Monday, September 28, 2020

' आयोडेक्स मलिए और काम पर चलिए ' की समस्याएं


टीवी पर दूरदर्शन चैनल चल रहा है। ड्राइंग रूम में पापा अपने बेटे और लाडली के साथ खेल रहे हैं। साथ में उनका पालतू शेरू भी खेल रहा है। सभी खुशी खुशी अपना वह समय व्यतीत कर रहे हैं जिसे आजकल क्वालिटी टाइम कहा जाता है। अचानक से आवाज़ आती है आह। बेटा दौड़ कर किचेन में जाता है तो देखता है कि आटे का भारी कनस्तर उतारते समय उसकी मां की कमर में मोच आ गई है। बेटा समझदार है। तुरंत मेज की दराज से आयोडेक्स की शीशी निकालता है। और अपनी मां को लेकर उसकी कमर पर मलहम का लेप लगाता है। मां का दर्द छू मंतर । नेपथ्य से आवाज़ आती है " आयोडेक्स मलिये काम पर चलिए"। विज्ञापन समाप्त होता है।

यह विज्ञापन दूरदर्शन के ज़माने की पीढ़ी की यादों का एक अमूल्य हिस्सा है। खास कर आयोडेक्स मलिये काम पर चलिए वाली लाइन तो जैसे नॉस्टेलजिया का हिस्सा है। नॉस्टेलजिया जिसके आइने में इतिहास हमेशा स्वर्णिम मादक और सरस दिखता है। नॉस्टेलजिया अतीत की  बुराइयां  ऐसे छुपा जाता है जैसे कॉलेज के दिनों में पहले सिगरेट की गंध चुइंगम छुपाता है। पर नॉस्टेलजिया हो या चुइंगम दोनो पूरी तरह सफल नहीं होते। अनुभवी मां सिगरेट की गंध जान लेती है वैसे ही अनुभवी मस्तिष्क भी नॉस्टेलजिया के आवरण को चीर वास्तविकता बाहर ले ही  आता  है। 

चलिए इस आयोडेक्स वाले विज्ञापन पर पड़े सुनहले अतीत के वर्क की परत को  उखाड़ते हैं। क्या है आयोडेक्स वाले विज्ञापन की समस्या?

इस विज्ञापन की समस्या चार स्तरों की है।

1. पहली : दर्द की पहचान या डियागोनैसिस गलत है। दर्द का कारण आटे का भारी बड़ा कनस्तर नहीं है।

2. दूसरा: चूंकि मर्ज के मूल की पहचान ही गलत है, इसीलिए उसका उपचार भी गलत किया जाता है।

3. तीसरा: अब जब उपचार ही गलत किया जाता है तो मर्ज या मरीज़ के बेहतर होने का दावा भी गलत  है। कोई दर्द छू मंतर नहीं होता बल्कि दर्द पहले की तरह मौजूद है। शायद उससे भी बड़े और विकराल रूप में | 

‌4. चौथा: विज्ञापन के अंत का 'काम पर चलिए' वाला  संदेश यद्यपि सही है लेकिन उसका अर्थ अलग तरीके से समझने की आवश्यकता है। 

‌पहली बात तो यह कि विज्ञापन में यह दिखाया गया है कि सिर्फ पुरुष ही ड्राइंग रूम में बच्चों के साथ क्वालिटी टाइम बिता सकते है । महिलाओं का क्वालिटी टाइम भी रसोई में खाना बनाने और घर का सारा काम करने में ही बीतता है। यह एक सामान्य  तस्वीर है कि बाप  या दादा बच्चों के साथ लुका छिपी खेल रहे हैं । मा और दादियों का स्थान किचन से बाहर शायद ही है। हां यही अगर खेलता  बच्चा अपनी पैंट गीली कर दे तो बाप का क्वालिटी टाइम वहीं रुक जाता है और बच्चे की साफ सफाई की जिम्मेदारी उसकी मा की हो जाती है। अब महिला की  कमर में दर्द का कारण सिर्फ एक आटे का कनस्तर नहीं हो सकता। ड्राइंग रूम में बैठी पूरी जमात और उसकी सोच ही दर्द का मूल कारण है। वह सोच जो मानती है कि घर का सारा काम घरवाली करेगी।
अब यह स्पष्ट हो जाता है कि चूंकि कमर दर्द एक बहुत बड़े दर्द का एक बाह्य लक्षण है ना कि मूल मर्ज, इसीलिए इस दर्द का उपचार भी एक आयोडेक्स की शीशी नहीं कर सकती।
‌इसलिए आयोडेक्स का विज्ञापन जब यह दिखाता है कि महिला का दर्द दूर हो गया है तो यह एक झूठ ही है , वही झूठ जो अंग्रेज़ी में false positive कहलाता है। महिला का दर्द  वैसे का वैसा बना हुआ है। बस उसके छोटे मोटे दर्द का इलाज कर दिया जाता है ताकि बड़ा दर्द सहने के लायक वह बनी रहे।
‌यह सारी बातें तब सही सिद्ध हो जाती हैं जब विज्ञापन का टैग लाइन आता है। महिला को कहा जाता है कि आपको आयोडेक्स लगा दिया गया है , अब आप वापस काम पर चलिए और बाकी लोग अपने ही घर में मेहमान बन कर अपना किरदार अदा करेंगे। 
‌अब आप सोचेंगे कि यह 25 साल बाद इस निरीह विज्ञापन की बखिया क्यों उधेड़ी जा रही है। वजह यह है कि लॉकडॉउन के दौरान घरेलू हिंसा की बढ़ती खबरों के मूल में भी यही ' काम पर चलिए ' वाली मानसिकता है। 




