Sunday, June 14, 2020

कुंगफू के चक्कर में इनर पीस को ना भूल जाएं

वर्ष 1893, शिकागो। भारत का एक गेरुआ वस्त्र धारी जो अपने आप को विवेकानन्द कहने लगा था, पाश्चात्य विश्व के पटल पर अवतरित हुआ। उसने जो कहा वो तो इतिहास है ही उसके प्रभाव और इस घटना के मायने भी कम नहीं है। औद्योगिक क्रांति और पुनर्जागरण बाद पाश्चात्य विश्व में समृद्धि बहुतायत में थी, सुख नहीं था। विवेकानंद के उस संभाषण ने विश्व को यह बताया कि समृद्धि का मार्ग भले ही पाश्चात्य दर्शन से मिलता हो, शांति और सुख का मार्ग भारत के दर्शन से ही मिल सकता है। उस एक संभाषण ने भारतीय दर्शन को एक झटके में पाश्चात्य दर्शन के समकक्ष लाकर खड़ा किया और हिन्दू जीवन शैली और धर्म का परिचय आधुनिक विश्व  को मिला। 


सुशांत सिंह की आकस्मिक आत्महत्या से स्वामी जी का प्रसंग याद आना दो कारणों से है। पहला भौतिक जीवन की समृद्धि से आंतरिक सुख का मेल आवश्यक है। आंतरिक सुख भौतिक साधनों के सामान्य परिणीति नहीं है, वह एक अलग क्षेत्र है जिसपर भी मेहनत करने की आवश्यकता है। सुशांत के जीवन पर यह उक्ति सटीक बैठती है। यह एक विडम्बना ही है कि सुशांत नाम का व्यक्ति आंतरिक रूप से इतना अशांत था।
‌दूसरा कारण है स्वामी जी के तरह सुशांत का भी कम उम्र में चला जाना। दोनो प्रतिभाशाली थे, दोनो के सामने पूरा जीवन पड़ा था, लेकिन दोनों समय से पहले जीवन को छोड़ चले गए। सुशांत के जीवन की आंतरिक बातों को शायद हम ना जाने, लेकिन इतना तो तय है कि पाश्चात्य दर्शन के अधूरेपन का एक और उदाहरण है उनका जीवन।
‌ हम सब फिल्म कुंगफू पांडा के पो की तरह हैं। कुंग फू सीखना तो सिर्फ पहला कदम है, वास्तविक लक्ष्य तो है इनर पीस यानी मन की शांति। मास्टर उग्वे और शिफू वास्तव में कुंगफू के नहीं इनर पीस के शिक्षक हैं। कुंगफू दिखता है इनर पीस नहीं दिखता। पर कुंगफू सीखते समय हमेशा याद रहे कि कुंगफू एक सीढ़ी भर है मन की शांति तक पहुंचने का। समृद्धि के साथ साथ सुख का आराधन ही जीवन को पूर्णता दे सकता है।
‌ईश्वर सुशांत को अपने श्री चरणों में स्थान दें। ॐ शांति।।

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