट कंसेंट इस प्लेन हर्रासमेन्ट।। उनका नाम ही देख लो। राजा राम मोहन और रॉय। एक ही नाम में चार चार पुरुषवादी नाम रखने वाले नारीवादी कैसे हो सकते हैं।
गुरु।। यह क्या बोल रहे हो। आपके संवाद से मुझे व्यंग्य की बू आ रही है। क्या आप भी विवाद पैदा कर वादी और फिर नारीवादी बनना चाहते हैं??
न वत्स। में नारीवादी नहीं बन सकता। यह दाढ़ी बढ़ा कर कोई नारी वादी नहीं हो सकता क्योंकि मैं वैक्सिंग और थ्रेडिंग के दर्द से अनजान हूँ। वो दर्द समझे बिना आधुनिक नारीवादी कोई नहीं बन सकता। वैसे भी विश्व में इतना नारीवादी हैं कि अब ज्यादा नारीवादियों की आवश्यकता बिल्कुल भी नहीं है।
क्या गुरुदेव। अगर दुनिया में इतने ही नारीवादी हैं तो नारियों का कल्याण क्यों नहीं हुआ? पाकिस्तान में अगवा की गई किशोर लड़कियों के जबरन धर्मपरिवर्तन पर नारीवादी लोग क्यों चुप हैं?
वत्स।। वो चुप नहीं है, वे व्यस्त हैं सोशल मीडिया पर लड़ने और लोगों को नारीवाद सिखाने में। जब यह कार्य सम्पन्न हो जाएगा तो उन लड़कियों के बारे में भी सोचा जायेगा।।
गुरुदेव आप धन्य हो। यह व्याख्यान देकर जो आपने मुसीबत मोल ली है, उससे आप ही निपटो। मैं चला। प्रणाम गुरुदेव।
Saturday, March 16, 2019
कैकेयी की तरह व्यवहार
मसूद अजहर को चीन अगर आतंकवादी नहीं मानता, तो ना माने
। उससे हमारा सरोकार उतना ही होना चाहिए जितनी उसकी आवश्यकता है। चीन की अपनी अलग विदेश नीति है, पाकिस्तान उसका एक सामरिक और व्यापारिक सहयोगी है, वह उसका खुले मंच पर विरोध नहीं करेगा। लेकिन वो ज़माना गया जब किसी देश की विदेश नीति स्थायी मित्र या स्थायी शत्रु वाले सिद्धांत पर चलती थी। आज की विदेश नीति का एक ही सिद्धांत है और वह है स्थायी राष्ट्रीय हित। बालाकोट पर बम गिराने के बाद चीन ने यह कभी नही कहा कि हम भारत को इस होली पर पिचकारी और रंगीन टोपियां नहीं बेचेंगे। और ना ही उसने पाकिस्तान के समर्थन में कुछ कहा। कल को अगर भारत ने एक और सामरिक कदम में ओसामा की तर्ज़ पर मसूद को भी मार गिराया तो भी आपकी दीवाली के झालर, टिमटिम करने वाले बल्ब और लक्ष्मी गणेश की प्रतिमा भी चीन से ही आएंगे।
मसूद अजहर हमारा गुनाहगार है, उससे कैसे निपटना है वो हम लोगों को सोचना होगा। अमेरिका ने ओसामा को मारने से पहले चीन से नहीं पूछा था कि ओसामा ग्लोबल आतंकवादी है या क्षेत्रीय। आपरेशन थंडर बोल्ट से पहले इज़राइल ने किसी की इजाज़त नहीं ली। चीन से यह आशा रखना कि वो पाकिस्तान का दाना पानी बंद कर दे कुछ ऐसा है कि आप अपने गांव के बनिये को कहें कि भैया फलां आदमी को राशन मत देना क्योंकि उसके मुझे गाली दी है। भाई तुम्हें गाली दी है तो तुम निपटो ना, बनिया न ही दूसरे आदमी को राशन बेचना बंद करेगा और न ही तुम्हारा बनिये का राशन न खरीदना कोई स्थायी समाधान है। याद रखिये कि बालाकोट की बमबारी के कुछ दिन बाद ही समझौता एक्सप्रेस फिर चल पड़ी और उसके कुछ दिनों बाद ही करतारपुर कॉरिडोरके लिये पाकिस्तान और भारत की वार्ता प्रारम्भ हो गई।
