Monday, August 31, 2020

छोटा और बड़ा

छोटी हो रही खुशियां
बड़े हो रहे गम
बड़ा होता जा रहा अंतर्तम
बड़ी हो रही वह खाई विषम
बड़ी लगने लगी ज़िन्दगी
इसके जुल्म औ सितम

मशीनें होती जा रही छोटी
सोच होती जा रही छोटी
परिधि दोस्ती की हो रही छोटी
व्यापक दृष्टि होती जा रही छोटी

बड़ा हो रहा व्यक्तित्व
छोटा हो रहा मानव का सत्व
जिसे होना था बड़ा
वह हो रहा छोटा
जिसे सोचा था मिटा
देंगे सदा के लिए
बड़ा होता जा रहा
जो है खोटा

जब तब है यह आलम
तब तक चलेगा यह खेल
बड़े छोटे का
देखता जमाने के साथ
अपलक खड़ा मैं
अपनी छोटी आंखों से
बड़ा हो रहा छोटा
छोटा हो रहा बड़ा

शायद निकले रास्ता इसी
छोटे बड़े के खेल में
शायद कोई बड़ा ले अवतार
ले जन्म कंस की जेल में
या अपने बीच का ही कोई
छोटा बनेगा बड़ा
वह छोटा जो अभी है
बीज जैसा
अभी भले है
मिट्टी में गड़ा
खाद बनाएगा उस कचरे को
जो है गंदा और सड़ा

सड़े खाद से पोषित
निकलेंगी छोटी कोंपले
वो छोटे से पत्ते
मुंह चिढ़ाते कचरे के बड़े ढेर को




छोटा बीज निगल जाएगा
कचरे को खाद बना
छोटा दीप निगलेगा
बड़े अंधकार को
चलता रहेगा यह खेल
छोटे बड़े का
बड़े के छोटे
और छोटे के बड़े होने का।

Sunday, August 30, 2020

विलुप्त होते कंपोंडर साब।।

बाघ से ज्यादा विलुप्त होती प्रजातियों में एक है कंपाउंडर या जैसा कि सामान्यता हम कंपोंडर कहते थे। बड़े बुजुर्ग उनको कमपोंडर साहब भी कहते थे। कुछ ऐसा ही रुतबा होता था  कंपोंडर का। डाक्टर अगर भगवान का रूप है तो कंपोंडर की कृपा दृष्टि प्राप्त करना वह तपस्या जो भगवान के दर्शन के लिए आपको करनी पड़ती है। 

गांवों में जब यह आधुनिकता की बयार नहीं पहुंची थी, सर दर्द, कमर दर्द, दांत दर्द और दिल के दर्द के दवा अलग अलग नहीं मिलती थी, कुछ ही दवाएं थी जो सब का इलाज़ करती थी ।दवाओं से ज्यादा डाक्टर के भरोसे से इलाज होता था, तब कंपाउडर की एक महत्ता थी। वह डाक्टर साहब की आंखों के इशारे को समझ कर सही दवा की बॉटल उठा लाना, कोई आसान काम नहीं है । मरीज़ के परिवार की लाई हुई साफ की गई कांच की शीशी में तीन दवाओं को पीस कर एक लाल घोल तैयार कर डालना, और उस बोतल को हिला हिला कर मिलाना जब तब दवाओं का सतरंगी घोल जो  कांच की सफ़ेद बोतल के साथ साथ मरीज़ के चेहरे पर भी रंगीन मुस्कान ले आये , यह सारा काम कंपोंडर ही करते थे। डाक्टर साब की खराब मोहनजोदड़ो की लिपि में लिखे पर्चे को पढ़कर यह बताना कि  कौन सी  दवाई की खुराक क्या है, यह काम किए बना आप सफल कंपोंडर नहीं बन सकते थे। पता नहीं क्यों हमने अपने कंपोंडर जनों को हड़प्पा की लिपि पढ़ने के काम में क्यों नहीं लगाया। जो डाक्टर के पर्चे पढ़ सकता है, एक सभ्यता की लिपि पढ़ना उसके लिए दुरूह नहीं होता।

कंपोंडर हमारे समाज का एक लोकप्रिय और महत्वपूर्ण सदस्य था। नई बहुएं जो  सामाजिक रिश्ते में भैंसुर या ससुर लगने वाले डाक्टर के पास नहीं आ सकती उनको सुई देने का काम कंपोंडर ही करते थे। दूर गांव में जहां विकास का प्रकाश आधा अधूरा ही पहुंचा है, वहां पूरा डाक्टर कैसे पहुंच सकता है। वहां पर कंपोंडर ही डाक्टर बन जाता था। दुनिया भले आज उनको झोला छाप कहे, यह समझे कि  गांव वाले बेवकूफ हैं जो इनको नहीं पहचानते तो आपकी समझ अधूरी है। गांव वाले डाक्टर और कम्पोंडर का अंतर करने के लिए एक पारिभाषिक शब्दावली का प्रयोग करते हैं | जो डिग्री वाले डाक्टर हैं, उनके नाम के पहले डाक्टर लगता है, जैसे डाक्टर प्रमोद। यही प्रमोद अगर कंपोंडर हैं तो उनका नाम होगा प्रमोद डाक्टर। तो गांव वालों को गंवार समझने की भूल तो मत ही करिएगा।

 पहले जब डाक्टर हरेक छोटी चीज के लिए टेस्ट नहीं लिखते थे, तो कंपोंडर ही उनका निजी मानवीय पैथ लैब होता था। कंपोंडर मरीज़ को देखते ही समझ जाते थे, टेस्ट कराने और उसकी रिपोर्ट का इंतज़ार करने का झंझट नहीं | खालिस अनुभव और अर्जित ज्ञान के बल पर शुरू जो जाते थे कम्पोंडर साब।  वात र दरद ची कै, पछिया हवा र कारण दरद उठी गेला छै। खेसारी र दाल अखनि  दू मैनहा बंद करी दह। ( वात का दर्द है, यह पछुवा हवाओं के कारण फिर से उभर आया है। आप दो  महीने खेसारी की दाल का सेवन नहीं करें) । 

डाक्टर साहब तो सिर्फ दवाई देते थे, बाकी सारी बातें तो कंपोंडर ही बताता था। मूंग दाल र पतला खिचड़ी और कच्चा केला र सन्ना एक हफ़्ता खा करी का देख, सं ठीक हो जैथों। आराम नय होथों तब दवाई बदलैल पड़ तै। ( आप एक सप्ताह मूंगदाल की पतली खिचड़ी और कच्चे केले का चोखा खाइए। सब ठीक हो जाएगा। आराम नहीं होने पर हम दवाई बदलेंगे) ।  कंपोंडर हमरा न्यूट्रिशनिस्ट भी था और मेंटल कौंसिलर भी। आपके  घाव की मरहम पट्टी के साथ अपनी उत्साह पूर्ण और आशा भरी बातों से आपको संबल देता था। पता नहीं समाज उसकी बनाई गई लाल दवा की शीशी से ठीक होता था या उसकी बातों से। जो भी था समाज स्वस्थ हो जाता था। 

हां एक और काम जो उसे करना पड़ता था वह था डाक्टर की फीस लेने का। आज के शहरी डाक्टरों के असिस्टेंट / एजेंट बस इतना ही काम करते हैं वह भी बिना किसी आत्मीय भाव से। कंपोंडर अपने शहरी समकक्षों की तरह हफ्ता वसूली एजेंट नहीं था, सबकी बात समझता था, सुनता था। अभी बेटे का मनीऑर्डर नहीं आया, फसल अभी काटी नहीं है तो इलाज नहीं रुकता था। कंपोंडर साब संभाल लेते थे। 




