Monday, September 28, 2020

' आयोडेक्स मलिए और काम पर चलिए ' की समस्याएं


टीवी पर दूरदर्शन चैनल चल रहा है। ड्राइंग रूम में पापा अपने बेटे और लाडली के साथ खेल रहे हैं। साथ में उनका पालतू शेरू भी खेल रहा है। सभी खुशी खुशी अपना वह समय व्यतीत कर रहे हैं जिसे आजकल क्वालिटी टाइम कहा जाता है। अचानक से आवाज़ आती है आह। बेटा दौड़ कर किचेन में जाता है तो देखता है कि आटे का भारी कनस्तर उतारते समय उसकी मां की कमर में मोच आ गई है। बेटा समझदार है। तुरंत मेज की दराज से आयोडेक्स की शीशी निकालता है। और अपनी मां को लेकर उसकी कमर पर मलहम का लेप लगाता है। मां का दर्द छू मंतर । नेपथ्य से आवाज़ आती है " आयोडेक्स मलिये काम पर चलिए"। विज्ञापन समाप्त होता है।

यह विज्ञापन दूरदर्शन के ज़माने की पीढ़ी की यादों का एक अमूल्य हिस्सा है। खास कर आयोडेक्स मलिये काम पर चलिए वाली लाइन तो जैसे नॉस्टेलजिया का हिस्सा है। नॉस्टेलजिया जिसके आइने में इतिहास हमेशा स्वर्णिम मादक और सरस दिखता है। नॉस्टेलजिया अतीत की  बुराइयां  ऐसे छुपा जाता है जैसे कॉलेज के दिनों में पहले सिगरेट की गंध चुइंगम छुपाता है। पर नॉस्टेलजिया हो या चुइंगम दोनो पूरी तरह सफल नहीं होते। अनुभवी मां सिगरेट की गंध जान लेती है वैसे ही अनुभवी मस्तिष्क भी नॉस्टेलजिया के आवरण को चीर वास्तविकता बाहर ले ही  आता  है। 

चलिए इस आयोडेक्स वाले विज्ञापन पर पड़े सुनहले अतीत के वर्क की परत को  उखाड़ते हैं। क्या है आयोडेक्स वाले विज्ञापन की समस्या?

इस विज्ञापन की समस्या चार स्तरों की है।

1. पहली : दर्द की पहचान या डियागोनैसिस गलत है। दर्द का कारण आटे का भारी बड़ा कनस्तर नहीं है।

2. दूसरा: चूंकि मर्ज के मूल की पहचान ही गलत है, इसीलिए उसका उपचार भी गलत किया जाता है।

3. तीसरा: अब जब उपचार ही गलत किया जाता है तो मर्ज या मरीज़ के बेहतर होने का दावा भी गलत  है। कोई दर्द छू मंतर नहीं होता बल्कि दर्द पहले की तरह मौजूद है। शायद उससे भी बड़े और विकराल रूप में | 

‌4. चौथा: विज्ञापन के अंत का 'काम पर चलिए' वाला  संदेश यद्यपि सही है लेकिन उसका अर्थ अलग तरीके से समझने की आवश्यकता है। 

‌पहली बात तो यह कि विज्ञापन में यह दिखाया गया है कि सिर्फ पुरुष ही ड्राइंग रूम में बच्चों के साथ क्वालिटी टाइम बिता सकते है । महिलाओं का क्वालिटी टाइम भी रसोई में खाना बनाने और घर का सारा काम करने में ही बीतता है। यह एक सामान्य  तस्वीर है कि बाप  या दादा बच्चों के साथ लुका छिपी खेल रहे हैं । मा और दादियों का स्थान किचन से बाहर शायद ही है। हां यही अगर खेलता  बच्चा अपनी पैंट गीली कर दे तो बाप का क्वालिटी टाइम वहीं रुक जाता है और बच्चे की साफ सफाई की जिम्मेदारी उसकी मा की हो जाती है। अब महिला की  कमर में दर्द का कारण सिर्फ एक आटे का कनस्तर नहीं हो सकता। ड्राइंग रूम में बैठी पूरी जमात और उसकी सोच ही दर्द का मूल कारण है। वह सोच जो मानती है कि घर का सारा काम घरवाली करेगी।
अब यह स्पष्ट हो जाता है कि चूंकि कमर दर्द एक बहुत बड़े दर्द का एक बाह्य लक्षण है ना कि मूल मर्ज, इसीलिए इस दर्द का उपचार भी एक आयोडेक्स की शीशी नहीं कर सकती।
‌इसलिए आयोडेक्स का विज्ञापन जब यह दिखाता है कि महिला का दर्द दूर हो गया है तो यह एक झूठ ही है , वही झूठ जो अंग्रेज़ी में false positive कहलाता है। महिला का दर्द  वैसे का वैसा बना हुआ है। बस उसके छोटे मोटे दर्द का इलाज कर दिया जाता है ताकि बड़ा दर्द सहने के लायक वह बनी रहे।
‌यह सारी बातें तब सही सिद्ध हो जाती हैं जब विज्ञापन का टैग लाइन आता है। महिला को कहा जाता है कि आपको आयोडेक्स लगा दिया गया है , अब आप वापस काम पर चलिए और बाकी लोग अपने ही घर में मेहमान बन कर अपना किरदार अदा करेंगे। 
‌अब आप सोचेंगे कि यह 25 साल बाद इस निरीह विज्ञापन की बखिया क्यों उधेड़ी जा रही है। वजह यह है कि लॉकडॉउन के दौरान घरेलू हिंसा की बढ़ती खबरों के मूल में भी यही ' काम पर चलिए ' वाली मानसिकता है। 




‌मैं अपने आप को आधुनिक मानदंडों पर नारीवादी नहीं समझता और आधुनिक नारीवाद के तरीकों पर मुझे कई आपत्तियां भी हैं। उसका कारण यह है कि आधुनिक नारीवाद  छिछली समस्याओं पर ज्यादा ध्यान देता है और मूल समस्याओं को सुलझाने में कम रूचि दिखाता है । सिगरेट का धुआं फूंकने को नारी मुक्ति ज्यादा समझता है ना कि रसोई के धुएं में कैद करोड़ों महिलाओं को मुक्ति दिलाने को अपना लक्ष्य बनाता है। 
वक़्त आ गया है कि आयोडेक्स मलने के बाद काम पर चलने का आदेश उनको मिलना चाहिए जिनको दर्द हुआ ही नहीं। ना कि मरीज़ को वापस  काम  पर चलने का हुक्म सुनाया जाना चाहिए। घर का काम घर पर रहने वाले हर व्यक्ति की जिम्मेदारी  है सिर्फ घरवाली की नहीं। यह बात अगर समझ में आ जाए तो मेज की दराज में पड़ी आयोडेक्स की उस बॉटल को निकालने की जरूरत शायद कभी ना  पड़े। 

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