क्षय और निर्माण प्रकृति की संपूरक प्रक्रिया द्वय हैं। बिना क्षय निर्माण संभव नहीं और निर्माण होता ही इसीलिए है कि उसका क्षय हो। आपकी काया का निर्माण उन असंख्य अणु परमाणुओं से हुआ है जो अनादि काल से प्रकृति में मौजूद हैं और आपके जाने के बाद भी इसी प्रकृति में उपस्थित रहेंगे ।आपका अपना शरीर भी उन अनंत कणों की अनवरत यात्रा में एक क्षणिक संयोग ही है जब वे सारे कण मिलकर आपके शरीर का निर्माण कर रहे हैं। किंतु क्षय और निर्माण की प्रक्रिया भी अनवरत जारी है और इन कणों का आपके शरीर से जुड़ना और अलग होना भी। आपके शरीर से निकलता एक एक स्वेद कण, हर श्वास आपसे कुछ अलग करती है और आपका हर निवाला आपमें नए कणों को जोड़ रहा है। हर पल आप पिछले पल से अलग हैं और प्रतिक्षण में आप नए रूप में हैं। कोई भी दो क्षण आप बिल्कुल एक से नहीं होते।
यही बात प्रकृति के हर जड़ चेतन के साथ सही है। आप एक नदी में दो बार नहीं नहा सकते। आपके अगले स्नान के समय आप अपने पिछले स्नान से अलग शरीर लेकर एक अलग नदी में प्रवेश करते हैं। यह सब क्षय और निर्माण की शक्तियों का खेल है।
मनुष्य जरूर नियमों से लड़ने का प्रयास करता रहता है। वो अक्षय बनना चाहता है, चिरयुवा बना रहना चाहता है। ऐसे स्मारकों, ऐसे भवनों ऐसी प्रतिमाओं का निर्माण करना चाहता है जो उसकी कीर्ति को क्षय से अक्षुण्ण रख सकें। अमृत, स्वर्ग , अमरत्व जैसी अवधारणाएं, ऋषि च्यवन की कथा और ऐसी अनेक कथाएं मानव इच्छा और फैंटेसी की उपज हैं जहां वो क्षय पर विजय पाने की कल्पना भर कर सकता है।
वास्तविकता में क्षय ही जीवन है। हमारी पृथ्वी पर जीवन का एक मात्र स्रोत सूर्य भी पल पल क्षरित हो रहा है। तो समस्त जीवन सूर्य के क्षय पर ही निर्भर है, जिस दिन यह क्षय रूक गया, समस्त निर्माण, जीवन, चेतन ,चेतना सब रुक जाएगी। क्षय का अर्थ विनाश नहीं है। क्षय का अर्थ , एक मात्र अर्थ है रूपांतरण।दुनिया में ,प्रकृति में जो भी है क्षरित होता है। जो क्षरित नहीं होता वो प्रकृति से दूर अवश्य ही कल्पनालोक में अवस्थित है। अक्षय तृतीया भी उसी दिन मनाते हैं जिस दिन मानते हैं कि गंगा स्वर्ग से धरती पर अवतरित हुई थी। स्वर्ग क्षय के नियमों से परे है इसीलिए स्वर्ग से अवतरित मां गंगा की धारा को धरती में आने को अक्षय तृतीया कहा गया। अनवरत क्षय के सिद्धांत के सिवा और कुछ भी अक्षय नहीं है।
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