‌मैं अपने आप को आधुनिक मानदंडों पर नारीवादी नहीं समझता और आधुनिक नारीवाद के तरीकों पर मुझे कई आपत्तियां भी हैं। उसका कारण यह है कि आधुनिक नारीवाद  छिछली समस्याओं पर ज्यादा ध्यान देता है और मूल समस्याओं को सुलझाने में कम रूचि दिखाता है । सिगरेट का धुआं फूंकने को नारी मुक्ति ज्यादा समझता है ना कि रसोई के धुएं में कैद करोड़ों महिलाओं को मुक्ति दिलाने को अपना लक्ष्य बनाता है। 
वक़्त आ गया है कि आयोडेक्स मलने के बाद काम पर चलने का आदेश उनको मिलना चाहिए जिनको दर्द हुआ ही नहीं। ना कि मरीज़ को वापस  काम  पर चलने का हुक्म सुनाया जाना चाहिए। घर का काम घर पर रहने वाले हर व्यक्ति की जिम्मेदारी  है सिर्फ घरवाली की नहीं। यह बात अगर समझ में आ जाए तो मेज की दराज में पड़ी आयोडेक्स की उस बॉटल को निकालने की जरूरत शायद कभी ना  पड़े। 

Sunday, September 27, 2020

अश्लीलता क्या है

अश्लीलता क्या है? अश्लील किसे कह सकते हैं? क्या नग्नता अश्लीलता की शर्त है? क्या भाषा अश्लील हो सकती है? या किसी टैबू विषय पर बात करना अश्लील हो सकता है?

उपरोक्त प्रश्नों के उत्तर देने से पहले हम दो तीन उदाहरणों पर विचार करते हैं। फिल्म बैंडिट क्वीन में अभिनेत्री सीमा विश्वास पूर्ण नग्न होकर परदे पर दिखती है। उस दृश्य में अदाकारा के शरीर पर एक भी वस्त्र नहीं है क्योंकि उसके साथ सामूहिक दुष्कर्म हुआ है।  अब दूसरा दृश्य फिल्म सत्यम शिवम् सुंदरम में ज़ीनत अमान एक मंदिर में भजन गा कर पूजा कर रही है और उसने झीनी ही सही पर पूरी साड़ी पहन रखी है। अब इनमें से कौन सा दृश्य अश्लील है?

अधिकतर लोग मानेंगे कि सत्यम शिवम् सुंदरम का दृश्य अश्लील माना जाएगा जबकि बैंडिट क्वीन का दृश्य कटु यथार्थ का एक वास्तविक चित्रण मात्र। अश्लीलता के निर्धारण में भाव पक्ष का प्राबल्य होता है। अश्लीलता की अवधारणा सामाजिक है। मोटे शब्दों में कहें तो अश्लील वह है जो आपके अंदर कामुक भावनाओं का उद्दीपन करे। लेकिन यह परिभाषा भी अपूर्ण ही है। अश्लीलता किसी कृत्य या कार्य में निरपेक्ष रूप में विद्यमान नहीं रह सकती। जो साहित्य और फिल्म आपको अकेले में वैयक्तिक आनंद दे सकती है,  अपने माता पिता के सामने वही साहित्य पढ़ना  अश्लील कहलाएगा। मतलब यह कि वह साहित्य सामाजिक रूप से अश्लील है और वैयक्तिक रूप से मनोरंजक।

 प्रेयसी का श्रृंगार और उसकी भंगिमाएं प्रेमी के साथ एकांतिक क्षणों में अश्लील नहीं हैं, हां छुप कर उनको देखता व्यक्ति अश्लील अवश्य है। यहां कृत्य अश्लील नहीं है, छुप कर देखना अश्लील है। बीच पार्क में प्रेमी जोड़े की हरकतें अश्लील हैं , उनके आसपास टहलने वाले लोग नहीं। 





अश्लीलता का संबंध किसी समाज की संस्कृति से भी है। जो कपड़े पेरिस की सड़कों पर सुन्दर माने जाएंगे वही कपड़े काशी की गलियों में अश्लील कहला सकते हैं। स्वान जोड़े की रति क्रिया अश्लील नहीं है यद्यपि वह खुले सड़क पर होती है, उसी सड़क पर फब्तियां कसने वाले युवक अश्लील हैं।

सीमा विश्वास के नग्न दृश्य सिनेमा का मील का पत्थर है  और प्रशंसा के योग्य है तो पूरे कपड़े पहने कर भी ज़ीनत अश्लील कहलाएंगी। बिहार में शादियों के समय गाए जाने वाले महिलाओं के लोक गीत और मंगल गीत के बोल आपको अश्लील लग सकते हैं लेकिन वह वहां की सभ्यता और संस्कृति का हिस्सा हैं अश्लील नहीं। यही बात कुछ हद तक भोजपुरी गानों के लिए भी कही जा सकती है। भोजपुरी समाज बाकी समाजों के अपेक्षा ज्यादा खुला है , उनके मज़ाक बाहरी समाज के प्रतिमानों पर अश्लील लग सकते हैं पर उनके समाज में वह स्वीकार्य हैं। सीधे सीधे उनपर अश्लीलता का आरोप चस्पां करना उनका सही मूल्यांकन नहीं होगा। 

