नेता होना एक रोजगार/व्यवसाय/कार्य है। नेतागिरी एक चारित्रिक गुण है। नेतागिरी वाले नेता हों आवश्यक नहीं, नेता नेतागिरी करें बिल्कुल भी आवश्यक नहीं। छुटभैये अपने नेता के नाम पर नेतागिरी करते हैं, और नेता बनना चाहते हैं ताकि जीवन भर नेतागिरी न करना पड़े। नेता एक पड़ाव है और नेतागिरी उसकी दुर्गम यात्रा। गाँव शहर क़स्बों में जीवन भर नेतागिरी करने वाले एक लाखों अनजान चेहरे चुनाव के समय दिखते हैं। मीडिया नेता की रैली दिखाता है, गरीब के घर खाना खाते दिखाता है, और नहीं दिखाता नेपथ्य में खड़ा वह चेहरा जिसके कंधों पर नेता खड़ा होकर ऊंचा दिखता है। नेता की हर सही बात का प्रचार और गलत काम का बचाव करने वाला और गुमनामी का जीवन जीने वाला वह छुटभैया आपको स्वार्थ और निस्वार्थ के बीच पतली सी कतार के दोनों तरफ पाँव रखे अपने नेता के भार को कंधो पर उठाये चलता है। उसके घर में नेता के साथ दूसरे बीस पचीसों लोगों के साथ ले गई एक तस्वीर होती है जिसे वो अपने ड्राइंग रूम में फ्रेम करवा कर सबको दिखाता है। उसका कर्म और उसकी नियति सब उस नेता से जुड़ी होती है जिसे शायद उसका पूरा नाम तक नहीं पता । नेता उससे उसके नाम से बुला ले तो वो धन्य हो उठता है। जोश दुगुना हो जाता है। विचारधारा निर्गुण भक्ति जैसे है, सबके समझ नहीं आती। नेतागिरी सगुण भक्ति है, आम लोगों के लिए है। नेता के पीछे खड़ी भीड़ नेतागिरी वाली भीड़ ज्यादा है विचारधारा वाली कम। नेता अपनी विचारधारा बदल भी ले तो नेतागिरी वाले छुटभैये को कोई फर्क नहीं पड़ता। उसकी आहारनाल विचारधारा का रक्त प्रवाहित नहीं करती, बल्कि पूर्ण समर्पण और विश्वासपात्र बने रहने की दवा उसकी धमनियों में पहुँचाती है। यही वो दवा है जो तब असर दिखाती है जब नेता के बदले उसके बेटे, बहू यहाँ तक कि उसकी रखैल तक को अपने कंधे पर उठा वह छुटभैया वही सम्मान और पद देता है जिसकी आशा उसके अपने जीवन में सदा के लिये बुझ चुकी है। नेताजी के कंधों पर पड़ा वो रेशम का साफा इन्ही सैकड़ों कीड़ों के लार तंतु से बना होता है। छुटभैये जो करते हैं वो नेतागिरी राजनीति का वह शोषण यंत्र है जिसके पाश में बंध बिरला ही कोई बड़ा होता है। नेतागिरी ही वह आग का दरिया है जिसमें डूब कर जाना होता है। छुटभैये की चर्बी से जलने वाले दीप राजनीतिक दलों के दफ़्तरों की रोशनी करते हैं और उनकी उनकी अस्थियों से ही रैली का वह ऊंचा सा मचान खड़ा होता है।
जनता नेता का नाम जपती है और छुटभैये तिरस्कार ही पाते हैं। जीवन ऐसा ही है उनका। लोकतंत्र के इस महापर्व की फ़िल्म में छुटभैये वो एक्स्ट्रा कलाकार और स्पॉट बॉय हैं जो आवश्यक हैं , महत्वपूर्ण नहीं। फ़िल्म खत्म होने के बाद पर्दे पर उभरते सैकड़ों नामों में शायद उनका भी नाम होता हो, लेकिन उसे पढता कौन है। आप भले न पढ़ें, फ़िल्म बनी है तो उसके बल पर ही। अगली बार नेता जी की रैली दिखें तो गौर से देखिएगा नेतागिरी वाले भी आपको दिख जाएंगे। चुनाव के इस मौसम में आँखें खुली रखिये, और हृदय कोमल। शायद इन गुमनाम चेहरों पर लिखी जीवन के हज़ारों दस्तावेज़ आप पढ़ पाएंगे। रैली के शोर और चुनाव के नगाड़ों के बीच यह मूक स्वर आपको नम्र बना देगा।
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