Friday, August 14, 2020

यह अनेकता में एकता किस चिड़िया का नाम है??

हर साल की तरह हमारा स्वतंत्रता पर्व आ गया। 74 वां स्वतंत्रता दिवस जहां हम अपना तिरंगा गर्व से लहराएंगे। स्कूलों में बच्चों को भाषण दिया जाएगा । वही बातें सुनाई जाएगी जो सुन सुन कर हम कुछ अभ्यस्त से हो चुके हैं, जिन बातों के कोई खास अर्थ हमें समझ नहीं आते। हमें लगता है कि यह सब बस कहने की बातें हैं, जिनका वास्तविक जीवन से कोई संबंध शायद ही हो । उनमें से ही एक बात है कि भारत में विविधता में एकता है। कक्षा पांच से लेकर पीएचडी तक के छात्र यह बात लिखते रहते हैं कि भारत में अनेकता में एकता है। आखिर इसका अर्थ क्या है? हम सभी भारत के नागरिक हैं, हमारा एक ही झंडा है, एक ही राष्ट्र गान है, एक ही संसद है और एक ही संविधान है। एक ही सेना के शौर्य की गाथाएं हमें गौरवान्वित करती हैं और एक ही क्रिकेट टीम को लेकर हम इंडिया इंडिया चिल्लाते हैं। क्या यही अनेकता में एकता है जो कारगिल से कन्याकुमारी और सोमनाथ से कामाख्या तक लोगों में फैला है और जिसकी घुट्टी हमें पिलाई जाती रही है ?

अगर हाँ तो 26 जनवरी 1950 से पहले हम सभी एक देश के नागरिक नहीं थे, यह तिरंगा भी 80 साल पहले नहीं था, हमारी सेना तो ब्रिटिश सेना का वह हिस्सा है जो बटवारे के बाद हमारे हिस्से आया, और क्रिकेट टीम को 1983 से पहले शायद ही कोई जानता भी था। तो क्या यह विविधता में एकता कोई हाल की घटना है? या अंग्रेजों को साझा शोषक के रूप में झेलने के बाद हम जिस एकता के सूत्र में बंध गए,यह वही है । अगर ऐसा है तो हमारी अनेकता में एकता उन कैदियों की दोस्ती के जैसी है जो एक साथ सजा काटने के कारण आत्मीय दोस्त बन गए। सब लोग मानेंगे कि यह विविधता में एकता कोई सौ दो सौ साल पुरानी चीजों नहीं है, उससे ज्यादा पुरानी होनी चाहिए।

