Saturday, April 30, 2022

साहब की छुट्टी

सामने गार्डेन में माली दे रहा है पानी
सुबह से संवार रहा है गुलदाऊदी 
गुलाब और बेला की क्यारियों को
खुरपी से ढीली कर रहा है मिट्टी 
गेंदा हरसिंगार और अरहुल के गमलों की
बढ़ गई है दूब और थोड़ी जम गई है काई 
संवारना है उनको भी साहब के जगने से पहले।

अंदर किचन में कामवाली धो रही है बर्तन
कि आज कुछ ज्यादा ही हैं 
रात के जूठे बर्तन और जूठे गिलास
कल साहब के कई दोस्त आए थे
साहब की दावत पर।
और काम वाली की बारह साल की बेटी
झाड़ रही है धूल खिड़कियों से
और पोंछ रही है शीशे रोशनदान के।
और जल्दी जल्दी हाथ चला रहा है रसोइया
सुबह का इंग्लिश ब्रेकफास्ट बनाने के लिए
हाफ फ्राय एग टोस्ट और आधी उबली ब्रोकली
और उसके साथ लगाना है 
दूध का एक गिलास भरा
और साथ में सजा कर देना है 
रात में भिगोए बादाम
किशमिश और घी में भूने मखाने ।

बाहर लॉन में घर का पुराना नौकर
 लगा चुका है कुर्सियां और टेबल
करीने से रख रहा है आज का अखबार
और अपने कंधे पर रखे गमछे से 
चमका रहा है शीशे की तरह 
कुर्सी के हत्थे और टेबल की पायों को।

सारी तैयारियां हो चुकी हैं 
साहब के उठने से पहले
सारे नौकर हैं मुस्तैद 
कि साहब आज छुट्टी पर हैं।
भला नौकरों को क्या पता कि
आज छुट्टी है मजदूर दिवस की ।।



Thursday, April 28, 2022

हमें सभ्य बनाने वाले का स्मारक

भागलपुर शहर का सबसे व्यस्त चौराहा है तिलकामांझी चौक। वहां से गुजरते समय ट्रैफिक जाम में आपको कुछ न कुछ देर रुकना ही पड़ता है। व्यस्त चौराहे के बीच में ही तीर धनुष ताने जबरा पहाड़िया बाबा उर्फ तिलका मांझी की एक प्रतिमा लगी है। तिलका मांझी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के प्रथम शहीद माने जाते हैं जिन्हें वर्ष 1785 में ही अंग्रेजी कंपनी के खिलाफ विद्रोह करने के लिए सरेआम फांसी दे दी गई थी। आज जहां बाबा मांझी की प्रतिमा लगी है वहीं कभी एक बरगद का पेड़ था जिससे लटका कर बाबा तिलका मांझी को फांसी दी गई थी।

सामान्यता भागलपुर में आने जाने वाले लोगों को तिलका मांझी के बारे में इतना जरूर पता होता है कि वो कोई स्वतंत्रता सेनानी थे। आप तिलका मांझी चौक से थोड़ा कचहरी की तरफ तो बांए तरफ आपको एक शिला तोरण द्वार दिखेगा जिस पर लिखा है क्लीवलैंड मेमोरियल। अंदर सफेद पत्थर से बना एक स्मारक है जिसे क्लीवलैंड मेमोरियल कहते हैं। शायद आपका ध्यान भी न जाए तो आपकी गलती नहीं है। लेकिन तिलका मांझी और इस क्लीवलैंड मेमोरियल में गहरा संबंध है। क्लीवलैंड मेमोरियल एक ब्रिटिश अधिकारी अगस्तास क्लीवलैंड की याद में ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा बनाया गया। अगस्तास क्लीवलैंड भागलपुर, मुंगेर और राजमहल जिलों का कलक्टर था।वर्ष 1770 में आए अकाल के दौरान भी कर उगाही और लगान वसूली में क्लीवलैंड के द्वारा काफी सख्ती बरती गई। इसका सबसे बुरा प्रभाव पहाड़िया जनजातियों पर पड़ा। इसके खिलाफ ही जबरा पहाड़िया बाबा के नेतृत्व में एक सशस्त्र विद्रोह हुआ। बाबा ने कंपनी के अत्याचारों का बदला लेने के लिए ही कलेक्टर क्लीवलैंड पर तीर और गुलेल से हमला किया। कहा जाता है कि बाबा की जहरीली गुलेल से घायल होकर ही क्लीवलैंड की मौत हुई। इसके बाद कंपनी के एक स्पेशल टास्क फोर्स बनाया, तिलका मांझी को पकड़ने के लिए। बाबा करीब साल भर बाद पकड़े गए और कंपनी द्वारा एक क्रूर बर्बर तरीके से मृत्यु के घाट उतार दिए गए।ईस्ट इंडिया कंपनी ने क्लीवलैंड की याद में दो स्मारक बनाए। एक कोलकाता में और दूसरा भागलपुर में। जिस जगह पर बाबा तिलका मांझी को फांसी दी गई उससे चंद कदम दूर पर ही। 

