Friday, April 22, 2022

महंगाई डायन खाए जात है

वैसे तो मुद्रास्फीति और महंगाई अर्थशास्त्र विषय के अंतर्गत पढ़ाए जाने वाले विषय हैं लेकिन भारतीय और वैश्विक परिदृश्य में यह राजनीतिशास्त्र, समाज शास्त्र और मानवीय व्यवहार के अंतर्गत ज्यादा आता है। प्याज की महंगाई केवल किचन बजट पर असर नहीं डालती बल्कि सोशल मीडिया पर मीम्स की बाढ़ ला देती है और सरकार गिरा देने की ताकत रखती है। महंगाई जिसको हमारे गानों में डायन कह दिया गया है, तो यह तो पक्का कर दिया गया है कि 'डायन' का पक्ष सुनने को कोई तैयार नहीं है। हर कोई अपने साथ घटित हो रही अपशकुन को डायन पर डालने के लिए हाथ में पत्थर लिए खड़ा है। फिर भी कुछ सुधी जन तो ऐसे हैं ही जो डायन का पक्ष भी सुनने को तैयार हों।

साल 2020 से वैसे भी दुनिया में कुछ भी सामान्य रहा नहीं। यह एक असामान्य समय है जहां परंपरागत नियमों का अवमूल्यन तेजी से हुआ है। सतही तौर से देखें तो कोरोना महामारी से वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला बुरी तरह बाधित हुई और उसके सामान्य होने में अभी भी कुछ वक्त है। आपूर्ति की कमी को महामारी के पूर्व स्तर पर आने में वक्त तो लग ही रहा है लेकिन लॉक डाउन खुलने के बाद अर्थव्यवस्था में पेंट अप डिमांड या लंबित मांग के कारण मांग तेजी से बढ़ी है। लॉकडाउन के दौरान सरकारों द्वारा चाहिए गए खाद्य सुरक्षा उपायों के तहत करीब करीब अस्सी करोड़ लोगों को निशुल्क राशन मुहैया करवाया गया है। साथ ही साथ न्यूनतम मजदूरी गारंटी कानून के तहत आवंटित राशि में भी अभूतपूर्व विस्तार हुआ है। इन सब को मिलाकर देखें तो शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में एक तरफ जहां अतिरिक्त मुद्रा का प्रवाह हुआ है वहीं खाद्य मदों में व्यय कम हुआ है। इससे मुद्रास्फीति की स्थिति उत्पन्न हुई है। 

रही सही कसर अंतर्राष्ट्रीय कारकों ने पूरी कर दी है। पिछले कुछ समय से अंतर्राष्ट्रीय तेल बाजार में कच्चे तेल की कीमतें लगातार बढ़ी हैं और इसका प्रभाव हमारी अर्थव्यवस्था पर पड़ना स्वाभाविक है जो अपनी ऊर्जा आवश्यकतों का अधिकतम भाग आयातित तेल से प्राप्त करता है। 