‌अगर यह एकता हमें अंग्रेज़ नहीं दे गए तो फिर क्या है यह अनेकता में एकता। एक कश्मीरी और एक तमिल की भाषा, खानपान, पहनावा, पूजा पद्धति , विवाह संस्कार में कोई मेल नहीं है। उसी प्रकार एक तेलगू युवक और एक भोजपुरी युवक के संगीत की पसंद में शायद ही कोई साम्य हो!! ऐसे वैषम्य और वैविध्य को देख कर लगता है कि कि हमारी अनेकता में एकता शायद राजनीतिक व्यवस्था के स्तर पर ही है, चूंकि हमारे पासपोर्ट का रंग एक है, इसलिए हम एक हैं। मतलब यह कि यह एकता 70-75 साल पुरानी है और बार बार बच्चों को दुहराई जाती है ताकि एक राजनीतिक प्रभुसत्ता का आवरण जो विविध लोगों को समेटे हुआ है, फट ना जाए। यह अनेकता में एकता की ठंडी जलधारा हमपर उड़ेली जाती है ताकि बार बार होने वाले दंगे, क्षेत्रीय विवादों और अनवरत चलते सामाजिक घर्षण के उत्पन्न उष्मा अग्नि का रूप ना ले ले। मतलब कि हम वास्तव में सौ अलग राष्ट्र हैं जिनको अंग्रेजों ने एक साथ प्रताड़ित किया और जब वे चले गए तो सरदार पटेल जैसे लोगों ने सबको एक साथ कर दिया, और सब लोग 'को नृप होय हमें का हानि' के भाव से एक साथ आ गए। यह अनेकता में एकता कुछ नहीं बस एक साझा झूठ है जो हम अपने आप को दोहराते रहते हैं जैसे किसी बीमार को समय समय पर पेन किलर का इंजेक्शन दिया जाता है ताकि उसका दर्द उसको महसूस ना हो।
‌फिर दिल कहता है कि अगर यह झूठ है तो कोई झूठ इतना लंबा नहीं चलता, यह झीना आवरण जरूर फटता और पैनकिलर का असर कभी ना कभी हट ही जाता। जरूर कुछ ऐसा है जो हमें उपर से दिखता नहीं।
‌चलिए थोड़ा गहराई में चलते हैं। मान लें हम उस भारत में खड़े हैं जहां कि हमारे पास ना संविधान है , ना तिरंगा, या कोई क्रिकेट टीम और ना एक ही रंग का पासपोर्ट। बाबाधाम देवघर का एक देहाती किसी तरह मुंबई पहुंच जाता है । उसको ना वहां की भाषा समझ आती है और ना ही बड़ा पाव का एक निवाला उसके गले से उतरता है। मुंबई की अपार भीड़ में एक विशाल जत्था उसको दिखता है जो विनायक लम्बोदर के नारे लगा रहा है। अचानक से उसके चेहरे पर एक मुस्कान फैल जाती है कि अरे इधर के लोग इतने भी अजनबी नहीं हैं, वह बाबा का भक्त है और यह अजनबी लोग बाबा के बेटे गणेश की पूजा करते हैं।उसके बगल में खड़ा मथुरा का एक भैया और एक गुजराती छोरा यह महसूस करता है कि उनका कान्हा और विट्ठल ही इधर गोविंदा कहलाता है। अब झारखंड, गुजरात और मथुरा के तीनों लड़के अपने एक मराठी मित्र के घर जाते हैं । बिना कहे तीनों घर के बाहर ही चप्पल उतार देते हैं। यह तो किसी ने नहीं सिखाया कि चप्पल पहन के घर में नहीं आते। घर में घुसते ही सामने उनके नए बने मराठी दोस्त की मां दिखती है, तो तीनों अपने आप उसके चरण स्पर्श करने को झुक जाते हैं। तीनों को आश्चर्य होता है कि जहां के लोगों की भाषा , खानपान और कपड़े उसे बिल्कुल समझ नहीं आते था, उनके घर में भी एक छोटा सा पूजा स्थान है बिल्कुल वैसा जैसा उनके घर झारखंड, गुजरात और मथुरा में है। घर में पूजा शुरू होने ही वाली है तो दोस्त की आई आकर सबके सर पर चंदन लगाती है, बाहर से गुजरता एक तमिल युवक हतप्रभ हो जाता है कि इधर के लोग ललाट पर वैसे ही चंदन लगाते हैं जैसा कि उसके घर रामेश्वरम में लगाते हैं। पड़ोस में बसा हैदराबाद के मुस्लिम युवक के लिए भी खुशियां सिर्फ ईद तक सिमटी नहीं है, उनकी खुशियां गणेश चतुर्थी भी हैं क्योंकि विनायक की मूर्ति वही बनाते हैं और मेले में दुकानें भी वही लगाते हैं।
‌इस कहानी को और भी बढ़ाया जा सकता है । देश का हर समुदाय इस कहानी में एक पात्र बन कर आ सकता है जिससे यह सिद्ध होता है कि कोई एक अंतर्धारा है जो इन सबको जोड़ती है।
‌यह अंतर्धारा संविधान, झंडे और सरकार जैसी स्थूल ना होकर सूक्ष्म है। इसको देखना कठिन है लेकिन महसूस करना आसान है। यह सूक्ष्म अंतर्धारा हमारी नैतिकता, पारिवारिक मूल्यों, आस्था और हमारे जीवन सिद्धांतों में परिलक्षित है। जैसे एक गाना है कि तेरा मुझसे है पहले का नाता कोई, यूं ही नहीं दिल लुभाता कोई। यह रिश्ता कोई सत्तर साल साल या दो सौ साल पुराना नहीं है, हजारों वर्षों पुराना है।
‌अशोक ने अफ़ग़ानिस्तान से लेकर उत्कल तक तलवार के बल पर सैन्य विजय हासिल की, लेकिन उसकी सेनाओं ने स्त्रियों का हरण नहीं किया, पराजित राजाओं को अपना दास नहीं बनाया। यह मूल्य अशोक में कहां से आए? थोड़ा पीछे जाने पर हमें उत्तर मिल जाता है कि यही कार्य उससे कहीं पहले राम कर चुके थे। बालि और रावण वध के बाद किष्किंधा और श्रीलंका की स्त्रियों का हरण नहीं किया, उसे अपने राज्य में नहीं मिलाया।
‌आगे चल कर हम इन्ही मूल्यों को विविध रूप में देख सकते हैं | यही वह मूल्य हैं जिसके बदौलत एक गुजराती बोलने वाला व्यक्ति चंपारण में भोजपुरी बोलने वाले अनपढ़ किसानों से आत्मीय संबंध बना पाता है और भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की शुरुआत करता है। वहां पर उनकी विविधता उनके बीच आड़े नहीं आती बल्कि वही अंतर्धारा एक कड़ी बन कर उनको जोड़ लेती है। केरल का एक पंडित पूरे भारत में सनातन धर्म के एकता सूत्र में बांध देता है। राम, बुद्ध, अशोक, अकबर ,शंकर और फिर गांधी के व्यक्तित्व में आपको वही धारा प्रवाहित दिखेगी। ये बड़े नाम बड़ी नदियां हैं और हम साधारण जन उसकी सहायक छोटी असंख्य धाराएं।
‌एक प्रसंग याद आता है जब लोकसभा में स्पीकर सोमनाथ चटर्जी, विपक्ष की नेत्री सुषमा स्वराज को व्यंग्यात्मक अंदाज में पूछते हैं कि यह सांस्कृतिक राष्ट्रवाद क्या है? सुषमा जी मुस्कुराते हुए जवाब देती हैं कि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद वह है जिसके कारण एक बंगाली परिवार अपने बेटे का नाम गुजरात के एक मंदिर के नाम पर रखता है। और पूरा सदन ठहाकों से गूँज उठता है |