क्लीवलैंड को कोलकाता के पार्क स्ट्रीट कब्रगाह में दफनाया गया और उसकी कब्र पर अंग्रेजी में लिखा है " He civilized a Savage Race of Mountaineers who for Ages had existed in a state of Barbarism And eluded every Exertion that had been practised against them To Suppress their Depredations, and reduce them to obedience. "

एक विडंबना ही देखिए कि जिस अधिकारी को पहाड़ी जनजातियों को "सभ्य" बनाने और "आज्ञाकारी" बनाने के लिए महिमामंडित किया गया है, उसी की सरकार ने तिलका मांझी को चार घोड़े की टांग में बांध कर राजमहल से भागलपुर तक घसीटा और फिर सरेआम फांसी देने का "सभ्य तरीका" अपनाया। 

कभी कभी सोचता हूं कि इन विडंबनाओं के सम्मिश्रित इतिहास का क्या किया जा सकता है। तिलका मांझी और क्लीवलैंड दोनो हमारे इतिहास का हिस्सा हैं। किसी को भुला देना या मिटा देना समाधान नहीं है। हां ,लेकिन क्या क्लीवलैंड मेमोरियल के बाहर यह लिखा जाना चाहिए कि बाबा और उनके समाज पर क्लीवलैंड ने क्या जुल्म ढाए थे। पूरा सच सबको पता चलना ही चाहिए। इतिहास के पुनर्लेखन की नहीं तो कम से कम पुनर्विवेचन की आवश्यकता तो बनती ही है। जब तक ऐसा नहीं होगा बाबा तिलका मांझी की प्रतिमा एक चौराहे पर खड़े धूल फांकती रहेगी और उसी से कुछ दूर पर क्लीवलैंड स्मारक हम लोगों को सभ्य बनाने का दंभ भरता रहेगा। 

Wednesday, April 27, 2022

ज्ञान ना बांट पाने की समस्या

भारत में ज्ञान बांटने का काम सदैव बेरोकटोक चलता रहा है। आप चाय की टपरी पर बैठ जाएं, आपको रूस यूक्रेन की समस्या का कारण, परिणाम, भविष्य सबका सटीक विवेचन मिल जाएगा। रेलवे में स्लीपर क्लास में आधे घंटे में आगामी गुजरात चुनाव, हिमाचल चुनाव, 2024 चुनाव यहां तक कि 2029 चुनाव परिणाम का आकलन, राज्यवार स्थिति, जातिगत समीकरण सब जानकारी प्राप्त हो जायेगी। किसी स्पोर्ट्स बार में बैठ जाएं आपको पता चल जायेगा कि कोहली की बैटिंग में क्या समस्या चल रही है और धोनी के रहने के बावजूद रैना को सीएसके ने क्यों नहीं खरीदा। बुमराह पंत यहां तक कि अर्जुन तेंदुलकर का कैरियर किधर जायेगा,सब पता चल जायेगा।

आप जीवन के गूढ़ प्रश्नों को लेकर परेशान हैं , जीवन मृत्यु पाप पुण्य इहलोक परलोक सबके जवाब गोवा वाले बीच पर तीन पैग डाउन के बाद आपके अपने दोस्तों से ही मिल जायेगा। किस लड़की को आपके जीवन में होना चाहिए था लेकिन आपने उसको कहने में विलंब किया आपसे ज्यादा आपके दोस्त लोग बताएंगे। सिर्फ बताएंगे ही नहीं आपके फोन में स्टोर किए हुए हर क्रश, एक्स, क्रश बट बिच, एक्स बिच, फैंटेसी को रात दो बजे फोन भी कर देंगे।

लोब्बोलुआब यह कि भारत ऐसे ही विश्व गुरु नहीं बना। ज्ञान बांटना यहां शगल नहीं धर्म माना जाता है। और भारतीय कितने धार्मिक प्रवृत्ति के हैं, यह बात किसी से छुपी नहीं है।  जिसको जब मौका मिलता है आपको ज्ञान बांट के निकल लेता है। पूर्ण निस्वार्थ भाव से। भारतीय सिर्फ ज्ञान देना जानते हैं, ज्ञान लेना तो स्वार्थ का कार्य है। लेकिन बहुधा ज्ञान बांटने वाला इतना ज्यादा ज्ञान दे जाता है कि संभालना मुश्किल हो जाता है। कभी कभी तो आप इतना ज्यादा ज्ञान मुफ्त में  पा लेते हैं कि इसको पचाना मुश्किल हो जाता है। फिर शुरू होती है ज्ञान की अपच और ज्ञान आगे बांट ना पाने के कारण ज्ञान जनित कब्ज। ऐसी कब्ज कि कोई ज्ञानम चूर्ण या ज्ञान सफा आपकी कब्ज दूर नहीं कर पाता। इसके लिए आवश्यक है कि आप सिर्फ ज्ञान लें नहीं दें भी।