हम इज़राइल से भी संबंध रखते हैं और फिलिस्तीन से भी हमारे रिश्ते मित्रवत ही हैं। शीत युद्ध और आयरन कर्टेन के समय चलने वाली नीतियां आज के बहुध्रुवीय विश्व में प्रासंगिक नहीं हैं। चीन से फ़ोन जरूर खरीदिये लेकिन जब डोकलाम में चीन अपनी आँखें तरेरे तो पूरे जोश के साथ उसकी आँखों में आँखें डाल कर बात करिये जब तब वो पीछे न हटे। मसूद अजहर को चीन आतंकी नहीं मानता , दाऊद को लेकर तो उसकी कोई आपत्ति नहीं है।फिर आपने उसको अब तक क्यों नहीं पकड़ा। मसूद अजहर वाले मामले में चीन को बेवजह तूल दिया जा रहा है। चीन को बार बार कोसना हमारी कूटनीतिक विफलता है और चीनी सामान के बहिष्कार की धमकी एक बन्दरघुड़की से ज्यादा कुछ नहीं। समय है कि हम अपनी लड़ाई खुद लड़ें और दूसरों से अनपेक्षित आशा न रखें। हाँ अगर कोई देश हमारा पक्ष मानता है तो उसका स्वागत होना चाहिये, लेकिन सिर्फ इस चीज़ के मुद्दे पर किसी देश से कूटनीतिक रिश्ते को बंधक नहीं बनाया जा सकता। चीन से आप प्यार कर सकते हैं या नफरत, पर उसे दरकिनार नहीं कर सकते। नाटक चंद्रगुप्त में चाणक्य के माध्यम से जयशंकर प्रसाद लिखते हैं कि हे सेल्युकस । हम आर्यावर्त्त के लोग युद्ध लड़ना जानते हैं द्वेष रखना नहीं।
चीन से अगर युद्ध लड़ना है तो हजारों ( वर्गमील का) कारण मौजूद हैं। चलिये पहले उस वजह का निपटारा करते हैं। अगर नहीं तो फिर मसूद का बहाना बना कर कोप भवन में बैठना बन्द करिये। राम के वंशज हैं तो वीरोचित और बुद्धिमत्ता पूर्ण व्यवहार करिये, कैकेयी बन कर रूठना और श्राप देना बंद करिये।
Friday, March 8, 2019
महत्वाकांक्षा का सीमेंट
सज्जनता और महत्वाकांक्षाओं का मिलन बड़ा ही अस्वाभाविक होता है। महत्वाकांक्षा का सीमेंट निष्ठुरता की ईंटो को जोड़ कर एक प्रासाद बना सकता है। सज्जनता की नरम मिट्टी को महत्वाकांक्षा का सीमेंट नही रास आता। सज्जनता की मिट्टी का गोला भले ही धूप में सूख जाए,कठोर हो जाये, दुखी हृदय से निकली आँसू की दो बूँदे उसे नर्म कर फिर से कमजोर कर देने के लिये काफी हैं। महत्वाकांक्षा का सीमेंट आँसुओं की नमी पाकर कुछ और मजबूत ही हो जाता है। सज्जन लोग राजनीति में क्यों नहीं आते या टिकते, शायद इसका कारण भी यही है। निष्ठुरता हमेशा एक अवगुण नहीं है, शायद बड़ा बनने के लिए निष्ठुर होना आवश्यक है।
Tuesday, March 5, 2019
बालाकोट के सबूत