शायद इतने गुण थे उसमें इसलिए वह विलुप्त हो गया। या शायद आज कोई कंपोंडर आ भी जाए तो हम उसको  झोलाछाप, क्वेक और क्या क्या ना कह दें । अब हमें एसी चैंबर्स में बैठे हफ्ता वसूली करने वाले शायलोक ही मिल सकते हैं, कंपोंडर साब खुली हवा के प्राणी थे, एसी चैंबर में उनकी सांस शायद घुट जाती। कौन जाने शायद कंपोंडर के वजह से ही डाक्टर भगवान का रुप था। जब से कंपोंडर गया, डाक्टर भी मात्र व्यापारी ही रह गया। 

Monday, August 24, 2020

बनाना शब्द की महिमा

बनाना शब्द हिंदी भाषा में एक क्रिया है। इससे मुख्यतया किसी प्रकिया के तहत निर्माण का बोध होता है। जैसे बच्चों के लिए खाना बनाना मां के लिए एक सुखानुभूति है। लेकिन बनाना शब्द एक विष्लिष्ट प्रकृति का शब्द है। शायद इस शब्द के अर्थ संख्या में उससे भी ज्यादा हैं जितनी बार कांग्रेस पार्टी ने राहुल गांधी को रिलांच किया है। शायद  बनाना शब्द के प्रयोगों की संख्या अर्णब गोस्वामी के प्रोग्राम में आने वाले पैनलिस्टों से भी ज्यादा है।

अब बेवकूफ बनाना को ही लीजिए, जिसका भाव किसी को ठगने से है। अब किसी को ठगना तो कोई निर्माण प्रक्रिया नहीं है। अगर है भी तो ठगा भी उसे जा सकता है जो पहले से ही बेवकूफ हो।  जो चालक और चतुर है उसे ठगा नहीं जा सकता। तो जो पहले से ही बेवकूफ है उसे बेवकूफ बनाना तो वही बात हुई कि प्रियंका वाड्रा को कांग्रेस अध्यक्ष का उम्मीदवार बनाया जाय । उम्मीदवार तो वह तब से है जब से उनका जन्म हुआ । बेवकूफ बनाने का ही सहोदर भाई है उल्लू बनाना। सोचिए कोई किसी को उल्लू  कैसे बना सकता है। हम लोग तो होमो सेपियंस हैं, मानव को उल्लू बनाना तो जीव विज्ञान के सिद्धांतों का अतिक्रमण है। हां अगर उल्लू बनाने से मतलब किसी की रातों की नींद उड़ा देना है कि वह रातों को जागता फिरे, तो युवा लड़के लड़कियां तो इसका मतलब प्यार हो जाने से लगाते हैं। अब प्यार हो जाने को आप उल्लू बनाना मानने को तैयार हों तो बात अलग है।


बनाना शब्द की समस्या सिर्फ हिंदी तक सीमित है ऐसा नहीं है। अब केक बनाना और बनाना केक में सिर्फ शब्दों हेर फेर नहीं है। क्रिया से कब बनाना एक अवयव बन गया आपको पता भी नहीं चलता। अब '  बनाना केक बनाना ' पढ़ कर बताइए कि कौन से बनाना का क्या अर्थ है। केक बनाना है या बनाने से मना किया किया जा रहा है? और तो और दामाद जी ने एक बार कह दिया था कि भारत एक बनाना रिपब्लिक है, अब यह बनाना केक वाले बनाना से कितना अलग है, शोध का विषय है।

हिंदी में भी बनाना सब हमेशा निर्माण का ही द्योतक हो ऐसा भी नहीं। अब दाढ़ी बनाने का मतलब दाढ़ी के निर्माण से नहीं उसके समूल विनाश से है। मैंने दाढ़ी बना ली इसका अर्थ है कि मैंने बनी बनाई दाढ़ी को छील कर बेसिन में बहा दिया। बनाना शब्द के अर्थ से कम कन्फ्यूजन तो इस बात में है कि गोभी मंचूरियन इंडियन डिश है या चाइनीज।

कहीं कहीं तो यह शब्द वीभत्स रस के चाशनी में डूब जाता है। अब मुंह बनाना को ही लीजिए । मतलब है नखरे करना, ना नुकर करना। तो सीधा बोलो ना नखरे करना। मुंह बनाना सुन कर किसी नौसिखुए को रामा नंद सागर के धार्मिक धारावाहिक याद आ जाएं जिसमें शुद्ध स्वदेशी कंप्यूटर ग्राफिक्स से सर कटने के बाद राक्षसों का मुंह फिर से बन जाता था। या फिर डिप्रेशन की जगत माता दीपिका पादुकोण का वो इंस्टाग्राम चैलेंज याद आ जाता है जिसमें मुंह पर मेकअप पोत कर एसिड विक्टिम लुक हासिल करना था। यह सब हुआ असली मुंह बनाना, पता नहीं इसका मतलब नखरे करना क्यों है । खैर!!

बनाना शब्द आपका पीछा कभी नहीं छोड़ता। रात को चैन से बीवी से गपियाने बैठो तो पता चला कि सीरियल में कोकिलाबेन ने बहुओं को डांट दिया और सिमरन मक्खी बन गई तो श्रीमति जी का मूड खराब है। अब आप उनका मूड बनाने का भरसक प्रयास करते हो  कि बीवी  प्यार बनाने( अंग्रेज़ी में पढ़ें) को मान जाय। होता वही है, आप मूड बनाने की कोशिश करते है, बीवी मुंह बनाती है, दो घंटे बाद एक नेकलेस और शॉपिंग पर ले जाने का वादा करने के बाद पता चलता है कि आपको उल्लू बनाने की प्रक्रिया चल रही थी। इसी चक्कर में  सुबह ऑफिस लेट पहुंचो तो बॉस आपको पूरे ऑफिस के सामने आपको मुर्गा बना देता है फिर तीन गुणा काम देकर गधा भी बना देता है। सब जगह बनाना की ही महिमा है।

ऑफिस में मुर्गा बनने से आपकी इमेज खराब हो गई हो तो कोई बात नहीं। उनकी मदद लीजिए जो आपकी इमेज फिर बना देंगे। आजकल सबसे फायदेमंद बिज़नेस है इमेज बनाने का। तैमूर डायपर वाली उमर में ही सुपरस्टार बन गया। यह है इमेज बनाने का कमाल। सलमान भाई इन्हीं इमेज बनाने वालों की बदौलत टीवी पर बिग बॉस का शो होस्ट करते हैं नहीं तो सरकारी बिग बॉस वाले बंगले पर कम से कम सात सीजन बामशक्कत काटते वो भी एज ए पार्टिसिपेंट।।

नया जमाना आ गया है तो बनाना शब्द का भी अर्थ विस्तार हुआ है। पहले खबरें पढ़ी जाती थी, सुनाई जाती थी, उनकी विवेचना की जाती थी। आज कल  खबरें बनाना मुख्य कार्य है। एलियन गाय का दूध पीते हैं, जन्माष्टमी का पर्व सब पहले गजनवी ने मनाया था। उसने सोमनाथ का मंदिर इसलिए तोड़ा क्योंकि वह उसकी जगह भगवान कृष्ण का मंदिर बनाना चाहता था। बाबर सेकुलर था और सरदार पटेल ने ही धारा 370 लगाई थी। यह  सब खबरें बनाने का उदाहरण है।

अब आप कहोगे कि बातें बनाना तो ठीक है लेकिन मंदिर बनाना क्यों आवश्यक है? उसकी जगह एक धर्मनिरपेक्ष समाजवादी शौचालय गृह बनाना क्या उचित नहीं होगा?? कैसा समाज बना रहे हैं हम? कैसा देश बना रहे हैं हम।। अरे यह सब छोड़ो , बनाना शब्द का और कितना मतलब बनाने जा रहे हैं हम।