 समस्या सिर्फ ज्ञान लेने वालों की नहीं है,अगर आप सिर्फ ज्ञान बांटने वालों में से हैं तो समस्या और भी कठिन है। पीठ पीछे लोग आपको ज्ञानडू तक कहने लगते हैं। और धीरे धीरे आपको दरकिनार करने लगते हैं, फिर नियमित रूप से ज्ञान उत्सर्जन ना कर पाने के कारण धीरे धीरे आप ज्ञान जनित कब्ज के चंगुल में फंसते जाते हैं।

तो अगर आपको मुफ्त में प्राप्त ज्ञान के एक्स्ट्रा बोझ से बचना है और ज्ञानडू भी आप कहलाना नहीं चाहते तो एक उपाय है। ज्ञान सहकारिता कॉन्ट्रैक्ट। उपाय है सरल किंतु अत्यंत प्रभावी। करना यह है कि आप किसी को पकड़ो कि भाई मैं अपना ज्ञान तुमको दूंगा और बदले में तुम अपना ज्ञान मुझे देना। इस तरह ज्ञान न बांट पाने की कब्ज से तुम भी बच जाओगे और मैं भी। हम ज्ञान बांट भी लेंगे और ज्ञानडू जैसे विशेषणों से बच जाएंगे। यह ज्ञान सहकारिता कॉन्ट्रैक्ट या नॉलेज शेयरिंग कॉन्ट्रैक्ट एक तरह से ज्ञान के लिए सप्लाई चेन मैनेजमेंट की तरह है। आप चाहें तो ज्ञान बांटने के लिए नेटवर्क मार्केटिंग वाले मॉडल का इस्तेमाल कर सकते हैं। कि मैंने तीन लोगों को ज्ञान बांटा तुम आगे तीन लोगों को बांटो। इस तरह से ज्ञान फैलता भी जायेगा और हमेशा ज्ञान देने और लेने वालों के बीच का संतुलन बना रहेगा और भारत को पुनः विश्व गुरु बनाने का यज्ञ अबाधित चलता रहेगा। 

तो आप किस से नॉलेज शेयरिंग कॉन्ट्रैक्ट करने वाले हैं ??

Saturday, April 23, 2022

पन्नों के बीच का सूखा गुलाब

पुरानी अलमारी में पड़ी आज एक किताब
के पन्नो के बीच मिला सहेज कर
 रखा एक सूखा फूल गुलाब का।
जो गिर गया था तुम्हारे जूड़े से 
लाइब्रेरी की कतार में
और मैंने रख लिया था उसको सहेज कर 
अपनी किताब छुपा पन्नों के दरम्यान।

याद है किताबों में उलझी तुम बैठी तुम
और बगल वाली बेंच पर बैठा मैं।
निहारता तुमको किताबों की ओट से  
आस पास किताबों की भरी आलमारियां 
लेकिन मुझे पढ़नी थी तुम्हारे दिल की किताब।

जो चंद पन्ने पढ़े थे तुम्हारे मैंने चोरी छुप के
लगा जैसे मिल गए हों 
मेरी किताब के चंद फटे पन्ने 
और पूरी हो गई हो मेरी जिंदगी की किताब
चाहता था तुम्हारी मुस्कुराहट की जिल्द 
अपनी जिंदगी की किताब पर ।
लेकिन तुम्हारी नज़र कभी हटी ही नहीं
किताबों से और मेरी तुमसे।

आज भी यह सूखा बदरंग फूल
झांकता किताबों के बीच से
जैसे भर गया हो वापस से 
सारे रंग मेरी जिंदगी में।

और किताब के पन्नों में 
सिमटी इसकी खुशबू
 ले गई है वापस मुझे लाइब्रेरी की कतार में
जहां खड़ा मैं तुम्हारे पीछे
और तुम उलझी किताबों में।

जमाना बदल जाता है
किताबें नहीं बदलती
संजो कर रखती है सब कुछ
और याद दिलाती हैं बीच बीच में
वो सब कुछ।
नहीं जानता मैं कि क्या है यह सब 
लेकिन ए किताब, तुम तो जरूर जानती होगी
इन सब का मतलब।

कभी वो पन्ना भी दिखा जहां लिखा हो
किताबों में कि मुकम्मल इश्क क्या है?
सूखे फूल रखने वाली किताब है 
इश्क की किताब
या कि बस इश्क हो गया है अब इस किताब से
या कि हर पन्ने पर नई इबारत छुपा कर
रखी किताब को ही कहते हैं जिंदगी।

जो भी हो, वापस बंद कर रहा हूं
किताब को और हल्के से चूम कर
 इस सूखे फूल को।
संभाल के रखना इसे मेरी अमानत की तरह
ताकि अगली बार मुझे ऐसे भी मिले 
मेरा छुपा सा गुमनाम इश्क।