श्लील और अश्लील के बीच की रेखा एक जड़ रेखा नहीं हो सकती। अनेक सामाजिक नियमों, परम्पराओं और नैतिकता के नियम मिलकर उस रेखा का निर्धारण करते हैं। चूंकि अश्लीलता  निर्धारक अवयव स्वयं समय के साथ परिवर्तनशील हैं, इसीलिए अश्लीलता की परिभाषा भी समय अंतराल  पर मूल्यांकन खोजती है। तो यह भी संभव है कि जो आपको अश्लीलता लगती हो, दूसरे छोर से वही जेनरेशन गैप दिखता हो। आवश्यक है कि किसी का भी मूल्यांकन सभी कारकों का ध्यान रख कर किया जाय। 

Sunday, September 13, 2020

मुझे हिन्दी बोलने और समझने में दिक्कत होती है

निराला बंगला भाषी थे, दयानंद की मातृभाषा गुजराती थी, मुक्तिबोध मराठी में शिक्षा प्राप्त थे तो  खुसरो मूलतः फारसी के थे। प्रेमचंद उर्दू में लिखते थे, हिन्दी में आकर हिन्दी के हो गए। हिन्दी का हृदय बहुत विशाल है। कोई और भाषा बता दीजिए जिसे अपनाकर कोई दूसरी भाषा वाला उसका सिरमौर बना हो।

समावेशन हिन्दी का चरित्र है। मैं जब कुछ लोगों से पूछता हूं कि क्या आप हिन्दी बोलते समझते हैं तो उनका जवाब होता है। जी नहीं। मुझे हिन्दी बोलने और समझने में दिक्कत होती है। मैं कहता हूं जी समझ गया। आपको सच में हिन्दी समझ नहीं आती। हिन्दी है ही बहुत कठिन।

यह कुछ ऐसा ही  है जब शिक्षक कक्षा में पूछते हैं कि क्या मेरी आवाज़ पीछे तक आ रही है, तो पीछे से बा आवाज़ ए बुलंद उत्तर आता है। नहीं सर। आवाज़ बिल्कुल भी नहीं आ रही।

हिन्दी दिवस की शुभकामनाएं!! 



Saturday, September 12, 2020

झूठ और सच

सच हारता नहीं, यह सच है
पर सच छुप जाता है, जहां शोर है
झूठ हारता है अवश्य, यह सच है
पर झूठ बिकता, चहुं ओर है।

सच की जीत मांगती खून, यह सच है।
मरता अभिमन्यु सच के संघर्ष में
वास्तविकता यह एक कठोर है
झूठ दिखता प्रिय, देवता तुल्य
कर्ण के कवच मांग ले, झूठ वह आदमखोर है।




झूठ एक अपंग बिना पांवों के, यह सच है
झूठ फैलता दुनिया में, मानो बादल घनघोर है
सच दिखने में कौवा,झूठ दिखने में मोर है
कड़वा सच  का निवाला ,मीठा झूठ का कौर है।
सच ठिठुरता नग्न बालक, झूठ सफेदपोश चोर है।

झूठ हारता है अवश्य, यह सच है
पर झूठ बिकता, चहुं ओर है।


Wednesday, September 9, 2020

वाम के नाम पत्र

मेरे बाएं हाथ। मेरे वाम अंग। कैसे हो तुम? याद आता है वह पहला पल जब मैंने तुम दोनों को देखा था। तुम और तुम्हारा जुड़वां भाई दाहिना हाथ। क्या सुन्दर दृश्य था। दोनो भाई मानो एक साथ जुड़े भी हों और अलग भी हों। भगवान ने तुम दोनों को समान बनाया था। वही दस उंगलियां, वही नर्म हथेली और वही नाज़ुक कलाइयां। मुझे लगा कि मुझे दोनों जहां एक साथ मिल गए हों, मेरा सीना गर्व से चौड़ा हो गया।

लेकिन वह कहते हैं ना कि ईश्वर अहंकार को नाश्ते में खाता है, शायद ईश्वर को मेरी खुशियां देखी ना गई। बचपन से तुम्हारे लक्षण बुरे दिखने लगे। मेरे वाम अंग!! जब खाने की बारी आई तो जहां तुम्हारा दाहिना भाई खाने की चीजों की तरफ बढ़ा, तुम खाने की चीज़ों से दूर ही रहे। यहां तक तो ठीक था लेकिन सुबह सुबह टॉयलेट में गंदी जगहों पर जाने में तुम सबसे आगे रहे। एक भाई मुंह आस पास मंडराया करता और तुम ? क्या बोलूं तुम खुद जानते हो। समझ नहीं आता मेरे वाम अंग, गंदगी से ऐसा आकर्षण क्यों है तुम्हारा? खैर!!



तुम्हारी उल्टी प्रवृत्ति को देख कर भी मैंने तुम में और तुम्हारे भाई के लालन पालन में कोई भेद नहीं किया। तुम दोनों एक ही स्कूल गए। एक ही गुरु से शिक्षा प्राप्त की। वहां भी एक तरफ जहां दाहिने हाथ ने लिखना सीखा, चित्र बनाए, और वाद्य यंत्रों को बजाना सीखा, तुम सभी रचनात्मक कार्यों से दूर ही रहे। ना तुमने लिखना सीखा और ना कोई सुन्दर चित्र बनाना। आखिर क्यों मेरे वाम अंग? रचनात्मकता से तुम्हारा ऐसा बैर क्यों? 