अब कलम रोकता हूं, लॉकडाउन के बाद से खाना भी खुद से बनाना पड़ता है। आप  भी जाओ खाना वाना बनाओ और खा कर सो जाओ। 

Saturday, August 22, 2020

परसाई जी के प्रति

किसी बच्चे या बड़े से पूछिए हिंदी साहित्यकारों में किसको जानते हो पसंद करते हो, लोग सूर तुलसी निराला प्रसाद प्रेमचंद दिनकर बाबा नागार्जुन अज्ञेय मोहन राकेश,  बहुत हुआ तो हरिवंश राय बच्चन तक आकर रुक जाएंगे। शायद ही कोई हरिशंकर परसाई का नाम ले। 

यह एक बहुत बड़ी विडम्बना है। अगर साहित्य समाज का आइना है तो व्यंग्य से ज्यादा आइना समाज को कोई और साहित्य नहीं दिखा ‌सकता। अच्छा साहित्य लिखने के लिए संवेदना, वाक्चातुर्य, शब्द कौशल और एक जागृत मस्तिष्क चाहिए। इन सभी के साथ आप साहित्य लिख सकते हैं, लेकिन व्यंग्य साहित्य लिखने के लिए उपरोक्त गुणों के अलावा आपमें एक योद्धा का साहस होना चाहिए, एक बच्चे की चुहल होनी चाहिए और एक ऋषि समान ज्ञान होना चाहिए ।
‌ व्यंग्य सबसे कठिन विधा है। यह निर्बल का सबलों के प्रति हथियार है। तलवार गले काट सकती है , विचारधारा का प्रभाव समाप्त नहीं कर सकती। सत्याग्रह एक सामूहिक अस्त्र है, अकेला सत्याग्रही शायद ही सबल आततायी को परास्त कर सके। अगर करे भी तो समय बहुत लगता है। व्यंग्य के जरिए एक अकेला समस्त शक्तिमान सत्ता को परास्त कर सकता है, उसकी शोषक विचारधारा को निर्मूल कर सकता है।
‌सिर्फ सबल ही क्यों? व्यंग्य और हास्य किसी के भी दिल को जीतने का सबसे कारगर हथियार है। लेकिन यह उतना आसान भी नहीं । जितना कारगर हथियार होता है, उसको चलाने वाले को उतना ही सिद्ध हस्त होना आवश्यक है।  ऐसे ही कालजयी सिद्धहस्त थे श्री हरिशंकर परसाई।


‌उनकी जयंती पर उनको शत शत नमन। उनकी जयंती पर उनकी एक छोटी सी व्यंग्य रचना पढ़िए।
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पुलिस मंत्री का पुतला


एक राज्य में एक शहर के लोगों पर पुलिस-जुल्म हुआ तो लोगों ने तय किया कि पुलिस-मंत्री का पुतला जलाएँगे।

पुतला बड़ा कद्दावर और भयानक चेहरेवाला बनाया गया।

पर दफा 144 लग गई और पुतला पुलिस ने जब्त कर लिया।

अब पुलिस के सामने यह समस्या आ गई कि पुतले का क्या किया जाए। पुलिसवालों ने बड़े अफसरों से पूछा, ‘साहब, यह पुतला जगह रोके कब तक पड़ा रहेगा? इसे जला दें या नष्ट कर दें?’

अफसरों ने कहा, ‘गजब करते हो। मंत्री का पुतला है। उसे हम कैसे जलाएँगे? नौकरी खोना है क्या?’

इतने में रामलीला का मौसम आ गया। एक बड़े पुलिस अफसर को ‘ब्रेनवेव’ आ गई। उसने रामलीलावालों को बुलाकर कहा, ‘तुम्हें दशहरे पर जलाने के लिए रावण का पुतला चाहिए न? इसे ले जाओ। इसमें सिर्फ नौ सिर कम हैं, सो लगा लेना।’

Thursday, August 20, 2020

किससे लड़ रहे हो आप??

खलनायक हमारी कहानी का वो पात्र है जो आखिर में नायक से  पिटता है, गिड़गिड़ाता है, या तो सुधर जाता है या मारा जाता है। लोग उसके मरने तालियां  बजा कहानी सुखांत मान लेते हैं। वैसे खलनायक की महत्ता सिर्फ इतनी नहीं है कि वह नायक नायिका के प्रणय में व्यवधान उत्पन्न करे , बल्कि खलनायक आपके समाज के विकास का थर्मामीटर है। खलनायक का कार्य है नायक को उसके कार्य करने से रोकना । इसीलिए खलनायक यह दिखाता है कि नायक क्या करना चाहता है, और नायक का उद्देश्य  यह दिखाता है कि समाज क्या हासिल करना चाहता है। और समाज का वृहद लक्ष्य क्या है, यह दिखाता है कि समाज अभी विकास और उद्भव की प्रक्रिया में कहां है।

हमारी बॉलीवुड की फिल्मों को ही लें। पचास और साठ के दस की फिल्मों का खलनायक सूदखोर महाजन होता था। एक ज़ुल्मी जमींदार जिसने किसानों की ज़मीन हड़प ली है, किसान की बहू बेटियों पर बुरी नजर रखता है, और जिसके खिलाफ हमारा नायक लड़ता रहता है। जैसे मदर इंडिया का बिरजू अपने गांव के शोषक महाजन और जमींदार से युद्धरत है। आगे चलिए 70 के दशक में  हमारा खलनायक स्मग्लर बन जाता है, और हमारा नायक पुलिस इंस्पेक्टर। यह हमारे समाज में लाइसेंस कोटा परमिट राज का समय है। खलनायक समाज के नियम कानून तोड़ कर धनोपार्जन करना चाहता है और ईमानदार नायक उसकी राह में खड़ा है। समाज कठोर व्यापार नियमों और संरक्षणवाद को आदर्श मान उसपर चलने का प्रयास कर रहा है। उदाहरण के तौर पर फिल्म दीवार के विजय को देख लीजिए। विजय खल पात्र है और उसका पुलिस इंस्पेक्टर भाई नायक।

80 के दशक में आकर नायक नए बने शहरों के गुंडों मवाली दादा और हफ्ता वसूली करने वाले जैसे खलनायकों से दो चार होता है। यह समय हमारे नवोदित शहरों में आकर बसे गांव के नायक के शहर के नए माफिया से लड़ने का है। यह समाज का अंधकार युग है जहां आज़ादी के तीन दशक के बाद भी हमारा नायक अपने ही समाज के नए गुंडा तत्वों से लड़ रहे हैं। फूल और कांटे, हम और उस समय की कई फिल्मों में आप यह समय महसूस करते हैं।


फिर आता है 90 का दशक। देश आर्थिक सुधारों की दिशा में चल पड़ता है। सब कुछ अच्छा होने लगता है, हमारी फिल्मों से भी खलनायक गायब हो जाता है। मैंने प्यार किया, दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे, हम आपके है कौन , और दिल चाहता है जैसी फिल्मों में कोई खल पात्र नहीं है। परिस्थितियां ही खलनायक हैं , नायक अपने अन्तर्द्वंद से लड़ रहा है। समाज एक नई सदी में आंखें खोलने के लिए तैयार है।

