गांधी जी जब 1915 में दक्षिण अफ्रीका से भारत आए, तो उनको उनके राजनीतिक गुरु गोपाल कृष्ण गोखले जी ने उनको पूरा देश घूमने की सलाह दी ताकि वह भारत को समझ सकें। यद्यपि 23 साल के अपने दक्षिण अफ्रीकी प्रवास के दौरान गांधी जी ने ब्रिटिश सरकार की दमनकारी नीतियों को अच्छे से जान लिया था और उनके विरूद्ध संघर्ष में एक लंबा अनुभव प्राप्त कर लिया था, फिर भी भारत की विशेष परिस्थितियों को जानना आवश्यक था। एक वर्ष के भीतर ही गांधी जी समझ गए कि उनका सामना कैसी समस्या से पड़ा है। तत्कालीन भारतीय समाज दो वर्गो में विभाजित था। पहला शिक्षित वर्ग जिसने पाश्चात्य शिक्षा में दीक्षित होकर अपने आप को कदाचित अंग्रेजों का पक्षधर बना लिया था। अर्थात् यह वर्ग अंग्रेजों के व्हाइट मेंस बर्डेन वाले सिद्धांत को मानता था और यह सोचता था कि अंग्रेजों का यहां रहना हमारे लिए लाभप्रद है और उनके द्वारा ही भारत का विकास और कल्याण संभव है। दूसरा वर्ग था निरक्षर वर्ग को अंग्रेजों को अजेय मानता था और यह मानता था कि कोई अवतार आकर उनको इस अत्याचारी शासन से मुक्ति दिलाएगा। पहला वर्ग जहां मैकाले की शिक्षा नीति ( जिसके तहत एक ऐसा भारतीय वर्ग तैयार करना था जो देखने में भारतीय और सोच में अंग्रेज़ हो ) की सफलता का प्रत्यक्ष प्रमाण था, वहीं दूसरा वर्ग चिर निद्रा में सोया भीरू समाज था जो दुश्मन को अजेय मानकर पहले ही हथियार डाल चुका था।
विरासत में मिली थकी हारी और गुटों में विभाजित कांग्रेस और उपर वर्णित भारतीय जनता के साथ गांधी जी को विश्व की सबसे बड़े साम्राज्यवादी सत्ता से लड़ना था। गांधी जी समझ गए कि भारतीयों की इस मानसिकता से लड़े बिना जीत की आशा रखना व्यर्थ है। और यह भी समझ गए कि यह लड़ाई लम्बी चलेगी क्योंकि अंग्रेजों के साथ साथ भारतीयों की उस मानसिकता से भी लड़ना है जो अंग्रेजों को अपना हितैषी या उसको अपराजेय मानती है।
असहयोग आंदोलन हो , सविनय अवज्ञा हो या भारत छोड़ो आंदोलन इसके पीछे यही मानसिकता रही। और इन आंदोलनों के बीच गांधी जी का रचनात्मक कार्यक्रम भी चलता रहा। चरखा के जरिए एक तरफ उन्होंने अंग्रेजों के कपास की मिलों पर हमला किया तो दूसरी तरफ अब तब आंदोलन से कटी रही महिलाओं के हाथ में अंग्रेजों की जड़ काटने की एक कुल्हाड़ी चरखे के रूप में दी। छुआछूत उन्मूलन कार्यक्रम और हरिजन बस्तियों के उद्धार कार्यक्रम से उनका सामाजिक सुधार कार्यक्रम तो चल ही रहा था। वर्धा योजना के तहत उनके बेसिक स्कूल खुले और सर्वांगीण शिक्षा पर बल दिया गया। लघु कुटीर उद्योगों की स्थापना और पंचायतों को स्वायत्त बना कर अंग्रेजों की जड़ काट डाली गयी। असहयोग, सविनय अवज्ञा और भारत छोड़ो , इन तीनों जन आंदोलन को देखें तो एक तरफ जहां एक आंदोलनों की आक्रामकता बढ़ती गई, वहीं नेतृत्व क्रमशः जनता के हाथों चला गया। भारत छोड़ो आंदोलन तो पूरी तरह एक जन आंदोलन बना जहां राजनीतिक नेतृत्व करीब करीब अनुपस्थित था। यह सर्वाधिक सफल आंदोलन बना।