मुझे लगा कि चलो रचनात्मकता नहीं तो शायद श्रम वाले काम तो तुम करोगे। लेकिन नहीं वहां भी तुमने निराश हो किया। कोई भार उठाने की बात हो तो तुम अपने भाई दाहिने हाथ को कहते हो। मेरे वाम हस्त, तुम कोई भार क्यों नहीं उठाना चाहते। कोई जिम्मेवारी क्यों नहीं लेना चाहते। बोलो मेरे वाम। बोलो कुछ तो सोचा होगा?

जहां एक तरफ कार्य दाहिना हाथ ही करता था, वहीं मैंने हमेशा दुनिया को यह सच्चाई नहीं बताई। मैंने कभी यह नहीं कहा कि मैंने यह कार्य अपने दाहिने हाथ से किया है। मैंने हमेशा तुम्हें तारीफ में बराबर का हिस्सा दिया। हमेशा कहा कि यह काम मैंने अपने दोनों हाथों से किया है। जबकि सारा काम तुम्हारा दाहिना भाई करता, मैं दुनिया से तुम्हारी ही तारीफ करता रहा । कठिन से कठिन काम को मैं यह कहता कि यह मेरे बाएं हाथ का काम है। जबकि सच्चाई यह है कि कमीज़ का एक बटन भी तुम नहीं लगा सकते मेरे वाम अंग। कब तक झूठी तारीफ बटोरोगे? कब तक दूसरे कि मेहनत का तमगा पहनोगे। कभी ना कभी तो सच का सामना करो।।

मेरे वाम अंग। एक तरफ ना तुम कोई काम करना जानते हो, ना कोई काम करना चाहते हो, फिर गुस्से में आकर उल्टे हाथ से किसी की पिटाई करने में सबसे आगे क्यों निकल आते हो। किसी को ठगने का काम हो तो उल्टे हाथ से मूडने का काम तो तुम खुशी खुशी कर लेते हो। मेरे वाम, यह पंथ क्यों चुनते हो? दाहिने के उलट सकारात्मता से ऐसी चिढ़ क्यों? बोलो मेरे वाम अंग। बोलो।

जो पंथ तुमने पकड़ा है वह यह है कि मैं कुछ करूंगा नहीं, सिर्फ गंदगी छू कर आनंद लूंगा, दूसरों को उल्टे हाथ से ठगुंगा लेकिन हर चीज में बराबरी से ज्यादा का हिस्सा लूंगा। बिना काम किए बराबरी  का हिस्सा? और इसको तुम मानवाधिकार, समाजवाद और जाने क्या क्या बड़े बड़े नाम देते हो। मेरे वाम अंग। तुमने तो बचपन से ही हड़ताल कर रखी है। कोई काम ना करने की कसम खा रखी है।  ऐसा कब तक चलेगा मेरे वाम अंग। 

मेरे प्रिय वाम। लोगों से मिलो। वहां भी किसी से हाथ मिलाने का काम हो तुम पीछे तने हुए पड़े रहते हो। हाथ मिलाने का काम भी तुमने दाहिने को दे रखा है। यह क्या है? अपनी दुनिया से बाहर आओ।लोगों से मिलो, उनको जानो। फिर शायद तुम्हें पता चलेगा कि जीवन भर हड़ताल करके बिना काम किए बराबर का क्रेडिट लेने से बेहतर भी एक सम्मान की हो सकती है। फिर शायद तुम्हारी हमेशा गंदी जगहों पर जाने की ललक थोड़ी काम हो जाए। अपने इस पंथ के दुष्चक्र से बाहर निकलो। मेरे वाम। सुन रहे हो ना? 

अब देखो ना, इस पत्र को लिखने का सारा काम भी  तुम्हारे दाहिने भाई ने किया है, और इसको लिखने में जो भी गलतियां होंगी उसके लिए भी सारी फटकार वही सुनेगा। शायद उल्टे हाथ का एक चांटा भी खा जाए। दाहिने पर कृपा करो, मेरे वाम। और क्या कहूं। तुम खुद समझदार हो!!! 

चिर तुम्हारा....

Deewane to dewane hain - a golden leaf from 90s pop music

 Some songs are popular, some are chartbuster and some songs are prophetic. Not many songs are all at the same time, but song Deewane to Deewane hain ( DTDH) is a rare combination of all.

Featuring one and only Shweta Shetty, the original husky voice diva ( way before Rani Mukherjee), this song was a craze in summers of 98. Getting a glimpse of this song on DD Metro or listening on this song on a Walkman ( Hope you remember what Walkman meant to teenagers in that era ) was something beyond that can be explained to current generation.
90s may sound like things of last century and outdated, but 90's pop music was something we never saw before and sadly never saw after either. Alisha chinoy, Rageshwary, Sunita Rao, Baba Sehgal, Phalguni Pathak, Lucky Ali, Devang Patel, Aryans, Silk route, Nazia Hasan , Remo, Daler Mehandi, and (how can you forget) Altaf Raja, along with many others led sort of a musical revolution .. These people created music which was independent of Bollywood and made Bollywood sweat in terms of popularity. DTDH is one of best of that golden era product, a representative.
Listening to song DTDH 22 years after its release gives an entirely different meaning to its lyrics. Seems this song was written for lockdown and its effects on love filled hearts and hormone charged young bodies.
" Khidakee Peh Aaou na Bahar Naa Jau
Kaise Mein Sara Din Ghar Mein Bitau
Najare Milau Toh Mein Kaise Milau
Deewane Deewane Toh Deewane Hai"
Tell me any better lines to describe lockdown, I will be waiting. While you search for those better lines, let me tell some special things about this song. Word ‘Deewane’ has been used three times in first line, and every time it has different meaning. Talk about Yamak alankar and its usage..
And what to say about its music video.. its theme though unintentional, is highly feminist and way ahead of its time. Remember Bollywood was making movies like Raja ki aayegi baarat, KKHH and Hum Aapke hain koun, where woman was shown as Devi, Abla and chhui mui and DTDH shows the lady as a brat queen who knows what she wants and she is shownfully aware of her seduction prowess. It has the vibe of #MyChoice and self confidence which was rare in mainstream music at that time.