बीच बीच में सेना आधारित युद्ध कहानियों को छोड़ दें तो हमारा खलनायक हमारे समाज से ही है। फिल्म  लगान में आकर हमारा नायक एक विदेशी खलनायक से लड़ता है। यहां खलनायक ब्रिटिश है, गौर करने की बात है कि हमारे नायक को अंग्रेजों से लड़ने की याद 50 के दशक में नहीं आती क्योंकि वह अपनी भूख से लड़ रहा होता है। अब हरित क्रांति हो चुकी है, भूख वैसी समस्या नहीं है, लाइसेंस कोटा राज समाप्त हो चुका है तो तस्कर वाला खलनायक भी कहानी से जा चुका है। इसलिए हमारा नायक अपनी इतिहास में जाकर अपनी अस्मिता के लिए लड़ता है।

हमारे वर्तमान  दशक में आ जाएं तो खलनायक देश के बाहर है। उरी, डी डे, बेबी, फैंटम जैसी फिल्मों में नायक देश के बाहर जाकर लड़ता है।  देश के अन्दर के खल पात्र निर्मूल हो चुके हैं। यह देश के विकास की अगली कड़ी है।

आगे हमारा नायक किस खलनायक से लड़ेगा, यह देखने के लिए आपको हॉलीवुड जाना पड़ेगा। वहां का नायक अपने समाज के खलनायकों को समाप्त कर चुका है, रैंबो , रॉकी और बॉण्ड बनकर अपने पड़ोसियों को भी हरा चुका है, इसलिए उसका खलनायक पारलौकिक है। वह लोकी, थानोस के रूप में आता है। भारत का नायक आसमान की तरफ अब भी प्रार्थना और आस की निगाह से  देखता है इसीलिए आसमान से उसके लिए जादू जैसा मासूम सहयोगी आता है जबकि अमरीकी नायक के लिए थानोस जैसा खलनायक। सिर्फ आगे ही क्यों पीछे भी मुड़  कर देखिए,भोजपुरी नायक अब भी जमींदार से लड़ता है और नायिका पानी भरने जाते समय उसके मनचले बेटों की फब्तियां सहती है।

इसलिए शायद कहा गया है कि दोस्ती और दुश्मनी बराबर वालों में होती है। आपके जीवन का खलनायक वास्तव में आपकी औकात बताता है। खलनायक आपकी सामाजिक, आर्थिक और कुछ हद तक आध्यात्मिक प्रगति का पैमाना है। तो आज किससे लड़ने वाले हैं आप? 

युवा वोट बैंक की कहानी

31 साल पहले की बात है। हैंडसम चचा बहुत परेशान थे काहे कि चुनाव सर पर आ गए थे। अपना ही आदमी गली गली में शोर मचा के आरोपों की तोप दाग रहा था। समझ नहीं आ रहा था कि सरकार बचे तो कैसे, चुनाव में बेड़ा पार कैसे लगे। परेशान चचा ने आइने में देखा। अब भी वह चमक थी चेहरे पर जिसके बदौलत विदेश से डिग्री भले ना ला पाए हों, बहू जरूर ले आए थे। फिर सोचा किस काम की यह खूबसूरती और यह लम्बी नाक जो एक चुनाव ना जितवा सके। 

चचा के चेहरे पर उदासी छाई देख चमचे घबरा गए। ऐसे कैसे चलेगा? गली गली का शोर चमचों को भी परेशान कर रहा था। किसी ने कहा कि सर जी आप बिल्कुल ना घबराएं। आप आज भी बहुत लोकप्रिय हैं। चचा गुस्सा हो के बोले काहे का लोकप्रिय? जो भी पढ़ा लिखा है , जिसकी अक्ल नौकरी खोज के थक चुकी है या बेरोज़गार  बेटे को देख कर परेशान  है या जो भी  अखबार पढ़ रहा है, कोई मुझे खास पसंद नहीं कर रहा। यह सब तो मुझे वोट देने से रहे।  हां बच्चे और जवान जिनकी अक्ल थोड़ी कच्ची है, जिनको अभी आटे दाल का भाव नहीं पता , जो किताब से ज्यादा श्रीदेवी और माधुरी और अनिल कपूर के पोस्टर देखते हैं, वही मुझे देख कर वाह वाह कर रहे हैं। उनको क्या मतलब कि जाफना में क्या हुआ, तोप का क्या मामला है, कश्मीर में क्या चल रहा है और यह अयोध्या में मैंने क्या शुरू कर दिया है!!  बेवकूफ मेरी शक्ल पर मरे जा रहे हैं। अब यह अक्ल के कच्चों की तो उमर भी नहीं हुई है वोट देने की। 

एक चमचे ने कहा, सर आप मत घबराओ। प्रॉब्लम यही है ना कि जो वोट डालने वाले लोग हैं वह आपको पसंद नहीं करते और जो पसंद करते हैं वह वोट नहीं डाल सकते।

चचा ने कहा हां मेरे आइंस्टाइन!! यही प्रॉब्लम है। अब आगे बताओ कि क्या करें।

चमचे ने कहा अरे सर। अपनी ताकत पहचानिए। आपके पास इतने सांसद हैं कि आप चाहें तो दिन को रात और रात को दिन बना दें।

चचा उखड़ गए। बोले मस्का लगाना बंद करो। हद होती है!! इधर नींद नहीं आ रही चुनाव को लेकर और तुम्हें चाटने से फुरसत नहीं।

चमचा संभला। बोला सर, आपकी समस्या का ही सॉल्युशन दे रहा हूं। अरे जो आपको पसंद  करते लेकिन वोट नहीं दे सकते, उनसे वोट लेने की व्यवस्था कर लो ।

चचा के परेशान चेहरे की सिलवटें कुछ कम हुई। बोले 21 साल से नीचे वाले ना वोट डाल सकते, ना शादी कर सकते, दारू पीने के लिए  भी कम से कम 25 साल का होना चाहिए। अब इससे कम क्या उमर करूं? 8  साल के बच्चे को वोटर बना दूँ क्या ? 

8 नहीं सर 18 !! वैसे भी यह 18 से 21 वाले बहुत बड़े फैन हैं आपके। यह सारा वोट आपको ही मिलेगा। बस उनको यह कहना कि देखो मैंने तुमको वोट देने का अधिकार दिया, तुम मुझे वोट दे दो।

वाह मेरे चमचे। क्या फॉर्मूला निकाला है? बताओ क्या करना होगा? अभी रेडियो पर अनाउंस कर दूं? 

नहीं सर, उसके लिए थोड़ा और काम करना होगा। वह हम सब देख लेंगे। आप बस शपथ ग्रहण की तैयारी करो। हम बच्चों से वोट लेने का सारा काम संभाल लेंगे।

अचानक बाहर की गली से तेज़ आवाज़ आई। गली गली में शोर है.. हैंडसम चचा बिल्कुल नहीं घबराए। आइने में फिर से अपने आप को और अपनी लम्बी  नाक को निहारा । खुश हो गए आखिर युवा नेता को युवा वोटर का एक वोट बैंक और उनकी समस्या का हल उनको मिल चुका था। 







Tuesday, August 18, 2020

कभी पैदल गुजर कर देखो तो

गुजरते हो जिन राहों से 
अपनी कार का शीशा  चढ़ाए
अपनी आंखों पर काला चश्मा लगाए
अपने कानो पर हेडफोन लगाए
उन्हीं राहों से कभी पैदल गुजर कर देखो तो।

 जिस पुलिया के नीचे
बारिश से बचने को
हेलमेट उतार कर अपने भीगे रुमाल से
अपना भीगा सर पोछते 
मोटर साइकिल वालों को देखते हो,
उसी पुलिया के एक कोने पर
तुम्हारे गांव का एक परिवार
रहता है चुपचाप
कांच के छोटे गिलास में बेचता है चाय
कभी उसकी दुकान पर फुरसत से
 रुक कर देखो तो।

