Saturday, June 13, 2020

चीनी आक्रामकता का प्रत्युत्तर

कोविड 19 के संकट से जूझते देशों को देखकर भारत के नीति निर्माताओं को इसके जनस्वास्थ्य और अर्थव्यवस्था पर पड़ने  वाले असर का अंदाजा भले ही लग गया हो, सीमा संकट के रूप इसकी परिणीति की आशा शायद ही थी  | गलवान घाटी पर चल रहे विवाद की जड़ें भी कोविड से जुडी हैं | इतिहास में  देखें तो 1962 में चीनी आक्रमण की एक वजह थी, दुर्भिक्ष से त्रस्त चीनी जनता को राष्ट्रवाद का विकर्षण प्रदान करना और  गुटनिरपेक्ष आंदोलन के कारण  भारत के बढ़ते अंतराष्ट्रीय कद को रोकना | आज की तारीख में देखिए तो यही कारण वर्तमान  सीमा संकट के पीछे हैं

 

कोरोना संकट के कारण एक तरफ चीनी अर्थव्यवस्था जहाँ अंतराष्ट्रीय मांग में कमी के कारण  गहरे दवाब  में है ( अनुमानों के अनुसार जीडीपी में चौथी तिमाही में 7% की कमी आयी है), वहीँ कोरोना के सन्दर्भ में अपनाई गयी अलोकतांत्रिक और अपारदर्शी नीतियों ने चीन की अन्तराष्ट्रीय छवि पर अविश्वास का गहरा बट्टा लगाया है | जहाँ चीनी जनता में भारी असंतोष का भाव है वहीँ जापान , अमेरिका समेत कई  देश चीन में स्थापित अपनी विनिर्माण कंपनियों को बाहर निकालने की तैयारी कर रही  हैं | यह  कंपनियाँ अगले पड़ाव के रूप में भारत को देख रही हैं जो डेमोक्रेसी , डेमोग्राफी और डिमांड के मणिकांचन योग के कारण एक सशक्त विकल्प के रूप में उपस्थित  है | चीन की दीर्धकालिक नीतियों के जानकार यह समझते हैं कि  उसकी नीतियाँ हमेशा से भारत को तरह तरह की समस्याओं में उलझा कर एक क्षेत्रीय और वैश्विक शक्ति के रूप उसके उभार को रोकने की रही हैगलवान वैली में चीनी सेना के अतिक्रमण की नीति एक तरफ राष्ट्रवाद के द्वारा अंदरूनी असंतोष का समाधान करती है, वहीँ भारत की  एक वांछित  वैकल्पिक विनिर्माण गंतव्य की छवि को धूमिल कर उसे एक  अस्थिर असुरक्षित राज्य के रूप में प्रस्तुत करती है | यह कोई एकलौता मामला नहीं है बल्कि नेपाल के लिपुलेख मामला , म्यांमार के रखाइन  स्टेट में कलादान प्रोजेक्ट को बाधित करना और भारतीय तेल कंपनियों के दक्षिणी चीन सागर में तेल उत्खनन के वियतनाम  समझौते  में अड़ंगा डालना भी चीन की इसी नीति के फलन  हैं

 समाधान के कदम 

 एक बात तो निश्चित है कि सीमा पर युद्ध चीन चाहता है और भारत | क्या अपने मोबाइल फ़ोन से टिकटोक और ब्यूटीप्लस ऐप को डिलीट कर के चीन का मुकाबला किया जा सकता है? या दीवाली में चीनी फुलझड़ियों का बहिष्कार करके कुछ हासिल हो  सकता हैशायद नहीं | इन क़दमों से आपको कुछ  मानसिक  संतुष्टि भले ही मिले , वास्तविक अर्थों में यह कमल नाल से ड्रैगन को बाँधने की कोशिश मात्र है

 इसका उपाय दीर्घकालिक ही हो सकता है| चीन दक्षिण पूर्व देशों खास कर आसियान देशों को अपना विकल्प बनाना चाहता है, ताकि भले ही कंपनियां  चीन से निकल जाएँ लेकिन वह भारत जाकर वियतनाम और मलेशिया जैसे देशों का रुख करे| आसियान देशों को अपनी सैटेलाइट अर्थव्यवस्था  बना कर चीन अपने वैश्विक पार्थक्य के जोखिम का शमन करना चाहता है, जहां चीनी बहिष्कार की स्थिति में भी इनके माध्यम से उसका व्यापार पूर्ववत रहे।