जिन लोगों को बालाकोट पर हमले के सबूत चाहिए वो मांगते रहें। कुछ बुध्दिजीवियों का कारुणिक विधवा विलाप ही सबसे बड़ा सबूत है। अश्रु धारा नखविच्छेद की परिणीति नहीं होती बल्कि हृदय पर लगे चोट और इसी हृदय से जुड़ी शिराओं में प्रवाहित रुधिर के दृष्टिगत होने पर होती है। सौरभ कालिया के साथ अमानवीय और बर्बर व्यवहार करने वाले अगर कमांडर अभिनन्दन को बिना शर्त ससम्मान रिहा करते हैं तो यह शत्रु की भलमनसाहत से ज्यादा उनकी विवशता परिलक्षित करती है। पापी मनुष्य अगर ईश्वर को याद करने लगे तो उसके सद्पुरुष बनने की जगह उसके भयाक्रांत होने की आशंका ज्यादा होती है। मसूद अजहर की मृत्यु आपको असामयिक लग सकती है तो हो सकता है कि वर्तमान समय और कालक्रम के कई पहले आपकी दृष्टि के छूट गए हैं। आँखें खोलिये, शत्रु के हताहत होने के प्रमाण आपको दिखने लगेंगे।
रही बात तस्वीरों की और डिजिटल प्रमाणों की, एक बात का स्मरण रखिये कि चोट मारना कूटनीति नहीं है, कूटनीति है सही समय पर चोट करना। राजनीति और कूटनीति में ताश के खेल की तरह अपने पत्ते तब खोले जाते हैं जब सामने वाला अपने सारे पत्ते खोल चुका हो। कभी कभी अपने कमजोर पत्तों को भी छुपा कर विरोधी के मजबूत पत्तों के किले को एक हड़बड़ाहट का भाव पैदा कर ढहाया जाता है। क्या कारण है कि धोनी खेल को अधिकतर आखिरी ओवरों तक ले जाता है। ताकि मानसिक दवाब से विरोधी भूल करे और उसका लाभ आखिरी वार करने की योजना में मिले। जो लड़ाकू विमान रात्रि के अंधेरे में वार कर सकते हैं, उसमें एक तस्वीर लेने की तकनीक तो होगी ही। आखिरी वार आखिरी ओवर में किया जाता है और किया भी जाएगा। आखिरी गेंद पर लगा हुआ छक्का सिर्फ खेल में नहीं बाकी विरोधी की मानसिकता पर भी विजय दिलाता है। आखिरी ओवरों का इंतज़ार करिये, आपकी जीत का रोमांच और विरोधियों का रुदन दोनों ही ज्यादा होंगे।
Wednesday, February 27, 2019
शेर बच्चे और मूंगफली
जब शेर पिंजड़े में होता है तो बच्चे भी सेल्फी खिंचवाने के लिए उसको मूंगफली मार कर जगाते हैं। और उनके अभिभावक भी बच्चों को मूंगफली खरीद खरीद कर देते हैं। एक बार पिंजड़ा खुल जाए तो न बच्चे दिखते हैं, न उनके अभिभावक और न मूँगफली बेचने वाले। दिखाई देता है सिर्फ शेर।
अगली बार बच्चे मूंगफली लेकर शेर को मारते दिखें तो समझ जाइये कि बच्चे, उनके माँ बाप और मूंगफली बेचने वाले खोमचे वाले तीनों आश्वस्त हो गए हैं कि पिंजड़ा बंद है। कायरों की जमात तब तक ही शोर मचाती है जब तक शेर खुला नहीं होता।
मैं भी किस माहौल में शेर , बच्चों और मूंगफली की बातें लेकर बैठ गया। चलो बताओ। पत्थर बाजी की खबर नहीं सुनी कई दिनों से। पत्थर खत्म हो गए या पत्थरबाज ??
