Monday, March 7, 2022

मां फलेषु कदाचन !!

पिछली बार जब मैंने टिकोले के बारे में लिखा तो कई दोस्तों ने कहा कि उनको बचपन की यादें आ गई। फिर मैंने सोचा कि बचपन में टिकोले खाए तो थे लेकिन मेरा बचपन इतना भी एकरंगा नहीं था कि उसमें केवल टिकोले का हरा रंग बिखरा हो। हमारा बचपन तो मानो एक मल्टी स्टारर फिल्म था जिसमें तरह तरह के फल थे, आम का टिकोला तो उस मल्टी स्टारर फिल्म में प्रमुख भूमिका में था बस।बाकी फलों का जिक्र नहीं करना हमारे बचपन में उनके योगदान को नकार देना होगा। तो चलिए इस फिल्म के बाकी किरदारों से मिलते हैं।

 बात आम से शुरू हुई थी तो आम के बागों में ही आम के सीजन से थोड़ा पहले एक फल मिलता है जामुन। आम बगीचों की मेड़ पर जामुन के पेड़ मिलते हैं। आम के पेड़ की जहां खाद पानी स्प्रे से खूब आवभगत होती रहती है, जामुन का पेड़ किसी प्राइवेट स्कूल के दरवाजे पर खड़ा गरीब बच्चे की तरह अंदर अमीरों के बच्चों की आवभगत देखता रहता है। शायद ही कभी आम के पेड़ों जैसी आवभगत जामुन के पेड़ की होती है। लेकिन पेड़ों के बीच में यह भेदभाव बड़े भले ही करें, हम बच्चों का प्यार उतना ही जामुन के लिए था जितना टिकोले के लिए। जामुन का पेड़ होता है बड़ा तुनक मिजाजी। कब उसकी टहनी टूट जाय कोई नहीं जानता। अपने फलों के जैसे हल्के बच्चों को जामुन उठा सकता है अपनी टहनी पर, लेकिन जैसे ही कोई बड़ा आदमी जामुन के पेड़ पर चढ़ा, पेड़ उसको कब सीधा नीचे उतार दे कोई कह नहीं सकता। इसीलिए बड़े हमेशा कहते कि जामुन के पेड़ पर भूत रहते हैं, इसपर मत चढ़ना। लेकिन अब लगता है कि जामुन का पेड़ मानों बड़ों से अपने साथ किए गए भेदभाव का बदला लेता है।

जामुन के पेड़ पर चढ़ना भले खतरा हो लेकिन कम से कम उस पर चढ़ा जा सकता है। एक दूसरा फल है जिसके पेड़ पर चढ़ना लगभग असंभव ही है। वर्तुल आकार में लाल होते आधे बंद आधे खुले छिलके और अंदर से झांकती सफेद मलाई जैसे फल और उसके बीच कहीं दुबका छुपा बैठा उसका काला बीज। इसको जलेबी का फल कहते हैं। यकीन मानिए, दूर उत्तुंग टहनी पर लटके जाल पकी जिलेबी और उसको तोड़ने की कोशिश में लगे बच्चों का झुंड जब आप देखेंगे तो मान लेंगे कि, You can't buy it, you have to earn it वाली कहावत को जलेबी का फल ही चरितार्थ करता है सच्चे मायनो में। बांस की बल्लियां और उसके पतले सिरे पर एक छोटी टहनी बांध कर जलेबी तोड़ने का हथियार बनाया जाता है। एक एक फल तोड़ने में मेहनत लगती है। मेहनत का फल मीठा होता है , इस मुहावरे को पेड़ से जलेबी तोड़ कर खाने वाले बच्चों से बेहतर शायद ही कोई समझ सकता है।

लेकिन फल मीठा ही हो कोई जरूरी नहीं। तूत को ही लीजिए। काले लाल रंग का इल्लियों जैसा दिखने वाला फल। मीठा होने का नैतिक भार आम ने भले ले रखा हो, तूत अपने आप को इन दायित्वों के भार से मुक्त रखता है। उसकी मर्जी हुई तो खट्टा हुआ , मर्जी हुई तो मीठा, मर्जी हुई तो खट मीठा। हम बच्चे भी तूत खाकर कभी शिकायत नहीं करते। जो मिल गया उसी को मुकद्दर समझ लिया वाला दार्शनिक भाव हमें तूत खाकर ही मिलता था। आम के भले ही बागान हों, जामुन के बड़े बड़े पेड़ हों, जलेबी भी सड़कों के किनारे बहुतायत में मिल जाय, लेकिन तूत हमेशा दुर्लभ रहेगी। गांव में मुश्किल से तीन चार पेड़ हों तो बहुत है। इसलिए तूत की तूती हमेशा बोलती थी। हजारों तारों के बीच अकेला ध्रुव तारे की तरह अलग पहचान रखता है तूत।

एक और फल जिसका मोल इतना ज्यादा है कि भगवान राम भी जिसपर मोहित हो गए । अयोध्या का सिंहासन ठुकरा देने वाले राम इस फल को नहीं ठुकरा पाए। और तो और वो भी जूठे। बेर वो नहीं जो आजकल बाजार में मिलते है सेव के आकार के। असली बेर होते हैं छोटे। गोल से बीज के ऊपर गूदे की एक पतली सी परत होती है। बेर का असली आनंद उसी जंगली बेर में आता है। इसलिए माता शबरी ने जंगल के सभी फल छोड़ कर अपने आराध्य को यही फल खिलाया था। हम बच्चों का भी पसंदीदा यह बेर ही था। एक पेड़ सौ बच्चों को हफ्तों तक अपने फल खिला सकता है।आप एक दिन में सारे आम तोड़ सकते हैं,जामुन भी सारी तोड़ ली जाती है, किसी की मजाल कि एक पेड़ से सारे बेर तोड़ कर दिखा दे। कुबेर का अक्षय भंडार है जैसे बेर के पास। दूसरे फलों के ना मिलने की निराशा हम बेर खा कर ही दूर करते थे । बेर हमारा वो फ्रेंड जोन वाला दोस्त था जिसके पास हम दूसरों के द्वारा दिल तोड़े जाने पर आते थे। फिर भी बेर ने हमें कभी दुत्कारा नहीं। उसके पास हमेशा हमारे लिए बेर का एकाध गुच्छा निकल ही आता। कभी कभी तो उसी टहनी से जिसे हमने एक दिन पहले ही पूरी तरह खाली कर दिया था। बेर का यह जादू बच्चों को हमेशा खुश कर जाता। 

चीनी यात्री ह्वेन सांग अपनी किताब में लिखते हैं कि भारत के लोगों के चेहरे में एक अलग सी चमक दिखती है, और उनकी बुद्धि अत्यंत प्रखर है। कारण के लिए अगर मैं चीन और यहां के बीच एक अंतर ढूंढू तो यह कि भारत के लोगों के आहार का एक बड़ा हिस्सा फल हैं। शायद हमारा बचपन इन फलों के साथ गुजरा जो हमारे लिए अनमोल हैं। अनमोल इस लिए भी क्योंकि हमने किसी के लिए पैसे नहीं चुकाए। ना बेर के ना जलेबी के , जामुन हमें बिना मांगे मिली और तूत का कोई क्या कीमत लगाए भला। मॉल में जाकर फ्रूट सैलेड खाने वाली पीढ़ी शायद यह अहसास कभी महसूस नहीं कर पाएगी और यह अहसास हमारी पीढ़ी के साथ ही चला जायेगा।

मां फलेषु कदाचन!!

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