बच्चों के रोने की आवाज़ें आ रही थी। भूखे प्यासे बच्चों के करुण क्रंदन का अनहद आलाप एक त्रासद वातावरण बना रहा था। लेकिन उस निर्दयी को उसका क्या फर्क पड़ता!! उस तो आग लगाने की पड़ी थी। जिस कमरे से बच्चों के रोने की आवाज़ आ रही थी, उसी के पास वाले कमरे में उसने माचिस निकाली। आग लगाने ही वाली थी, कि कुछ सहसा याद आया और एक पल के लिए वह रुक गई। कुछ सोच कर पास पड़े एक बड़े से चाकू को उठाया। ना इतने बड़े चाकू की जरूरत नहीं है। चाकू छोटा हो और उसकी धार तेज हो तो काम जल्दी हो जाएगा। बच्चों के रोने के आवाज़ें उसको परेशान कर रही थी। इनका कुछ करना पडेगा, यही सोच कर उसने तेज धार वाला एक चाकू निकाला। हां ये वाला ठीक रहेगा। बच्चों को शांत कराना जरूरी था , उसका बाकी काम आसानी से हो उसके लिए जरूरी था कि बच्चों को शोर बंद हो। उसने माचिस निकाली, आग लगाने से पहले फिर रुकी। तेल भी चाहिए, सिर्फ आग लगाने से क्या होगा? तेल का कनस्तर देखा। हां इतने तेल में हो जाएगा, छोटे छोटे बच्चे ही तो हैं, कितना तेल लगेगा। फिर उसने माचिस निकाली और आग लगा दी। बच्चों का स्वर और भी आर्द्र हो उठा। मम्मी मम्मी की आवाज़ गली में गूंज रही थी। कुछ देर तक यह स्वर गूंजता रहा। फिर शायद बच्चे थक गए। आवाज़ आनी बंद हो गई। बाहर अंधेरा और कोहरा और भी घना हो चुका था। घर के बाहर गली से अब आग दिखनी भी बंद हो चुकी थी। बच्चे शांत हो चुके थे। शायद सुला दिए गए थे। लेकिन यह आग फिर नहीं लगेगी इसकी क्या गारंटी है। यह आग कल फिर लगेगी, शायद किसी और घर में। बच्चों का शोर फिर होगा, आग फिर लगेगी और उनकी आवाज़ बंद करा दी जाएगी। उनको फिर सुला दिया जाएगा। सवाल यह नहीं है कि आग क्यूं लगाई जा रही है, सवाल यह है कि आप चुप क्यूं है! सवाल यह नहीं है कि बच्चे आवाज़ क्यूं उठा रहे थे, सवाल यह है कि क्या उनकी आवाज़ बंद करने का यह तरीका सही है। सवाल यह नहीं है कि आग क्यूं लगी, सवाल यह है कि आग लगाने वाले वह थे जो घर के ही थे, और बच्चों की रखवाली की जिम्मेदारी उनपर थी। सवाल आपके सरोकारों से है , सवाल आपकी चुप्पी से है, सवाल आपकी चुप्पी वाली नपुंसक तटस्थता से है। सवाल आपसे है।
कैसा लगा उपर का आलेख पढ़ कर? गुस्से में भर गए? कुछ ना कर पाने की विवशता से आत्मग्लानि से भर गए? इस समाज का कुछ नहीं हो सकता यह सोच कर विचारमग्न हो गए? या सड़क पर उतर कर क्रांति करने की सोच रहे हैं?
वास्तव में ऊपर का प्रसंग सिर्फ इतना है कि बच्चे भूख से रो रहे थे, और मां ने रसोई में जाकर चूल्हा जलाया और खाना बना कर बच्चों को खिलाया। फिर बच्चों का रोना बंद हुआ और फिर नर्म नर्म लिहाफ में वे पेट में मां के हाथ का सुस्वादु खाना और आंखों में ढेर सारे सपने लेकर सो गए। हां चूल्हा कब सुबह फिर जलेगा, बच्चे फिर रोएंगे और फिर बच्चे खाना खाकर सो जायेंगे।
साहित्य , मीडिया या कोई भी विचार संप्रेषण निहित लक्ष्यों से परे नहीं है। मासूम से मासूम घटना को ऐसे प्रस्तुत किया जा सकता है मानो प्रलय आ चुका है। और प्रलय बरपा देने वालों को ऐसे प्रस्तुत किया जा सकता है मानो कोई देवदूत हों। AK 47 लहराने वाले गरीब हेडमास्टर के बेटे बना दिए जा सकते हैं, और बच्चों का खाना बनाने वाली मां को जल्लाद बना दिया जा सकता है। कोई क्या कह रहा है यह महत्वपूर्ण है लेकिन उससे भी महत्वपूर्ण है कि वह ऐसा क्यूं कह रहा है, अभी ही क्यूं कह रहा है, और कहने का निहित उद्देश्य क्या है? किसी भी बात पर उद्वेलित होने और उसको ब्रह्मसत्य मान लेने से पहले इतनी पड़ताल तो बनती है। सत्यमेव जयते तो सही है लेकिन सत्य क्या है वह जानना उसकी पूर्व शर्त है। सत्य का अन्वेषण करना होता है, जो इतनी आसानी से सतही तौर पर दिखे कदाचित वह सत्य नहीं है। सत्य कहीं नीचे छुपा है, स्वार्थ के धागों से बुने गए शब्दजाल के भीतर। उसको पाने का प्रयास करें, फिर अपनी विचारधारा बनाएं या बदले। बाकी इन्कलाब जिंदाबाद और फासीवाद हाय हाय के नारे लगाने में मज़ा तो आता है, लेकिन अगर फासीवाद का मतलब भी समझ जाएं तो मज़ा ज्यादा हो जाए। किसी के कहने से फासीवाद नहीं आ जाता और किसी के कहने से रामराज्य नहीं आ जाता। हां मीडिया आपको इसका झूठा अहसास जरूर करवा सकता है। सतर्क रहने में कोई हानि नहीं है।
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