Thursday, October 1, 2020

गांधी के मूल्यांकन की संकीर्ण दृष्टिगत अपंगता

1857 की क्रांति के बाद अंग्रेज़ एक बात समझ गए कि एक एकत्रित हिंदुस्तान पर शासन करने के कहीं आसान होगा एक टूटे और बिखरे हिंदुस्तान पर शासन करना। 1857 की क्रांति में एक तरफ जहां रानी लक्ष्मी बाई थी तो दूसरी तरफ बेगम हज़रत महल। दिल्ली में बख्त खान सेना का नेतृत्व कर रहे थे तो जगदीशपुर में बाबू कुंवर सिंह। बरेली में जहां खान बहादुर रोहिल्ला ने अंग्रेजों की नाक में दम कर रखा था तो कानपुर में तात्या टोपे ने युद्ध का बिगुल बजा दिया था। हिन्दू मुसलमान की यह एकता का यह प्रदर्शन जहां सिर्फ उत्तर भारत तक सीमित था और वह भी एक  बड़े सामजिक वर्ग से अछूता था,  फिर भी अंग्रेजों को यह याद दिला गया कि भारत में फूट डालो और शासन करो की नीति ही उनको स्थायित्व दे सकती है। 

1857 के बाद सबसे पहले डलहौजी की विस्तारवाद की नीति पर पूर्णविराम लगाया गया ताकि साझा असंतोष के नाम पर अंग्रेज़ भारतीयों के साझा शत्रु ना बनें। उन्होंने इसकी व्यवस्था की कि भारतीय समाज को हमेशा उनका शत्रु अपने समाज में दिखे ना कि ब्रिटिश सरकार के रूप में। 

उनकी इस साजिश के पहले शिकार बने सर सैय्यद अहमद खान। अंग्रेजों ने सर सैयद अहमद खान के जरिए मुसलमानों की यह अहसास दिलाया कि उनका हित अंग्रेजों के साथ है ना कि भारतीय जनता के साथ जहां हिन्दू बहुसंख्यक हैं। इसी का परिणाम आपको कांग्रेस के स्थापना में दिखता है जहां एक अंग्रेज़ ए ओ ह्युम कांग्रेस की संस्थापक बनते हैं तो दूसरी तरफ सर सैय्यद अहमद खान  मोहमडन  एसोसिएशन और 1888 में कांग्रेस के समानांतर यूनाइटेड इंडियन पट्रियोटिक एसोसिएशन की स्थापना करते हैं |   सर सैय्यद अहमद खान ने मुसलमानों को यह विश्वास दिलाया कि कांग्रेस हिन्दुओं की संस्था है और मुसलमानों को उससे दूर रहना चाहिए। सोचिए एक अंग्रेज़ कांग्रेस की स्थापना करवाता है और दूसरी ओर अंग्रेज़ सरकार यह प्रचारित करती है कि यह हिन्दुओं की संस्था है। कांग्रेस की स्थापना के बीस साल बाद  1905 में अंग्रेजों की ही वरदहस्त के साथ मुस्लिम लीग की स्थापना होती है। सांप्रदायिक आधार पर बंगाल का बंटवारा कर दिया जाता है और बंगाल जो राष्ट्रवाद का सबसे उभरता गढ़ था, उसे मुस्लिम बंगाल और हिन्दू बंगाल में तोड़ दिया जाता है। आगे  1909 के मार्ले मिंटो सुधार के तहत मुसलमानों को पृथक निर्वाचन तक दे दिया जाता है।

1920 के असहयोग आंदोलन में गांधी जी ने खिलाफत आंदोलन को असहयोग आंदोलन से जोड़ कर अंग्रेजों के इस विभाजनकारी  नीति के विरूद्ध एक मजबूत मोर्चा तैयार किया। असहयोग आंदोलन के बाद अंग्रेजों को लगा कि मुसलमानों को पृथक करना ही काफी नहीं है, हिन्दुओं को भी कांग्रेस और राष्ट्रीय आंदोलन के पृथक करना आवश्यक है । कांग्रेस के ही नेता रह चुके श्री  केशव बलिराम हेडगेवार के नेतृत्व में 1925 में स्थापित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने मानो अंग्रेजों  को मुंहमांगी चीज दे दी। अब मुस्लिम राष्ट्रवाद का झंडा उठाने वाली एक मुस्लिम लीग थी, हिन्दू राष्ट्र के लिए प्रयासरत आरएसएस थी और एक कांग्रेस का राष्ट्रवाद था।

