Thursday, June 4, 2020

कृषि विपणन की समस्या

हमने बचपन में गाय के बंटवारे की कहानी पढ़ी थी। कहानी में बड़ा भाई गाय का पिछला हिस्सा रखता है, छोटा भाई अगला हिस्सा। मतलब गाय को खिलाने पिलाने की जिम्मेदारी छोटे भाई की जबकि दूध पर सारा अधिकार बड़े भाई का। यह कहानी सुनने में भले ही अविश्वसनीय लगती हो कि कोई ऐसे बटवारे पर कैसे राज़ी हो सकता है, लेकिन अगर आप भारतीय कृषि रूपी गाय को गौर से देखें तो हमारे समाज ने किसानों के साथ कुछ ऐसा ही समझौता कर रखा है।  जहां कृषि रूपी गाय को पालने की जिम्मेदारी किसानों की है और सारा दूध बिचौलियों की बाल्टी में ।

आपदा में अवसर के सिद्धांत को अगर मानें तो वर्तमान कोविड संकट ने  सुधारों के अभाव में कराह सी रही भारतीय कृषि को सुधारने के लिए एक बहुमूल्य अवसर प्रदान किया है |


कृषि विपणन की समस्याएं

‌हमने गाय वाली कहानी में देखा था कि दुग्ध उत्पादन वहां समस्या नहीं थी, समस्या थी  अनुचित दुग्ध  वितरण। हरित क्रांति के बाद भारतीय कृषि में भी उत्पादन समस्या नहीं है,  कृषि उत्पादों का विपणन है। आज  भारत " कंट्री विथ ए बेगिंग बावुल" से " कंट्री विथ ब्रेड बास्केट " बना  है, लेकिन किसानों की निवल आय का स्तर अत्यंत निम्न है।  वर्ष 2012 -13 के में भारतीय किसानों की औसत आय मात्र 6426 रुपए मासिक थी। आत्महत्या करने वाले किसानों पर औसत बकाए ऋण की राशि भी मात्र 60000 रुपए के आसपास थी।

हमारी व्यवस्था किसानों को कृषि के हर पहलू के लिए तो अकेला छोड़ दिया है लेकिन कृषि उत्पादों को बाज़ार में बेच कर लाभ कमाने की बात हो, तो बिचौलियों के एक बड़ा तंत्र आगे आ जाता है । यही तंत्र कृषकों के सबसे बड़े शोषक के रूप में उभरा है। जीएसटी की एक देश एक बाज़ार की संकल्पना से किसानअब तक अछूता है। किसान कुछ निर्दिष्ट एपीएमसी बाजारों में ही अपना उत्पाद लेकर कर जा सकते हैं जहां आढ़तियों का कार्टेल उनके शोषण का एक चक्रव्यूह बना कर बैठा है,जिसमें प्रवेश उपरांत अभिमन्यु किसान की निर्मम हत्या तय है।

‌आवश्यक वस्तु अधिनियम के कारण किसान या अन्य व्यापारी कृषि-उत्पादों के भंडारण से डरते हैं। इसका असर  ऑफ सीजन कीमतों में अत्यधिक उतार चढ़ाव के रूप में दिखता है और भंडारण अवसंरचना के निर्माण में उदासीनता को बढ़ावा देता है।

‌भारतीय कृषि में लघु और सीमांत किसानों की अधिकता भी मुक्त बाजार प्रणाली में उनकी मोलभाव करने की शक्ति को सीमित करती है। लघु और सीमांत किसान बिचौलिए वर्ग के लिए एक सुभेद्य लक्ष्य हैं जिनसे औनेपौने भाव पर उत्पाद खरीद  मनमानी कीमत पर बेच लाभ अर्जित किया जाता है। अंतिम उपभोक्ता को जिस कीमत पर वस्तु उपलब्ध होती है उसका एक तुच्छ हिस्सा ही उत्पादक किसान को मिलता है।

आत्मनिर्भर किसान : आत्मनिर्भर भारत

आत्मनिर्भर भारत कार्यक्रम के तहत कृषि संबंधी ग्यारह घोषणाओं तीन कृषि विपणन की समस्या को सुलझाने के लिए हैं। पहला है आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 में बदलाव। बंगाल दुर्भिक्ष क़ालीन यह कानून वर्तमान परिस्थितियों  में  अनावश्यक है। इसके हटने के बाद कोल्ड स्टोरेज चेन में निजी निवेश बढ़ेगा, सब्जियों और फलों की आपूर्ति श्रृंखला समृद्ध होगी और किसानों को डिस्ट्रेस सेलिंग से राहत मिलेगी। अन्तिम उपभोक्ता के लिए बाज़ार कीमतों में स्थिरता आएगी और बर्बाद हो रहे 30% कृषि उत्पाद बचाया जा सकेगा।

दूसरा प्रमुख परिवर्तन है एपीएमसी एक्ट में बदलाव। एएपीएमसी एक्ट ने किसानों को मुक्त बाज़ार से दूर रख उनको लाभ लक्षित कृषि - उद्यमी ना बना कर सिर्फ जीविकोपार्जन वाली कृषि से बांध रखा है। इ- नाम जैसी योजना को पूरे देश में लागू कर किसान के पास अपने उत्पाद बेचने का अतिरिक्त बाज़ार उपलब्ध करवाना आवश्यक है। “एक देश एक राशन कार्ड” की सदृश  किसानों को “एक देश एक लाइसेंस “ देना आवश्यक है|

तीसरा महत्वपूर्ण कदम है संविदा आधारित कृषि जो खाद्य प्रसंस्करण कंपनियां को सीधे किसानों से जोड़ पाएंगी। छोटे और सीमांत किसान मिलकर अपना एक उत्पादक संघ बना कर सीधे कंपनियों से करार सकते हैं। इससे किसानों को  विदेशी बाजार की पहुंच, अतिरिक्त  जोखिम शमन, लाभ सुनिश्चितता, सस्ती कृषि साख, और भविष्य आधारित मूल्य निर्धारण का लाभ होगा। अमूल के रूप में हमारे पास` सहकारिता आधारित एक सफल मॉडल है जिसे फलों और सब्जियों  के लिये उपयोग किया सकता है।`

मोदी-सीतारमण की जोड़ी के पास कृषि में आधारभूत परिवर्तन करने का वह मौका है जो 1991 में  राव-मनमोहन की जोड़ी के पास उद्योगों और सेवा क्षेत्र के लिए था। प्रश्न यह नहीं है कि भारतीय किसान को उसका उचित लाभांश मिल सकता है या नहीं। प्रश्न यह है कि हम यह करने में और कितना विलंब करने वाले हैं। ऐसा करना किसानों पर हमारा उपकार नहीं बल्कि उनके चिर वंचित अधिकारों की पुनर्स्थापना मात्र है। 

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