जिस सड़क के किनारे पेड़ को
देख खीझते हो कि बढ़ गई हैं
कितनी इसकी टहनियां
लगती है खरोंच मेरे कार पर इसकी
बढ़ी बेतरतीब डालियों से
उसी टहनी के उपर मैना ने बनाया है 
एक घोसला, दो चूजे भी हैं
ट्रैफिक के शोर में ना सुनाई देती
कूक भी फैली है उधर
हेडफोन उतार कर मैना परिवार का संवाद 
सुन कर देखो तो।

जिस सब्जी बेचते ठेले वाले से 
कार में बैठे बैठे ही मोल भाव कर,
तुलवा लेते हो ताज़ी हरी सब्जियां
उसी ठेले के नीचे बैठी रहती है,
उसकी छोटी बेटी अपनी स्लेट
पेंसिल के साथ ककहरा सीखते,
बीच बीच में बेटी को पढ़ाता है,
तुम्हारा सब्जी वाला अपनी दुलारी 
का शिक्षक भी तो है,
कभी उसकी दुकान से परे
उसके छोटे स्कूल में
जाकर देखो तो।



खोलता है दौड़कर गेट तुम्हारे लिए
रफू की गई वर्दी पहने सिक्युरिटी गार्ड,
उसकी फटी जेब से झांकता रहता है 
मनीऑर्डर की गंदली रसीदों का बंडल,
एक फूटे स्क्रीन वाले छोटे से 
फोन से किससे बतियाता रहता है,
शायद उसका जन्मदिन हो आज
या बेटा पास हुआ हो मैट्रिक परीक्षा,
शायद पता चल जाय
उसकी मुस्कुराहट का राज,
उसके सलाम का जवाब प्यार से
देकर देखो तो।

कभी कार से उतर कर
धूप धूल की परवाह किए बगैर
गुजरते हो जिन राहों से
उन्हीं राहों से कभी पैदल
 गुजर कर देखो तो।

Monday, August 17, 2020

होना है यह तो तय है, कब होना है पता नहीं

पंडित जसराज नहीं रहे, निशिकांत कामत ने भी अलविदा कह दिया। कामत पचास साल के थे और पंडित जसराज नब्बे वसंत देख चुके थे, फिर भी दोनो की मृत्यु का दुख बराबर है। यद्यपि मृत्यु जीवन का एक मात्र सत्य है, यह एक मात्र घटना है जिसकी पूरी गारंटी है। फिर भी यह जब आता है तो हमें चकित करता है, दुखित करता है। हमेशा दबे पांव आता है और हमारे अपनों को चुरा कर ले जाता है। आदमी इसकी तैयारी कभी नहीं कर पाता। 

जीवन की क्षणभंगुर प्रवृत्ति इसीलिए है क्योंकि भले मृत्यु निश्चित हो, उसका समय भी शायद विधाता ने सबके लिए तय कर रखा हो, लेकिन किसी को वास्तव में यह पता नहीं कि वह समय क्या है। यह परमात्मा का हमारे साथ एक लुका छिपी का खेल सा है, जो सारी मानव सामाजिक संरचना का आधार है।

 यह लोक लाज सम्मान उद्यम प्रेम रूठना मनाना लजाना लड़ना मनुहार करना नखरे अदाएं लाभ हानि यश अपयश आदि सब इसीलिए है क्योंकि मानव को अपनी मृत्यु का समय पता नहीं। जिस व्यक्ति को ज्ञात हो जाय कि उसके पास चंद घंटे बचे हैं वह क्या लोक लाज की बंदिशे मानेगा, वह क्यों किसी का सम्मान करेगा, दुनिया क्या कहेगी इससे उसको कोई मतलब नहीं रहेगा । ऐसा कोई व्यक्ति उद्यमी भी नहीं होगा, ना ही ऐसा व्यक्ति प्रेमी हो सकता है। मृत्यु के भय से आशंकित हृदय में प्रेम के लिए स्थान कहां?  वह ना किसी को नखरे दिखाएगा ना किसी के नखरे सहने का धैर्य उसके पास होगा। वह किसी से लड़ेगा भी नहीं और किसी से मनुहार भी नहीं करेगा। ना लाभ उसको आकर्षित करेगा ना हानि शब्द का कोई अर्थ उसके लिए होगा।यश अपयश उसके लिए बेमानी हो जाएंगे। जिसके नभ में मृत्यु का दीर्घ विवर बन चुका हो वहां यश का सूर्य ना उदित होगा ना अपयश का ग्रहण कोई चिंता का कारण होगा। 




जीवन का हर भाव, हर कार्य और हर रोमांच इसी कारण से है कि मनुष्य को मृत्यु का समय नहीं पता।  अगर मृत्यु का समय पता हो, तो डाक्टर का क्या काम, कोई संभल के सड़क पर क्यों चले, अनुशासन प्रशासन और सुशासन सभी निर्मूल हो जाएं। सोच कर देखिए तो मानव सभ्यता का आधार भी यही है। मृत्यु का समय ज्ञात हो जाय तो सभ्यता की मृत्यु हो जाय, सारा सामाजिक ढांचा ध्वस्त हो जाय। भले  ही हमें आकस्मिक मृत्यु का दुख झेलना पड़े, समस्त सुखों और जीवन के आनंद के मूल में मृत्यु की अनिश्चितता ही है | 


हाल में ही हमको छोड़  कर गए  शायर राहत  इन्दोरी कह गए हैं | 
"ये हादसा तो किसी दिन गुज़रने वाला था
मैं बच भी जाता तो इक रोज़ मरने वाला था"।


Sunday, August 16, 2020

धोनी होने का मतलब

धोनी से पहले भी कीपर हुए थे, लेकिन वह बैट्समैन नहीं कहलाते थे।


धोनी से पहले भी कैप्टन हुए थे, लेकिन वह कैप्टन कूल नहीं कहलाते थे।


धोनी से पहले भी स्टार हुए थे, लेकिन वे रांची जैसे छोटे शहर से नहीं आते थे।


धोनी से पहले भी अच्छे क्रिकेटर थे, लेकिन वे  महान , मेहनती , जीनियस , क्लासिकल, स्टाइलिश कहलाते थे,स्ट्रीट स्मार्ट नहीं कहलाते थे | 


धोनी से पहले भी कैप्टन ट्रॉफी जीतते थे, लेकिन वह ट्रॉफी अपने हाथ में रख कर ही  फोटो खिंचवाते थे।


धोनी से पहले भी मैच आखिर ओवर तक जाते थे, लेकिन कोई जोगिंदर और मोहित शर्मा जैसों को आखिरी ओवर नहीं देते थे।


धोनी से पहले भी छोटे शहर के लड़के बड़े क्रिकेटर बनने के सपने देखते थे, लेकिन वे उन्हें पूरा शायद ही कर पाते थे।


धोनी से पहले भी स्टार क्रिकेटर शादी करते थे, लेकिन कोई स्टार क्रिकेटर आम आदमी की तरह साधारण शादी नहीं करते थे।




धोनी से पहले भी लोग रिटायर होते थे, लेकिन इतना सस्पेंस रख कर शायद ही कोई रिटायर होते थे।


धोनी से पहले भी गेंद हवा में पहुंचाने  वाले शॉट लगते थे, लेकिन वह हेलीकॉप्टर शॉट  नहीं कहलाते थे।


पहले क्रिकेट भी था, क्रिकेटर भी थे, लेकिन कोई माही भाई नहीं कहलाते थे। 

Friday, August 14, 2020

यह अनेकता में एकता किस चिड़िया का नाम है??