गर हो सके तो दिखाना अगली बार 
वो पन्ना मेरी किताब
जहां लिखा हो कि क्या होता है 
वो मुकम्मल इश्क ।

और कैसे अलग है
वो किताबों के पन्नों में छुपे 
महबूब के जूड़े से गिरे गुलाब से। 








Friday, April 22, 2022

महंगाई डायन खाए जात है

वैसे तो मुद्रास्फीति और महंगाई अर्थशास्त्र विषय के अंतर्गत पढ़ाए जाने वाले विषय हैं लेकिन भारतीय और वैश्विक परिदृश्य में यह राजनीतिशास्त्र, समाज शास्त्र और मानवीय व्यवहार के अंतर्गत ज्यादा आता है। प्याज की महंगाई केवल किचन बजट पर असर नहीं डालती बल्कि सोशल मीडिया पर मीम्स की बाढ़ ला देती है और सरकार गिरा देने की ताकत रखती है। महंगाई जिसको हमारे गानों में डायन कह दिया गया है, तो यह तो पक्का कर दिया गया है कि 'डायन' का पक्ष सुनने को कोई तैयार नहीं है। हर कोई अपने साथ घटित हो रही अपशकुन को डायन पर डालने के लिए हाथ में पत्थर लिए खड़ा है। फिर भी कुछ सुधी जन तो ऐसे हैं ही जो डायन का पक्ष भी सुनने को तैयार हों।

साल 2020 से वैसे भी दुनिया में कुछ भी सामान्य रहा नहीं। यह एक असामान्य समय है जहां परंपरागत नियमों का अवमूल्यन तेजी से हुआ है। सतही तौर से देखें तो कोरोना महामारी से वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला बुरी तरह बाधित हुई और उसके सामान्य होने में अभी भी कुछ वक्त है। आपूर्ति की कमी को महामारी के पूर्व स्तर पर आने में वक्त तो लग ही रहा है लेकिन लॉक डाउन खुलने के बाद अर्थव्यवस्था में पेंट अप डिमांड या लंबित मांग के कारण मांग तेजी से बढ़ी है। लॉकडाउन के दौरान सरकारों द्वारा चाहिए गए खाद्य सुरक्षा उपायों के तहत करीब करीब अस्सी करोड़ लोगों को निशुल्क राशन मुहैया करवाया गया है। साथ ही साथ न्यूनतम मजदूरी गारंटी कानून के तहत आवंटित राशि में भी अभूतपूर्व विस्तार हुआ है। इन सब को मिलाकर देखें तो शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में एक तरफ जहां अतिरिक्त मुद्रा का प्रवाह हुआ है वहीं खाद्य मदों में व्यय कम हुआ है। इससे मुद्रास्फीति की स्थिति उत्पन्न हुई है। 

रही सही कसर अंतर्राष्ट्रीय कारकों ने पूरी कर दी है। पिछले कुछ समय से अंतर्राष्ट्रीय तेल बाजार में कच्चे तेल की कीमतें लगातार बढ़ी हैं और इसका प्रभाव हमारी अर्थव्यवस्था पर पड़ना स्वाभाविक है जो अपनी ऊर्जा आवश्यकतों का अधिकतम भाग आयातित तेल से प्राप्त करता है। 

जैसा कि हमने शुरू में ही कहा कि भारत के परिपेक्ष्य में जहां मुद्रास्फीति या महंगाई एक आर्थिक मुद्दे से ज्यादा एक राजनीतिक और भावनात्मक मुद्दा है, लोगों को इससे ज्यादा फर्क नहीं पड़ता कि वर्तमान महंगाई के कारक क्या है। अधिकतर जनता को महंगाई से राहत चाहिए वो भी फौरी रूप से। इतिहास को भी उठाकर देखें तो वर्ष 1971 में बांग्लादेश युद्ध के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमति इंदिरा गांधी दुर्गा की छवि वाली अपनी लोकप्रियता के चरम पर थीं। लेकिन युद्धोपरांत अर्थव्यवस्था में आई कमरतोड़ महंगाई ने प्रधानमंत्री की वो छवि भी तोड़ दी और उनके सत्ता से बेदखल होने का रास्ता खुल गया। यह भी सच है की मुद्रास्फीति का सबसे बुरा प्रभाव देश ने गरीब तबके पर पड़ता है इसीलिए लंबे समय तक महंगाई की ऊंची दर सामाजिक असंतोष को जन्म दे सकती है। मुद्रास्फीति को नियंत्रण में करना कई कारणों से भी अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाता है।
पारंपरिक तरीकों को देखें तो सरकारें और केंद्रीय बैंक मौद्रिक नीतियों , राजकोषीय नीतियों , सरकारी खर्च , कराधान, और प्रशासनिक उपायों द्वारा महंगाई को नियंत्रण करने के प्रयास करती हैं । लेकिन चूंकि कोरोना बाद उत्पन्न स्थितियां सदी में एक बार आने वाली स्थितियां हैं इसलिए सामान्यतः कारगर उपाय भी महंगाई को नियंत्रण करने में विफल रहे हैं। लेकिन यह भी सच है कि वर्तमान स्थितियों में महंगाई के कारकों में अधिकतर अस्थाई हैं और जैसे ही मांग और आपूर्ति का वैश्विक संतुलन स्थापित हो जायेगा, स्थितियां बेहतर होंगी। भारत के संदर्भ में हम इस समय का इंतजार करने के साथ साथ अपनी कमियों को दूर करने का प्रयास कर सकते हैं। आवश्यक है कि एक तरफ हम अपनी जान कल्याणकारी योजनाओं का सहारा बनाए रखें वहीं यह भी आवश्यक है कि इसकी गारंटी की जाय कि लाभ सिर्फ और केवल उचित लाभार्थियों को मिले। इसके लिए हमें लाभार्थी पहचान व्यवस्था को और दुरुस्त बनाने पर बल देना होगा। इसके दो फायदे होंगे । पहला गैरजरूरी सरकारी व्यय रुकेगा और खजाने पर बोझ कम होगा। दूसरा अवांछित लाभार्थियों के कारण अर्थव्यवस्था में आई अतिरिक्त मुद्रा प्रवाह थमेगा। यह मुद्रास्फीति को नियंत्रण करने में हमारी मदद करेगा।

