Thursday, August 20, 2020

किससे लड़ रहे हो आप??

खलनायक हमारी कहानी का वो पात्र है जो आखिर में नायक से  पिटता है, गिड़गिड़ाता है, या तो सुधर जाता है या मारा जाता है। लोग उसके मरने तालियां  बजा कहानी सुखांत मान लेते हैं। वैसे खलनायक की महत्ता सिर्फ इतनी नहीं है कि वह नायक नायिका के प्रणय में व्यवधान उत्पन्न करे , बल्कि खलनायक आपके समाज के विकास का थर्मामीटर है। खलनायक का कार्य है नायक को उसके कार्य करने से रोकना । इसीलिए खलनायक यह दिखाता है कि नायक क्या करना चाहता है, और नायक का उद्देश्य  यह दिखाता है कि समाज क्या हासिल करना चाहता है। और समाज का वृहद लक्ष्य क्या है, यह दिखाता है कि समाज अभी विकास और उद्भव की प्रक्रिया में कहां है।

हमारी बॉलीवुड की फिल्मों को ही लें। पचास और साठ के दस की फिल्मों का खलनायक सूदखोर महाजन होता था। एक ज़ुल्मी जमींदार जिसने किसानों की ज़मीन हड़प ली है, किसान की बहू बेटियों पर बुरी नजर रखता है, और जिसके खिलाफ हमारा नायक लड़ता रहता है। जैसे मदर इंडिया का बिरजू अपने गांव के शोषक महाजन और जमींदार से युद्धरत है। आगे चलिए 70 के दशक में  हमारा खलनायक स्मग्लर बन जाता है, और हमारा नायक पुलिस इंस्पेक्टर। यह हमारे समाज में लाइसेंस कोटा परमिट राज का समय है। खलनायक समाज के नियम कानून तोड़ कर धनोपार्जन करना चाहता है और ईमानदार नायक उसकी राह में खड़ा है। समाज कठोर व्यापार नियमों और संरक्षणवाद को आदर्श मान उसपर चलने का प्रयास कर रहा है। उदाहरण के तौर पर फिल्म दीवार के विजय को देख लीजिए। विजय खल पात्र है और उसका पुलिस इंस्पेक्टर भाई नायक।

80 के दशक में आकर नायक नए बने शहरों के गुंडों मवाली दादा और हफ्ता वसूली करने वाले जैसे खलनायकों से दो चार होता है। यह समय हमारे नवोदित शहरों में आकर बसे गांव के नायक के शहर के नए माफिया से लड़ने का है। यह समाज का अंधकार युग है जहां आज़ादी के तीन दशक के बाद भी हमारा नायक अपने ही समाज के नए गुंडा तत्वों से लड़ रहे हैं। फूल और कांटे, हम और उस समय की कई फिल्मों में आप यह समय महसूस करते हैं।


फिर आता है 90 का दशक। देश आर्थिक सुधारों की दिशा में चल पड़ता है। सब कुछ अच्छा होने लगता है, हमारी फिल्मों से भी खलनायक गायब हो जाता है। मैंने प्यार किया, दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे, हम आपके है कौन , और दिल चाहता है जैसी फिल्मों में कोई खल पात्र नहीं है। परिस्थितियां ही खलनायक हैं , नायक अपने अन्तर्द्वंद से लड़ रहा है। समाज एक नई सदी में आंखें खोलने के लिए तैयार है।

बीच बीच में सेना आधारित युद्ध कहानियों को छोड़ दें तो हमारा खलनायक हमारे समाज से ही है। फिल्म  लगान में आकर हमारा नायक एक विदेशी खलनायक से लड़ता है। यहां खलनायक ब्रिटिश है, गौर करने की बात है कि हमारे नायक को अंग्रेजों से लड़ने की याद 50 के दशक में नहीं आती क्योंकि वह अपनी भूख से लड़ रहा होता है। अब हरित क्रांति हो चुकी है, भूख वैसी समस्या नहीं है, लाइसेंस कोटा राज समाप्त हो चुका है तो तस्कर वाला खलनायक भी कहानी से जा चुका है। इसलिए हमारा नायक अपनी इतिहास में जाकर अपनी अस्मिता के लिए लड़ता है।

हमारे वर्तमान  दशक में आ जाएं तो खलनायक देश के बाहर है। उरी, डी डे, बेबी, फैंटम जैसी फिल्मों में नायक देश के बाहर जाकर लड़ता है।  देश के अन्दर के खल पात्र निर्मूल हो चुके हैं। यह देश के विकास की अगली कड़ी है।

आगे हमारा नायक किस खलनायक से लड़ेगा, यह देखने के लिए आपको हॉलीवुड जाना पड़ेगा। वहां का नायक अपने समाज के खलनायकों को समाप्त कर चुका है, रैंबो , रॉकी और बॉण्ड बनकर अपने पड़ोसियों को भी हरा चुका है, इसलिए उसका खलनायक पारलौकिक है। वह लोकी, थानोस के रूप में आता है। भारत का नायक आसमान की तरफ अब भी प्रार्थना और आस की निगाह से  देखता है इसीलिए आसमान से उसके लिए जादू जैसा मासूम सहयोगी आता है जबकि अमरीकी नायक के लिए थानोस जैसा खलनायक। सिर्फ आगे ही क्यों पीछे भी मुड़  कर देखिए,भोजपुरी नायक अब भी जमींदार से लड़ता है और नायिका पानी भरने जाते समय उसके मनचले बेटों की फब्तियां सहती है।

इसलिए शायद कहा गया है कि दोस्ती और दुश्मनी बराबर वालों में होती है। आपके जीवन का खलनायक वास्तव में आपकी औकात बताता है। खलनायक आपकी सामाजिक, आर्थिक और कुछ हद तक आध्यात्मिक प्रगति का पैमाना है। तो आज किससे लड़ने वाले हैं आप? 

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