Thursday, February 7, 2019
सुख में क्लांति का भाव
स्वर्ग में आसीन देव और पुण्यात्माओं का जीवन कैसा होता होगा। जैसा कि हमारे ग्रंथों में वर्णित है अगर वही परिभाषा स्वर्ग की ली जाय तो स्वर्ग ने निवासी सुरा की सतत प्रवाही नदी के तीर पर बैठे कल्पतरु से प्रवाहित सुरभित हवा से बल खाते चिर यौवना अप्सराओं के केशराशि को बल कहते देखते होंगे। चारों ओर शांति, समृद्धि और सुख का साम्राज्य। कल की कोई चिंता नही, जीविका के प्रबंध की कोई आवश्यकता नहीं और जरा , क्षुधा और व्यथा का कोई अस्तित्व नहीं। इस सुखमय किन्तु एकरसता भरे जीवन को कोई कितनी देर जी सकता है। शायद स्वर्गीय वासियों की जीवन में क्लांति के सिवा कोई और रस न होगा। स्वर्ग के निवासी भी अपने जीवन से उदास होंगे। अगर स्वर्ग पूर्वजीवन की कोई स्मृति ना हो , जैसा कि कदाचित संभव है तो मानव स्वर्गारोहण के पश्चात भी क्लांति और विरक्ति का ही अनुभव करता होगा। देवगणों की बात ही क्या? उन्होंने तो और कुछ देखा ही नही । मर्त्य लोक और पाताल लोक की हृदयविदारक कथाएँ सुन सुनके साहस भी न होता होगा कि कभी पाताल लोक और मर्त्यलोक के स्वप्नदर्शन भी हों। अर्थात देवगणों का जीवन भी एकरसता का वह सरोवर है जिसमें उत्साह की लहर शायद की कभी दृष्टिगोचर होती हो।
इतनी लंबी भूमिका शायद एक ओर इंगित करती है कि चाहे कितना भी सुख हो कुछ समय पश्चात वो सामान्य और उसके पश्चात उबाऊ हो जाता है। स्वर्ग तक आपको सामान्य लगने लगता है और आपको झंकृत नहीं करता। शायद दुख का भी वही हाल है। अंग्रेजी फ़िल्म दी शॉशंक रिडेम्पशन में रेड का चरित्र शायद इसी प्रक्रिया को इंस्टीच्यूसनलाएजेसन कहता है। प्रातः काल में सुबह उठना, जलपान करना, भोजन से स्फूर्त दैनिक कार्यों का निष्पादन और उसके पश्चात निशा काल में थक कर निद्रा के आगोश में सो जाना कितना सामान्य से प्रतीत होता है। इतना सामान्य कि इस लोग कह उठते हैं सुबह उठना, दिन भर काम करना और रात में सो जाना , यह भी कोई जीवन है। वृद्धावस्था अथवा स्वास्थ्य हानि के बाद मनुष्य इसी सामान्य जीवन की पुनः प्राप्ति के लिये अपना सर्वस्व देने को क्षणभर में उत्सुक हो जाता है।
शायद इसलिए दुखद क्षणों और इतिहास के काले अध्याय के भी स्मारक बनाये जाते हैं।अंडमान की सेलुलर जेल को देख कर ही अपने सामान्य सी दिख रही स्वतंत्रता का अहसास होता है। देश में तीन स्तरों पर पांच वर्षों के अंतराल पर चुनाव होते हैं और परिणामों के अनुसार सत्ता का हस्तांतरण हो जाता है। अगर यह बात आपको सामान्य लगती है तो कदाचित आप दुनिया के अस्सी प्रतिशत देशों के राजनीतिक परिदृश्य से अवगत नहीं हैं। अपने पड़ोस में ही देख लें, अपना सामान्य आपको अतिविशिष्ट लगने लगेगा।