बंगाल के गौरांग महाप्रभु मिथिला कोकिल विद्यापति के भजन गाते हैं। एक पंजाबी रवि कपूर की बेटी तिरुपति की पहाड़ियों पर बसे एक देवता के नाम पर अपनी कंपनी का नाम बालाजी टेलीफिलम्स रखती है। कश्मीर के केसर के बिना हैदराबाद की बिरयानी नहीं बनती और एक मराठी शिवाजी राव गायकवाड़ रजनीकांत बन कर तमिल दिलों पर राज करता है। बांग्ला भाषा में शिक्षा पाया सुर्ज कुमार तिवारी हिंदी का निराला बन जाता है तो मराठी भाषी मुक्तिबोध हिंदी भाषा में चांद का मुखड़ा टेढ़ा होने के उद्घोषणा करता है। एक गुजराती हिंदी में सत्यार्थ प्रकाश लिखता है तो एक पांडे परिवार का लड़का बांग्लादेश की फिल्मों का नायक बन जाता है। रांची का एक युवक चेन्नई की क्रिकेट टीम का निर्विवाद लोकप्रिय कप्तान बनता हैऔर रालेगण सिद्धि का एक वृद्ध भ्रष्टाचार के विरुद्ध पूरे देश की युवा पीढ़ी का नेतृत्व कर पाता है।
‌ हरि अनन्त हरि कथा अनंता। भारत वर्ष की अनेकता में एकता की कहानियां जीवन के हर संदर्भ में महसूस की जा सकती हैं। हम वह राष्ट्र हैं जो राष्ट्रवाद की संकुचित परिभाषा से ऊपर है, हम वह समाज हैं जिसे समाज शास्त्र नहीं समझ सका और हम वह धर्म हैं जहां धर्म जीवन है ना कि जीवन की परिधि निर्धारित करने वाली कृत्रिम बंधनों का एक समुच्चय। शायद यही हमारी विविधता में एकता का एक अर्थ है।

स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाएं।। जय हिन्द। जय मातृभूमि।।

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