अंतर्राष्ट्रीय कारकों के कारण उत्पन्न महंगाई के कारणों पर हमारा नियंत्रण कम ही होता है फिर भी हालिया रूस यूक्रेन युद्ध के समय हमने जो स्वतंत्र और स्वाहितों से प्रेरित विदेश नीति अपनाई है, हमने आपदा को अपने ऊपर हावी होने से रोका है। रूस से सस्ते तेल का आयात करने का फैसला करके हमने ना केवल अपनी संप्रभुता की रक्षा की है बल्कि अपनी अर्थव्यवस्था को अत्यंत जरूरी राहत दी है। आवश्यक है कि हम अपनी दीर्घकालिक नीतियों पर और बल दें। जीवाश्म ईंधनों पर अपनी निर्भरता कम करने के लिए इलेक्ट्रिक वाहनों का प्रयोग करना अब पहले भी कहीं ज्यादा आवश्यक हो गया है। 

http://m.rashtriyasahara.com/imageview_18474_124530196_4_9_23-04-2022_4_i_1_sf.html

इसके अलावा देश में आंतरिक आपूर्ति श्रृंखला पर काम करके हम अनायास और अकारण आए कारकों को रोक सकते हैं। बीच बीच में कभी प्याज तो कभी टमाटर, कभी खाद्य तेल और अब नींबू की आसमान छूती कीमतें दिखाती हैं कि हमें भंडारण और आपूर्ति की दिशा में पड़े लंबित सुधारों की दिशा में त्वरित प्रयास करने होंगे। खुशी की बात यह है कि हम इन सभी दिशाओं में प्रयास कर रहे हैं। वर्ष 2020 और 2021 में जहां हमारा पूरा ध्यान जीवन और जीविका बचाने पर लगा रहा हम अर्थव्यवस्था के अन्य मुद्दों पर ज्यादा ध्यान नहीं दे पाए। सौभाग्य से जब हमने जीवन रक्षा की वो जंग करीब करीब जीत ली है , महंगाई के खिलाफ युद्ध करने के लिए हम आज कहीं बेहतर स्थिति में हैं। थोड़ा सा धैर्य और जिसको क्रिकेट की भाषा में कहते हैं ना कि "स्टिक टू द बेसिक्स", का योग ही हमें तूफान के पार ले जायेगा। इंग्लिश में कहावत है कि जीवन में जब सिर्फ नींबू मिलें तो शिकंजी बना लेनी चाहिए। लेकिन जीवन में जब नींबू तक महंगे मिलने लगें तो कुछ दिन शिकंजी की जगह सादा जल भी पी लेना चाहिए। यही धैर्य और अर्थनीति पटुता ने हमें कई बार संकट से उबारा है और यही हमारा संबल है।

बेटी का बाप

अपनी निधि खोने के बाद
 उसे बिलखते देखा है।

रोते हुए उसको अपने सालों सहेजे 
खजाने को सौपते देखा है।

जश्न मनाती दुनिया के बीच खड़े अपने
कलेजे के टुकड़े को दूर जाते देखा है।

कंधे पर बिठाया गोद में उठाया जिसे
अपनी परी को दूर देश उड़ जाते देखा है।

पलकों पर बिठाया जिसको
उसको पलों में दूर जाते देखा है।

भरे अपनी आखों में आंसू अपनी घर की लक्ष्मी से
किसी पराए का घर बस जाते देखा है।

फूल सी अपनी बच्ची को 
दुल्हन के जोड़े में सजते देखा है।

निभाकर क्रूर रीति दुनिया की 
फूट फूट कर रोते देखा है।

कई रातों से जागी थकी आखों को बेटी विदा कर आखिरकार बेटी के बाप को सोते देखा है।

हम सबने सुना है दुल्हन का क्रंदन
क्या पिता का धर्म निभाते 
कभी बाप का हाल देखा है? 