अच्छे समय की बुरी बात यह होती है कि वह अपने गले में तख्ती टांगे नहीं घूमता कि अभी अच्छा समय चल रहा है। अच्छा समय एक संदर्भ और परिपेक्ष्य की अवधारणा है। उस अवधारणा के बिना स्वर्ग जैसा समय भी एकरसता पूर्ण प्रतीत हो आपको क्लांत कर डालता है। बिहार के एक गांव से नब्बे के दशक के उत्तरार्ध में निकल कर जब मैं पहली बार दिल्ली आया तो एक शब्द सुना 'लोड शेडिंग'। बसों में लोगों को बात करते सुना कि आजकल चार चार घंटे लोड शेडिंग हो रही है। पता चला कि लोग इस बात से परेशान हैं कि दिन भर में चार घंटे बिजली नहीं रहती। मैं विस्मित हो गया। लोग इस बात पर नाराज़ हैं कि सिर्फ बीस बिजली
रहती है और मेरे गाँव में दो घंटे भी बिजली नहीं रहती। फिर शहर आकर अब मेरा यह हाल है कि आधे घंटे भी बिजली चली जाए तो लोकतंत्र , समाजवाद, कल्याणकारी राज्य और मानवता सब से मेरा विश्वास उठने से लग जाता है। फिर मैं आँख बंद कर अपने मूल की तरफ लौटता हूँ और फिर से मानवीय विकास और देश की संभावनाएं मेरे सामने दीप्त हो प्रकाशपुंज हो जाती हैं।
अगर आप वर्तमान स्थितियों से क्षुब्ध हैं तो मूल्यांकन करें कि आप का क्षोभ का कारण वास्तविक परिस्थिति है या आपकी बढ़ी हुई आकांक्षाएं। अगर स्थितियां उत्तरोत्तर सुधारोन्मुख हैं तो आपका धैर्य वांछित है। जीवन में विकास की अपनी गति है जो मानवीय इच्छाओं की गति से सदैव मंथर है। इस सत्य को मान कर किया गया मूल्यांकन आपको न केवल सही निर्णय लेने में मदद करेगा बल्कि आप अपने योगदान से सतत सुधार की प्रक्रिया का हिस्सा बन पलायनवादी और नकारात्मक शक्तियों का सामना भी कर पाएंगे।
Tuesday, January 29, 2019
क्षुधा और अस्थि
क्षुधा से त्रस्त पशु एक सूखी अस्थि को भी भोजन मान बैठता है। वही सूखी हड्डी पशु के लालायित जिह्वा और मुख को घायल कर डालती है। घायल मुख से रिसता रक्त पशु को हड्डी से आता प्रतीत पड़ता है। अपने ही रक्त को भोजन मान और अपनी सिद्धि समझ पशु अस्थि के टुकड़े पर और जोर से जिह्वा के प्रहार करने लगता है। और प्रहार और ज्यादा रक्त प्रवाह ,पशु उत्तरोत्तर हड्डी को अपने जीवन का सर्वश्रेष्ठ भोजन समझ लेता है। जबकि सत्य यह है कि सूखी अस्थि उसके स्वयं के विनाश का कारण है। जब तक पशु उस अस्थि का लोभ नही त्यागता, न वो असली भोजन की तलाश में जाता है और ना ही वास्तविक पोषण प्राप्त कर पाता है। यह अलग बात है कि उस हड्डी पर कभी मांस लगा हुआ था जिसे खाकर किसी पशु की क्षुधा मिटी होगी, लेकिन इतिहास कुछ भी रहा हो, इसका वर्तमान की इस वास्तविक स्थिति पर कोई प्रभाव नहीं होता।
पशु को अगर सद्बुध्दि आ जाये तो वो उस हड्डी को समय रहते छोड़ डालता है और इसी से उसके प्राण बचते हैं। अन्यथा अपना ही रक्त पीकर कोई कब तक जिया है।
सौन्दर्यजनित भाव
