Sunday, August 30, 2020

विलुप्त होते कंपोंडर साब।।

बाघ से ज्यादा विलुप्त होती प्रजातियों में एक है कंपाउंडर या जैसा कि सामान्यता हम कंपोंडर कहते थे। बड़े बुजुर्ग उनको कमपोंडर साहब भी कहते थे। कुछ ऐसा ही रुतबा होता था  कंपोंडर का। डाक्टर अगर भगवान का रूप है तो कंपोंडर की कृपा दृष्टि प्राप्त करना वह तपस्या जो भगवान के दर्शन के लिए आपको करनी पड़ती है। 

गांवों में जब यह आधुनिकता की बयार नहीं पहुंची थी, सर दर्द, कमर दर्द, दांत दर्द और दिल के दर्द के दवा अलग अलग नहीं मिलती थी, कुछ ही दवाएं थी जो सब का इलाज़ करती थी ।दवाओं से ज्यादा डाक्टर के भरोसे से इलाज होता था, तब कंपाउडर की एक महत्ता थी। वह डाक्टर साहब की आंखों के इशारे को समझ कर सही दवा की बॉटल उठा लाना, कोई आसान काम नहीं है । मरीज़ के परिवार की लाई हुई साफ की गई कांच की शीशी में तीन दवाओं को पीस कर एक लाल घोल तैयार कर डालना, और उस बोतल को हिला हिला कर मिलाना जब तब दवाओं का सतरंगी घोल जो  कांच की सफ़ेद बोतल के साथ साथ मरीज़ के चेहरे पर भी रंगीन मुस्कान ले आये , यह सारा काम कंपोंडर ही करते थे। डाक्टर साब की खराब मोहनजोदड़ो की लिपि में लिखे पर्चे को पढ़कर यह बताना कि  कौन सी  दवाई की खुराक क्या है, यह काम किए बना आप सफल कंपोंडर नहीं बन सकते थे। पता नहीं क्यों हमने अपने कंपोंडर जनों को हड़प्पा की लिपि पढ़ने के काम में क्यों नहीं लगाया। जो डाक्टर के पर्चे पढ़ सकता है, एक सभ्यता की लिपि पढ़ना उसके लिए दुरूह नहीं होता।

कंपोंडर हमारे समाज का एक लोकप्रिय और महत्वपूर्ण सदस्य था। नई बहुएं जो  सामाजिक रिश्ते में भैंसुर या ससुर लगने वाले डाक्टर के पास नहीं आ सकती उनको सुई देने का काम कंपोंडर ही करते थे। दूर गांव में जहां विकास का प्रकाश आधा अधूरा ही पहुंचा है, वहां पूरा डाक्टर कैसे पहुंच सकता है। वहां पर कंपोंडर ही डाक्टर बन जाता था। दुनिया भले आज उनको झोला छाप कहे, यह समझे कि  गांव वाले बेवकूफ हैं जो इनको नहीं पहचानते तो आपकी समझ अधूरी है। गांव वाले डाक्टर और कम्पोंडर का अंतर करने के लिए एक पारिभाषिक शब्दावली का प्रयोग करते हैं | जो डिग्री वाले डाक्टर हैं, उनके नाम के पहले डाक्टर लगता है, जैसे डाक्टर प्रमोद। यही प्रमोद अगर कंपोंडर हैं तो उनका नाम होगा प्रमोद डाक्टर। तो गांव वालों को गंवार समझने की भूल तो मत ही करिएगा।

 पहले जब डाक्टर हरेक छोटी चीज के लिए टेस्ट नहीं लिखते थे, तो कंपोंडर ही उनका निजी मानवीय पैथ लैब होता था। कंपोंडर मरीज़ को देखते ही समझ जाते थे, टेस्ट कराने और उसकी रिपोर्ट का इंतज़ार करने का झंझट नहीं | खालिस अनुभव और अर्जित ज्ञान के बल पर शुरू जो जाते थे कम्पोंडर साब।  वात र दरद ची कै, पछिया हवा र कारण दरद उठी गेला छै। खेसारी र दाल अखनि  दू मैनहा बंद करी दह। ( वात का दर्द है, यह पछुवा हवाओं के कारण फिर से उभर आया है। आप दो  महीने खेसारी की दाल का सेवन नहीं करें) । 

डाक्टर साहब तो सिर्फ दवाई देते थे, बाकी सारी बातें तो कंपोंडर ही बताता था। मूंग दाल र पतला खिचड़ी और कच्चा केला र सन्ना एक हफ़्ता खा करी का देख, सं ठीक हो जैथों। आराम नय होथों तब दवाई बदलैल पड़ तै। ( आप एक सप्ताह मूंगदाल की पतली खिचड़ी और कच्चे केले का चोखा खाइए। सब ठीक हो जाएगा। आराम नहीं होने पर हम दवाई बदलेंगे) ।  कंपोंडर हमरा न्यूट्रिशनिस्ट भी था और मेंटल कौंसिलर भी। आपके  घाव की मरहम पट्टी के साथ अपनी उत्साह पूर्ण और आशा भरी बातों से आपको संबल देता था। पता नहीं समाज उसकी बनाई गई लाल दवा की शीशी से ठीक होता था या उसकी बातों से। जो भी था समाज स्वस्थ हो जाता था। 

हां एक और काम जो उसे करना पड़ता था वह था डाक्टर की फीस लेने का। आज के शहरी डाक्टरों के असिस्टेंट / एजेंट बस इतना ही काम करते हैं वह भी बिना किसी आत्मीय भाव से। कंपोंडर अपने शहरी समकक्षों की तरह हफ्ता वसूली एजेंट नहीं था, सबकी बात समझता था, सुनता था। अभी बेटे का मनीऑर्डर नहीं आया, फसल अभी काटी नहीं है तो इलाज नहीं रुकता था। कंपोंडर साब संभाल लेते थे। 




शायद इतने गुण थे उसमें इसलिए वह विलुप्त हो गया। या शायद आज कोई कंपोंडर आ भी जाए तो हम उसको  झोलाछाप, क्वेक और क्या क्या ना कह दें । अब हमें एसी चैंबर्स में बैठे हफ्ता वसूली करने वाले शायलोक ही मिल सकते हैं, कंपोंडर साब खुली हवा के प्राणी थे, एसी चैंबर में उनकी सांस शायद घुट जाती। कौन जाने शायद कंपोंडर के वजह से ही डाक्टर भगवान का रुप था। जब से कंपोंडर गया, डाक्टर भी मात्र व्यापारी ही रह गया। 

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