6 दिसंबर 2019। स्कूली छात्राओं की एक बस एक पुलिस नाके से गुजरती है। ड्यूटी पर खड़े पुलिस वाले को एक सुखद सा आश्चर्य होता है। स्कूली लड़कियों का वह जत्था पुलिस वालों पर फूल बरसा कर गुजर जाता है। आस पास खड़े लोग तालियों से इसका स्वागत करते हैं। हैदराबाद की एक डॉक्टर के सामूहिक बलात्कार के आरोपियों को तड़के एक एनकाउंटर में मारे जाने को लेकर जनता पुलिस की वाह वाही बटोर रही थी।
सुशांत सिंह राजपूत के मामले की चल रही जांच के 6 हफ़्ते बीतने के बाद भी कोई प्रगति होती ना देख उसके पिता पटना में एक प्राथमिकी दर्ज कराते हैं। पुलिस मुंबई पहुंचती है लेकिन स्थानीय पुलिस का कोई सहयोग नहीं मिलता। दिशा सालियान के मामले से जुड़े दस्तावेज डिलीट हो जाते हैं। बिहार की पुलिस एक ऑटो में बैठकर धूल फांकती फिरती है। बिहार के एक आईपीएस आफिसर को मुंबई पहुंचने पर जबरदस्ती नजरबंद कर दिया जाता है।
शायद आपको आश्चर्य हो या शायद ना हो, कि हमारा संसद भवन मात्र 90 साल पुराना है, और हमारी पुलिस व्यवस्था 160 साल पहले बने कानून के आधार पर चलती है। जब यह कानून बन रहा था तो इसकी प्रस्तावना में लिखा है कि यह कानून एक ऐसे पुलिस की स्थापना करेगी जो " राजनीतिक रूप से उपयोगी" हो। ऊपर की दो घटनाओं में भले ही एक में पुलिस को तालियां मिली और दूसरे में गालियां, इन दोनों घटनाओं के मूल में एक ही बात है। पुलिस बल का राजनीतिक उपयोग।
आजादी के बाद हमने शिक्षा, उद्योग, कृषि हर क्षेत्र में आमूलचूल परिवर्तन किये, लेकिन अपनी औपनिवेशिक विरासत में मिले औपनिवेशिक पुलिस व्यवस्था को बदलने की दिशा में शायद ही कोई प्रयास किया। शुरू के कुछ सालों तक इस व्यवस्था की खामी का अहसास हमें इसलिए नहीं हुआ क्योंकि उस समय का राजनीतिक वर्ग देशप्रेम और समाज कल्याण , नैतिकता के उच्च आदर्शों से चालित था। बाद में जैसे ही हमारी राजनीतिक व्यवस्था में नैतिकता का पतन हुआ, पुलिस की छवि बिगड़ती चली गई। पुलिस के व्यापक राजनीतिक दुरुपयोग का पहला प्रयोग आपातकाल के दौरान हुआ। उसके बाद मोरारजी देसाई की सरकार ने वर्ष 1977 में पुलिस सुधारों के लिए धर्मवीर कमिटी बनाई, जिसने काफी लगन से अपना कार्य किया । दुर्भाग्य से जब तक धर्मवीर कमिटी ने अपनी रिपोर्ट सौंपी, इंदिरा गांधी की सरकार वापस आ चुकी थी। इंदिरा जी की सरकार ने मोरारजी सरकार द्वारा उठाए गए अच्छे कदम को आगे बढ़ाने में कोई रुचि नहीं दिखाई।
हमारी पुलिस की समस्या क्या है? एक की चर्चा हम पहले कर चुके हैं कि पुलिस का ढांचा , उसकी उत्पत्ति ही औपनिवेशिक आकाओं की हित साधना के लिए हुआ है। यह ढांचा अब भी बरकरार है। नाके पर खड़े एक पुलिस कांस्टेबल का उदाहरण लीजिए। अगर एक उस खबर मिले कि फलां बाज़ार के पास ट्रैफिक लाइट खराब हो गई है और बहुत लंबा जाम लगा है जिससे हटाना बहुत जरूरी है। वो वहां के लिए निकल ही रहा है कि वायरलेस पर मुख्यमंत्री के काफिले के उसके नाके से गुजरने की घोषणा होती