Friday, December 20, 2019

सरकार को झुकाना है

हां सरकार झुकती है। लोकतंत्र में जनता ही सर्वोपरि है। जनता चाहे तो बार बड़े तख्त को झुकना पड़ता है। लेकिन सरकार को झुकाने के लिए तर्कपूर्ण वादविवाद होना चाहिए ना कि लोगों को बहला फुसला कर आगजनी कराके। सरकार और जनता को इमोस्नली ब्लैकमेल करके अगर तथाकथित जीत मिल भी गई तो भी आगे चल कर ऐसी शिकस्त मिलेगी जिसको बताना कठिन है। सरकार तो झुक जाएगी, नुकसान किसका होगा?

‌आज से बीस साल पहले भी ऐसा वक़्त आया था। दिसंबर 1999। कंधार में हमारे ic 814को अगवा करके के के जाया गया था। उन्होंने हमारे नागरिकों को बचाने के लिए मसूद अजहर और अन्य आतंकियों को छोड़ने की मांग की। उस समय यही मीडिया थी जिसने  उनके अपहृत नागरिकों के परिवारों को के जाकर 7 रेसकोर्स रोड पर बिठा दिया था। उनके आंसू दिखा दिखा कर ऐसा माहौल बनाया कि सरकार कितनी निर्दय है जो अपने नागरिकों की जान की परवाह नहीं कर रही।  सरकार झुक गई। छोड़ दिया मसूद अजहर को। आगे क्या हुआ? उसी मसूद अजहर ने संसद पर हमला किया, मुंबई को दहला डाला। सरकार नहीं हारी, हार गया देश।



‌ सड़क पर हजार कंकड़ हों, आज जूते पहन कर आराम से चल सकते हैं। लेकिन एक कंकड़ अगर आपके जूते के अंदर चला जाए तो आप एक कदम भी नहीं चल सकते। बाहरी खतरों से कहीं ज्यादा खतरनाक है अंदरूनी कमजोरी। अपनी तात्कालिक जीत आगे चल कर कितनी महती हार सिद्ध होती है, कंधार प्रकरण उसका जीवंत उदाहरण है। सिर्फ मसूद नहीं छूटा, टूट गया यह भरम भी भारत सख्त कदम उठा सकता है और पागल कुत्तों के सामने समर्पण नहीं करता है।

‌एक राष्ट्र की परिभाषा के चार तत्वों में शामिल है जनसंख्या, भूभाग, संप्रभुता और सरकार। पहली ही शर्त है जनसंख्या। संविधान की प्रस्तावना आरंभ ही होती है, हम भारत के लोग से। क्या राष्ट्र को इतना अधिकार नहीं कि वह अपने लोगों की पहचान तक कर सके?  इस आंदोलन के दौरान एसी आवाज़ें उठी है कि हम अपने राज्य में नागरिकता अधिनियम लागू नहीं करेंगे, संयुक्त राष्ट्र से दखलंदाज़ी तक की बात हो चुकी है। यह देश की संप्रभुता पर हमला है। आइडिया ऑफ इंडिया के नाम पर इंडिया को ही तार तार किया जा रहा है। एनआरसी आ गया तो मेरी विधवा दादी का क्या होगा, मेरे जुम्मन चचा की खाला कहां से कागज दिखाएगी? ऐसे तर्क सुन कर 1999 फिर से याद आ जाता है। भाई जो सरकार, जो देश आपको मुफ्त शिक्षा, मुफ्त निवास, मुफ्त उपचार, मुफ्त भोजन दे रही है, उससे इतनी तो मानवता की आशा तो रखो कि उन सभी मानवों का खयाल रखा गया है और रखा जाएगा। 10 लोगों के आंसू दिखा कर पूरी मुंबई को हम पहले ही रुला चुके हैं। पिछली बार तो सिर्फ एक मसूद छोड़ा था, नागरिकता कानून सख्त नहीं बनाया तो इतने मसूद घर घुस आएंगे कि आंसू तक सूख जाएंगे। नागरिकों की पहचान ना कर पाने की अक्षमता को हम अपनी दयालुता और मानवता का नाम नहीं दे सकते।

‌वैसे आप चाहे मुझे निराशावादी कह लें अपनी जनता पर भरोसा मुझे कम ही है। अपना ही खून चाट कर जनता अपना प्यास बुझाने का स्वांग भरती है। नागरिकता कानून तो बहुत बड़ी बात है। हमारे यहां प्याज महंगा हो जाए तो हम सरकार गिरा देते हैं। भाई महाराष्ट्र में इस बार बारिश बहुत ज्यादा हुई, प्याज की फसल औसत से कम हुई। प्याज तो महंगा हो गा ही। हमारे पुरखों ने यथेष्ठ संख्या में कोल्ड स्टोरेज नहीं बनाए जिसमें हम प्याज रख सकें। लेकिन हमें क्या? हमें प्याज चाहिए। चाहे सरकार को जाकर तुर्की के सामने हाथ फैलाना पड़े कि हमें प्याज दे दो। उसी तुर्की के सामने जिसे दुनिया के सामने कश्मीर मुद्दे पर हमारा विरोध करने पर हमने फटकार लगाई थी।

‌ 1965 की लड़ाई के समय देश में अनाज की कमी थी। शास्त्री जी ने देश से एक शाम का खाना नहीं खाने को कहा, तो क्या हमने जाकर उनके कार्यालय के समक्ष प्रदर्शन किया? अगर हमने उस समय ऐसा किया होता तो सरकार झुक जाती। पक्का झुक जाती और कहीं से मांग कर अनाज भी ले आती। क्या यह जनता की जीत होती या राष्ट्र की हार? विचार करके देखें।

‌संविधान की दुहाई देने से पहले और हाथ में मोमबत्ती लेकर "हम भारत के लोग" का समवेत वाचन करने से पहले "भारत के लोग " बनने का कर्त्तव्य तो निभाएं। घर का लड़का पानी टंकी पर चढ़ कर जिद करे कि मैं तो अपनी बकरी से विवाह करूंगा और अगर मना किया तो कूद कर जान दे दूंगा। और उसके घर वाले मान जाएं, तो जीत लड़के की हुई या नहीं। इस प्रश्न का उत्तर में मन सोच लें और निकल पड़ें सड़कों पर जनतंत्र बचाने और सरकार को झुकाने को।

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