यहां इस मुहावरे में मियां बीवी और काजी शब्दों का ही प्रयोग क्यों हुआ ? पति पत्नी और न्यायमूर्ति शब्द का क्यूं नहीं। सवाल बेतुके लग सकते हैं, लेकिन सेव नीचे ही क्यूं गिरा, यह भी तो बेतुका ही सवाल था। बेतुके ही नए तुकों की गवेषणा करते हैं। तो बेतुके सवालों को थोड़ी इज्जत ज्यादा देते हुए उसके उत्तर ढूंढ़ते हैं
। मियां शब्द संभ्रांत मुस्लिम पुरुष के लिए प्रयोग होता है। बीवी शब्द को मेम साहब का उर्दू फारसी अनुवाद मान सकते हैं। काजी मुस्लिम समाज में शरीयत अदालतों का एक अधिकारी होता है, जो पक्षों की बात सुनकर फैसला देता है। भारत में मुगल काल से ही शरीयत अदालतों की स्थापना हुई। आलमगीर या औरंगज़ेब की किताब फतवा ए आलमगीर मुगल काल के शरिया कानूनों का एक ऐतिहासिक दस्तावेज है। वापस लौटते हैं, अपने मुहावरे पर। तो लगता है कि इस मुहावरे की उत्पत्ति भी शरीयत कानूनों से हुई है। लेकिन यह मियां बीवी राज़ी होने पर काजी साहब की ताकत कम क्यूं हो जा रही है। इसका उत्तर भी शरीयत कानूनों की प्रकृति में मिलता है। शरीयत अदालतों और हमारे यहां प्रचलित ब्रिटिश न्यायव्यवस्था में एक अंतर यह है कि हमारे ब्रिटिश कानूनों में फौजदारी मामलों में एक पक्ष राज्य होता है जबकि दीवानी मामलों को दो गैर-राज्य पक्षों के बीच माना जाता है। दीवानी मामलों में जहां हर्जाना भर कर दोषी मुक्त हो सकता है वहीं फौजदारी मामलों में सजा और हर्जाना दोनों का प्रावधान होता है। शरीयत न्यायव्यवस्था में फौजदारी मामलों को भी दो गैर राज्य पक्षों के बीच माना जाता है। मतलब यह कि हत्या जैसे मामलों को भी दो गैर राज्य पक्षों के बीच का मामला माना जाता है और राज्य हस्तक्षेप नहीं करता। सामान्य अर्थ यह कि शरीयत में दीवानी (सिविल) और फौजदारी (क्रिमिनल) मुकदमों की प्रकृति एक मानी गई है।
असली अंतर अब शुरू होता है, ब्रिटिश न्यायव्यवस्था में फौजदारी मामलों में चूंकि राज्य एक पक्ष होता है, इसीलिए किये गए अपराध को राज्य के विरूद्ध अपराध माना जाता है। अब जब अपराध राज्य के विरूद्ध हुआ है, तो माफ़ करने का अधिकार भी राज्य के पास होता है, वादी या प्रतिवादी के पास नहीं। एक पक्ष चाहे भी तो फौजदारी मामलों में दूसरे पक्ष को क्षमादान नहीं दे सकता। यह राज्य का अनन्य अधिकार क्षेत्र है। उदाहरणतया, निर्भया मामले में ऐसी मांग उठी थी कि निर्भया की मां अभियुक्तों को क्षमादान दे दे। वास्तव में कानूनी तौर पर निर्भया की मां का उनको माफ़ करना या ना करना बेमानी था, न्यायपालिका के फैसले पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता। अगर निर्भया मामले का कानूनी नाम देखिए तो कुछ इस प्रकार का होगा, राम सिंह बनाम भारत संघ, विनय शर्मा बनाम भारत संघ, ना कि राम सिंह बनाम आशा देवी।
हां अगर यही मामला शरीयत कानून के हिसाब से चलता तो निर्भया का परिवार दोषियों को क्षमादान दे सकता था। ऐसा इसलिए क्योंकि वहां राज्य मामले में पक्षधर नहीं होता।आपने सुना होगा कि सऊदी अरब जैसे देशों में हत्या जैसे मामले में भी धन चुका कर बचा जा सकता है। इसे ही कभी कभी ब्लड मनी कहते हैं। इसका एक बेहद प्रसिद्ध मामला है ईरान का अमीना बहरामी एसिड अटैक मामला। अमीना बहरामी ने अपने पर एसिड फेंकने वाले को एसिड डाल कर अंधा करने की मांग की जो वहां की शरीयत व्यवस्था के अनुसार एक जायज़ मांग थी। यह बात अलग है कि अमीना ने सजा से ठीक पहले अपने दोषी को माफ कर दिया था, तो उसके अपराधी को छोड़ दिया गया। तो लब्बोलुआब यह कि कोई भी कितना भी गंभीर अपराध हुआ हो, दोनों पक्ष अगर आपसी समझौते के लिए मान जाएं तो शरीयत अदालतें कुछ नहीं कर सकती। इसी बात को मियां बीवी राज़ी वाले मुहावरे में बताया गया है।
अब शरीयत अदालतें अच्छी हैं या ब्रिटिश अदालतें, यह बड़ा व्यापक प्रश्न है, जिसकी पड़ताल के लिए काफी समय चाहिए। और कहीं ना कहीं उसका संबंध भारत में वर्षों से चल रहे समान नागरिक संहिता और मुस्लिम पर्सनल लॉ की बहस से भी जुड़ता है। लेकिन उसपर चर्चा फिर कभी। फिलहाल आपके साथ आपसी सहमति से इस आलेख को यहीं रोकता हूं।
पर जाते जाते एक छोटा सा प्रश्न आपके लिए भी। इस मुहावरे का अर्थ बताइए। हाथ कंगन को आरसी क्या, पढ़े लिखे को फारसी क्या!! जवाब देने से पहले बेतुके दृष्टिकोण से अपने उत्तर को परखिएगा अवश्य।
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