पहला कदम है देश के अंदर चल रहे सुधारों में तीव्रता लाना | इसके तरह नीतिगत सुधारों जैसे श्रम कानूनों , सरलीकृत  कर प्रणाली और निवेश प्रोत्साहक नीतियों पर अधिक बल  दिया जाना चाहिये | व्यापार सुगमता सूचकाँक में चीन ( 28वां  स्थान ) अभी भी भारत( 63वां  स्थान) से कहीं  आगे है| राष्ट्रीय अवसंरचना पाइपलाइन  कार्यक्रम के तहत  ऊर्जा , रेलवे, सड़क, पत्तन  निर्माण और डिजिटल कनेक्टिविटी  में  वर्ष 2025  तक प्रस्तावित 100 लाख करोड़  निवेश की परियोजनाओं को गंभीरता से समयबद्ध तरीके में पूरा करने की आवश्यकता है|  हमारी  स्थिति उस किसान की तरह हो  जिसकी खेत पर बारिश तो हुई लेकिन उसने  मेड नहीं बना रखी थी|

 

दूसरा कदम है, एक्ट ईस्ट की नीति के तहत चल रहे कनेक्टिवी कार्यक्रमों जैसे भारत - म्यांमार-थाइलैंड त्रिभुजीय सड़क परियोजना, म्यांमार में सिटवे बंदरगाह को भारत-म्यांमार सीमा से जोड़ती कलादान परियोजनाकम्बोडिया  लाओस म्यांमांर और वियतनाम के साथ प्रस्तावित मेकांग - भारत आर्थिक गलियारा परियोजना को वरीयता देकर पूरा करना | दक्षिण एशियाई देश अभी चीन के ज्यादा निकट हैं, हमारी विशिष्ट भौगोलिक स्थिति और लोकतान्त्रिक व्यवस्था ही उनमें  चीनी आकर्षण को कम करेगी| सुदूर पूर्व जापान के साथ दक्षिण चीन सागर में मुक्त नौवहन और क्षेत्र में सबके लिए सुरक्षा और विकास (SAGAR) पहल के लिए अंतराष्ट्रीय दवाब बना कर तटीय देशों फिलीपींस , ताइवान के सामुद्रिक हितों की रक्षा में हमें मुखर भूमिका निभानी होगी | इन प्रयासों से ना केवल आसियान देशों से हमारे व्यापारिक संबंध प्रगाढ़ होंगे ( 2018-19 व्यापार 97 बिलियन डॉलर मात्र) बल्कि भारत और इनके बीच की हमारी कुंजी  उत्तर पूर्वी राज्यों में लंबित अवसंरचना का विकास होगा। अरुणाचल और सिक्किम में चीनी दख़ल का कारण भारत द्वारा इन क्षेत्रों की अवहेलना भी है।

 तीसरा कदम हैपडोसी-पहले’ की नीति के तहत नेपाल के साथ रिश्तों में आयी हालिया खटास को जल्द दूर करना | भारत-नेपाल के अंतरंग और विशिष्ट संबंधों की रक्षा के लिए उच्चतम स्तर पर बातचीत नेपाल के राजनीतिक गलियारों में भारत के प्रति विश्वास बहाली आवश्यक है| दूसरी तरफ  श्रीलंका , मालदीव को चीन के ऋण जाल से बचाने के लिए वहां भारतीय निवेश बढ़ाना जरूरी होगा |  

 संत तिरुवल्लुवर ने कहा था " धनार्जन करो | अपने दुश्मनों के दर्पदलन के लिए इससे कारगर कोई हथियार नहीं है" | चीनी आक्रामकता का प्रत्युत्तर दीर्घकालिक और धनात्मक आर्थिक नीतियों में छुपा है, न कि कुछ चायनीज ऍप को डिलीट और रेटिंग ख़राब करने  की उथली और नकारात्मक नीतियों में |   

 


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