हर साल की तरह हमारा स्वतंत्रता पर्व आ गया। 74 वां स्वतंत्रता दिवस जहां हम अपना तिरंगा गर्व से लहराएंगे। स्कूलों में बच्चों को भाषण दिया जाएगा । वही बातें सुनाई जाएगी जो सुन सुन कर हम कुछ अभ्यस्त से हो चुके हैं, जिन बातों के कोई खास अर्थ हमें समझ नहीं आते। हमें लगता है कि यह सब बस कहने की बातें हैं, जिनका वास्तविक जीवन से कोई संबंध शायद ही हो । उनमें से ही एक बात है कि भारत में विविधता में एकता है। कक्षा पांच से लेकर पीएचडी तक के छात्र यह बात लिखते रहते हैं कि भारत में अनेकता में एकता है। आखिर इसका अर्थ क्या है? हम सभी भारत के नागरिक हैं, हमारा एक ही झंडा है, एक ही राष्ट्र गान है, एक ही संसद है और एक ही संविधान है। एक ही सेना के शौर्य की गाथाएं हमें गौरवान्वित करती हैं और एक ही क्रिकेट टीम को लेकर हम इंडिया इंडिया चिल्लाते हैं। क्या यही अनेकता में एकता है जो कारगिल से कन्याकुमारी और सोमनाथ से कामाख्या तक लोगों में फैला है और जिसकी घुट्टी हमें पिलाई जाती रही है ?

अगर हाँ तो 26 जनवरी 1950 से पहले हम सभी एक देश के नागरिक नहीं थे, यह तिरंगा भी 80 साल पहले नहीं था, हमारी सेना तो ब्रिटिश सेना का वह हिस्सा है जो बटवारे के बाद हमारे हिस्से आया, और क्रिकेट टीम को 1983 से पहले शायद ही कोई जानता भी था। तो क्या यह विविधता में एकता कोई हाल की घटना है? या अंग्रेजों को साझा शोषक के रूप में झेलने के बाद हम जिस एकता के सूत्र में बंध गए,यह वही है । अगर ऐसा है तो हमारी अनेकता में एकता उन कैदियों की दोस्ती के जैसी है जो एक साथ सजा काटने के कारण आत्मीय दोस्त बन गए। सब लोग मानेंगे कि यह विविधता में एकता कोई सौ दो सौ साल पुरानी चीजों नहीं है, उससे ज्यादा पुरानी होनी चाहिए।

‌अगर यह एकता हमें अंग्रेज़ नहीं दे गए तो फिर क्या है यह अनेकता में एकता। एक कश्मीरी और एक तमिल की भाषा, खानपान, पहनावा, पूजा पद्धति , विवाह संस्कार में कोई मेल नहीं है। उसी प्रकार एक तेलगू युवक और एक भोजपुरी युवक के संगीत की पसंद में शायद ही कोई साम्य हो!! ऐसे वैषम्य और वैविध्य को देख कर लगता है कि कि हमारी अनेकता में एकता शायद राजनीतिक व्यवस्था के स्तर पर ही है, चूंकि हमारे पासपोर्ट का रंग एक है, इसलिए हम एक हैं। मतलब यह कि यह एकता 70-75 साल पुरानी है और बार बार बच्चों को दुहराई जाती है ताकि एक राजनीतिक प्रभुसत्ता का आवरण जो विविध लोगों को समेटे हुआ है, फट ना जाए। यह अनेकता में एकता की ठंडी जलधारा हमपर उड़ेली जाती है ताकि बार बार होने वाले दंगे, क्षेत्रीय विवादों और अनवरत चलते सामाजिक घर्षण के उत्पन्न उष्मा अग्नि का रूप ना ले ले। मतलब कि हम वास्तव में सौ अलग राष्ट्र हैं जिनको अंग्रेजों ने एक साथ प्रताड़ित किया और जब वे चले गए तो सरदार पटेल जैसे लोगों ने सबको एक साथ कर दिया, और सब लोग 'को नृप होय हमें का हानि' के भाव से एक साथ आ गए। यह अनेकता में एकता कुछ नहीं बस एक साझा झूठ है जो हम अपने आप को दोहराते रहते हैं जैसे किसी बीमार को समय समय पर पेन किलर का इंजेक्शन दिया जाता है ताकि उसका दर्द उसको महसूस ना हो।
‌फिर दिल कहता है कि अगर यह झूठ है तो कोई झूठ इतना लंबा नहीं चलता, यह झीना आवरण जरूर फटता और पैनकिलर का असर कभी ना कभी हट ही जाता। जरूर कुछ ऐसा है जो हमें उपर से दिखता नहीं।
‌चलिए थोड़ा गहराई में चलते हैं। मान लें हम उस भारत में खड़े हैं जहां कि हमारे पास ना संविधान है , ना तिरंगा, या कोई क्रिकेट टीम और ना एक ही रंग का पासपोर्ट। बाबाधाम देवघर का एक देहाती किसी तरह मुंबई पहुंच जाता है । उसको ना वहां की भाषा समझ आती है और ना ही बड़ा पाव का एक निवाला उसके गले से उतरता है। मुंबई की अपार भीड़ में एक विशाल जत्था उसको दिखता है जो विनायक लम्बोदर के नारे लगा रहा है। अचानक से उसके चेहरे पर एक मुस्कान फैल जाती है कि अरे इधर के लोग इतने भी अजनबी नहीं हैं, वह बाबा का भक्त है और यह अजनबी लोग बाबा के बेटे गणेश की पूजा करते हैं।उसके बगल में खड़ा मथुरा का एक भैया और एक गुजराती छोरा यह महसूस करता है कि उनका कान्हा और विट्ठल ही इधर गोविंदा कहलाता है। अब झारखंड, गुजरात और मथुरा के तीनों लड़के अपने एक मराठी मित्र के घर जाते हैं । बिना कहे तीनों घर के बाहर ही चप्पल उतार देते हैं। यह तो किसी ने नहीं सिखाया कि चप्पल पहन के घर में नहीं आते। घर में घुसते ही सामने उनके नए बने मराठी दोस्त की मां दिखती है, तो तीनों अपने आप उसके चरण स्पर्श करने को झुक जाते हैं। तीनों को आश्चर्य होता है कि जहां के लोगों की भाषा , खानपान और कपड़े उसे बिल्कुल समझ नहीं आते था, उनके घर में भी एक छोटा सा पूजा स्थान है बिल्कुल वैसा जैसा उनके घर झारखंड, गुजरात और मथुरा में है। घर में पूजा शुरू होने ही वाली है तो दोस्त की आई आकर सबके सर पर चंदन लगाती है, बाहर से गुजरता एक तमिल युवक हतप्रभ हो जाता है कि इधर के लोग ललाट पर वैसे ही चंदन लगाते हैं जैसा कि उसके घर रामेश्वरम में लगाते हैं। पड़ोस में बसा हैदराबाद के मुस्लिम युवक के लिए भी खुशियां सिर्फ ईद तक सिमटी नहीं है, उनकी खुशियां गणेश चतुर्थी भी हैं क्योंकि विनायक की मूर्ति वही बनाते हैं और मेले में दुकानें भी वही लगाते हैं।
‌इस कहानी को और भी बढ़ाया जा सकता है । देश का हर समुदाय इस कहानी में एक पात्र बन कर आ सकता है जिससे यह सिद्ध होता है कि कोई एक अंतर्धारा है जो इन सबको जोड़ती है।
‌यह अंतर्धारा संविधान, झंडे और सरकार जैसी स्थूल ना होकर सूक्ष्म है। इसको देखना कठिन है लेकिन महसूस करना आसान है। यह सूक्ष्म अंतर्धारा हमारी नैतिकता, पारिवारिक मूल्यों, आस्था और हमारे जीवन सिद्धांतों में परिलक्षित है। जैसे एक गाना है कि तेरा मुझसे है पहले का नाता कोई, यूं ही नहीं दिल लुभाता कोई। यह रिश्ता कोई सत्तर साल साल या दो सौ साल पुराना नहीं है, हजारों वर्षों पुराना है।
‌अशोक ने अफ़ग़ानिस्तान से लेकर उत्कल तक तलवार के बल पर सैन्य विजय हासिल की, लेकिन उसकी सेनाओं ने स्त्रियों का हरण नहीं किया, पराजित राजाओं को अपना दास नहीं बनाया। यह मूल्य अशोक में कहां से आए? थोड़ा पीछे जाने पर हमें उत्तर मिल जाता है कि यही कार्य उससे कहीं पहले राम कर चुके थे। बालि और रावण वध के बाद किष्किंधा और श्रीलंका की स्त्रियों का हरण नहीं किया, उसे अपने राज्य में नहीं मिलाया।
‌आगे चल कर हम इन्ही मूल्यों को विविध रूप में देख सकते हैं | यही वह मूल्य हैं जिसके बदौलत एक गुजराती बोलने वाला व्यक्ति चंपारण में भोजपुरी बोलने वाले अनपढ़ किसानों से आत्मीय संबंध बना पाता है और भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की शुरुआत करता है। वहां पर उनकी विविधता उनके बीच आड़े नहीं आती बल्कि वही अंतर्धारा एक कड़ी बन कर उनको जोड़ लेती है। केरल का एक पंडित पूरे भारत में सनातन धर्म के एकता सूत्र में बांध देता है। राम, बुद्ध, अशोक, अकबर ,शंकर और फिर गांधी के व्यक्तित्व में आपको वही धारा प्रवाहित दिखेगी। ये बड़े नाम बड़ी नदियां हैं और हम साधारण जन उसकी सहायक छोटी असंख्य धाराएं।
‌एक प्रसंग याद आता है जब लोकसभा में स्पीकर सोमनाथ चटर्जी, विपक्ष की नेत्री सुषमा स्वराज को व्यंग्यात्मक अंदाज में पूछते हैं कि यह सांस्कृतिक राष्ट्रवाद क्या है? सुषमा जी मुस्कुराते हुए जवाब देती हैं कि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद वह है जिसके कारण एक बंगाली परिवार अपने बेटे का नाम गुजरात के एक मंदिर के नाम पर रखता है। और पूरा सदन ठहाकों से गूँज उठता है |


