Wednesday, May 11, 2022

खुशियों का इंजन

दुनिया की रेल में
खुशियां जैसे बन गई हैं 
इंजन, दनदनाती हुई भाग रही है
सीटी बजाते हुए
और मैं पीछे हांफता सा दौड़ता
गार्ड के डिब्बे की तरह।

कितना भी तेज दौड़ लूं
दूरी वोही रहती है 
मेरे और खुशियों के बीच।
ज्यादातर वक्त गार्ड के डिब्बे को 
दिखता तक नहीं 
खुशियों का इंजन
कि आखिर दौड़ रहा हूं किनके पीछे? 
बस कभी कभी जिंदगी की रेल में
आता है कोई मोड़
जब धीमी हो जाती है
चाल रेलगाड़ी की,
तब गार्ड के डब्बे को
 दिख पाता है इंजन 
पहले से थोड़ा नजदीक।

लेकिन जानता हूं कि यह भी 
एक छलावा ही है
दूरी उतनी ही है मेरे 
और खुशियों के बीच
निकल जायेगा यह मोड़
और फिर ओझल हो जायेगा
खुशियों का इंजन।

हां अनवरत चलती रहेगी।
यह दौड़ पटरियों पर।
चाह कर भी नहीं रुक सकता
खुशियों का इंजन
 खींचता रहता है मुझे लगातार
और लाचार मैं भागता रहता हूं 
खुशियों के पीछे
इस यकीन के साथ 
मिल ही जाएगी खुशियां
कभी न कभी।

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