जैसा कि हमने शुरू में ही कहा कि भारत के परिपेक्ष्य में जहां मुद्रास्फीति या महंगाई एक आर्थिक मुद्दे से ज्यादा एक राजनीतिक और भावनात्मक मुद्दा है, लोगों को इससे ज्यादा फर्क नहीं पड़ता कि वर्तमान महंगाई के कारक क्या है। अधिकतर जनता को महंगाई से राहत चाहिए वो भी फौरी रूप से। इतिहास को भी उठाकर देखें तो वर्ष 1971 में बांग्लादेश युद्ध के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमति इंदिरा गांधी दुर्गा की छवि वाली अपनी लोकप्रियता के चरम पर थीं। लेकिन युद्धोपरांत अर्थव्यवस्था में आई कमरतोड़ महंगाई ने प्रधानमंत्री की वो छवि भी तोड़ दी और उनके सत्ता से बेदखल होने का रास्ता खुल गया। यह भी सच है की मुद्रास्फीति का सबसे बुरा प्रभाव देश ने गरीब तबके पर पड़ता है इसीलिए लंबे समय तक महंगाई की ऊंची दर सामाजिक असंतोष को जन्म दे सकती है। मुद्रास्फीति को नियंत्रण में करना कई कारणों से भी अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाता है।
पारंपरिक तरीकों को देखें तो सरकारें और केंद्रीय बैंक मौद्रिक नीतियों , राजकोषीय नीतियों , सरकारी खर्च , कराधान, और प्रशासनिक उपायों द्वारा महंगाई को नियंत्रण करने के प्रयास करती हैं । लेकिन चूंकि कोरोना बाद उत्पन्न स्थितियां सदी में एक बार आने वाली स्थितियां हैं इसलिए सामान्यतः कारगर उपाय भी महंगाई को नियंत्रण करने में विफल रहे हैं। लेकिन यह भी सच है कि वर्तमान स्थितियों में महंगाई के कारकों में अधिकतर अस्थाई हैं और जैसे ही मांग और आपूर्ति का वैश्विक संतुलन स्थापित हो जायेगा, स्थितियां बेहतर होंगी। भारत के संदर्भ में हम इस समय का इंतजार करने के साथ साथ अपनी कमियों को दूर करने का प्रयास कर सकते हैं। आवश्यक है कि एक तरफ हम अपनी जान कल्याणकारी योजनाओं का सहारा बनाए रखें वहीं यह भी आवश्यक है कि इसकी गारंटी की जाय कि लाभ सिर्फ और केवल उचित लाभार्थियों को मिले। इसके लिए हमें लाभार्थी पहचान व्यवस्था को और दुरुस्त बनाने पर बल देना होगा। इसके दो फायदे होंगे । पहला गैरजरूरी सरकारी व्यय रुकेगा और खजाने पर बोझ कम होगा। दूसरा अवांछित लाभार्थियों के कारण अर्थव्यवस्था में आई अतिरिक्त मुद्रा प्रवाह थमेगा। यह मुद्रास्फीति को नियंत्रण करने में हमारी मदद करेगा।

अंतर्राष्ट्रीय कारकों के कारण उत्पन्न महंगाई के कारणों पर हमारा नियंत्रण कम ही होता है फिर भी हालिया रूस यूक्रेन युद्ध के समय हमने जो स्वतंत्र और स्वाहितों से प्रेरित विदेश नीति अपनाई है, हमने आपदा को अपने ऊपर हावी होने से रोका है। रूस से सस्ते तेल का आयात करने का फैसला करके हमने ना केवल अपनी संप्रभुता की रक्षा की है बल्कि अपनी अर्थव्यवस्था को अत्यंत जरूरी राहत दी है। आवश्यक है कि हम अपनी दीर्घकालिक नीतियों पर और बल दें। जीवाश्म ईंधनों पर अपनी निर्भरता कम करने के लिए इलेक्ट्रिक वाहनों का प्रयोग करना अब पहले भी कहीं ज्यादा आवश्यक हो गया है। 

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इसके अलावा देश में आंतरिक आपूर्ति श्रृंखला पर काम करके हम अनायास और अकारण आए कारकों को रोक सकते हैं। बीच बीच में कभी प्याज तो कभी टमाटर, कभी खाद्य तेल और अब नींबू की आसमान छूती कीमतें दिखाती हैं कि हमें भंडारण और आपूर्ति की दिशा में पड़े लंबित सुधारों की दिशा में त्वरित प्रयास करने होंगे। खुशी की बात यह है कि हम इन सभी दिशाओं में प्रयास कर रहे हैं। वर्ष 2020 और 2021 में जहां हमारा पूरा ध्यान जीवन और जीविका बचाने पर लगा रहा हम अर्थव्यवस्था के अन्य मुद्दों पर ज्यादा ध्यान नहीं दे पाए। सौभाग्य से जब हमने जीवन रक्षा की वो जंग करीब करीब जीत ली है , महंगाई के खिलाफ युद्ध करने के लिए हम आज कहीं बेहतर स्थिति में हैं। थोड़ा सा धैर्य और जिसको क्रिकेट की भाषा में कहते हैं ना कि "स्टिक टू द बेसिक्स", का योग ही हमें तूफान के पार ले जायेगा। इंग्लिश में कहावत है कि जीवन में जब सिर्फ नींबू मिलें तो शिकंजी बना लेनी चाहिए। लेकिन जीवन में जब नींबू तक महंगे मिलने लगें तो कुछ दिन शिकंजी की जगह सादा जल भी पी लेना चाहिए। यही धैर्य और अर्थनीति पटुता ने हमें कई बार संकट से उबारा है और यही हमारा संबल है।

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