Watch this music video if you haven’t yet or you are welcome re-live the magic again.. May be after that, you will know why 90s kids don’t like Yo Yo and Badshah brand of songs.

Monday, September 7, 2020

गांव और शहर में सुबह की सैर

शहर में सुबह की सैर एक व्यायाम है। एक अतिरिक्त काम जिसे आप अपनी व्यस्त दिनचर्या से समय निकाल कर करते हैं। सुबह की मॉर्निंग वॉक के लिए जॉगर्स पार्क बने हुए हैं, जहां आप हरेक कदम के साथ हाथ में बंधे फिटनेस बैंड में देखते हैं कि कितनी कैलोरी लूज हुई। मेरी हार्ट बीट क्या है, मेरा पल्स रेट क्या है, और टाइम क्या हुआ, ज्यादा लेट हो गया तो कहीं ऑफिस के लिए लेट ना हो जाऊं। 

कुछ लोगों को सुबह की सैर के वक़्त कुछ और ही चिंता होती है। यह टॉमी जल्दी से पॉटी क्यों नहीं कर रहा, कोई आ जाएगा तो क्या कहेगा कि शर्मा जी वैसे तो स्वच्छ भारत पर गेस्ट लेक्चर देते हैं लेकिन बीच सड़क पर कुत्ते को पॉटी करवा रहे हैं। टॉमी प्लीज!! जल्दी करो ना। इसको किसी वेट को दिखाना पड़ेगा और पूछना पड़ेगा कि कुत्ते के लिए भी कोई इसबगोल आता है क्या। और जैसे ही टॉमी का रंगोली बनाना पूरा हुआ, यह लोग ऐसे तेज़ चाल में निकल जाते हैं जैसे बजरंग दल को देख कर प्रेमी जोड़े खिसक लेते हैं।

कुछ लोगों की समस्या अलग होती है। अब मॉर्निंग वॉक के बाद शक्ल पर पसीना आ जाता है, फोटो अच्छी नहीं आती। अब उस फोटो को सोशल मीडिया पर कैसे डालें। वॉक से पहले ही फोटो ले लो, तो लोग कहेंगे कि घर पर बैठे बैठे ही फोटो ली गई है। अब फोटो लें तो कब लें किस बैकग्राउंड में लें। किस एंगल से लें कि महंगी वाली साइकिल और हाथ में बांधा गया फिटनेस बैंड दोनो फोटो में आ जाएं लेकिन तोंद छुप जाए।  विकट समस्या है। उनके लिए सुबह की सैर एक फोटो सेशन होता है।

अगली श्रेणी में वे प्राणी  शामिल हैं जिनको अपनी कैलोरी लूज नहीं करनी। बुढ़ापे की भड़ास निकालनी है। जॉगर्स पार्क के किनारे वाली बेंच पर बैठ कर नाखून रगड़ रगड़ कर अपने खोए बाल पाने की कोशिश करते रहते हैं और आस पास के लोगों पर कमेंट्री करते रहेंगे। विषय वही हमारा ज़माना और यह ज़माना। मेरी बहू तुम्हारी बहू। इनमें से सभी लोगों को दूध के पैकेट और सब्जी लाने का भी एक्स्ट्रा काम घर की बहुओं ने दे रखा है। दूध लाने के बाद पोते को स्कूल बस तक भी छोड़ना है। उसके बाद भी आराम नहीं। दिन में  बेटे बहू के ऑफिस जाने के बाद भी प्लम्बर को बुला कर घर के नल ठीक करवाने हैं और कारपेंटर को बुलवा कर सोफ़ा ठीक करवाना है। फिर बच्चे को डे केअर से वापस भी लाना है। दिन में समय नहीं मिल पाएगा इसलिए वहीं पार्क में बैठे बैठे सबको गुड मॉर्निंग वाले फॉरवर्ड भेजते हैं।


गांव के लोगों के लिए सुबह की सैर कोई कैलोरी लूज करने का सिद्धांत नहीं है। उनको फिटनेस बैंड की जरूरत नहीं उनको अच्छे से पता है कि उनके घर से हनुमान मंदिर दो फर्लांग है, फलां बाबू का बगीचा चार फर्लांग और आधा बना सड़क पुल एक मील। सुबह की सैर गांव में सबको देखने और सबसे मिलने का एक मौक़ा है। 