Monday, April 11, 2022

सौभाग्य का शहर भागलपुर

अनङ्ग इति विख्यातस्तदाप्रभृति राघव।
स चाङ्गविषयश्श्रीमान्यत्राङ्गं प्रमुमोच ह।
वाल्मीकि रामायण के उक्त श्लोक में अंग प्रदेश का वर्णन उस सुंदर भूभाग के रूप में वर्णित है जहां महादेव की तीसरी आंख से भस्म होने के बाद कामदेव के अंग बिखर गए थे। वर्तमान भागलपुर की मिट्टी में ही कामदेव के अंश हैं। प्राचीन भारत से लें तो मगध सम्राट बिन्दुसार की पत्नी शुभाद्रंगी अंग महाजनपद की राजधानी चंपा की थी। बिन्दुसार और शुभाद्रंगी के पुत्र महान अशोक को कौन नहीं जानता। तो इस प्रकार वर्तमान भागलपुर सम्राट अशोक की ननिहाल है। यह एक संयोग ही है कि दूसरे प्रसिद्ध अशोक , हमारे दादामुनी अशोक कुमार का जन्म भी भागलपुर में हुआ था। 

भागलपुर सिर्फ महान हस्तियों की जन्मभूमि नहीं रहा है, महान समाज सुधारक , आधुनिक भारत के पिता राजा राम मोहन राय भागलपुर समाहरणालय में कार्यालय अधीक्षक के रूप में कार्यरत थे। देवदास, पारो और चंद्रमुखी की असफल किंतु महान प्रेमकथा रचने वाले शरत चंद्र चट्टोपाध्याय ने देवदास की रचना भागलपुर में ही की थी क्योंकि यहां पर उनका अधिकतर बचपन अपने मामा के यहां गुजरा था। यह वोही देवदास उपन्यास है जिसपर 20 से ज्यादा बार फिल्म बन चुकी है। कुंदन लाल सहगल से लेकर दिलीप साब , शाहरुख और अभय देओल की देव डी के देवदास का चरित्र भागलपुर में ही लिखा गया।

देवदास की क्यों, फिल्म गंगाजल का काल्पनिक शहर शिकारपुर वास्तव में भागलपुर ही है। फिल्म का एक चरित्र ऐसे ही नहीं कहता कि शिकारपुर को इतना भी बैकवर्ड मत समझिए!! बैकवर्ड होने की कोई बात ही नहीं है, भारत की शायद सबसे सम्मानित फिल्म पाथेर पांचाली जिस उपन्यास पाथेर पांचाली पर आधारित है उसकी रचना भी विभूति भूषण बंद्यपाध्याय ने उस समय की थी जब वे भागलपुर एस्टेट में सहायक प्रबंधक के रूप में कार्यरत थे। 
करतनी चावल, कतरनी चूड़ा , जर्दालू आम ,भागलपुरी सिल्क, विक्रमशिला भग्नावशेष, मंदार हिल्स, जनजातीय गौरव और कला, कहलगांव के पाल कालीन मंदिर ऐसे अनगिनत पहलू हैं जिनपर भागलपुर के लिए लंबे लंबे आख्यान दिए जा सकते हैं। लेकिन वो सब फिर कभी!! लेकिन अंगराज कर्ण की भांति भागलपुर भी उनके दुर्भाग्य का दंश ढो रही है कि सर्वगुण संपन्न होने के बावजूद ना कभी अंगराज को उनका यथोचित स्थान मिला । भागलपुर अपने गौरव शाली इतिहास और संभाव्य भविष्य के बीच वर्तमान में संघर्ष करता दिख रहा है। भागलपुर नाम भाग्यद्दत्त पुरम का अपभ्रंश है जिसका अर्थ है सौभाग्य का शहर। वर्तमान भागलपुर अपने नाम की तरह विडंबना की एक जीवंत मिसाल भर है। 


Saturday, April 9, 2022

when special things feel mundane and boring

You get up in the morning.. feel hungry.. take breakfast.. you go to work.. have lunch.. catch a little siesta.. resume work.. come back home in the evening.. watch some TV.. take dinner.. feel sleepy and go to bed.. next morning, wake up again!! 

 

If you are healthy, this might sound like a mundane, boring description of life, and you may say, "Abe yeh bhi koi life hai!" 

 

Now visit a hospital, look around, and you will feel that your life is nothing but a miracle and a blessing. You will meet people who are willing to spend millions to get a life you consider mundane and boring, yet many people don't get that. The same

situation exists with democracy. You vote, you elect a government, and that government completes its term. Elections are held at their due time, elections happen on time, and a smooth power transfer happens. This might sound like a mundane thing in India, but looking at our neighbourhood and the world at large, it seems like a rarity. A blessing we may not recognise until we see what other countries are going through.Pakistan, Sri Lanka, Myanmar, Iran, Russia, and even the United States will make you realise how unique our democracy is, despite how mundane and imperfect it may appear at times. We Indians have democracy ingrained in us as a virtue, and it is not only a system of administration for us. Don't let anyone make you believe otherwise. Lest we forget.