है। सोचिए कि वह पुलिस वाला क्या करेगा? वह मुख्यमंत्री के काफिले को पहले पार करायेगा। चाहे वह जाम अगले 3 घंटे तक लगा रहे। यहां हमने ट्रैफिक जाम का उदाहरण लिया , आप कुछ और भी सोच सकते हैं जिसमें हत्या, और दंगा तक शामिल कर सकते हैं। ट्रंप दौरे के दौरान दंगाई सफल क्यों हो गए, इसके एक वजह भी पुलिस की इस संरचना में छुपा है। वर्तमान में पुलिस की कार्य वरीयता में जनता की सेवा का स्थान बहुत या कहें तो सबसे नीचे है, यह इसकी संरचनात्मक खामी है, या यूं कहें कि इसे ऐसा ही बनाया गया है।
इससे पहले कि आप हमारी पुलिस को पूरी तरह भ्रष्ट, निकम्मी, असंवेदनशील मान लें, आपको पुलिस व्यवस्था पर पड़ रहे चौतरफा राजनीतिक, नौकरशाही , संसाधनों की कमी और काम की अधिकता के असहनीय दबाव के बारे में सोचना होगा। इतने दवाब में हमारी पुलिस कार्य कर रही है कि उसको देख कर आपकी संवेदना उनके साथ जा बैठेगी। तब भी आपका मन ना भरे तो अमरीका की अफ़ग़ानिस्तान में पुलिसिंग, सिंगजियांग और लहासा में चीन की पुलिसिंग , बलोचिस्तान में पाकिस्तान की पुलिसिंग या वापस से मिनियापोलिस में जॉर्ज फ्लोयड की गर्दन दबाते अमेरिकन पुलिस को देख लें, आपका संदेह दूर हो जाएगा। इतनी विपरीत परिस्थितियों में भी हमारी पुलिस विश्व के सबसे अनुशासित पुलिस बलों में शामिल है।
हां सुधारों की आवश्यकता एक लंबे समय से है। उच्चतम न्यायालय ने इस दिशा में कई दिशा निर्देश जारी किए है, जिनका एक ही लक्ष्य है कि पुलिस जनता की पुलिस बने ना कि शासक वर्ग की हित साधने की एक मशीनरी। हमारे पुलिस बल को यह विश्वास दिलाना जरूरी है कि अगर वह अपना काम यानि जनता की सेवा पूरी लगन से कर रहे हैं तो उनका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता।
एक पुलिस की वर्दी पहने इंस्पेक्टर से यह उम्मीद की जाती है कि वह सिंघम जैसा सख्त हो, शेरलॉक होम्स जैसा अपराध अनुसंधान करे, यहां तक कि सिंबा की तरह आंख मारे पर डांस तक करे लेकिन हाथी राम जैसा ईमानदार भी हो। दिक्कत यह है कि पुलिस का रोल करने वाले को हमारे यहां करोड़ों मिलते हैं, पुलिस का काम करने वालों का घर तक मुश्किल से चले ऐसी पगार दी जाती है। पुलिस का किरदार निभाने वाले एंग्री यंग मैन बन जाते हैं और ज़िन्दगी भर पुलिस का काम करने वाले ठुल्ले कहलाते रहते हैं। जब तक यह सब नहीं बदलेगा, हमारी पुलिस सबसे अंत में पहुंच कर यही डायलॉग मारती रहेगी कि अपने आप को पुलिस के हवाले कर दो,कर दो ना प्लीज़। अपराधी यही डायलॉग मारते रहेंगे कि डॉन को पकड़ना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है। डॉन ऐसा बोल पाता है क्योंकि डॉन को अपनी ताकत से ज्यादा पुलिस की मजबूरियों पर भरोसा है। उसका यही भरोसा तोड़ने जरूरत है। फिर हमारी फिल्मों की तरह हमारा सिंघम भी जयकांत शिकरे की अच्छे से बजाएगा, ना कि रीयल लाइफ में शिकरे की ड्यूटी बजाएगा।
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