सुबह उठिये तो सबसे पहले लाल बजरंगी के मंदिर में सर नवा कर देखिए वहां दो चार वृद्ध जन बैठे हैं। मंदिर का सेवादार प्रांगण को झाड़ू लगाकर आम के सूखे पत्ते और बासी फूल बुहार रहा है। उसको पंडित के आने से  और पहले सुबह की आरती से पहले सारा प्रांगण साफ करना है , भोग का बर्तन मांजना है, दीप की बाती बदलनी है और  पूजा सामग्री और फूल का प्रबंध करना है। ईश्वर का निवास अगर स्वच्छता में है  तो ईश्वर को निवास प्रदान करने वाले सेवादार से पहली मुलाकात आपकी सबसे पहले होती है। सुबह की इससे अच्छी शुरुआत शायद ही हो।



आगे चलिए तो लंगोट पहने और दंड पेलते युवाओं का एक समूह आपको दिखेगा। पिछले महीने  अखबार में दारोगा, कांस्टेबल और सेना की भर्ती आयी हुई थी, उसी के लिए जी जान से लगे हुए हैं। कोई छाती फुला कर माप ले रहा है तो कोई लम्बी कूद के लिए फावड़े से मिट्टी ढीली कर रह रहा है। किसी का पिछली बार दौड़ में एक सेकंड से रह गया था तो कोई ऊंची कूद में बल्ली को गिरा गया था। सारी कमियों को दूर करने का प्रबंध है। सामूहिक चंदे से एकत्रित पौष्टिक आहार भी सामुदायिक रूप से उपलब्ध है। एक बाल्टी में उबले देसी अंडे रखे हैं और बगल में बांस की रंगीन टोकरी में केले। भीगे चने और गुड़ का दोना भी उधर ही रखा है। गलवान और कारगिल में दुश्मनों से जो लोहा लेते हैं , उनकी फौलादी मांसपेशियां इन्हीं गांव की भट्ठियों में तैयार होता है।


आगे चलिए तो कुछ लोग बबूल, कीकर और नीम की कच्ची टहनियों के साथ दातून तैयार करते दिखेंगे। प्लास्टिक वाले ब्रश में वह बात कैसे हो सकती है जो दांतों से चबा कर ही बनाई गई सद्य निर्मित कूची, में है।  उनसे एक दातून मांग कर आप देखो। बड़े बुजुर्ग दातून के साथ साथ उसके साथ संचित श्रुत ज्ञान भी आपको दे देंगे।

दातुन करिए नीम की,होय न दंत विकार।
नीम स्वयं ही वैद्य है, समझो सही प्रकार।।

जामुन की दातुन करो, गुठली लेय चबाय।
मधुमेही को लाभ हो ,प्रदर प्रमेह नशाय।।

दातुन करो बबूल की,हिलते कभी न दंत।
तन मन शीतलता रहे, शूल बचाओ पंत।।

खैर आप एक दातून ले आप आगे निकल जाते हैं। आगे देखते हैं कि कुछ बच्चे उथले पोखर में खिली कुमुदिनी के फूलों को नाल सहित निकाल कर उनकी माला बना कर खेल रहे हैं। जलकुंभी के खिले फूलों के साथ कुमुदिनी के फूलों से सजे बच्चों का श्रृंगार आपको मोह लेगा।




 पास के तालाब के पास मछुवारे का परिवार अपने पुरानी जाल के टूटे कसीदे बुन रहा है। कुछ दूर पर ही अपनी नयी जाल से मछुवारा पोखर से मछलियों के रूप में चमकती उछलती रजत संपदा निकाल रहा है। प्रकृति का ऐसा सात्विक दानी रूप सहज रूप में शायद ही शहर वाली सुबह की सैर में दिखे। उसी पोखर के एक कोने पर तड़के से पानी में बैठी भैंसों का समूह भी दिखेगा और किनारे उन भैंसों के साथ आए चरवाहों का समूह अपना सुबह का नाश्ता अपने गमछे से निकाल कर खा रहा दिखेगा।



आगे जाने पर खेतों का इलाका शुरू हो जाता है। हरे भरे खेतों के बीच की टेढ़ी पगडंडी और मेड़ ऐसे लगती है जैसे प्रकृति की अबोध नवयौवना बाला ने अपनी केशः राशि के बीच बिना आइना देख अपनी मांग निकाली हो। भले बामुश्किल अभी सूरज निकला हो, वहां हलचल में कोई कमी नहीं। अभी खेतों में किसान पहुंच चुके हैं और आम के बागीचों के रात के पहरेदार अपना टॉर्च, डंडा और रात में मिले आम की सौगात समेटे अपनी ड्यूटी निभाकर वापस घर के लिए निकल रहे हैं। 

इतनी दूर आने पर जब लोगों की आवाजाही थोड़ी कम ही जाती है तो आपको महसूस होता है कि आप गांव से कितना दूर निकल आए हैं । खलिहान की  रक्षा करने वाले देवता के डीह को प्रणाम करके लौटने का वक़्त हो चला है। और इस प्रकार आपकी गांव वाली सुबह की सैर का आधा सफर पूरा होता है। इस सैर करने में अब तक आपको ना कोई परेशान नहीं दिखता है और ना कोई सेल्फी लेता, ना कोई कुत्ते को पॉटी  करवाता। गांव के कुत्तों की पॉटी ट्रेनिंग अपने आप हो जाती है। उनको लेकर कोई परेशान नहीं रहता। 

शहर वाले सैर करने वाले अपने रूटीन पर निकलते हैं और गांव वाले अपने काम पर। काम ही उनकी सैर है और काम ही उनका व्यायाम। उनके पास ना खोने के लिए चर्बी है और ना कोई डेली का कैलोरी लॉस टारगेट। एक बात तय है कि गांव में सवेरे निकलने पर आपकी कैलोरी भले लूज हो या नहीं आपके शहरी सैर के खोखलेपन का गुमान जरूर लूज हो जाता है।