प्रेम का आधार सौंदर्य है। सौंदर्य की उर्वर भूमि से ही पोषण पा प्रेम की बेल लहलहाती है। सौंदर्य वह है जो आपको बिना कुछ दिए ही आपको वशीभूत कर ले। सौंदर्य का गुण बाकी सारे अवगुणों पर एक अपारगम्य अपारदर्शक आवरण का कार्य करता है। सौंदर्य एक सार्वभौमिक भाव नहीं है, यह पूरी तरह से वैयक्तिक भाव है। हर एक व्यक्ति के लिए सौंदर्य की अवधारणा और सौंन्दर्य का आधार अलग होगा। सौंदर्य और तर्क का मेल शायद ही होता है। तर्क के जोड़ घटाव से सौंदर्य की माया परे है। तर्क की सीमा जहाँ समाप्त होती है, सौंदर्य की परिसीमा का आरंभ वहीं से होता है। यही वह सौंदर्य है जिस के कारण एक श्याम वर्ण का चरवाहा गोपियों की हृदय में श्रीकृष्ण बन स्थापित होता है। यह सौन्दर्य ही है जो एक अन्वेषक के मन में शहर की सुख सुविधा छोड़ कर अमेज़न की घने वर्षावनों में सहर्ष जीवन व्यतीत करने की अभिलाषा उत्पन्न करता है। सौंदर्य आपको मोह पाश में स्वस्फूर्त बंधने को विवश करता है। यह मनोज सौंदर्य आपको निशस्त्र कर डालता है। आपकी सारी चपलता और चातुर्य धरी की धरी रह जाती है और आपकी समस्त मानसिक शक्तियों पर सौंदर्य का ही आधिपत्य सा हो जाता है।
सौंदर्य का एक दूसरा पक्ष भी है। सौंदर्य की विषयवस्तु को अपने सौंदर्य का ज्ञान और इस सौंदर्य जनित प्रेम के वशीभूत दूसरे प्राणी की अवस्था का अहसास शायद ही होता है। दो व्यक्तियों या वस्तुओं में एक दूसरे में सौंदर्य एक समान दृष्टिगोचर हो संभव नहीं है। अगर सौंदर्य की भाव असमान है तो सौन्दर्य जनित अन्य भाव जैसे प्रेम , मोह और आकर्षण असमान ही होगा। यह भी संभव है कि आपके आकर्षण के केन्द्रबिन्दु को आपके हृदय में सौन्दर्यजनित भाव का न ही पता हो न कोई खास मोल। जैसा कि पहले की कहा गया है कि सौंदर्य तर्क की सीमा से परे है। अपने सौन्दर्य पूरित प्रियवस्तु से बदले में कुछ पाने की लालसा वेदना का कारण बनती है। सौंदर्य की लौ जब तक निराशा के तम का विनाश कर आपमें उत्साह और जीवन ऊर्जा का संचार करे वांछनीय है। यही लौ जब हृदय में कुछ पाने की लिप्सा बन सुलगती है तो विरह का ताप बन जाती है। राम का सौंदर्य आपको सुख दे सकता है अगर आप शबरी हैं। शूर्पणखा भांति अपने सौंदर्य के केंद्र पर अधिकार की चेष्टा अपने दुःख को आमंत्रण देना है।
सौंदर्य आपके मन जनित है, इसे विश्व की वास्तविकता न समझिए। वरना वास्तविकता का पिघला लावा सौंदर्य के कोमल तंतुओं को भस्मीभूत कर डालता है।
Wednesday, January 9, 2019
गरीब रथ जैसे शब्द ना बनाइये
साब। अगर बिरियानी है तो वेज बिरियानी कह कर वेज और बिरियानी दोनों का मज़ाक मत बनाइये। रथ है तो सिर्फ रथ कहिये , गरीब रथ जैसे शब्द ना बनाइये। अगर कोई भाई साब लेफ्टिस्ट हैं तो फिर लेफ्टिस्ट शब्द को लिबरल प्रत्यय का जामा न पहनाइए। आतंकवाद को आतंकवाद ही रहने दीजिए, साथ में अच्छा और बुरा शब्द न लगाइये। रामभक्ति को भक्ति ही रहने दीजिये , उसके साथ दक्षिणपंथ का विशेषण न लगाइये। आप पत्रकार हैं तो पत्रकार ही रहिये, उसके साथ तटस्थ शब्द लगा अपनी सीरत ना छुपाइये । सदियों से जो सनातनी हिन्दू रहा है उसको सेकुलर हिन्दू ना बनाइये।
बातें तो बहुत हैं लेकिन एक बात और।
गरीब है तो गरीब ही कहिये ,उसे सवर्ण गरीब और अगड़ा गरीब कह कर जख़्मों को लवण का लेप ना लगाइये।