अब इतनी बड़ी कथा सुनाने के बाद आपको यह ना लगे कि क्या करेंगे कक्षा 9 के इतिहास पढ़ के दुबारा। बात यह है कि कमोबेश आज देश में वही हालात हैं। देश में दो वर्ग हैं, पहला वो को चीन को अपना हितैषी मानता है और दूसरा वह जो यह मानता है कि चीन की बड़ी अर्थव्यवस्था के सामने हमारी अर्थव्यवस्था कुछ भी नहीं और हम उन पर अपनी निर्भरता कतई कम नहीं कर सकते। हमारे उत्पाद, हमारी फैक्ट्रियां उनके मुकाबले कहीं नहीं ठहरती।
यकीन मानिए, हमारी स्थिति चीन कि अर्थव्यवस्था के सामने कमजोर जरूर है लेकिन उतनी भी नहीं जितनी 1920 में ब्रिटिश अर्थव्यवस्था के सामने थी, जब असहयोग आंदोलन चला रहा था। समय मानो फिर से लौट आया है। उस समय स्पेनिश फ्लू फैला था, आज कोवि़ड फैला है। उस समय सामने ब्रिटेन की बड़ी सेना और उनकी कंपनी थी, आज चीन और उसके सस्ते उत्पाद हैं। उस लड़ाई को असहयोग आंदोलन कहा गया, आज की लड़ाई को आत्मनिर्भर भारत कहा जा रहा है। लड़ाई हम उस समय भी जीते थे, अब भी जीत सकते हैं।
उस समय तो सीमा पर लड़ने के लिए हमारे पास सेना नहीं थी, आज तो वह भी है। काम आधा आसान है। सेना चीन को सीमा पर देख लेगी, जरूरत है कि बाकी जनता अपनी पराजय वादी मानसिकता को त्यागे और लग जाये इस राष्ट्रीय यज्ञ में।
हां लड़ाई लम्बी चलेगी। हमें चीन और अपनी मानसिकता दोनों से लड़ना है, देश का पुनर्निर्माण करना है। ओप्पो के सारे फोन 1 मिनट में बुक हो गए, हार गई देशभक्ति। ऐसे समाचार सुन कर निराश ना हों। उस समय भी विदेशी शराब और कपड़ों की दुकान के सामने पिकेटिंग करनी पड़ती थी। बदलाव में समय लगता है।
सती प्रथा के विरोध में जो ज्ञापन राजा राम मोहन राय ने विलियम बेंटिक को सौंपा था उसमें सिर्फ 700 हस्ताक्षर थे। सती प्रथा के समर्थन में राधाकांत देब ने 30 हजार हस्ताक्षर वाला ज्ञापन गवर्नर जनरल को सौंपा था। जीत राजा राम मोहन राय की हुई क्यूंकि उनके साथ सत्य की शक्ति थी, देश उद्धार का शक्तिशाली स्वप्न था।
यह लड़ाई भी हम जीत सकते हैं। यह काम भारत की संयुक्त जनता ही कर सकती है। हमें सिर्फ नारों पर नहीं एक समेकित कार्यक्रम पर काम करना होगा । इसमें हमारी कृषि, हमारे उद्योग, हमारी शिक्षा, हमारी स्वास्थ्य सुविधाएं और भी बहुत कुछ सब पर कार्य करना होगा। इतना सारा काम बिना जन आंदोलन के संभव नहीं, एक आदमी से तो बिलकुल भी नहीं।
इसमें वक़्त लगेगा, लेकिन अच्छी बात यह है कि हमारे इस स्वप्न गीत की धुन बापू बना कर गए हैं। हमें सिर्फ उसका रीमिक्स बना ना है, फिर तो हम चीन का वो बैंड बजाएंगे कि दुनिया देखती रह जाएगी।
जय हिन्द।
1 comment:
Brilliant analysis Shekhar, you have shown that we can do this again.
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