Friday, September 4, 2020

मंदी का रामबाण है पर्यटन

 वर्तमान कोरोना संकट ने वैश्विक अर्थव्यवस्था को 1930 की वैश्विक महामंदी के बाद सबसे गहरे आर्थिक संकट में धकेल दिया है। हाल में प्रकाशित जीडीपी के आंकड़े यह दिखाते हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था भी पूरी तरह इसकी चपेट में है। इस विषम समस्या का बौद्धिक विश्लेषण और आंकड़ों के मकड़जाल में उलझने से कोई लाभ नहीं , इसके बजाय सम्यक यह होगा कि हम इस के उपायों पर ज्यादा मंथन करें।

बहुत सुन चुके दास्तान ए दर्द!
अब तो बता कि इस मर्ज की दवा क्या है??
कोरोना संकट से सर्वाधिक प्रभावित क्षेत्र है पर्यटन और आथित्य क्षेत्र। वैश्विक अर्थव्यवस्था में औसतन
दस प्रतिशत नौकरियां पर्यटन क्षेत्र से जुड़ी हुई है| मोटे तौर पर भारत में करीब 12% रोजगार तथा 2.5 लाख करोड़ की आय प्रत्यक्षतः या परोक्ष रूप से पर्यटन क्षेत्र से आती है। यह क्षेत्र वर्तमान वर्ष में करीब 1.1 करोड़ विदेशी सैलानियों तथा 60 लाख अप्रवासी भारतीय सैलानियों से वंचित रहने वाला है। चूंकि यह क्षेत्र अधिकाँशतः अनौपचारिक क्षेत्र में आता है इसीलिए वास्तविक संख्या इस से ज्यादा ही है |



मंदी का रामबाण है पर्यटन
पांच करोड़ भारतीयों की रोजी रोटी चलाने वाला यह क्षेत्र आज अपने सबसे कठिन दौर से गुजर रहा है। लेकिन इस क्षेत्र को उबारना इसलिए आवश्यक नहीं है क्योंकि यह क्षेत्र दया का पात्र है, अपितु इसीलिए आवश्यक है क्योंकि हमारी आर्थिक खुशहाली तक वापसी का मार्ग भी इसी क्षेत्र से गुजरता है। पहला कारण तो यह कि यह रोजगार की असीम संभावनाओं वाला श्रम गहन क्षेत्र है। दूसरा कारण यह कि इस क्षेत्र में किया गया निवेश आय बढ़ाने में मल्टीप्लायर फैक्टर की तरह कार्य करता है। एक छोटे से होटल के खुलने से वहां एक टैक्सी ड्राइवर, बेल बॉय, रिसेप्शनिस्ट, एक मैकेनिक, सफाई कर्मचारी, रसोइया,बैरा, इलेक्ट्रीशियन, इंटरनल डेकोरेटर, सब्जी वाला, दूध वाला, यहां तक कि आस पास एक ट्रैफिक हवलदार तक को रोजगार मिलता है और उसकी आय का सृजन होता है। तीसरा कारण है पर्यटन क्षेत्र का लिंग और क्षेत्र आधारित समावेशी चरित्र। पर्यटन और आथित्य क्षेत्र में महिलाएं नैसर्गिक रूप से दक्ष होती हैं , और तथाकथित ' अविकसित ' क्षेत्रों से अधिक नैसर्गिक सौंदर्य शायद ही कहीं और मिले । महिलाओं के स्वाबलंबन और सशक्तिकरण तथा सुदूर क्षेत्रों के विकास का सबसे आसान मार्ग पर्यटन और आथित्य क्षेत्र ही प्रदान करता है। चौथा कारक यह है कि देश में हर प्रकार के पर्यटन यथा ऐतिहासिक, नैसर्गिक,धार्मिक,ग्राम्य,कृषि पर्यटन आदि की विपुल अक्षय संभावनाएं हैं |
वैकल्पिक पर्यटन का दौर
यह स्वाभाविक ही है कि कोरोना के कारण पर्यटन क्षेत्र के भी व्यवसाय पद्धतियों पर प्रभाव पड़ा है। वैश्विक स्तर पर छोटी होती जा रही आपूर्ति श्रृंखला पर्यटन क्षेत्र पर भी पड़ा है। 2019 और पहले की तरह अब हमारा पर्यटन क्षेत्र ना विदेशी सैलानियों के भरोसे रह सकता है और ना ही हमारे लोग विदेशी जगहों पर घूमने जा सकते हैं। पर्यटन क्षेत्र के उद्धार का मार्ग में ‘लोकल के लिए वोकल’ मंत्र में छुपा है। वह बीते ज़माने की बात हुई जब बड़े बड़े शहरों में पर्यटकों की भीड़ लगी रहती थी। आज कोरोना काल में लोग शहर और भीड़ दोनो से दूर भागते हैं। भारत में ग्राम्य पर्यटन, कृषि पर्यटन जैसे वैकल्पिक पर्यटन क्षेत्र की असीम संभावनाओं के दोहन की आवश्यकता है। वर्तमान समय में स्वस्थ जीवन शैली, प्राकृतिक चिकित्सा और इम्यूनिटी को बढ़ाने वाली औषधियों के तरफ लोक रुझान अपने ऐतिहासिक और अप्रत्याशित स्तर पर है| ऐसे में ‘आपदा को अवसर’ में बदलने में मेडिकल टूरिज्म , ग्राम्य टूरिज्म तथा कृषि टूरिज्म की तिकड़ी हमारे लिए स्वर्ण खदान से कम नहीं है।
इस दिशा में किये जा रहे प्रयासों में तीव्रता लाने की आवश्यकता है। हमारे प्रयासों में हुए विलम्ब के कारण पर्यटन क्षेत्र में लगा हमारा कुशल और प्रशिक्षित मानव संसाधन जैसे टूरिस्ट गाइड या हस्तशिल्पी प्रश्रय के अभाव में अन्य व्यवसायों की तरफ मुड़ सकता है जहां से उनका वापस पर्यटन क्षेत्र में लौटना संभव नहीं होगा। इस स्थाई नुक्सान की भरपाई आसान नहीं होगी |