अंग्रेजों का मन इतने से भी नहीं भरा। उनको तो सोने की चिड़िया पर अपना शासन और भी पक्का करना था। 1932 में  दलितों और तथाकथित नीची जातियों को पृथक निर्वाचन क्षेत्र देने की बात ब्रिटिश प्रधानमंत्री  रामसे मैक्डोनल्ड ने की। इस ही मैक्डोनल्ड अवॉर्ड या सांप्रदायिक अवॉर्ड कहा जाता है।

इसके तहत  व्यवस्था थी कि मुस्लिमों की तरह दलित भी अपने प्रतिनिधि अलग चुनेंगे और वह हिन्दू नहीं माने जाएंगे। इसके खिलाफ गांधी जिन आमरण अनशन शुरू किया और इस बिल को वापस लेने की मांग की। गांधी जी ने 1932 में पुणे के यरवदा जेल में अम्बेडकर जी के साथ पूना समझौता किया और दलितों के नाम पर समाज के एक और विभाजन को रोका। 

अब हमारे हिन्दू भाई जो अपने आप को बहुसंख्यक होने का दंभ भरते हैं और हिन्दू राष्ट्र बनाने का सपना देखते हैं, अगर गांधी जी ने पूना समझौता नहीं किया होता तो हिन्दू हिन्दुस्तान में ही अल्पसंख्यक हो गए होते । 1947 में एक और दलित राष्ट्र बनता पाकिस्तान की तर्ज पर। तो जब भी अपने बहुसंख्यक होने पर गर्व हो, तो स्मरण कर लेना कि यह संख्या किसके बल पर है।

हमारे दलित भाई जिनके नेता बहुधा गांधी को गाली देने में शान समझते हैं एक बार गांधी जीवन चरित स्वयं से पढ़ लें। ध्यातव्य है कि यहां स्वयं से पढ़ने की बात की गई है, दुराग्रह और पूर्वाग्रह से दूर होकर, ना कि किसी नेताजी के भाषणों के आधार पर गांधी के मूल्यांकन करने की। आजकल के नेता बहुत हुआ तो दलित घरों में फाइवस्टार का खाना मंगवा कर खा लेते हैं। गांधी जी ने दलितों के साथ मैला उठाने का कार्य किया लगभग पूरे 30 के दशक के दौरान। दलित उद्धार में गाँधी जी का योगदान आप  इस रूप में देख सकते हैं कि अनुच्छेद 17 के तहत संविधानिक स्तर पर छूआछूत का अंत किया गया | 




और हमारे मुसलमान भाई, जिनको लगता है कि गांधी हिन्दुओं के नेता थे, गांधी जी की भूमिका दंगों के दौरान देख लें। हां वह आपके बीच टोपी पहन कर इफ्तार करने नहीं जाते थे और ना ही आपके उलेमा से मिलकर आपके वोट की मांग करते थे। इसीलिए शायद आपको वह मुसलमानों के हितैषी ना लगे, लेकिन विभाजन के दुख से उन्होंने स्वतंत्रता के उल्लास मनाने से इंकार कर दिया और अगस्त 1947 में नोआखली की दंगा पीड़ित गलियों की खाक छान रहे थे।  अगर गाँधी हिन्दुओं के नेता होते तो जिन्ना की तरह हिन्दुओं  से डायरेक्ट एक्शन की अपील पर आपका क्या होता बस सोच कर देख लें | 

गांधी जैसे व्यक्तित्व हजारों वर्षों में एक बार आते हैं। दुर्भाग्य से हमारे समाज के कपाल पर उनकी हत्या का कलंक है जो शायद ही कभी मिटे। उस कलंक ने विश्व में हमें वही स्थान दिया है जो एक पितृहंता को हम  अपने समाज में देते हैं। गांधी की हत्या बंदूक  से नहीं हुई, उनकी हत्या हुई उस संकीर्णता के कारण जो भारत को सम्पूर्ण रूप में ना देख कर हिन्दू, मुस्लिम और दलित भारत के रूप में देखता है। यह हमारी वैचारिक अपंगता है कि हम गांधी दर्शन और विचार को अभी भी आत्मसात करने में विफल रहे हैं। इस अपंगता से सबको शीघ्र मुक्ति मिले, यही कामना है।

बापू के जन्मदिवस पर उनको शत शत नमन। 

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