गुजरते हो जिन राहों से
अपनी कार का शीशा चढ़ाए
अपनी आंखों पर काला चश्मा लगाए
अपने कानो पर हेडफोन लगाए
उन्हीं राहों से कभी पैदल गुजर कर देखो तो।
जिस पुलिया के नीचे
बारिश से बचने को
हेलमेट उतार कर अपने भीगे रुमाल से
अपना भीगा सर पोछते
मोटर साइकिल वालों को देखते हो,
उसी पुलिया के एक कोने पर
तुम्हारे गांव का एक परिवार
रहता है चुपचाप
कांच के छोटे गिलास में बेचता है चाय
कभी उसकी दुकान पर फुरसत से
रुक कर देखो तो।
जिस सड़क के किनारे पेड़ को
देख खीझते हो कि बढ़ गई हैं
कितनी इसकी टहनियां
लगती है खरोंच मेरे कार पर इसकी
बढ़ी बेतरतीब डालियों से
उसी टहनी के उपर मैना ने बनाया है
एक घोसला, दो चूजे भी हैं
ट्रैफिक के शोर में ना सुनाई देती
कूक भी फैली है उधर
हेडफोन उतार कर मैना परिवार का संवाद
सुन कर देखो तो।
जिस सब्जी बेचते ठेले वाले से
कार में बैठे बैठे ही मोल भाव कर,
तुलवा लेते हो ताज़ी हरी सब्जियां
उसी ठेले के नीचे बैठी रहती है,
उसकी छोटी बेटी अपनी स्लेट
पेंसिल के साथ ककहरा सीखते,
बीच बीच में बेटी को पढ़ाता है,
तुम्हारा सब्जी वाला अपनी दुलारी
का शिक्षक भी तो है,
कभी उसकी दुकान से परे
उसके छोटे स्कूल में
जाकर देखो तो।
खोलता है दौड़कर गेट तुम्हारे लिए
रफू की गई वर्दी पहने सिक्युरिटी गार्ड,
उसकी फटी जेब से झांकता रहता है
मनीऑर्डर की गंदली रसीदों का बंडल,
एक फूटे स्क्रीन वाले छोटे से
फोन से किससे बतियाता रहता है,
शायद उसका जन्मदिन हो आज
या बेटा पास हुआ हो मैट्रिक परीक्षा,
शायद पता चल जाय
उसकी मुस्कुराहट का राज,
उसके सलाम का जवाब प्यार से
देकर देखो तो।
कभी कार से उतर कर
धूप धूल की परवाह किए बगैर
गुजरते हो जिन राहों से
उन्हीं राहों से कभी पैदल
गुजर कर देखो तो।
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