बंगाल के गौरांग महाप्रभु मिथिला कोकिल विद्यापति के भजन गाते हैं। एक पंजाबी रवि कपूर की बेटी तिरुपति की पहाड़ियों पर बसे एक देवता के नाम पर अपनी कंपनी का नाम बालाजी टेलीफिलम्स रखती है। कश्मीर के केसर के बिना हैदराबाद की बिरयानी नहीं बनती और एक मराठी शिवाजी राव गायकवाड़ रजनीकांत बन कर तमिल दिलों पर राज करता है। बांग्ला भाषा में शिक्षा पाया सुर्ज कुमार तिवारी हिंदी का निराला बन जाता है तो मराठी भाषी मुक्तिबोध हिंदी भाषा में चांद का मुखड़ा टेढ़ा होने के उद्घोषणा करता है। एक गुजराती हिंदी में सत्यार्थ प्रकाश लिखता है तो एक पांडे परिवार का लड़का बांग्लादेश की फिल्मों का नायक बन जाता है। रांची का एक युवक चेन्नई की क्रिकेट टीम का निर्विवाद लोकप्रिय कप्तान बनता हैऔर रालेगण सिद्धि का एक वृद्ध भ्रष्टाचार के विरुद्ध पूरे देश की युवा पीढ़ी का नेतृत्व कर पाता है।
‌ हरि अनन्त हरि कथा अनंता। भारत वर्ष की अनेकता में एकता की कहानियां जीवन के हर संदर्भ में महसूस की जा सकती हैं। हम वह राष्ट्र हैं जो राष्ट्रवाद की संकुचित परिभाषा से ऊपर है, हम वह समाज हैं जिसे समाज शास्त्र नहीं समझ सका और हम वह धर्म हैं जहां धर्म जीवन है ना कि जीवन की परिधि निर्धारित करने वाली कृत्रिम बंधनों का एक समुच्चय। शायद यही हमारी विविधता में एकता का एक अर्थ है।

स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाएं।। जय हिन्द। जय मातृभूमि।।

Sunday, August 9, 2020

Three legged chicken

A fella was driving his car at 45 miles an hour down a country road. Suddenly he looked out and beside him there was chicken running alongside the speeding car. Amused he stepped on the gas and reached around 60 miles an hour. Chicken caught up with him and started running along with him on the highway. Bewildered he looks at the chicken and realizes that chicken had three legs. But before he could make up his mind for sure, chicken took off out in front of the car at 60 miles per hour. Suddenly the chicken gets off the road and enters a house beside the highway.

He stops the car and there is a farmer standing outside the house. He asks the farmer; did you see a chicken run past just now. Farmer says ..Yes these are my chicken. Man says, You may call me crazy, but I think that the chicken had three legs. Farmer says You are right, the chicken has three legs. I breed three legged chicken. Man is fascinated. He asks why do you breed three legged chicken? Farmer says .. See.. I like to eat chicken leg piece; My wife likes to eat chicken leg piece and my kid also likes chicken leg piece. I was tired of fighting for the leg piece at the dinner table. So I started breed three legged chickens. Man asks, How does it taste? I mean the leg piece of a three legged chicken.
Farmer Says. I don’t know. I have never been able to catch one.



That’s President Ronald Reagan opening his address in a foreign country during his official visit as POTUS. Like beauty, sense of humor is a gift from God. Unlike beauty it does not fade with age. Just see him addressing at Berlin and during his speech a balloon pops up loud during his address..


https://youtu.be/Krjmr7laKzY

Saturday, August 8, 2020

Are you waiting for your Morpheus

 

What is the recipe of building the safest jails from where escaping is toughest near impossible? Answer is don't let the prisoners know that they are in jail.

Biased and an agenda driven education can do exactly the same. If British government structure was meant for maximum exploitation of resources, British forces was for protecting the British interests, how come the education system they implemented can be for a better future of Indians. Macaulay believed that complete Indian knowledge and philosophy can't complete with a single book in British library. The victims of that mentality live and die by that fact. For them whatever is said by western thinkers is pure gold. For Indian history, they believe a historian who studied Indian history in Oxford University; for understanding Indian current political scenario , they refer to what BBC and Washington post say. Their views on religion, culture, tolerance and secularism are based on books written by people who believe that by colonialism whites made non-whites cultured and blacks should be grateful towards their masters for that.



If you understand what I am trying to say here, then maybe you are the one. You are Neo who is finally out of matrix. If not, keep enjoying the jail term you are not even aware of, in world's safest jail. Hope you meet your Morpheus soon.. I really wish...