 

In case you got bored of this preachy style paragraph, do see the comedy cum farce taking place in Pakistan in the name of democracy. It is not a standalone episode but a long running sitcom that started airing on 14 Aug 1947. 


सोना उगलती धरती

पीली पीली सरसों से भरे खेत जहां वसंत के आगमन और भविष्य में होने वाली फसल की आशा से किसान का मन भरता है तो वहीं पकी गेहूं की फसल वाले सुनहले कालीन का मतलब है कि तपस्या पूर्ण हो गई है।


किसान के ललाट पर पसीने के चमकीले हीरे से सींचे जाने से लेकर हरी बालियों के झूमते सौंदर्य और फिर जड़ से तने और फुनगी तक एकाश्म सुनहरा रंग प्राप्त करने तक का सफर गेंहू करीब करीब तय कर चुका है।  


पकी गेंहू की फसल वाले खेत का सौंदर्य सिर्फ किसान के मन को उल्लासित नहीं करता। छोटी छोटी चिड़िया को पके दानों को अपने चोंच में भर भर कर ले जाते देख ऐसा लगता है किसी बच्चे को खिलौने की एक अकूत निधि मिल गई है और वो अपने नन्हे नन्हे हाथों से एक एक खिलौना उठा उठा कर के जा रहा हो। और साथ में उसकी प्रसन्नता का उद्घोष बीच बीच में अनायास ही उठ रही किलकारी कर रही हो। रात में खेत के पास से गुजारिए तो झींगुर का शोर शोर सुनाई पड़ता है । लाजिमी है कि एक स्वर्ण भंडार की सुरक्षा का भार झींगुर सेना ने उठा रखा है जो खेत के चारों तरफ से जागते रहो जागते रहो वाली आवाजें निकालते रहते हैं। बीच बीच में चूहों के बिल दिखेंगे जिसने लिए भी नवान्न उत्सव पूरे जोरों पर है। आखिर वे भी प्रकृति की उतने ही प्रिय संतान हैं और गणपति का भार उठाने का पारिश्रमिक उनका भी बनता है। 


अपने कंधों के बल पर हल खींचने वाले बैल भी अपने लिए चोकर और भूसे की नई आमद देख प्रसन्न हो उठते हैं। समस्त गऊ वंश बारिश के मौसम में चारागाह डूब जाने की स्थिति में गेंहू के भूसे पर ही गुजारा करता है। यह स्वर्ण भंडार उनके लिए भी एक सुखद भविष्य का एक आश्वासन है। दूर से गुजरती रेलगाड़ी के डब्बे में परदेश कमाने जा रहे हर पथिक रास्ते के की पूरी और लिट्टी भी इन्ही कांचन कोश से आएगा।


यही खेतों में पसरा सोना आगे चल कर दो जून की रोटी बनेगा तो ठाकुरबाड़ी का छप्पन भोग का हलवा भी यहीं से आएगा। ईद की सेवई भी यहीं से आयेगी और लंगर भी इन्ही से छका जायेगा। यह प्रकृति का सबसे सुखद रूप है, अगर यह देख कर भी कोई ईश्वर को नकारता है या प्रकृति से परे भी किसी अन्य सत्ता का कृतज्ञ बनता है तो उससे बड़ा मूर्ख कोई नही । और हां , मेरे देश की धरती सोना उगले वाले गाने में कोई अतिशयोक्ति अलंकार नहीं है, वो पूर्ण यथार्थ है। 

Friday, April 8, 2022

RRR has a distant cousin in Django

Quentin Tarantino is undoubtedly a path breaking film director and, needless to say, a favourite among many, including yours truly. Having given films like Pulp Fiction, Reservoir Dogs, and Jackie Brown, Tarantino's best box office results came from movie Django Unchained. A movie based on slavery and featuring a protagonist fighting a dramatic, stylized, superhuman-style fight to save a woman trapped among white aggressors. Django Unchained might claim to be a tribute to black people by Quentin, it was certainly not the  best movie to be made about slavery. Twelve years a slave, released in the same year, was a much better take on slavery. At best, Django Unchained was a masala mass entertainer, having some highly processed themes of slavery.

 

Like Quentin, SS Rajamouli is a great filmmaker already at the age of 47, poised to become even greater and take Indian cinema to unconquered heights for sure. His latest offering, RRR is breaking all box office records and is the best Rajamouli movie at the box office. While watching RRR last night, reminded me of many things, obvious Ramayana reference in the main protagonist, Hanuman taking a ring to Sita, burning of Lanka, the putting fire on Hanuman Tail, it it also reminded me of Django Unchained.