गो आउट एंड सी आवर कंट्री
प्रयास सरकार की तरफ से नीतिगत और कार्यकारी स्तर पर होने चाहिए। एक दो वर्षों के लिए पर्यटन क्षेत्र कर राहत और सहायता पैकेज के साथ साथ कुछ नवोन्मेषी कदम उठाए जाने की आवश्यकता है। उदाहरणतया, जिस प्रकार राम मंदिर शिलान्यास के समय पांच सौ लोगों को सोशल डिस्टेंसिंग के नियमों को पालन करते हुए जमा होने की अनुमति मिली, उसी प्रकार सरकारी विभागों तथा कॉरपोरेट्स को ओपन एयर मीटिंग्स और सेमिनार करने की अनुमति दी जा सकती है। इससे मांग की कमी से जूझते हमारे पांच सितारा होटल्स और रिसॉर्ट्स को जीवनदान मिल सकेगा | स्थानीय पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए शैक्षणिक संस्थाओं को कम से कम एक स्थानीय टूर आयोजित करने के दिशा निर्देश दिए जा सकते हैं। अनलॉकडाउन नियमों के तरह हरेक राज्य के क्वारांटाइन नियमों में एकरूपता, श्रमिक एक्सप्रेस की तर्ज पर चुनिंदा विशेष पर्यटक ट्रेन चलाने पर विचार होना चाहिए। सरकार द्वारा टूरिज्म टास्क फोर्स का गठन और अनेक तीर्थ स्थलों को उड़ान योजना के अन्तर्गत शामिल करना एक स्वागत योग्य कदम है।
स्वाभाविक है व्यापक जनभागिता के बिना यह प्रयास अधूरे ही रहेंगे। आर्थिक संकट और मांग की कमी से गुजरते अमरीका में नारा था 'गो आउट एंड शॉप'| हमारा नारा होना चाहिए " गो आउट एंड सी आवर कंट्री " | पर्यटन क्षेत्र हमारी अर्थव्यवस्था का वह कमाऊ पूत, वह स्टार खिलाडी है जिसे अभी अपनी सफलता का उत्कर्ष देखना है लेकिन यह कमाऊ पूत और स्टार खिलाडी चोटिल हो गया है | इसको सम्बल देकर हम अपने स्वर्णिम और उज्जवल भविष्य का ही पोषण करेंगे |

Thursday, September 3, 2020

तब जरूरी हो जाता है नंगापन

जब बहुत काटता है
दुनियादारी का वह मोटा लबादा
उसके बनावटी बेलबूटे 
और उसका असहनीय भारीपन, इंसानों का
तब जरूरी हो जाता है नंगापन।

अच्छी लगती तस्वीरों में
म्यान चढ़ी तलवार है 
जीतती है जो जंग वो
नंगी तलवार की धार है
शांति काल में भले लगे अच्छी 
 म्यान चढ़ी तलवार का नजाकतपन
दुश्मन घुस आए घरों में, तलवारों का
तब जरूरी हो जाता है नंगापन।





कांटे भी लगते सुहाने
दस्ताने चढ़े हाथों से
झूठा भी लगता सच्चा
चिकनी चुपड़ी बातों से
जब महसूस करना हो चिकने संगमरमर 
के किनारों का छुपा खुरदुरापन
निकाल फेंको दस्ताने, हाथों का
तब जरूरी हो जाता है नंगापन।

आंखों में चढ़े चश्मे  में दिखती
भूख और मुफलिसी भी रोमानी
नंगी आंखों से ही दिखता कि बड़े
बंगलों की ज़िन्दगी भी 
है कितनी बेमानी
आंखों में सूरमा और आंखों पे चश्मा
सुन्दर भले लगे कविताओं में
वेदना से  बहते आंसू पोछने  को 
हटाना पड़ता है चश्मा, आंखों का
तब जरूरी हो जाता है नंगापन।

नंगा आदमी ही करता सृजन
बुलेट प्रूफ जैकेट पहन तो
मौत बरसाई जाती है
नंगा ही जन्म लेता इंसान
कफ़न ओढ़ तो चिता सजाई जाती है
नंगे  का ज़मीर होता साफ 
ना उसपे रखा कोई वज़न
जब डराना को खुदा को, बंदे का
 तब जरूरी हो जाता है नंगापन।

जब बहुत काटता है
दुनियादारी का वह मोटा लबादा
उसके बनावटी बेलबूटे 
और उसका असहनीय भारीपन, इंसानों का
तब जरूरी हो जाता है नंगापन।