 

Friday, August 7, 2020

ताकि सिंघम शिकरे की बजाये न कि उसकी ड्यूटी बजाये


6 दिसंबर 2019। स्कूली छात्राओं की एक बस एक पुलिस नाके से गुजरती है। ड्यूटी पर खड़े पुलिस वाले को एक सुखद  सा आश्चर्य  होता है। स्कूली लड़कियों का वह जत्था पुलिस वालों पर फूल बरसा कर गुजर जाता है। आस पास खड़े लोग तालियों से इसका स्वागत करते हैं। हैदराबाद की एक डॉक्टर के सामूहिक बलात्कार के आरोपियों को तड़के एक एनकाउंटर में मारे जाने को लेकर जनता पुलिस की वाह वाही बटोर रही थी। 

सुशांत सिंह राजपूत के मामले की चल रही जांच के 6 हफ़्ते बीतने के बाद  भी कोई प्रगति होती ना देख उसके पिता पटना में एक प्राथमिकी दर्ज कराते हैं। पुलिस मुंबई पहुंचती है लेकिन स्थानीय पुलिस का कोई सहयोग नहीं मिलता। दिशा सालियान के मामले से जुड़े दस्तावेज डिलीट हो जाते हैं। बिहार की पुलिस एक ऑटो में बैठकर धूल फांकती फिरती है। बिहार के एक आईपीएस आफिसर को मुंबई पहुंचने पर जबरदस्ती नजरबंद कर दिया जाता है।


शायद आपको आश्चर्य हो या शायद ना हो, कि हमारा संसद भवन मात्र  90 साल पुराना है, और हमारी पुलिस व्यवस्था 160 साल पहले बने कानून के आधार पर चलती है। जब यह कानून बन रहा था तो इसकी प्रस्तावना में लिखा है कि यह कानून एक ऐसे पुलिस की स्थापना करेगी जो " राजनीतिक रूप से उपयोगी" हो।  ऊपर की दो घटनाओं में भले ही एक में पुलिस को तालियां मिली और दूसरे में गालियां, इन दोनों घटनाओं के मूल में एक ही बात है। पुलिस बल का राजनीतिक उपयोग।

आजादी के बाद हमने शिक्षा, उद्योग, कृषि हर क्षेत्र में आमूलचूल परिवर्तन किये, लेकिन अपनी औपनिवेशिक विरासत में मिले औपनिवेशिक पुलिस व्यवस्था को बदलने की दिशा में शायद ही कोई प्रयास किया। शुरू के कुछ सालों तक इस व्यवस्था की खामी का अहसास हमें इसलिए नहीं हुआ क्योंकि उस समय का राजनीतिक वर्ग देशप्रेम और समाज कल्याण  , नैतिकता के उच्च आदर्शों से चालित था। बाद में जैसे ही हमारी राजनीतिक व्यवस्था में नैतिकता का पतन हुआ, पुलिस की छवि बिगड़ती चली गई। पुलिस के व्यापक राजनीतिक दुरुपयोग का पहला प्रयोग आपातकाल के दौरान हुआ। उसके बाद मोरारजी देसाई की सरकार ने वर्ष 1977 में पुलिस सुधारों के लिए धर्मवीर कमिटी बनाई, जिसने काफी लगन से अपना कार्य किया । दुर्भाग्य से जब तक धर्मवीर कमिटी ने अपनी रिपोर्ट सौंपी, इंदिरा गांधी की सरकार वापस आ चुकी थी। इंदिरा जी की सरकार ने मोरारजी सरकार द्वारा उठाए गए अच्छे कदम को आगे बढ़ाने में कोई रुचि नहीं दिखाई।

हमारी पुलिस की समस्या क्या है? एक की चर्चा हम पहले कर चुके हैं कि पुलिस का ढांचा , उसकी उत्पत्ति ही औपनिवेशिक आकाओं की हित साधना के लिए हुआ है। यह ढांचा अब भी बरकरार है। नाके पर खड़े एक पुलिस कांस्टेबल का उदाहरण लीजिए।  अगर एक उस खबर मिले कि फलां बाज़ार के पास ट्रैफिक लाइट खराब हो गई है और बहुत लंबा जाम लगा है जिससे हटाना बहुत जरूरी है। वो वहां के लिए निकल ही रहा है कि वायरलेस पर मुख्यमंत्री के काफिले के उसके नाके से गुजरने की घोषणा होती है। सोचिए कि वह पुलिस वाला क्या करेगा? वह मुख्यमंत्री के काफिले को पहले पार करायेगा। चाहे वह जाम अगले 3 घंटे तक लगा रहे। यहां हमने ट्रैफिक जाम का उदाहरण लिया , आप कुछ और भी सोच सकते हैं जिसमें हत्या, और दंगा तक शामिल कर सकते हैं। ट्रंप दौरे के दौरान दंगाई सफल क्यों हो गए, इसके एक वजह भी पुलिस की इस संरचना में छुपा है। वर्तमान में पुलिस की कार्य वरीयता में जनता की सेवा का स्थान बहुत या कहें तो सबसे नीचे है, यह इसकी संरचनात्मक खामी है, या यूं कहें कि इसे ऐसा ही बनाया गया है। 

इससे पहले कि आप हमारी पुलिस को पूरी तरह भ्रष्ट, निकम्मी, असंवेदनशील मान लें, आपको पुलिस व्यवस्था पर पड़ रहे चौतरफा राजनीतिक, नौकरशाही , संसाधनों की कमी और काम की अधिकता के असहनीय दबाव के बारे में सोचना होगा। इतने दवाब में हमारी पुलिस कार्य कर रही है कि उसको देख कर आपकी संवेदना उनके साथ जा बैठेगी। तब भी आपका मन ना भरे तो अमरीका की अफ़ग़ानिस्तान में पुलिसिंग, सिंगजियांग और लहासा में चीन की पुलिसिंग , बलोचिस्तान में पाकिस्तान की पुलिसिंग या वापस से मिनियापोलिस में जॉर्ज फ्लोयड की गर्दन दबाते अमेरिकन पुलिस को देख लें, आपका संदेह दूर हो जाएगा। इतनी विपरीत परिस्थितियों में भी हमारी पुलिस विश्व के सबसे अनुशासित पुलिस बलों में शामिल है।

हां सुधारों की आवश्यकता एक लंबे समय से है। उच्चतम न्यायालय ने इस दिशा में कई दिशा निर्देश जारी किए है, जिनका एक ही लक्ष्य है कि पुलिस जनता की पुलिस बने ना कि शासक वर्ग की हित साधने की एक मशीनरी। हमारे पुलिस बल को यह विश्वास दिलाना जरूरी है कि अगर वह अपना काम यानि जनता की सेवा पूरी लगन से कर रहे हैं तो उनका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता।



एक पुलिस की वर्दी पहने इंस्पेक्टर से यह उम्मीद की जाती है कि वह सिंघम जैसा सख्त हो, शेरलॉक होम्स जैसा अपराध अनुसंधान करे, यहां तक कि सिंबा की तरह आंख मारे पर डांस तक करे लेकिन हाथी राम जैसा ईमानदार भी हो। दिक्कत यह है कि पुलिस का रोल करने वाले को हमारे यहां करोड़ों मिलते हैं,  पुलिस का काम करने वालों का घर तक मुश्किल से चले ऐसी पगार दी जाती है। पुलिस का किरदार निभाने वाले एंग्री यंग मैन बन जाते हैं और ज़िन्दगी भर पुलिस का काम करने वाले ठुल्ले कहलाते रहते हैं। जब तक यह सब नहीं बदलेगा, हमारी पुलिस सबसे  अंत में पहुंच कर यही डायलॉग मारती रहेगी कि अपने आप को पुलिस के हवाले कर दो,कर दो ना प्लीज़। अपराधी यही डायलॉग मारते रहेंगे कि डॉन को पकड़ना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है। डॉन ऐसा बोल पाता है क्योंकि डॉन को अपनी ताकत से ज्यादा पुलिस की मजबूरियों पर भरोसा है। उसका यही भरोसा तोड़ने जरूरत है। फिर हमारी फिल्मों की तरह हमारा सिंघम भी जयकांत शिकरे की अच्छे से बजाएगा, ना कि रीयल लाइफ में शिकरे की ड्यूटी बजाएगा।