Similar to Django, here the hero does unimaginable, almost impractical, stylised, whistle worthy stunts and gets the captive out of the aggressors' reach. He also destroys the whole abode of aggressors and does it with almost ho harm done to them. There are many similarities in events and screenplay. Even the method of punishment to the captive, which is to keep the captive in an underground cell as a solitary confinement, is the same in Django and RRR. Both movies are set against the backdrop of imperialistic British empires whose atrocities are shown without any filter or censor. Both films have heros who are exceptionally good with guns and hit targets with bullets flawlessly. There are two main protagonists who fight in tandem. And both are either completely fictional or fictitious to the max.

 

 RRR is as far from our freedom struggle as Django was from the real slavery battles. However, both are mass entertainers and box office blockbusters, but certainly not the best movies from their maverick directors aka Tarantino and Rajamouli. Having said that I would remind you that RRR is a great movie but you should watch it on a big screen to enjoy it fully. However it is certainly not the best from the house of Rajamouli.
About the similarity in plots and their similarity with epic Ramayana may be due to the fact that Ramayana and and Mahabharata are such perfect stories that it is almost impossible to avoid it's effect while any one wrote his or her story. May be Tarantino has also read Ramayana before writing Django Unchained as the effects are quite visible. 

Wednesday, April 6, 2022

फिल्मों की लत छुड़ाने का राम बाण इलाज

(कृपया नीचे लिखे गद्य को "टुम क्या कर्ता हाय" वाले अंदाज में ब्राउनी प्रासर और टॉम अल्टर की तरह पढ़ें)

हल्लो दोस्तों, मेरा नाम पीटर है, पीटर गोम्स। पहले मैं बहुत परेशान था। मुझे फिल्में देखने का नशा सा हो गया था। मैं अपनी पढ़ाई छोड़ कर फिल्में देखने चला जाता था। मां की दवाई के पैसे चुरा कर मैं मैटिनी शो देखने और बाप का चश्मा बेचकर नाइट शो देखने चला जाता था। मेरे दोस्त मुझे कन्नी काटते थे। मैं काफी काफी और बेहद परेशान हो गया था। फिर मेरे दोस्त हलकट पिंटो ने मुझे मेला फिल्म के बारे में बताया।

उनसे मुझे कहा कि फिल्मों की लत छुड़ाने का एक ही उपाय है, ट्विंकल खन्ना की फिल्म मेला देखना। ऐसी कहानी ऐसा अभिनय देखने के बाद कोई भी फिल्म देखने की इच्छा नहीं बचती और फिल्म देखने की लत अपने आप छूट जाती है।

फिर उसके बाद मैने हलकट पिंटो से दस रुपए उधार लिए और पटना के रूपक सिनेमा में मेला फिल्म देखने चला गया। तीन घंटे बाद जब मैं रूपक से बाहर निकला तो मेरी लत हमेशा हमेशा के लिए छूट चुकी थी। आप यकीन नहीं करेंगे, रूपक सिनेमा से निकल कर मैं सीधा खुदाबक्श ओरिएंटल लाइब्रेरी गया और तीन दिन तक लगातार बस पढ़ता ही रहा। इस फिल्म में विशेषज्ञों ने ऐसे ऐसे सीन डाले हैं जिनको देखने ने बाद ब्रेन के वे हिस्से पूरी तरह नष्ट हो जाते हैं जो आपको फिल्म या वेब सीरीज देखने और उनको एंजॉय करने के लिए प्रेरित करते है। यह फिल्म ' कांती शाह इंस्टीट्यूट ऑफ लेजेंडरी फिल्म्स' द्वारा गुणवत्ता प्रमाणित है। 

अगर आप या आपके बच्चे भी नेटफ्लिक्स , प्राइम पर दिन रात फिल्म और वेब सीरीज देखने के आदी हो चुके हैं तो आप भी एक बार मेला फिल्म जरूर देखें और अपने बच्चों को जरूर दिखाएं। यह  आपके फिल्म देखने के नशे का शर्तिया इलाज है, बिलकुल कुदरती तरीके से, बिना चीड़ फाड़ के।

अच्छा तो दोस्तों अब मैं चलता हूं, लाइब्रेरी खुलने के वक्त हो गया है और आज से मैं अफ्रीका के आदिम जनजातियों की भाषा के बारे में पढ़ कर यह जानने के कोशिश कर रहा हूं कि तारक मेहता का उल्टा चश्मा पसंद करते वाले दर्शक कहीं अभी तक मानसिक स्तर से आदिम जनजातियों के स्तर पर तो नहीं हैं।

फिलहाल आप मेला जैसे सोने की खदान से निकला एक नगमा देखिए, और अपने दोस्त पीटर गोम्स की अलविदा स्वीकार करिए। आपका दिन शुभ हो।

https://youtube.com/clip/Ugkx88zyQua-mskvyuzVe7VGKz3ub7_fHSM9